काम के सिलसिले में काफ़ी लोगों से मिलना होता है। बहुत से लोगों के नाम, शक्ल कुछ भी याद नहीं रहती। कई लोगों से दुबारा बरसों बाद किसी दूसरी जगह मुलाक़ात होती है तो वो बताते हैं आपसे वो पहली बार कब मिले थे और किस सिलसिले में। पिछले एक बरस में मेरी ऐसे कई लोगों से मुलाक़ात हुई जिनसे, उनके अनुसार, पहले भी मिलना हुआ था। मुझे तो सच में बिलकुल याद नहीं, कब, कहां, क्यूं।
लेकिन कुछ लोगों से एक छोटी सी मुलाक़ात भी याद रहती है। इस साल मार्च के महीने में मेरे एक सहयोगी मुझसे किसीको मिलवाना चाहते थे। मैंने भी हामी भर दी और एक दिन मेरे सहयोगी और उनके जानकार, शिवा देवनाथ, दोनों सामने बैठे हुए थे।
अच्छा हम जो पत्रकार होते हैं, हमारे पास बहुत सारी कहानियां होती हैं। कुछ हम बता देते हैं, कुछ बहुत से कारणों से अनकही रह जाती हैं। शिवा जो कि एक क्राइम रिपोर्टर रहे थे, उनके पास कहानियों का ढ़ेर था। मुंबई में क्राइम रिपोर्टर के पास ढ़ेरों मसालेदार ख़बरें होती हैं। शिवा का बहुत बढ़िया नेटवर्क था ख़बरियों का। शायद ही ऐसी कोई ख़बर जिसके बारे में उन्हें मालूम नहीं हो।
जिन दिनों शिवा से मुलाक़ात हुई, मैं भी कुछ नई कहानियों के बारे में सोच रहा था। शिवा से मिलने का उद्देश्य भी यही था कैसे हम साथ में आयें और क्राइम से जुड़ी कहानियां लोगों तक पहुंचाएं।
शिवा से मिले तो उन्होंने बहुत सारी बातें करी। उस समय जो हिंदी फ़िल्म कलाकारों के केस चल रहे थे उस पर भी उन्होंने कुछ अंदर की ख़बर साझा करी। शिवा दरअसल जे डे के सहयोगी रह चुके हैं। मुंबई में अगर कोई क्राइम रिपोर्टर हुआ है तो वो जे डे सर थे। उनके काम के ऊपर वेब सिरीज़ बन चुकी हैं और मुझे उनके सहयोगी के साथ काम करने का एक मौक़ा मिल रहा था।
क्राइम से संबंधित ख़बरें लोग बड़े चाव से पढ़ते या अब देखते हैं। उस पर अगर कोई पुराने केस के बारे में ऐसी बातें हों जो लोगों को पता भी नहीं हो, तो उन ख़बरों का चलना तो तय है। इस मुलाक़ात के बाद इस बात की कोशिश शुरू हुई कि कैसे शिवा भाई को संस्था से जोड़ा जाये। ये थोड़ा टेढ़ा काम था क्योंकि मैनेजमेंट के अपने विचार होते हैं। उस पर आज जब AI का ज़ोर है तो ये समझाना कि जो ख़बर लिखी ही नहीं गई है उस पर AI क्या ही करेगा, मतलब मशक्कत वाला काम।
इस बीच शिवा का मैसेज, कॉल आता रहा जानने के लिए कि कुछ बात बनी क्या। लेकिन अब ये सब नहीं होने वाला। शिवा अब हमारे बीच नहीं हैं। अपने साथ वो कितनी ही सारी कहानियां भी लेकर चले गए। उनके साथ काम नहीं करने का अफ़सोस ताउम्र रहेगा। लेकिन उससे भी ज़्यादा अफ़सोस रहेगा एक बेबाक आवाज़ का शांत हो जाना। पत्रकारिता में बहुत कम लोग बचे हैं जो सच बोलने का साहस रखते हों। शिवा उनमें से एक थे।
किसी भी कहानी का समय जब आता है तब आता है। अब इस पोस्ट को ही लें। इसको लिखने की प्रेरणा मिले हुये एक अरसा हो गया। मज़ेदार बात ये कि आलस त्यागते हुये पोस्ट लिख भी ली लेक़िन किसी न किसी कारण से इसको पोस्ट नहीं कर पाया। और अब जो चल रहा है मीडिया में उसके बाद आज ऐसा लगा यही सही समय है।
दुख, ग़म की मार्केटिंग भी एक कला है। मुझे इसका ज्ञान मेरे डिजिटल सफ़र के शुरू में तो नहीं लेक़िन कुछ समय बाद मिला। लोगों को दुःख बेचो मतलब ऐसी कहानी जो उनके दिल में वेदना जगाये, उन्हें व्यथित करे। अगर आपने लॉकडाउन के दौरान मीडिया में चल रही खबरों पर ध्यान दिया हो तो ऐसी कई ख़बरों ने ख़ूब सुर्खियां बटोरीं।
आज की इस पोस्ट के बारे में लिखने का ख़याल तो लंबे समय से बन रहा था लेक़िन फेसबुक पर आदित्य कुमार गिरि की पोस्ट पढ़ने के बाद लिखने का कार्यक्रम बन ही गया।
दुःख से दुःख उपजता है और कोई भी मनुष्य दुःख से जुड़ना नहीं चाहता। इसलिए लोग आपके दुःख में रुचि नहीं लेते क्योंकि मनुष्य का स्वभाव आनन्द में रहना है। आप दुःख को खोलकर बैठ जाइए, लोग आपसे कतराने लगेंगे।
भगवान को चिदानंद इसलिए कहा गया है क्योंकि वहां केवल आनन्द है। आप दुःख की दुकानदारी करके लोगों को पकड़ना चाहते हैं। लोग भाग जाएँगे।
इस संसार में जिसे भी पकड़ना चाहेंगे वह भागेगा। व्यक्ति प्रकृत्या स्वतंत्र जीव होता है। वह किसी भी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करता। इसलिए आप जब-जब, जिस-जिस पर बन्धन डालते हैं व्यक्ति तब-तब आपसे भागता है।
जीवन का एक ही सूत्र, एक ही मन्त्र है और वह यह कि आनन्द में रहिए। आनन्द आकर्षित करता है। अपने भीतर के खालीपन को सिर्फ अपने स्वभाव में रहकर ही आनन्द से भरा जा सकता है। दूसरे आपके खालीपन को कभी भी भर नहीं सकते।
व्यक्ति अपने अकेलेपन को दूसरों की उपस्थिति से भरना चाहता है लेकिन दूसरा आपके रीतेपन से नहीं आपके भरे रूप से खिंचते हैं। इसलिए दुःख का प्रचार बन्द कीजिए। दुःख को दिखाने से सहानुभूति मिलेगी, आनन्द में होंगे तो प्रेम मिलेगा।
अपने दुःखों और कष्टों को बढ़ा चढ़ाकर दिखाना एक किस्म का बेहूदापन है। इस तरह के लिजलिजेपन से प्रेम नहीं उपजता। आप जबतक दूसरों को प्रभावित करने के सम्बंध में सोचते रहेंगे, ख़ुद से दूर होते रहेंगे। और ख़ुद से दूर होना ही असल नर्क है।
किसी भी रियलिटी शो को देखिये। उसमें जो भी प्रतिभागी रहते हैं उनमें से किसी न किसी की एक दर्द भरी दास्ताँ होती है। शो के पहले एपिसोड से ही दर्शकों को ये बताया जाता है की वो कितनी मुश्किलें झेल कर उस मंच तक पहुंचा है।
पिछले दिनों ट्वीटर पर इसी से जुड़ा एक बड़ा ही दिलचस्प वाक्या हुआ। इंडियन आइडल शो में ऐसे ही प्रतियोगियों के बारे में बार बार बताते रहते हैं। एक दर्शक ने इस पर कहा की शो को गाने या इससे जुड़े विषय पर फ़ोकस रखना चाहिये औऱ इन बातों से बचना चाहिये। इन सब से लोग उसको नहीं चुनते जो उसका हक़दार है बल्कि उसे जिसकी कहानी से वो ज़्यादा व्यथित हो जाते हैं।
इस पर शो के एक जज विशाल ददलानी ने कहा की किसी भी कलाकार के बारे में फैंस जानना चाहते हैं। जिनको गाना सुनना है या कमेंट्स सुनने हैं वो ये सुनने के बाद अपना टीवी म्यूट कर सकते हैं।
इस पर कई लोगों ने प्रतिक्रिया दी औऱ बताया कैसे शो बनाने वालों ने दर्शकों के मन में सहानुभूति जगाने के लिये कुछ ज़्यादा ही दिखा दिया। वैसे मुझे नहीं पता जो भी कहानियाँ दिखाई जाती हैं उनमें कितनी सच्चाई है, लेक़िन मीडिया से जुड़े होने के कारण मेरी आँखों के सामने कई बार कहानियों के रिटेक हुये हैं।
टीवी पर आने वाले कई शो में ये रोना धोना दरअसल कैमरे के लिये ही होता है। इन आरोपों से मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान भी नहीं बचे हैं। उनके शो सत्यमेव जयते में ऐसा कई बार हुआ। ऐसा ही एक और संगीत से जुड़ा शो था जिसमें एक दिव्यांग प्रतियोगी था। उनका गाना उतना अच्छा नहीं था लेक़िन शो को उस प्रतियोगी के ज़रिये अच्छी रेटिंग मिल रही होगी शायद इसलिये काफ़ी समय तक वो शो में रहा लेक़िन जीता नहीं।
भारत का एक बड़ा हिस्सा मध्यम वर्गीय है और उन सभी के पास कुछ न कुछ ऐसी कहानी बताने के लिये होगी। संघर्ष सभी के जीवन में होता है उसका स्तर अलग हो सकता है। लेक़िन होता ज़रूर है। लेक़िन ये एक चलन सा भी बन गया है की लोग अपने संघर्ष को बड़े ही रोमांटिक अंदाज़ में बताते हैं। सिनेमाजगत में तो लगभग हर कलाकार के पास ऐसी ही कुछ कहानी होती है। किसी ने दस लोगों के साथ कमरा शेयर किया या लोकल के धक्के खाये।
आपके अनुभव किसी न किसी की ज़रूर मदद करेंगे लेक़िन उसके लिये आपको अपनी कहानी बताने का अंदाज़ बदलना होगा। हर बार वो ट्रैजिक स्टोरी सुना कर आप ट्रेजेडी किंग या क्वीन नहीं बन जायेंगे। अलबत्ता लोग ज़रूर आपसे कन्नी काटने लग जायेंगे।
ऐसी ही कहानी आपको आईपीएल के कई खिलाड़ियों के बारे में देखने या पढ़ने को मिलेगी। लेक़िन जब वो खिलाड़ी मैदान में उतरता है तो उसका जो भी संघर्ष रहा हो, पिच पर पहुँचने के बाद सिर्फ़ और सिर्फ़ ये मायने रखता है की वो अपने बल्ले से या गेंदबाजी से क्या कमाल दिखाता है।
पत्रकारिता बनाम व्हाट्सएप चैट
अब आते हैं आजकल जो चल रहा है। रिपब्लिक चैनल के मालिक और पत्रकार अर्णब गोस्वामी की कुछ व्हाट्सएप चैट इन दिनों ख़ूब शेयर की जा रही हैं। मामला है भारतीय जवानों पे हमले का और उनका कहना कि उन्होंने उसपर अच्छा काम किया है। मतलब उनकी चैनल को अच्छा ट्रैफिक मिला।
उनके इस कथन पर सबको घोर आपत्ति हो रही है। लेक़िन ये मीडिया का वो चेहरा है जिसके बारे में लोग कम बात करते हैं। आपने ये न्यूज़ चैनल को चुनाव या बजट पर तो अपनी पीठ ख़ुद थपथपाते देखा होगा। लेक़िन कम ही ऐसे मौक़े आये जब किसी त्रासदी पर कवरेज को लेकर ऐसा हुआ।
मैं अपने अनुभव से बता रहा हूँ आज जितने भी तथाकथित पत्रकार इस चैट पर घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं या अर्णब की तरफ़ उँगली उठा रहे हैं वो ख़ुद त्रासदियों को बेच बेच कर आगे बढ़े हैं। इस पूरे प्रकरण में एक बात औऱ साफ़ करना चाहूँगा की न तो मुझे अर्णब या उनकी पत्रकारिता के बारे में कुछ कहना है।
मॉरल ऑफ द स्टोरी: आपका संघर्ष, आपका दुःख बहुत निजी होता है। लोग संवेदना प्रकट करेंगे, आपसे सहानुभूति भी रखेंगे। लेक़िन आपको दुःख के उस पार का सफ़र भी तय करना होगा। क्योंकि सुख के सब साथी, दुःख में न कोय।
पत्रकारिता में जब शुरुआत हुई तो सभी चीजें नौकरी पर ही सीखीं। किसी संस्थान से कोई डिग्री, डिप्लोमा तो किया नहीं था, तो कैसे लिखने से लेकर, क्या लिखना, क्या नहीं लिखना ये सब सीखा। शुरुआत अखबार से करी थी तो ख़बर हमेशा जगह की मोहताज़ रहती थी। कभी जगह कम मिली तो बड़ी ख़बर छोटी हो जाती, लेकिन जब जगह ज़्यादा होती तो जैसे नासिर साब कहते, \”आज खुला मैदान है, फुटबॉल खेलो\”।
अख़बार में काम करते करते एक और चीज़ सीखी और जिसे प्रोफेशनल होने का लिबास पहना दिया – वो थी गुम होती सम्वेदनशीलता। उदाहरण के लिये जब किसी दुर्घटना की ख़बर आती तो पहला सवाल होता, फिगर क्या है। यहाँ फिगर से मतलब है मरने वालों की संख्या क्या है। अगर नंबर बड़ा होता तो ये फ्रंट पेज की ख़बर बन जाती है, अगर छोटी हुई तो अंदर के पेज पर छप जाती है या जैसे किसानों की आत्महत्या की खबरें होती हैं, छुप जाती हैं।
कुछ वर्षों पहले मुम्बई में मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी ने भी एक बार मुझे ये समझाया। \”लोगों को किसी दूसरे की ट्रेजेडी, दुख से एक अनकहा जुड़ाव रहता है। वो खुद दुखी होते हैं और यही हमारी सफलता है। तुम बस इसको समझ जाओ और इसको बेचो\”। उन्होंने कुछ गलत भी नहीं कहा था। 1984 में जब इंदिरा गांधी का निधन हुआ था तो उस समय उनके अंतिम संस्कार से लेकर बाकी सभी काम दूरदर्शन पर दिखाये जाते थे। उस दिन जब अस्थिसंचय का काम चल रहा तो शायद माँ ने टीवी बंद करने को कहा था। लेकिन मैंने बोला देखने दीजिये। पहली बार देख रहे हैं ये सब।
शायद ये सही भी होगा। अभी पिछले दिनों जब अभिनेता इरफ़ान खान और ऋषि कपूर जी की दुखद मृत्यु हुई तो सबने इसको बढ़चढ़ कर कवर किया। रही सही कसर उस बंदे ने पूरी करदी जिसने उनके अंतिम संस्कार के वीडियो बनाये और शेयर करने शुरू कर दिये। मुझे यकीन है इसको एक बड़ी जनता ने देखा भी होगा।
कोरोना वायरस के बाद ऐसी खबरों की जैसे बाढ़ आ गयी है। एक मोहतरमा भारत भ्रमण कर ऐसी खबरों का नियमित प्रसारण कर रही हैं। मुझे इन खबरों से कोई परहेज नहीं है। लोगों को परेशानी हो रही है और ये बताना चाहिये। लेक़िन क्या यही सब पत्रकार क्या अपने जानकारों के ज़रिये किसी भी तरह से इन लोगों की मदद नहीं कर सकते? सभी की मदद करना एक पत्रकार के लिये संभव नहीं होगा लेकिन वो किसी संस्था के ज़रिये ये काम कर सकते हैं। लेकिन किसी की ऐसी कहानी के ऊपर अपनी रोटियां सेंकना या अपने मालिकों के एजेंडे को आगे बढ़ाना कहाँ तक उचित है? अगर आपने Delhi Crime देखा हो तो उसमें एक पत्रकार पुलिस अफसर को बताती है की कैसे उनके संपादक महोदय ने दिल्ली पुलिस की नींद हराम करने की ठानी है। ये उनका एजेंडा है।
मेरा हमेशा से ये मानना रहा है की अगर आपको समस्या मालूम है तो समाधान की कोशिश करें। समस्या कितनी बड़ी है या छोटी है, उसके आकार, प्रकार पर समय न गवांते हुये उसका समाधान तलाशें। जब मेरा MA का पेपर छूट गया था तो समाधान ढूंढने पर मिल गया और मैंने साल गवायें बिना पढ़ाई पूरी करली। ऐसा कुछ खास नहीं हुआ लेक़िन ये एक अच्छी वाली फ़ील के लिये था।
तो क्या पत्रकार ही सब करदें? फ़िर तो किसी सरकार, अधिकारी की ज़रूरत नहीं है। नहीं साहब। लेकिन क्या आप हमेशा पत्रकार ही बने रहेंगे या कभी एक इंसान बन कर कोई मुश्किल में हो तक उसकी मदद करने का प्रयास करेंगे?
(इस फ़ोटो को देखने के बाद अपने को लिखने से रोक न सका)
मैं जब लिखने बैठता हूँ तो कोई सेट एजेंडा लेकर नहीं चलता। उस दिन जो भी पढ़ा, देखा, सुना उसका निचोड़ होता है और उसमें से कोई कहानी निकल जाती है। पिछले तीन हफ्तों से कुछ ऐसा देखा, पढ़ा, सुना की बहुत लिखने की इच्छा होते हुये भी एक शब्द नहीं लिख पाया। कई दिन इसी में निकल गये। आज तीन ड्राफ्ट को लिखा फ़िर कचरे में डाल दिया। ये एक और प्रयास है। देखें किधर ले जाता है।
अब ये बात बहुत पुरानी हो चुकी है। वैसे हुये कुछ दस दिन ही हैं लेकिन जिस रफ़्तार से समय निकलता है लगता है बहुत लंबा समय हो गया है। कबीर सिंह के निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा का एक इंटरव्यू जिसमें उन्होंने उनके हिसाब से प्यार क्या होता है ये बताया। बस लोग तो जैसे इस फ़िराक़ में थे की कैसे उन पर हमला बोला जाये। संदीप से मैं सहमत या असहमत हूँ मुद्दा ये नहीं है। क्या संदीप को अपने हिसाब से कुछ कहने का अधिकार है? अगर उनके हिसाब से लड़का या लड़की एक दूसरे पर अधिकार रखते हैं तो उन्हें उसकी अभीव्यक्ति की भी छूट मिलनी चाहिये। अगर आप उनसे सहमत नहीं है तो आप अपने पैसे उनकी फ़िल्म पर मत ख़र्च करिये। अपने जानने पहचानने वालों को भी अपने तर्कों से सहमत करिये की वो उनकी फ़िल्म न देखें।
आपके हिसाब से जो प्यार की अभिव्यक्ति हो वो मेरे लिये शायद एक अपमानजनक कृत्य हो। या जो मेरा अभीव्यक्त करने का तरीका हो उसे देख आप हँसने लगे। तो क्या मेरा तरीका ग़लत है? क्या मुझे आपके हिसाब से या आपको मेरे हिसाब से अपने सभी कार्य करने चाहिये?
हम लोग अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात तो करते हैं लेकिन किसी दूसरे को ऐसा करता देख उससे सवाल पूछना शुरू कर देते हैं। अंग्रेज़ी में एक कहावत है – The right to be right belongs to everyone. लेकिन हम संदीप को ये अधिकार नहीं दे रहे क्योंकि उनकी सोच अलग है।
अब चूँकि सभी के पास अपने विचार व्यक्त करने के लिये अलग अलग प्लेटफार्म हैं तो कोई मौका भी नहीं छोड़ता। अपने आसपास ही देखिये। व्हाट्सएप, फ़ेसबुक और ट्विटर के पहले भी लोग राय रखते थे लेक़िन व्यक्त करने का ज़रिया सीमित था। आपके आसपास के कुछ लोग जानते थे आपके विचार। आज तो न्यूयॉर्क में प्रियंका चोपड़ा के कपड़ों के बारे में गौहरगंज के सोनू लाल भी राय रखते हैं और उसे इन्हीं किसी प्लेटफार्म पर शेयर भी करते हैं।
कभी मुझे वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेने में बहुत अच्छा लगता था। दूसरों के विचार सुन कर कुछ नया तर्क सीखने को मिलता। छठवीं कक्षा में रामधारीसिंह दिनकर की कविता कलम या तलवार से प्रेरित वादविवाद में मैंने जब तलवार का पक्ष लिया था तब शायद ये नहीं पता था की एक दिन पाला बदल कर में क़लम की हिमायत करूँगा। लेकिन आज ये जो बेतुकी बहस चलती है उसका हिस्सा बनने से परहेज़ है। वादविवाद के चलते एक चीज़ समझ में आई की तर्क का अपना महत्व है। आसमां से चाँद तोड़ लाने का वादा तो हर आशिक़ करता है।
दिल्ली से जो मेरा पत्रकारिता का सफर शुरू हुआ था उसकी नींव भोपाल में पड़ी थी। कॉलेज करने के बाद PG करने का मन तो नहीं था लेकिन LLB नहीं कर पाने की वजह से MA में दाखिला ले लिया। लेकिन दो घंटे के कॉलेज के बाद समय ही समय होता था। संयोगवश वहीं से प्रकाशित दैनिक में आवयश्कता थी और मैंने अर्ज़ी भेज दी और चुन भी लिया गया।
जिस समय मैं इस फील्ड को समझ रहा था उस समय भी इसका आभास नहीं था कि एक दिन में इसे बतौर करियर अपनाऊंगा। उस समय इसका सिर्फ एक उद्देश्य था -समय का सदुपयोग। पता नहीं कैसे धीरे धीरे मुझे पत्रकारिता रास आने लगी और आज इतना लंबा सफर गुज़र गया जो लगता है जैसे कुछ दिन पुरानी बात ही हो।
डॉ सुरेश मेहरोत्रा मेरे संपादक थे और नासिर कमाल साहब सिटी चीफ। अगर आज मैं इस मुकाम पर हूँ तो इसका श्रेय इन दो महानुभाव को जाता है। मुझे अभी भी याद मेरी पहली बाइलाइन जो कि पहले पन्ने पर छपी थी। आज के जैसे उन दिनों बाइलाइन के लिए बड़े कठोर नियम हुआ करते थे। बाइलाइन का मतलब उस स्टोरी को किसने लिखा है।
पहली बाइलाइन स्टोरी वो भी फ्रंट पेज पर। खुशी का ठिकाना नहीं। स्टोरी थी मध्य रेल के अधिकारी के बारे में और उनके एक वक्तव्य को लेकर। स्टोरी छपी और दूसरे दिन मुझे ढूंढते हुए कुछ लोग पहुँचे। उनकी मंशा निश्चित रूप से मुझे अपने परिवार का दामाद बनाने की नहीं रही होगी और मैं खुश भी था और डरा हुआ भी। खैर उनसे आमना सामना तो नहीं हुआ लेकिन छपे हुए शब्दों का क्या असर होता है उसको देखा।
डॉ मेहरोत्रा ने हमेशा हर चीज़ के लिये प्रोत्साहित ही किया। नहीं तो इतनी जल्दी से विधानसभा पर कवरेज, मंत्रालय बीट आदि मिलना बहुत ही मुश्किल था।
नासिर कमाल साहब कब बॉस से दोस्त बन गए पता नहीं चला। मामू, नासिर भाई के नाम से हम सब उन्हैं प्यार बुलाते थे। उनके काम करने अंदाज एकदम अलग। ओर बिना किसी शोर शराबे के सारा काम आराम से हो जाया करता था। और भोपाल के इतिहास के उनके पास जो किस्से थे वो कभी किताब की शक्ल ले ही नहीं पाये।
आज अगर कोई मुझे अच्छे बॉस होने के श्रेय देता है तो मैं कृतज्ञता प्रकट करता हूं डॉ मेहरोत्रा और नासिर क़माल साहब के प्रति। और धन्यवाद देता हूँ उन सबको जिनके चलते मुझे ऐसे सुलझे व्यक्तित्व के धनी दो व्यक्ति मिल गए अपने शुरुआती में। #असीमित #भोपाल #दिल्ली