यादों के झरोखे से: जब देव आनंद की वजह से शम्मी कपूर बने रॉकी

फ़िल्मों में अक़्सर ये होता रहता है कि निर्माता निर्देशक फ़िल्म किसी कलाकार को लेकर शुरू करते हैं लेक़िन फ़िर किन्हीं कारणों से बात नहीं बनती। फ़िर नये कलाकार के साथ काम शुरू होता है। पिछले हफ़्ते रिलीज़ हुई \’सरदार उधम\’ भी ऐसी ही एक फ़िल्म थी। निर्देशक शूजीत सरकार ने फ़िल्म की कल्पना तो इऱफान ख़ान के साथ करी थी लेक़िन उनकी बीमारी औऱ बाद में असामयिक निधन के बाद विक्की कौशल के हिस्से में ये फ़िल्म आयी। फ़िल्म है बहुत ही शानदार। अगर नहीं देखी है तो समय निकाल कर देखियेगा।

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हम आतें हैं इस पोस्ट पर वापस। यादों के झरोखों से आज देख रहें हैं हिंदी फ़िल्म जगत की एक ऐसी फ़िल्म जिसने सिनेमा का रंगढंग औऱ संगीत-नृत्य सब बदल डाला। आज नासिर हुसैन साहब की फ़िल्म \’तीसरी मंज़िल\’ को रिलीज़ हुये 55 साल हो गये। 1966 में रिलीज़ हुई इस बेहतरीन सस्पेंस फ़िल्म के गाने आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। औऱ अब तो ये जानते हुये भी की ख़ूनी ____ हैं इसको देखने का मज़ा कम नहीं होता। (ख़ूनी का नाम इसलिये नहीं लिखा क्योंकि अग़र किसी ने फ़िल्म नहीं देखी हो तो। वैसे आपको नोटिस बोर्ड पर फ़िल्म का सस्पेंस लिख कर लगाने वाला किस्सा तो बता ही चुका हूँ। आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं।

नासिर हुसैन ने ये फ़िल्म दरअसल देव आनंद के साथ बनाने का प्लान बनाया था। देव आनंद के भाई विजय आनंद भी नासिर हुसैन के प्रोडक्शन हाउस में काम कर रहे थे औऱ उनको राजेश खन्ना-आशा पारिख के साथ बहारों के सपने बनाने का ज़िम्मा दिया गया था।

फ़िल्म की कहानी का आईडिया जो नासिर हुसैन ने एक सीन में सुनाया था वो कुछ इस तरह था। दो सहेलियाँ दिल्ली से देहरादून जा रही हैं औऱ गाड़ी में पेट्रोल भरवा रहीं हैं पेट्रोल पंप पर। नायिका की बहन की मौत ही गयी तीसरी मंज़िल से गिरकर लेक़िन उसको लगता है वो क़त्ल था। वो बात कर रही हैं क़ातिल के बारे में। सहेली नायिका से पूछती है उसको पहचानोगी कैसे? नायिका बोलती है सुना है वो काला चश्मा पहनता है। उसी पेट्रोल पंप पर अपनी मोटरसाइकिल में पेट्रोल भरवाता हुआ युवक उनकी बात सुनकर अपना काला चश्मा उतार कर जेब में रख लेता है।

विजय आनंद ने हुसैन से पूछा आगे क्या होता है? वो कहते हैं पता नहीं। आनंद तब कहते हैं इसपर काम करते हैं औऱ इस तरह जन्म हुआ तीसरी मंजिल का।

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देव आनंद तीसरी मंज़िल के फोटो शूट के दौरान

सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था। देव आनंद ने बाकायदा फ़िल्म के लिये फ़ोटो शूट भी कराया था जिसमें वो ड्रम बजाते हुये दिख रहे हैं। लेक़िन बीच में आगयी अभिनेत्री साधना जी की सगाई। साधना का इस फ़िल्म से कोई लेना देना नहीं थी। फ़िल्म की अभिनेत्री तो आशा पारिख ही रहने वाली थीं।

हुआ कुछ ऐसा की साधना जी की सगाई में नासिर हुसैन औऱ देव आनंद के बीच कहासुनी हो गयी। दोनों ही महानुभाव ने नशे की हालत में एक दूसरे को काफ़ी कुछ सुनाया। दरअसल नासिर हुसैन ने देव आनंद को ये कहते हुये सुन लिया की नासिर ने उनके भाई विजय आनंद को एक छोटे बजट की ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म (बहारों की मंज़िल) वो भी पता नहीं किसी राजेश खन्ना नामक अभिनेता के साथ बनाने को दी है। लेक़िन वो ख़ुद तीसरी मंजिल जैसी बड़ी, रंगीन फ़िल्म निर्देशित कर रहे हैं।

नासिर हुसैन इतने आहत हुये की उन्होंने अगले दिन विजय आनंद को तीसरी मंजिल का निर्देशक बना दिया औऱ स्वयं बहारों की मंज़िल का निर्देशन का ज़िम्मा उठाया। इसके साथ ही उन्होंने एक औऱ बड़ा काम कर दिया। उन्होंने देव आनंद को तीसरी मंज़िल से बाहर का रास्ता दिखा दिया। जब उनकी जगह किसको लिया जाये पर विचार हुआ तो शम्मी कपूर साहब का नाम आया। जब शम्मी कपूर को ये पता चला की देव आनंद को हटा कर उनको इस फ़िल्म में लिया जा रहा है तो उन्होंने इस शर्त पर काम करना स्वीकार किया की देव आनंद ये कह दें की उन्हें कपूर के इस फ़िल्म में काम करने से कोई आपत्ति नहीं है।

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शम्मी कपूर फ़िल्म की शूटिंग के दौरान

देव आनंद ने अपनी स्वीकृति दे दी औऱ नतीजा है ये तस्वीर। लेक़िन ये सब NOC (नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट) के बाद ऐसा नहीं हुआ कि फ़िल्म शुरू हो गयी। नासिर हुसैन के पास कहानी औऱ कलाकार दोनों थे लेक़िन उनकी फ़िल्म में संगीत का बहुत एहम रोल होता है। उन्हें तलाश थी एक संगीतकार की। किसी कारण से वो ओ पी नय्यर, जो उनकी पिछली फ़िल्म फ़िर वही दिल लाया हूँ के संगीतकार थे, उनको वो दोहराना नहीं चाहते थे।

शम्मी कपूर जब फ़िल्म का हिस्सा बने तो उन्होंने संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन का नाम सुझाया औऱ कोशिश करी की वो फ़िल्म का संगीत दें। लेक़िन इसी बीच आये आर डी बर्मन। अब बर्मन दा का नाम कहाँ से आया इसके बारे में कई तरह की बातें हैं। ऐसा माना जाता है गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी साहब, जिन्होंने राहुल के पिता एस डी बर्मन के साथ कई फिल्मों में काम किया था, उन्होंने उनका नाम सुझाया। नासिर हुसैन ने मजरूह के कहने पर मुलाकात करी। ख़ुद आर डी बर्मन ने भी मजरूह सुल्तानपुरी साहब को इसका श्रेय दिया है।

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शम्मी कपूर को इसका भरोसा नहीं था की आर डी बर्मन फ़िल्म के लिये सही संगीतकार हैं। लेक़िन जब उन्होंने धुनें सुनी तो वो नाचने लगे औऱ वहीं से शुरू हुआ बर्मन दा, नासिर हुसैन एवं मजरूह सुल्तानपुरी का कारवां। फ़िलहाल बात तीसरी मंजिल की चल रही है तो कारवां की बातें फ़िर कभी।

जब फ़िल्म बन रही थी उसी दौरान शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली का निधन हो गया। फ़िल्म का सेट लगा हुआ था लेक़िन नासिर हुसैन साहब ने इंतज़ार करना बेहतर समझा। कुछ दिनों के बाद भी शम्मी कपूर काम करने को तैयार नहीं थे। विजय आनंद घर से उनको ज़बरदस्ती सेट पर लेकर आ गये। लेक़िन शम्मी कपूर बहुत दुःखी थे औऱ उन्होंने बोला उनसे ये नहीं होगा। विजय आनंद ने कहा एक बार करके देखते हैं अगर नहीं होता है तो काम रोक देंगे।

उस समय तुमने मुझे देखा होकर मेहरबां गाने की शूटिंग चल रही थी। फ़िल्म में ये गाना एक ऐसे मोड़ पर आता है जब नायक को लगता है नायिका को उनसे मोहब्बत हो गयी है औऱ इसी ख़ुशी में वो ये गाना गा रहे हैं। लेक़िन असल में बात कुछ औऱ ही थी। ख़ैर, शम्मी जी तैयार हुये औऱ शूटिंग शुरू हुई। सब कुछ ठीक हुआ औऱ जैसे ही शॉट ख़त्म हुआ सब ने तालियाँ बजायी। लेक़िन विजय आनंद को कुछ कमी लगी तो उन्होंने शम्मी कपूर से कहा एक टेक औऱ करते हैं।

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इतने समय बाद शम्मी कपूर वापस आये थे औऱ काम शुरू ही किया था। सबको लगा आज कुछ गड़बड़ होगी। लेक़िन जब शम्मी जी ने रिटेक की बात सुनी तो वापस पहुँच गये शॉट देने। सबने राहत की साँस ली। थोड़े आश्चर्य की बात है की इतनी बड़ी हिट फिल्म देने के बाद नासिर हुसैन औऱ शम्मी कपूर ने इसके बाद दोबारा साथ में काम नहीं किया।

तीसरी मंज़िल के बाद विजय आनंद ने भी कभी नासिर हुसैन के साथ दोबारा काम नहीं किया। नासिर हुसैन ने भी इस फ़िल्म के बाद बाहर के किसी निर्देशक के साथ काम नहीं किया। अपने बैनर तले सभी फ़िल्मों का निर्देशन उन्होंने स्वयं किया। जब उन्होंने निर्देशन बंद किया तो उनके बेटे मंसूर खान ने ये काम संभाला। उसके बाद से अब ये प्रोडक्शन हाउस बंद ही है।

तीसरी मंजिल वो आख़िरी नासिर हुसैन की फ़िल्म थी जिसके सभी गाने मोहम्मद रफ़ी साहब ने गाये थे। दोनों ने साथ में काम जारी रखा लेक़िन अब किशोर कुमार का आगमन हो चुका था। वैसे रफ़ी साहब को नासिर हुसैन की हम किसी से कम नहीं फ़िल्म के गीत \”क्या हुआ तेरा वादा\’ के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

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तीसरी मंज़िल से जुड़ी एक औऱ बात। ये जो तस्वीर है ये है सलमान खान के पिता सलीम खान। लेखक बनने से पहले उन्होंने कुछ फिल्मों में काम किया था उसमें से एक थी तीसरी मंज़िल। शम्मी कपूर आशा पारेख औऱ हेलन, जिनके साथ उन्होंने बाद में विवाह किया, को आप फ़िल्म के पहले गाने \’ओ हसीना ज़ुल्फोंवाली\’ में देख सकते हैं।

इसी गाने से जुड़ी एक बात के साथ इस पोस्ट का अंत करता हूँ। फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद एक सज्जन ने गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी से इस गाने के बोल को लेकर सवाल किया की, \’मजरूह साहब क्या आप ये कहना चाहते हैं उस एक हसीना की ही ज़ुल्फ़ें हैं? क्या बाक़ी हसीनाओं के बाल नहीं हैं? क्या वो गंजी हैं?\’

अग़र फ़िल्म देखने के इच्छुक हों तो यूट्यूब पर देख सकते हैं। लेक़िन संभाल कर। देखना शुरू करेंगे तो उठना मुश्किल होगा। फ़िल्म की शुरुआत ही ऐसी है की आप जानना चाहते हैं आगे क्या होगा। खाने पीने की तैयारी के साथ मज़ा लें तीसरी मंजिल का।

हम होंगे कामयाब एक दिन

वर्ष 1983 में रिलीज़ हुई हिंदी फिल्मों पर अगर नज़र डालें तो उस साल मेनस्ट्रीम औऱ आर्ट फिल्में या मुख्य धारा औऱ समानांतर सिनेमा की कई यादगार फिल्में रिलीज़ हुई थीं।

अगर आप उस वर्ष की दस सबसे ज़्यादा कमाई वाली फिल्मों की लिस्ट देखेंगे तो लगेगा उस वक़्त लोगों को क्या हो गया था। जब मैंने ये लिस्ट देखी तो मुझे हँसी भी आई औऱ आश्चर्य भी हुआ। उस वर्ष की जो दस सर्वाधिक कमाई वाली फिल्में थीं उनकी लिस्ट कुछ इस तरह है:

  • हिम्मतवाला
  • बेताब
  • हीरो
  • कुली
  • अंधा कानून
  • मवाली
  • नौकर बीवी का
  • जस्टिस चौधरी
  • महान
  • जानी दोस्त

आगे बढ़ने से पहले इस लिस्ट की बात कर लेते हैं क्योंकि उसके बाद इसका नंबर नहीं आयेगा। तो इस 10 कि लिस्ट में से आपने कौन कौन सी फिल्में देखी हैं? मैंने इनमें से आजतक सिर्फ़ चार फिल्में ही देखी हैं – बेताब, हीरो, कुली औऱ नौकर बीवी का। जितेंद्र कुछ ख़ास पसंद नहीं थे औऱ ऐसा ही कुछ अमिताभ बच्चन के साथ भी था। कुली मेरे ख़्याल से इसलिये देखी होगी क्योंकि इस फ़िल्म के दौरान बच्चन साहब घायल हुये थे तो सबकी उत्सुकता रही होगी। नौकर बीवी का शायद इसलिये की ये कॉमेडी फिल्म थी। ये दोनों ही फिल्में सिनेमाघर में देखी थीं। हीरो औऱ बेताब तो काफ़ी समय बाद छोटे पर्दे पर देखी थी। वैसे नौकर बीवी का एक गाना \’क्या नाम है तेरा\’ काफ़ी सुना गया था औऱ आज भी भूले बिसरे सुन लेते हैं। इसकी भी एक कहानी है लेक़िन उसका वक़्त जब आयेगा तब आएगा। फ़िलहाल आप भी देखिये औऱ सुनिये औऱ आगे पढ़ते भी रहिये। :–)

तो ये दस फिल्में आपको ये बिल्कुल भी नहीं बताती उस साल की जो क़माल की फिल्में आयीं थीं उनके बारे में। कारण भी साफ़ है – सफलता का पैमाना जब सिर्फ़ बॉक्सऑफिस पर कमाई हो तो आप क्या कर सकते हैं। लेकिन इसी वर्ष 1983 में आईं थीं कुछ ऐसी फिल्में जिनका नाम हमेशा के लिये सिनेमा के चाहने वालों की ज़ुबान पर चढ़ गया औऱ इतिहास के पन्नों पर उनका नाम भी हमेशा के लिये दर्ज़ हो गया।

अर्द्धसत्य, कथा, सदमा, मासूम, मंडी, रज़िया सुल्तान, वो सात दिन औऱ… जाने भी दो यारों। इन आठ में से सिर्फ़ रज़िया सुल्तान ही नहीं देखी है। बाक़ी सातों देखी है औऱ जाने भी दो यारों को तो इतनी बार देखा है की अब तो गिनती भी याद नहीं। अब ये फ़िल्म एक क्लासिक बन गयी है औऱ 1983 में आज ही के दिन, अगस्त 12 को ये रिलीज़ हुई थी। क्या इस फ़िल्म को भोपाल के किसी सिनेमाघर में रिलीज़ किया गया था, ये रिसर्च का विषय हो सकता है। ऐसा इसलिये अगर आप दस पैसा कमाने वाली फिल्मों पर नज़र डालें तो जाने भी दो यारों के कलाकार अलग नज़र आते हैं। उसपर से फ़िल्म में न कोई गीत संगीत न कोई ऐसी अदाकारा जिसे देखने लोग आयें।

मैंने ये फ़िल्म 1983 में शायद नहीं देखी थी। शायद इसलिये क्योंकि फ़िल्म वीसीआर पर देखी थी औऱ उन दिनों इसका लाभ गर्मियों की छुट्टी में ही लिया जाता था। वैसे दीवाली पर भी उस समय लंबी छुट्टी होती थीं इसलिये शायद। उसके बाद से इस फ़िल्म को देखना हर छुट्टी में एक रूटीन सा बन गया था।

उस समय इतनी समझ नहीं थी की फ़िल्म के ज़रिये क्या संदेश दिया जा रहा है या की फ़िल्म हमारे सिस्टम पर कटाक्ष कर रही है। यही मेरे ख़्याल से इस फ़िल्म की ख़ूबी भी है की बहुत ही सीधे, सरल शब्दों में बहुत गहरी बात कर जाती है। फ़िल्म मनोरंजन भी करे औऱ कुछ सवाल भी उठाये – ये उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। ज़्यादातर फिल्में सवाल पूछने से डरती हैं क्योंकि उसके चक्कर में मनोरंजन की बलि न चढ़ जाये। आज ऐसी फिल्मों की संख्या कम है। उल्टा दर्शक अब पूछने लगते हैं भाई फ़िल्म बनाई क्यों थी? सलमान खान की रेस 3 औऱ राधे उसका अच्छा उदाहरण हैं।

विषय से भटकें उसके पहले वापस आते हैं।विनोद, सुधीर, तरनेजा, आहूजा, डिमैलो या शोभा जी ये सब हमारे आसपास के ही क़िरदार लगते हैं। इतने वर्षों में बदला कुछ भी नहीं है। पुल आज भी गिर जाते हैं, फ़िल्म में बिल्डिंग में फ्लोर बढ़ाने का तरीका बताया है, आज तो पूरी की पूरी बिल्डिंग खड़ी हो जाती है औऱ किसी को पता भी नहीं चलता।

इन दिनों बारिश का मौसम है औऱ साल दर साल रोड़ बनाने का करोड़ों का कॉन्ट्रैक्ट दिया जाता है। लेक़िन हर बारिश में ठीक उसी जगह की रोड़ फ़िर ख़राब होती है औऱ फ़िर से बनाई जाती है। ख़ैर इस गंभीर विषय से वापस फ़िल्म पर आते हैं। इस फ़िल्म में एक लाइट स्विच ढूँढने का सीन है। वैसे ही कुछ हमने भी एक बार लाइट जाने के बाद टॉर्च ढूंढी थी। इस किस्से के बारे में बस इससे ज़्यादा कुछ बता नहीं सकते। ;–)

जैसा मैंने बताया, इस फ़िल्म को अब इतनी बार देख चुके हैं की फ़िल्म कंठस्थ हो गयी है। लेक़िन अभी पिछले दिनों जब इसको फ़िर से देखा तो मज़ा वैसा ही आया। क्लाइमेक्स में जो महाभारत का संदर्भ है वो तो क़माल का है। इसका पूरा श्रेय फ़िल्म के लेखकों को जाता है। फ़िल्म के अंत में जब सब आपस में सेटिंग कर विनोद औऱ सुधीर को बलि का बकरा बनाते हैं।  बैकग्राउंड में हम होंगे क़ामयाब एक दिन बजने लगता है औऱ मुम्बई के फ़ोर्ट के फुटपाथ पर विनोद औऱ सुधीर को जेल की पौशाक में देखकर आप निराश भी होते हैं औऱ गाना आपको उम्मीद भी जगाता है।

जो दूसरी लिस्ट की फिल्में हैं उसमें से मासूम, सदमा, रज़िया सुल्तान औऱ वो सात दिन का संगीत क़माल का है। इसी साल आयी एक औऱ फ़िल्म जिसका ये गाना दरअसल जीने का फलसफा है।

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूँही कोई बेवफ़ा नहीं होता

इसे हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री का दुर्भाग्य ही कहेंगे की यहाँ सब घुमाफिरा कर बात करने में उस्ताद हैं। आप किसी से कोई सीधा सा सवाल पूछिये लेक़िन उसका सीधा जवाब नहीं मिलता। इसका दूसरा पहलू ये है की अगर इसी इंडस्ट्री में रहना है तो क्यूँ उनको नाराज़ रखा जाये जो आपको काम दे सकते हैं। मतलब आपके मुँह खोलने से आपका नुक़सान हो तो अच्छा है मुँह बंद रखा जाए। यही बात मीडिया पर भी लागू होती है।

मीडिया इस इंडस्ट्री का एक अभिन्न हिस्सा है। ट्विटर औऱ फ़ेसबुक पर तो हंगामा अब मचना शुरू हुआ है। लेक़िन उसके बाद भी मीडिया का एक बहुत बड़ा रोल है इंडस्ट्री से जुड़े लोगों औऱ दर्शकों के बीच की दूरी ख़त्म तो नहीं लेक़िन कम करने में। औऱ फ़िर सभी लोग ट्विटर और फ़ेसबुक पर भी नहीं हैं।

सुशांत सिंह राजपूत के मामले में जितना जो कुछ ग़लत हो सकता था सब हो गया है, हो रहा है और आगे भी होयेगा। मीडिया बंट गया है, जिसकी उम्मीद थी, लेक़िन इंडस्ट्री भी बंट गयी है, जो किसी भी हाल में नहीं होना चाहिये था। मीडिया, यहाँ मेरा मतलब वो पोस्टमैन से एक्ससीलुसिव बात करने वाले नहीं, बल्कि वो लोग जो इंडस्ट्री को कवर करते रहे हैं, की ख़ामोशी भी शर्मनाक है। इस इंडस्ट्री से जुड़े मीडियाकर्मी अग़र किताबें लिखना शुरू करदें तो पता चले यहाँ क्या नहीं होता है। लेक़िन ऐसा होगा नहीं क्योंकि कोई भी बुरा बनना नहीं चाहता औऱ उनको ये भी पता है जैसे ही उन्होंने कुछ लिखा इंडस्ट्री उनका हुक्का पानी शराब कबाब सब बंद करवा देगी। अब कौन ख़ुद अपने पेट पर लात मारकर ये काम करेगा। इसलिये सब अच्छा ही लिखेंगे।

अग़र इंडस्ट्री के लोग इसको एक परिवार मानते हैं तो आज इनको इनके किसी साथी के साथ कुछ ग़लत हुआ है तो साथ देना चाहिये था। साथ खड़े होने का मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि आप उनके विचारों से भी सहमत हों। आपसे किसी आंदोलन को समर्थन देने की उम्मीद नहीं कि जा रही है। आपके विचार अलग हो सकते हैं, आप अलग अलग विचारधारा का समर्थन करते होंगे लेक़िन जिस समय आपको सिर्फ़ साथ देना था, आप पीठ दिखा कर खड़े हो गये। ये भी सही है की ये सबके बस की बात नहीं है और शायद यही हमारा दुर्भाग्य है।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बेबाक़ लोगों में से एक अनुराग कश्यप हैं। मुझे अनुराग की ये बेबाक़ी शुरू से पसंद आई लेक़िन उनकी फिल्मों के बारे में मैं ये नही कह सकता। उनकी बनाई बहुत से फिल्में मैंने नहीं देखी हैं और जो देखी हैं वो कुछ ख़ास पसंद नहीं आईं। उनकी मनमर्ज़ीयाँ का संगीत काफ़ी अच्छा है। लेक़िन फ़िल्म बोरिंग थी।

तो इन्ही अनुराग कश्यप ने सुशांत सिंह के मैनेजर के साथ हुई अपनी चैट सार्वजनिक कर दी। उन्होंने इसके बाद एक और ट्वीट कर बताया क्यों इंडस्ट्री के लोग सुशांत के साथ नहीं है क्योंकि इन लोगों ने सुशांत सिंह के साथ समय बिताया है और वो उनके बारे में जानते हैं।

चलिये अनुराग माना सुशांत में सारे ऐब होंगे जो एक इंसान में हो सकते हैं। लेक़िन वो तब भी आपकी इंडस्ट्री का एक हिस्सा था। आज वो नहीं है तो आप उसकी कमियाँ गिनाने लगे। अरे इंडस्ट्री के अपने साथी के नाते न सही, इंसानियत के नाते ही सही आप साथ देते। इंडस्ट्री के इसी रवैये के चलते ही लोगों के अंदर इतना गुस्सा है।

लेक़िन ये सवाल एक अनुराग कश्यप, एक कंगना रनौत या एक रिया का नहीं है। आप सब उस इंडस्ट्री का हिस्सा हैं जो भारत के एक बहुत बड़े तबके का एकमात्र मनोरंजन का साधन रहा है। लेक़िन आज आप उसके साथ नहीँ हैं जिसके साथ ग़लत हुआ है। रिया की टीशर्ट पर जो लिखा था उसपर तो सबने कुछ न कुछ कह डाला लेक़िन आपकी बिरादरी के एक शख्स पर जब सरकारी तंत्र ने ज़्यादती करी तो सब ख़ामोश रहे। ये दोहरे मापदंड सबको दिख रहे हैं। अगर रिया के साथ जो हो रहा है वो ग़लत है तो जो इंडस्ट्री अपने एक साथी के साथ कर रही है वो सही है? इंडस्ट्री से जुड़े लोगों की ये ख़ामोशी शायद उनकी मजबूरी भी बयाँ करती है। लेक़िन जहाँ से हम, दर्शक और इंडस्ट्री के चाहने वाले देख रहे हैं, ये ख़ामोशी सिर्फ़ एक ही बात कह रही है All is not well.

The (fixed) entertainment awards season is here, again

The Entertainment industry awards season is here. The first set of awards, Star Screen Awards, is already over and done with and more will follow in the coming days. Every year without fail the award functions are held recession or no recession. Some awards disappear and reappear and some continue. There was a time when I would look forward to the awards and stay up till late in the night.

Not waiting for the newspapers next morning. And always believed that it was telecast LIVE. But slowly it became clear that it was all stage managed. It was meant to keep everybody happy.

When Aamir Khan refused to attend these ceremonies and rightly so and was no where in the nominations either, the tamasha became more clear. This when he was doing the routine stuff (not the class stuff he is doing these days) and successful films. The whole process is a big sham. Someone who has done good job but does not fit into the popular category is compensated with a Critics award.

Unlike Oscar awards the awards in India are either property of publishing house or TV channels. So someone not in good books of the channel or the media house will not be even considered. So the awards are not free and fair.

The less said about the performance in these ceremonies the better. Every year the usual suspects perform. We have seen Katrina Kaif enough on channels singing Sheila Ki Jawani and she is back again performing on the same song. The performance is not as good as the original song (it did not save the film either). This year I think it will be Suraiyya from Thugs of Hindostan. But since the movie has flopped, will she be asked to perform? May be yes on a medley of Zero and TOH songs.

We need awards that are independent. I as a viewer would like to believe the awards are given to deserving people and not to people who confirm their presence to get the award.