गाजर का हलवा

Delicious Gajorer Halwa served with almonds on a vibrant background. Perfect for Indian cuisine themed photography.

पिछले दिनों भोपाल से वापसी के समय स्टेशन पर ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे। एक सज्जन सामने प्रकट हो गए। मुझे बिल्कुल जाने पहचाने नहीं लगे लेकिन वो साहब ने बात शुरू कर दी। मुझे लगा शायद वो मुझे पहचान गए हैं और थोड़ी देर में किसी परिचित के ज़िक्र से मुझे उनका नाम याद आ जायेगा।

पहला सवाल था आपकी ट्रेन आने वाली है क्या। ट्रेन आने में समय था तो उनको बता दिया थोड़ी लेट चल रही है। मुझे लगा शायद वो भी उसी गाड़ी से यात्रा कर रहे होंगे। लेकिन उनके पास कुछ सामान भी नहीं था। बाकी लोगों की तरह मैं मोबाइल में गुम नहीं था और शायद यही गलती मुझे आगे भारी पड़ने वाली थी।

इसके बाद वो मुद्दे की बात पर आ गए। पतलून की जेब से कुछ रुपए निकाले और कहने लगे बस इतने पैसे हैं कुछ कम हैं। उन्हें इंदौर जाना था लेकिन किराये के पैसे नहीं थे। मुझसे उन्होंने कहा की क्या मैं उनकी कोई मदद कर सकता हूं।

मैंने कहा मेरे पास पैसे नहीं है। वो सज्जन कहने लगे आप जितने पैसे देंगे उसके दुगने मैं आपको किसी एप्प के ज़रिए भेज दूंगा। मैने उन्हें कहा मैं दरअसल अपने साथ पैसे नहीं रखता। सारा लेनदेन मोबाईल के ज़रिए ही होता है (ये सौ आने सच बात है)।

मुझे ऊपर से नीचे तक देखने के बाद बोले आप तो मेरे पिता की उमर के हैं। देखिये आपके पास इतने पैसे तो रखे ही होंगे। मुझे अभी तक जो भी थोड़ी बहुत संवेदना उनके लिए थी वो हवा हो चुकी थी। वो स्वयं मुझसे कोई बहुत ज़्यादा छोटे नहीं दिख रहे थे और उन्होंने चंद रुपयों के लिए मुझे अपने पितातुल्य कह दिया था। मैंने उन्हें सलाह दी आपको जो रकम चाहिए वो या तो रेलवे के पुलिसकर्मी या जो आसपास होटल हैं वहां से ले लें। शायद वो आज़मा चुके थे और बात कुछ बनी नहीं थी।

उन्हें लगा (ऐसा मुझे लगा) शायद उनकी पिता की उम्र वाली बात से मैं आहत हो गया था। उन्होंने अगले ही पल कहा आप तो कॉलेज में पढ़ने वाले लगते हैं। कौन से कॉलेज से पढ़ाई करी है। अब मुझे उनकी बातों में रत्तीभर भी रुचि नहीं थी। आसपास खड़े बाकी यात्री भी देख रहे थे ये बात कहां खत्म होती है।

मैने भोपाल के किसी कॉलेज का नाम लिया। कहा वहां से पढ़ाई करी है। लगा अब बात खत्म। लेकिन सज्जन व्यक्ति कहां रुकने वाले थे। उन्होंने अपना बटुआ निकाला और दिखाया। इसके साथ जो उन्होंने कहा वो सुनकर हंसी भी आई और आश्चर्य भी।

उन्होंने बताया उनका उनकी पत्नी से किसी बात पर झगड़ा हो गया था। पत्नी ने बटुए से सारा पैसा निकाल लिया था और उन्हें घर से बाहर निकाल दिया था। तो महाशय ने सोचा क्यूं ना इसी बहाने दोस्तों से इंदौर मिलकर आया जाए। तब तक उनकी पत्नी का गुस्सा भी शांत हो जायेगा।

ये सब बताते हुए उनके मुख से एक बार फ़िर से वही आहत करने वाली बात निकल गई। वो बोले वो आपकी बहू ने…

अभी कुछ दो महीने बाद धरती पर प्रकट हुए पचास वर्ष हो जायेंगे। लेकिन बहु के आने में समय है। मुझे अब उस व्यक्ति से ज़्यादा अपनी काया की चिंता हो रही थी। अंकल तक तो ठीक था। ये कुछ ज़्यादा हो गया था। ये बात सही है पिछले दिनों कुछ वज़न बढ़ा है। लेकिन आज लग रहा है वो कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है। माँ के दो दिन पहले वज़न कम होने की बात की सारी ख़ुशी किसी कोने में दुबक गई थी।

इस पूरे वाक्ये में जो एक बात जिससे मुझे थोड़ी राहत मिली वो ये थी की सज्जन भोपाल की बढ़ती हुई सर्दी से बचने के लिए मदिरा का सेवन किये हुए थे। शायद वो अपना चश्मा भी घर पर ही छोड़ आये थे! (ऐसा सोचने में कोई नुकसान भी तो नहीं है)।

थोड़ी देर में गाड़ी आई उससे अपनी वापसी प्रारंभ करी। उन सज्जन को आईना दिखाने के लिए धन्यवाद। भले ही उन्होंने जो कहा वो नशे की हालत में कहा। लेकिन बात लग चुकी है और इस साल की सर्दियों का पहला गाजर का हलवा खा कर इसको भूलने का प्रयास जारी है। जब खत्म होगा तब हलवे से बढ़े वज़न को कम करने के बारे में सोचा जायेगा। आप भी मौसम का आनंद लीजिए।

माँगा है तुम्हे दुनिया के लिये, अब ख़ुद ही सनम फ़ैसला कीजिये

भोपाल से जब वापस आये तो साथ में कुछ मीठा हो जाये के लिये कैडबरी नहीं, ग्वालियर की गजक लेकर आये थे। बचपन से गजक मतलब ग्वालियर की गजक। ग्वालियर गजक एक दुकान का नाम है। वैसे भोपाल में मुरैना गजक नाम की दुकान भी है औऱ वहाँ भी गजक मिलती है। लेक़िन कमबख़्त ये ज़बान को औऱ कुछ नहीं जँचता। तो गजक आयी औऱ देखते ही देखते ख़त्म भी हो गयी।

एक दिन सुबह सुबह सफ़ाई के जोश में गजक के कुछ डब्बे मैंने कचरे में डाल दिये। अब जैसा होता है, वैसे इसका उल्टा ही ज़्यादातर होता है जब अपना कुछ सामान कचरे के हवाले होता है। लेक़िन वो सामने वाली पार्टी का दिन था तो सब कचरा छोड़ श्रीमती जी ने उन्हीं डब्बों के बारे में पूछ लिया। अब अगर आप सोच रहें हों कि कहीं मैंने गजक का भरा हुआ डिब्बा तो कचरे के हवाले नहीं कर दिया – तो आप बिल्कुल ग़लत ओर चल पड़े हैं। सब डब्बे खोल कर औऱ उसमें से जो थोड़ी बहुत गजक बची हुई थी, सबके साथ इंसाफ करके ही डिब्बों को हटाया गया था।

मैंने पूछा कि क्या हुआ डिब्बे तो खाली थे? जो जवाब मिला उसका नतीजा बनी ये पोस्ट।

पर्यावरणविदों ने ज़िम्मा उठा रखा है ज्ञान देने का। अब वो देसी हों या विदेशी। समझाया जा रहा है उन चीज़ों का इस्तेमाल करें जो दोबारा इस्तेमाल की जा सकें। ये सब तो हम बचपन से करते आ रहे हैं। किताबों से लेकर कपड़ों तक सब चल ही रहा था औऱ आज भी जिन लोगों को इससे परहेज़ नहीं है या क्लास की फ़िक्र नहीं है वो अभी भी करते हैं।

इसके अलावा बाक़ी जिस चीज़ का ऐसा भरपूर इस्तेमाल होता देखा वो था मिठाई का डिब्बा। सरकारी घर की रसोई में एक अलमारी थी उसके ऊपर लोगों के द्वारा दिये गये या हम लोगों की लायी मिठाई के छोटे बड़े डिब्बे रखे रहते। कोई बाहर यात्रा पर जा रहा होता तो उसके साथ इन्हीं डिब्बे में खाना रख दिया जाता।

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कल जब ट्रैन यात्रा के बारे में लिख रहा था तब ये भी ध्यान आया की पहले अग़र किसी की गाड़ी आपके शहर से गुज़र रही होती तो आप स्टेशन पर दस मिनिट के लिये ही सही, जाकर मिलते औऱ साथ खाना भी ले जाते। अब तो ये चलन समाप्त ही हो गया है। अब लोग मिलने का मतलब व्हाट्सएप पर दुआ सलाम कर लेते हैं।

भोपाल का दूसरा रेल्वे स्टेशन, हबीबगंज (रानी कमलापति) घर के नज़दीक ही था। कई बार कोई रिश्तेदार या जान पहचान वाले निकलते तो हमारा जाना होता। तब यही मिठाई का पुराना डिब्बा इस्तेमाल होता। किसी ख़ास के लिये अलग से मिठाई भी लेकर जाते।

ऐसी कभी कभार हमारे साथ भी हुआ है जब ट्रैन से यात्रा करी। बीच के किसी स्टेशन पर कोई जान पहचान वाले या कोई रिश्तेदार खाना लेकर आया। अच्छा ये खाना बहुत तामझाम वाला नहीं हुआ करता था। पूड़ी, सब्ज़ी, अचार औऱ हरी मिर्च। लेक़िन क्या स्वाद होता था। औऱ ताज़ा बना हुआ रहता तो खाने में मज़ा भी आता। इसके पीछे का कारण था वही मिठाई वाला डिब्बा।

वैसे स्टेशन पर ट्रेन पर मिलने के नाम पर लड़का लड़की देखने का कार्यक्रम भी होता। जिन दिनों मेरे विवाह के लिये सुयोग्य वधु की तलाश थी तब भोपाल स्टेशन पर ऐसा हुआ था। ट्रैन तो आगे बढ़ी लेक़िन बात आगे नहीं बढ़ी। बाद में भाई के समय भी ऐसा ही हुआ। वो ट्रैन से यात्रा कर रहे थे तो स्टेशन पर कन्या देखने का प्रोग्राम बना। बस बात आगे नहीं बढ़ी। लेक़िन साथ में जो मिठाई आयी भोपाल उसका हमने भरपूर आनंद लिया।

तो ये जो रिसायकल वाला ज्ञान है दरअसल ये हम लोगों के जीवन का हिस्सा रहा है। वैसे तो कपिल शर्मा शो देखता नहीं लेक़िन पिछले दिनों जूही चावला आईं थीं तो एक क्लिप देखी थी। उसमें उन्होंने एक टूथब्रश की आत्मकथा बताई थी। जब वो दाँत साफ़ करने लायक नहीं रहता तो उससे चीजें साफ़ करते हैं। उसके बाद उसको तोड़ कर उसका इस्तेमाल नाड़ा डालने के लिये होता है।

वापस आते हैं डिब्बे पर। मुम्बई में मिठाई की बहुत दुकानें हैं लेक़िन स्वाद के मामले में बहुत पीछे। पिछले दिनों एक दुकान से मिठाई मंगाई तो मैं पहले तो उसके डिब्बे से ही बहुत प्रभावित हुआ। लेक़िन उसके अंदर की मिठाई भी बड़ी स्वादिष्ट। बहुत लंबे अरसे बाद अच्छी मिठाई खाने को मिली। लेक़िन डिब्बा प्रेम थोड़े दिन रहा।

अब तो ट्रैन में पैंट्री कार होती हैं तो सब उसी के भरोसे चलते हैं। वैसे अगर ट्रैन किसी स्टेशन पर रुकी हो औऱ आपको प्लेटफार्म पर जो मिल रहा हो उसको खाने से कोई ऐतराज़ नहीं हो तो ज़रूर खाइयेगा। उसका अपना स्वाद है। जैसे मुझे इस बार इटारसी स्टेशन पर मिला। दोने में समोसे के साथ आलू की गरम सब्ज़ी औऱ तीखी हरी मिर्च। बहुत ही स्वादिष्ट।हमारी देखासीखी साथ वालों ने भी इसका आनंद लिया।

कई स्टेशन अपनी किसी ख़ास डिश के लिये भी जाने जाते हैं। जब पूना आना होता तो दौंड स्टेशन पर पिताजी बिरयानी लेने ज़रूर जाते। चूँकि गाड़ी वहाँ ज़्यादा देर रुकती है तो दूसरे प्लेटफार्म से भी लाना हो तो समय मिल जाता। वैसे ही वो बतातें उरई के गुलाब जामुन जो आज भी उतने ही स्वादिष्ट हैं।

वैसे खाने के मामले में स्लीपर क्लास का अलग मुक़ाम है। एसी में थोड़े नाज़ नख़रे रहते हैं तो कई खाना बेचने वाले आते ही नहीं। ऐसे ही एक बार चने के साथ बढ़िया प्याज़, हरी मिर्च और मसाला जो खाया था उसका स्वाद आज भी नहीं भूले।

तो उस दिन जो श्रीमती जी का सवाल था वो इसीलिये था। वो उन डिब्बों का इस्तेमाल करना चाहती थीं दीवाली की मिठाई भेजने के लिये औऱ प्लास्टिक के इस्तेमाल से बचना चाह रही थीं। अब डिब्बे तो सफ़ाई की भेंट चढ़ गये थे तो ये ख़्याल ज़रूर आया कि मिठाई मंगा लेते हैं, डिब्बे उनके काम आ जायेंगे। लेक़िन सेहत को ध्यान में रखते हुये इसको अमल में नहीं लाया गया।

जिनको मिठाई पहुँचानी थी उन तक क्या पहुँचा – मिठाई या सोन पपडी का डिब्बा (प्लास्टिक वाला) ये पता नहीं चला। आप फ़िलहाल इस गाने का आनंद लें।

ज़रा हट के, ज़रा बच के ये कोरोना है मेरी जान

जब पेप्सी भारत में आया था तब उसका एक पेय पदार्थ था 7 up जिसको बेचने के लिये एक कार्टून चरित्र फिडो डीडो का इस्तेमाल किया था। ये क़िरदार बहुत ही अलग था। ज़्यादातर आप किसी बड़ी हस्ती को इन पेय पदार्थों के विज्ञापन करते देखते हैं। लेक़िन इस बार ऐसा नहीं था औऱ शायद इसी कारण से ये यादगार बन गया।

इस फिडो डीडो के कई कार्ड भी चले जो बस तीन या चार शब्दों में कोई संदेश देते जो की उस पेय पदार्थ के बारे में नहीं होता था। उसमें से एक था Normal is boring. इसको दर्शाने के लिए या तो ये क़िरदार उल्टा खड़ा रहता या औऱ कोई उटपटांग हरकत करता।

हम सबकी एक उम्र भी होती है जब नार्मल बोरिंग लगता है। शायद उसी उम्र में आया होगा इसलिये पसंद आया। उम्र के उस दौर में ऐसी ही कुछ उटपटांग हरकतें करने में आनंद भी आता था। वैसे आज बालदिवस भी है तो सब आज ख़ूब ज्ञान भी बाँट रहे हैं।

2020 में नार्मल शब्द जैसे हमारे जीवन से गायब सा हो गया था। इसी साल जनवरी के महीने में दो बार रेल यात्रा करने का अवसर मिला। उसके बाद से घर के अंदर बंद रहना नार्मल हो गया था। बिना घर से बाहर निकले सब ज़रूरी सामान की खरीदारी इंटरनेट के ज़रिये करना नार्मल हो गया था।

जब उसी वर्ष अक्टूबर में दिल्ली जाना हुआ तो उड़नखटोला इस्तेमाल किया गया। वो भी बिल्कुल अलग अनुभव था।

इस वर्ष दीवाली के समय जब फ़िर से रेल यात्रा का संजोग बना तो सबकुछ बहुत अटपटा सा लगा। एक तो लगभग डेढ़ वर्ष से टैक्सी में बैठना नहीं हुआ था तो जब टैक्सी बुक करी तभी से थोड़ी हिचकिचाहट सी थी। हिचकिचाहट दरअसल पूरी यात्रा को लेकर थी। एक विकल्प था की अपनी धन्नो को लंबे सफ़र के लिये निकालते। लेक़िन इतना लंबा सफ़र कुछ बहुत ज़्यादा सुविधाजनक नहीं लग रहा था। एक साल पहले तक गाड़ी निकालने से पहले दोबारा विचार नहीं करते थे। लेक़िन इस बार पता नहीं क्यूँ रेलगाड़ी का मन बन गया था।

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जब स्टेशन पहुँचे औऱ अपनी सीट पर बैठे तो हिचकिचाहट कुछ कम हुई। रेलगाड़ी के अंदर एक अपनापन सा लगता है। मतलब सब कुछ आपका जाना पहचाना। हाँ इस बार जो कोच था वो नया था थोड़े बहुत बदलाव थे लेक़िन पुरानी पहचान थी तो ये बदलाव भी अच्छे ही लगे। जैसे जैसे कोच में बाकी यात्री आना शुरू हुये, तब इस बात का एहसास हुआ नार्मल भले ही बोरिंग हो, लेक़िन इतने लंबे समय के बाद इसी नार्मल की तो ज़रूरत है। उसके बाद आसपास के लोगों से बातचीत (थोड़ी बहुत) शुरू हुई। कभी ऐसा भी होगा जब आप डरते हुये सफ़र करेंगे ये नहीं सोचा था।

सैनिटाइजर जो अब हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है, उसका इस्तेमाल ख़ूब हुआ। जबसे रेल में, मतलब एसी में यात्रा करना शुरू किया है, तबसे एक आदत सी हो गयी थी सिर्फ़ सामान लेकर पहुँच जाने की। बाकी ओढ़ने, बिछाने की ज़िम्मेदारी रेलवे की रहती। मगर इस बार ऐसा नहीं था तो ये अतिरिक्त सामान साथ में गया। औऱ याद आये वो दिन जब एक होल्डऑल नामक एक चीज़ हुआ करती थी।

इसमें ओढ़ने, बिछाने से लेकर जो सामान कहीं नहीं आ रहा हो सब भर दिया जाता। जब कोच में पहुँचते तो सबको सामान वितरित कर इसको सीट के नीचे रख दिया जाता। ये तब की बात है जब स्लीपर से सपरिवार यात्रा करते थे। अब तो हम सबने अपनी आदतें ऐसी बिगाड़ली हैं कि या तो एसी या फ्लाइट। औऱ एसी में भी सेकंड एसी ही चलता है। थर्ड एसी उसी हालत में जब सेकंड एसी में जगह नहीं हो।

आजकल सब अपनी क्लास को लेकर भी बहुत ज़्यादा चिंतित रहते हैं। वो ज़माने लद गये जब हवाई यात्रा या एसी में यात्रा एक स्टेटस की बात हुआ करती थी। अब तो ये सबकी पहुँच के अंदर है औऱ आराम से यात्रा करना किसे पसंद नहीं होगा।

वापस आते हैं मुद्दे पर। तो यात्रा शुरू हुई उसके बाद सब नार्मल ही लग रहा था। ट्रैन में यात्रा करने के कई फ़ायदों में से एक है आप ज़्यादा सामान लेकर भी चल सकते हैं। औऱ माताजी ने पिछली सर्दियों से तरह तरह के अचार आदि बना रखे थे। लेक़िन उसका मुम्बई प्रस्थान टलता जा रहा था। उड़नखटोला से आने में बस ये डर लगता है की उसकी महक एयरपोर्ट स्टाफ़ तक न पहुँचे। नहीं तो उतरने के बाद सब गायब (सच में बहुत ही मज़े का सामान बटोर कर लाये हैं इस बार)।

वापसी जब हुई तो ये सब सामान से लदे ट्रैन में सवार हुये। अब यही बात बाक़ी यात्रियों पर भी लागू होती है। बस ये हुआ रात के क़रीब दो बजे जब एक तीन सदस्यों का परिवार चार बड़े सूटकेस लेकर चढ़ा औऱ जिस तरह से उन्होंने पहले सामान को एडजस्ट किया औऱ बाद में बमुश्किल अपनी बेगम को ऊपर की बर्थ पर पहुँचाया – ये सब देखकर वो दो साल का समय फ़ुर्र हो गया। यही तो वो नार्मल है जिसकी कमी इतनी महसूस कर रहे थे।

क्या आपने इस दौरान कोई यात्रा करी है? कैसा रहा आपका अनुभव? क्या कुछ बदला? आप कमेंट करके बता सकते हैं। अग़र भोजन पर इस बारे में बात करने का मन हो तो समय निकाल कर आइये। गपशप के साथ आप अचार भी चख लेंगे।

औऱ जैसे मजरूह सुल्तानपुरी के बोल को अपनी आवाज़ में गीता दत्त ने कहा, ऐ दिल है आसां जीना यहाँ, सुनो मिस्टर सुनो बंधु…