रविवारीय: वाह री दुनिया, तेरे जलवे हैं निराले

नये साल को शुरू हुये एक हफ़्ता भी हो गया औऱ लगता है अभी कल की ही बात है जब हम गोआ में नये साल का स्वागत कर रहे थे। कहाँ 2021 के गुज़रने का इंतज़ार कर रहे थे औऱ कहाँ 2022 ही हफ़्ते भर पुराना हो गया है।

जब साल ख़त्म हो रहा था तब से मैं यही सोच रहा था 2021 का अपना अनुभव लिखूँ। लेक़िन अचानक गोआ का कार्यक्रम बन गया औऱ लिखने का कार्यक्रम पीछे रह गया। जो साल की आखिरी पोस्ट मैं लिख पाया वो भी जैसे तैसे हो ही गया। जब 31 दिसम्बर की ढेरों फ़ोटो देखीं तो ज़्यादातर में फ़ोन पर ही कुछ करता हुआ दिख रहा हूँ। दरअसल वो बस लिखने का प्रयास ही कर रहा था। उस बीच में खाना औऱ पीना दोनों भी चल रहा था।

ख़ैर, जब वापस लौटने का कार्यक्रम बना तो मैंने बस से आने का कार्यक्रम बनाया। अपने जीवन में मैंने सबसे कम बस से यात्रायें करीं हैं। जब भी ये यात्रायें हुईं तो वो सरकारी बस से ही हुई औऱ उन्हीं जगहों पर जाना हुआ जहाँ रेलगाड़ी से जाना संभव नहीं था। अब हमारी सरकारी बसों के बारे में जितना लिखा जाये वो कम ही है। हमारे देश की एक बड़ी जनता के लिये बस ही सस्ता औऱ सुलभ यात्रा का साधन रहा है लेक़िन सुविधाओं में विकास उतना तेज़ी से नहीं हुआ। हाँ, निजी बस सर्विस ज़रूर शुरू हो गईं लेक़िन ये यात्रायें कितनी आरामदायक हो गईं हैं, इसका अनुभव मुझे करना था। शायद एकाध बार ही वीडियो कोच बस में यात्रा करी है औऱ उसकी भी कोई ज़्यादा याद नहीं है।

लेक़िन गोआ से मुम्बई से पहले चलते हैं प्राग। जब ऑफिस की सालाना मीटिंग के लिये प्राग जाना हुआ तो म्युनिक से बस से जाना था। शायद तीन-चार घंटे की यात्रा थी। पहले ही लंबी विमान यात्रा उसके बाद ये बस यात्रा – लगा जैसे सब गड़बड़ हो गया। लेक़िन जब बस बैठे तो एक बड़ी सुखद अनुभूति हुई। एक तो क़माल की रोड हैं उसपर  बडी आरामदायक बस। जो नई बात थी वो थी बस में एक शौचालय। ये पहली बार किसी बस में देखा था। अपने यहाँ तो बस रुकने तक रुकिये या बस रुकवाईये। बीच में जहाँ बस रुकी भी तो वहाँ भी बड़े अच्छे शौचालय थे औऱ एक छोटी सी दुकान जहाँ खाने पीने का सामान मिलता है।

जब गोआ से मुम्बई की स्लीपर कोच में सीट बुक करी तो मैं बड़ा उत्सुक था इस यात्रा को लेकर। मेरा ये मानना है जब तक आपको किसी भी चीज़ का व्यक्तिगत अनुभव न हो तो उसके बारे में कहना या लिखना एक ग़लत बात हो जाती है। कई बार मन में आया की किसी तरह ट्रैन में टिकट जुगाड़ी जाये औऱ आराम से घर पहुंचा जाये। भाई ने भी बोला ट्रेन में मुंबई तक साथ चलने के लिये। लेक़िन रात भर की बात थी तो मैं भी तय कार्यक्रम के अनुसार ही चला।

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अग़र आपने इन बसों में यात्रा न करी हो तो इनकी सीट रेल की बर्थ की तरह ही होती हैं। जगह ठीकठाक रहती है। आपको सोने के लिये थोड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है। क्यूँ? इस पर आगे। तो यात्रा शुरू हुई औऱ सीट पर बैठने या कहें लेटने के बाद उठने के कष्ट के अलावा औऱ कोई परेशानी नहीं हुई। बीच में भोजन के लिये रुके औऱ वापस अपनी सीट पर। बस शायद हर दो घंटे के बाद कहीं रुकती क्योंकि एक बंदा आकर बोलता किसी को अग़र लघुशंका के लिये जाना हो तो चला जाये।

मतलब इस बस में शौचालय नहीं था। शायद कुछ बसों में ये सुविधा अब मिलने लगी है लेक़िन सभी बसों में ये उपलब्ध नहीं है। वैसे स्लीपर कोच की यात्रा बहुत आरामदायक हो सकती है (अगर आपको उठने बैठने में परेशानी न हो तो)। लेक़िन हमारे यहाँ इसके आरामदायक होने में अभी कुछ वर्ष लगेंगे। कारण? यात्रा के आरामदायक होने के लिये दो चीज़ों का होना बहुत ज़रूरी है। एक तो बस का आरामदायक होना औऱ दूसरा सड़कों का अच्छा निर्माण।

गोआ से चले तो कुछ हिस्से तक सड़क बहुत बढ़िया थी। अब किसी अदाकारा के गालों की मिसाल देना तो ठीक नहीं होगा। बस बहुत अच्छी रही शुरू के एकाध घंटे की यात्रा। उसके बाद जब ख़राब सड़क आयी तो उह, आह, आउच वाली स्थिति रही। ख़ैर कुछ देर बाद ख़राब सड़क कब ख़त्म हो गयी औऱ कब नींद लग गयी पता नहीं चला।

थोड़े समय बाद ऐसा आभास हुआ की बस तो चल ही नहीं रही है। शायद इसलिये अच्छी नींद आ रही थी। खिड़की से देखा तो ऐसा नहीं लगा किसी होटल पर रुके हैं क्योंकि ज़्यादातर ड्राइवर चाय पीने के लिये कहीं रुकते हैं। यहाँ तो वो भी गायब। किसी तरह उठकर बाहर आये तो पता चला बस में कुछ ख़राबी है जिसको वो लोग ठीक कर रहे थे। नींद तो आ ही रही थी तो वापस पहुँच गये नींद्रलोक लोक में।

थोड़ी देर बाद फ़िर नींद खुली तो लगा अभी भी बस नहीं चल रही है। नीचे उतरकर पता किया तो बताया इसको ठीक करने कंपनी का मैकेनिक ही आयेगा। पंदह बीस मिनट से शुरुआत होते होते बात आठ घंटे तक खींच गयी। उसके बाद फ़िर यात्रा शुरू हुई तो सुबह के घर पहुँच कर काम शुरू करने का कार्यक्रम धरा का धरा रह गया औऱ ग्रह प्रवेश शाम को ही हो सका।

ऐसी घटनायें मैंने सुन तो रखीं थीं लेक़िन पहली बार अनुभव किया था। इंदौर से बिलासपुर (छत्तीसगढ़) जाने के लिये एक इंदौर-बिलासपुर ट्रैन चलती है। इसमें भोपाल से भी कोच लगता है। अभी का पता नहीं लेक़िन पहले ये ट्रेन बहुत ही लेट लतीफ़ हुआ करती थी। भोपाल से चढ़ने वाले यात्रियों की सुविधा के लिये रेलवे ने उनको कोच में बैठने की इजाज़त से दी। यात्रियों के लिये भी ये सुविधाजनक हो गया। इंदौर से ट्रैन जब आये तब आये, वो आराम से बैठ सकते थे औऱ सो भी सकते थे।

एक बार किसी परिचित का जाना हुआ। उनको स्टेशन पर छोड़कर आ गये क्योंकि ट्रेन का कोई अता पता नहीं था। वो भी आराम से सोने चले गये। जब सुबह गाड़ी के जबलपुर पहुँचने के समय पर उठ कर दरवाज़े पर आये तो उन्हें स्टेशन थोड़ा जाना पहचाना से लगा। औऱ क्यूँ न लगे क्योंकि उनकी ट्रैन या कहें उनका कोच अभी तक भोपाल में ही खड़ा हुआ था।

इस ट्रेन का भोपाल आने का समय भी अल सुबह होता था। लेक़िन जितना इसको जाने में समय लगता, आने में ये बिल्कुल समय पर या उससे भी पहले। सर्दियों की सुबह किसी को स्कूटर पर लेने जाना हो तो आनंद ही आनंद। उसपर ट्रेन के इंतज़ार में अग़र स्टेशन की चाशनी जैसी चाय भी हो तो सुभानअल्लाह। वैसे चाय से गोआ का एक वाक्या भी याद आया लेक़िन उसके लिये थोड़ा इंतज़ार।

ख़ैर, साल के दूसरे ही दिन ख़ूब सारा ज्ञान प्राप्त हुआ। औऱ ये सब अपने ही एक निर्णय के चलते। तो क्या आपको स्लीपर कोच से यात्रा करनी चाहिये? ये इसपर निर्भर करता है आप उम्र के किस पड़ाव पर हैं। औऱ आप अगर जिस जगह जा रहें हैं वहाँ की सड़कों हालत की थोड़ी जानकारी निकाल लें तो बेहतर होगा। यही यात्रा अग़र बैठे बैठे करी गई होती तो? तो शायद ये पोस्ट नहीं होती। ये हम लोगों की यूँ होता तो क्या होता वाली सोच हमेशा कहीँ न कहीं प्रकट हो जाती है। श्रीमतीजी को भी लगा की मैंने फ़ालतू इतनी मुसीबत झेली। लेक़िन सब कुछ होने के बाद तो सभी समझदार हो जाते हैं। देखिये अब अग़र कहीं आसपास जाना होता है तो क्या इस फ़िर से बस यात्रा के लिये मन बनेगा?

आप सभी इस पोस्ट को पढ़ें औऱ आगे भी शेयर करें औऱ थोड़ा कष्ट अपनी उंगलियों को भी दें इस सर्दियों में। एक कमेंट लिख कर बतायें आपकी प्रतिक्रिया। आपकी बस यात्रा का अनुभव। आप तक ये पोस्ट किस तरह पहुँचे ये भी बतायें। क्या एक औऱ … व्हाट्सएप ग्रुप आप को परेशान तो नहीं करेगा? आपके जवाब/बों का इंतज़ार करेगा असीम।

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की…

आज एक फ़ोटो देखने औऱ एक कहानी पढ़ने के बाद ये पोस्ट लिखना तय हुआ। अब दिमाग़ में तो कहानी बन जाती है, लेक़िन उसको जब लिखना शुरू करो तो मामला टायें टायें फिस्स हो जाता है। चलिये आज फ़िर से प्रयास करते हैं।

तो आज एक अदाकारा ने अपनी नई गाड़ी के साथ फ़ोटो साझा करी। जो गाड़ी उन्होंने ली वो मुझे भी बहुत पसंद है औऱ जीवन में पहली बार बैठना हुआ 2018 में जब दिल्ली में काम करता था। मोहतरमा ने लिखा कि ये गाड़ी खरीदना उनके लिये एक सपने के जैसा है। उन्होंने कभी नहीं सोचा था की उनके जीवन में ये दिन कभी आयेगा।

जो गाड़ी उन्होंने ख़रीदी है वो कोई ऐसी ख़ास महंगी नहीं है। मतलब आज जिस तरह से हमारे कलाकार करोड़ों रुपये की गाड़ी ख़रीद कर फ़ोटो साझा करते हैं, उसके मुकाबले ये गाड़ी कोई ख़ास महँगी नहीं है।

लेक़िन जब आप किसी गाड़ी का अरमान लेकर बड़े होते हैं तो औऱ जब आप उसको ख़रीद लेते हैं तो वो बेशकीमती हो जाती है। उसके साथ जो आपका जुड़ाव होता है वो पैसे से नहीं नापा जा सकता है। उसको ख़रीदना एक सपना ही रहता है। आप सारा जीवन ललचाई नज़रों से औऱ लोगों के पास उस गाड़ी को जब देखते रहते हैं औऱ एक दिन उस लंबे इंतज़ार के बाद जब वही गाड़ी आपके पास होती है तो विश्वास नहीं होता। जब आप उसपर बैठकर घूमने निकलते हैं तो आपका एक अलग अंदाज भी होता है औऱ एक अलग उमंग भी।

पिछले कुछ समय से पिताजी से नई गाड़ी लेने के लिये आग्रह किया जा रहा है। अब वो ज़माने लद गये जब एक ही गाड़ी जीवन भर चल जाती थी औऱ अगर देखभाल ठीक ठाक करी हो तो उसको अगली पीढ़ी को भी सौंप देते हैं। अभी तो नियम कायदे भी ऐसे हो गये हैं की पुरानी गाड़ी रखना मुश्किल है। अभी जो गाड़ी है उसका भरपूर उपयोग किया गया है। पिताजी का गाड़ियों के प्रति वैसे भी कुछ ज़्यादा ही लगाव रहता है।

इसलिये पिताजी को गाड़ी बदलने के लिये मनाना कोई आसान काम नहीं है। उस गाड़ी के साथ ढेरों यादें भी जुड़ी हुई हैं। उसको लेकर कई चक्कर मुम्बई के लगाये हैं औऱ एक बहुत ही यादगार यात्रा रही भोपाल से कश्मीर की। वैसे तो हम लोगों ने कार से कई यात्रायें करी हैं लेक़िन ये सबसे यादगार यात्रा बन गई।

अब इससे पहले की यात्रा के संस्मरण शुरू हो जायें, मुद्दे पर वापस आते हैं। तो मोहतरमा का गाड़ी के प्रति प्यार देखकर मुझे याद आयी मेरे जीवन की पहली गाड़ी। गाड़ी लेने के प्रयास कई बार किये लेक़िन किसी न किसी कारण से ये टलता ही रहा। फ़िर कुछ सालों बाद एक दो पहिया औऱ उसके कुछ वर्षों बाद चार पहिया वाहन भी ख़रीद लिया।

जब कार ख़रीदी तब सचमुच लगा की आज कुछ किया है। तूफ़ानी भी कह सकते हैं। मेरे लिये कार ख़रीदना के सपने के जैसा था। जिस तरह से मैं काम कर रहा था या जैसे शुरुआत करी थी, जब गाड़ी आयी तो लगा वाकई में जीवन की एक उपलब्धि है। औऱ इसी से जुड़ी है आज की दूसरी फ़ोटो जिसका ज़िक्र मैंने शुरुआत में किया था। एक उड़ान खटोले वाली निजी कंपनी ने अपना एक विज्ञापन दिया – हम आपके जीवन के लक्ष्य या बकेट लिस्ट को पूरा करने में आपकी मदद करेंगे।

इन दिनों इस बकेट लिस्ट का चलन भी बहुत है। लोग अपने जीवन में जो भी कार्य उन्हें करने है, कहीं घूमने जाना है, पैराशूट पहन कर कूदना है, या किसी ख़ास व्यक्ति से मिलना है, आदि आदि की लिस्ट बना कर रखते हैं। औऱ उनको पूरा करने का प्रयास करते हैं। जब ये हो जाता है तो सोशल मीडिया पर पूरी दुनिया को बताते हैं।

क्या मेरी कोई लिस्ट है? नहीं। क्योंकि मुझे तो लगता है मेरा जीवन भी कोई बकेट लिस्ट से कम नहीं है। मैं ये लिख रहा हूँ, आप ये पढ़ रहे हैं – ये किसी लिस्ट का हिस्सा नहीं हो सकते। हाँ अब लगता है एक लिस्ट बना ही लूँ लेक़िन उसमें सिर्फ़ एक ही चीज़ लिखूँ। बेशर्मी। नहीं नहीं वो नहीं जो आप सोच रहे हैं, बल्कि बेशर्म हो कर लिखना औऱ उससे भी ज़्यादा बेशर्म होकर सबसे कहना पढ़ो औऱ शेयर करो। औऱ हाँ कमेंट भी करना ज़रूर से। लीजिये शुरुआत हो भी गयी। 😊

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाइश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेक़िन फ़िर भी कम निकले

ज़रा हट के, ज़रा बच के ये कोरोना है मेरी जान

जब पेप्सी भारत में आया था तब उसका एक पेय पदार्थ था 7 up जिसको बेचने के लिये एक कार्टून चरित्र फिडो डीडो का इस्तेमाल किया था। ये क़िरदार बहुत ही अलग था। ज़्यादातर आप किसी बड़ी हस्ती को इन पेय पदार्थों के विज्ञापन करते देखते हैं। लेक़िन इस बार ऐसा नहीं था औऱ शायद इसी कारण से ये यादगार बन गया।

इस फिडो डीडो के कई कार्ड भी चले जो बस तीन या चार शब्दों में कोई संदेश देते जो की उस पेय पदार्थ के बारे में नहीं होता था। उसमें से एक था Normal is boring. इसको दर्शाने के लिए या तो ये क़िरदार उल्टा खड़ा रहता या औऱ कोई उटपटांग हरकत करता।

हम सबकी एक उम्र भी होती है जब नार्मल बोरिंग लगता है। शायद उसी उम्र में आया होगा इसलिये पसंद आया। उम्र के उस दौर में ऐसी ही कुछ उटपटांग हरकतें करने में आनंद भी आता था। वैसे आज बालदिवस भी है तो सब आज ख़ूब ज्ञान भी बाँट रहे हैं।

2020 में नार्मल शब्द जैसे हमारे जीवन से गायब सा हो गया था। इसी साल जनवरी के महीने में दो बार रेल यात्रा करने का अवसर मिला। उसके बाद से घर के अंदर बंद रहना नार्मल हो गया था। बिना घर से बाहर निकले सब ज़रूरी सामान की खरीदारी इंटरनेट के ज़रिये करना नार्मल हो गया था।

जब उसी वर्ष अक्टूबर में दिल्ली जाना हुआ तो उड़नखटोला इस्तेमाल किया गया। वो भी बिल्कुल अलग अनुभव था।

इस वर्ष दीवाली के समय जब फ़िर से रेल यात्रा का संजोग बना तो सबकुछ बहुत अटपटा सा लगा। एक तो लगभग डेढ़ वर्ष से टैक्सी में बैठना नहीं हुआ था तो जब टैक्सी बुक करी तभी से थोड़ी हिचकिचाहट सी थी। हिचकिचाहट दरअसल पूरी यात्रा को लेकर थी। एक विकल्प था की अपनी धन्नो को लंबे सफ़र के लिये निकालते। लेक़िन इतना लंबा सफ़र कुछ बहुत ज़्यादा सुविधाजनक नहीं लग रहा था। एक साल पहले तक गाड़ी निकालने से पहले दोबारा विचार नहीं करते थे। लेक़िन इस बार पता नहीं क्यूँ रेलगाड़ी का मन बन गया था।

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जब स्टेशन पहुँचे औऱ अपनी सीट पर बैठे तो हिचकिचाहट कुछ कम हुई। रेलगाड़ी के अंदर एक अपनापन सा लगता है। मतलब सब कुछ आपका जाना पहचाना। हाँ इस बार जो कोच था वो नया था थोड़े बहुत बदलाव थे लेक़िन पुरानी पहचान थी तो ये बदलाव भी अच्छे ही लगे। जैसे जैसे कोच में बाकी यात्री आना शुरू हुये, तब इस बात का एहसास हुआ नार्मल भले ही बोरिंग हो, लेक़िन इतने लंबे समय के बाद इसी नार्मल की तो ज़रूरत है। उसके बाद आसपास के लोगों से बातचीत (थोड़ी बहुत) शुरू हुई। कभी ऐसा भी होगा जब आप डरते हुये सफ़र करेंगे ये नहीं सोचा था।

सैनिटाइजर जो अब हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है, उसका इस्तेमाल ख़ूब हुआ। जबसे रेल में, मतलब एसी में यात्रा करना शुरू किया है, तबसे एक आदत सी हो गयी थी सिर्फ़ सामान लेकर पहुँच जाने की। बाकी ओढ़ने, बिछाने की ज़िम्मेदारी रेलवे की रहती। मगर इस बार ऐसा नहीं था तो ये अतिरिक्त सामान साथ में गया। औऱ याद आये वो दिन जब एक होल्डऑल नामक एक चीज़ हुआ करती थी।

इसमें ओढ़ने, बिछाने से लेकर जो सामान कहीं नहीं आ रहा हो सब भर दिया जाता। जब कोच में पहुँचते तो सबको सामान वितरित कर इसको सीट के नीचे रख दिया जाता। ये तब की बात है जब स्लीपर से सपरिवार यात्रा करते थे। अब तो हम सबने अपनी आदतें ऐसी बिगाड़ली हैं कि या तो एसी या फ्लाइट। औऱ एसी में भी सेकंड एसी ही चलता है। थर्ड एसी उसी हालत में जब सेकंड एसी में जगह नहीं हो।

आजकल सब अपनी क्लास को लेकर भी बहुत ज़्यादा चिंतित रहते हैं। वो ज़माने लद गये जब हवाई यात्रा या एसी में यात्रा एक स्टेटस की बात हुआ करती थी। अब तो ये सबकी पहुँच के अंदर है औऱ आराम से यात्रा करना किसे पसंद नहीं होगा।

वापस आते हैं मुद्दे पर। तो यात्रा शुरू हुई उसके बाद सब नार्मल ही लग रहा था। ट्रैन में यात्रा करने के कई फ़ायदों में से एक है आप ज़्यादा सामान लेकर भी चल सकते हैं। औऱ माताजी ने पिछली सर्दियों से तरह तरह के अचार आदि बना रखे थे। लेक़िन उसका मुम्बई प्रस्थान टलता जा रहा था। उड़नखटोला से आने में बस ये डर लगता है की उसकी महक एयरपोर्ट स्टाफ़ तक न पहुँचे। नहीं तो उतरने के बाद सब गायब (सच में बहुत ही मज़े का सामान बटोर कर लाये हैं इस बार)।

वापसी जब हुई तो ये सब सामान से लदे ट्रैन में सवार हुये। अब यही बात बाक़ी यात्रियों पर भी लागू होती है। बस ये हुआ रात के क़रीब दो बजे जब एक तीन सदस्यों का परिवार चार बड़े सूटकेस लेकर चढ़ा औऱ जिस तरह से उन्होंने पहले सामान को एडजस्ट किया औऱ बाद में बमुश्किल अपनी बेगम को ऊपर की बर्थ पर पहुँचाया – ये सब देखकर वो दो साल का समय फ़ुर्र हो गया। यही तो वो नार्मल है जिसकी कमी इतनी महसूस कर रहे थे।

क्या आपने इस दौरान कोई यात्रा करी है? कैसा रहा आपका अनुभव? क्या कुछ बदला? आप कमेंट करके बता सकते हैं। अग़र भोजन पर इस बारे में बात करने का मन हो तो समय निकाल कर आइये। गपशप के साथ आप अचार भी चख लेंगे।

औऱ जैसे मजरूह सुल्तानपुरी के बोल को अपनी आवाज़ में गीता दत्त ने कहा, ऐ दिल है आसां जीना यहाँ, सुनो मिस्टर सुनो बंधु…

गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है

हमारे बड़े जो हैं अपने अनुभव से बहुत सी बातें हमें सिखाते हैं। सामने बैठा कर ज्ञान देने वाली बातों की बात नहीं कर रहा हूँ लेक़िन छोटी छोटी बातें जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में होती रहती हैं उनसे मिलने वाली सीख की बात कर रहा हूँ। जो सामने बैठा कर ज्ञान मिलता है वो तो कभी कभार होता है औऱ कुछ ख़ास मौकों पर या किसी व्यक्तिविशेष के संदर्भ में होता है।

पिताजी शिक्षक रहे हैं तो उन्होंने पढ़ाई/परीक्षा की बहुत सी बातें बतायीं जैसे पेपर मिलने पर उसको पूरा पढ़ें या लिखने के बाद दोबारा पढ़ ज़रूर लें। परीक्षा के पहले सारा सामान जैसे पेन, पेंसिल आदि जाँच लें। इसके अलावा पढ़ाई के लिये वो हमेशा कहते लिखने का अभ्यास बहुत ज़रूरी है। बार बार लिखो इससे चीज़ें याद रहती हैं।

आज इनका ज़िक्र क्योंकि एक लेख पढ़ रहा था। युवाओं के लिये था। अब अड़तालीस साल वाला भी युवा होता है यही मान कर मैंने भी पढ़ डाला। तो उसमें यही बताया गया की अगर आपका कोई लक्ष्य है तो आप उसको लिखें औऱ अपनी आँखों के सामने रखें जिससे आपको याद रहे की आप क्या पाना चाहते हैं। लक्ष्य लिखने से थोड़ी आपके विचारों में भी क्लैरिटी आती है। मैंने बहुत उपयुक्त शब्द ढूंढा लेक़िन क्लैरिटी से अच्छा कुछ नहीं मिला।

इसी तरह जब कहीं बाहर जाना होता तो पिताजी काफ़ी समय पहले घर से निकल जाते औऱ भले ही स्टेशन पर एक घंटा या ज़्यादा इंतज़ार करना पड़े, वो जो आखिर में भाग दौड़ होती है उससे बच जाते हैं औऱ प्लेटफॉर्म पर कुछ पल सुकून से बिताने को मिल जाते हैं। साथ ही पढ़ने के लिये कोई किताब देखने का समय भी मिल जाता है।

हर बार समय पर या समय से पहले पहुँच ही जाते थे लेक़िन एक बार समय से काफ़ी पहले निकलने के बाद भी कुछ ऐसा हुआ… आपकी कभी ट्रैन, फ्लाइट या बस छूटी है? माता-पिता एक बार मुम्बई आये थे। उनकी वापसी की ट्रेन शाम की थी तो तय समय से काफ़ी पहले हम लोग स्टेशन पर जाने को तैयार थे। क्योंकि मुम्बई में ही पहले कुछ रिश्तेदारों की ट्रेन छूट चुकी थी तो कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे। इसलिये टैक्सी भी बुक कर ली। लेक़िन ऐन समय पर बड़ी टैक्सी नहीं मिली तो दो छोटी टैक्सी बुक करी। एक में माता पिता के साथ मैं बैठा औऱ दूसरी में श्रीमतीजी एवं बच्चे। अब ये भी हमारे यहाँ एक आदत सी बन गयी है। हमारे मतलब हिंदुस्तान में जहाँ जाने वाले दो लोग औऱ विदा करने वाले दस। पिछले दिनों जब कुछ शहरों में प्लेटफार्म टिकट के दाम बढ़े तो काफ़ी हंगामा भी हुआ।

हम मुद्दे पर वापस आते हैं। जैसा महानगरों में होता है, सड़कों पर बारह महीने काम होता है। जब बात करोड़ों की हो तो काम भले ही न हो रहा हो, दिखना चाहिये हो रहा है। तो हमारे रास्ते में भी ऐसा ही कुछ हुआ जिसके चलते लंबा जाम लगा हुआ था। ट्रैफिक रेंग रहा था लेक़िन उम्मीद थी कि समय पर पहुँच जायेंगे। लेक़िन थोड़ी देर बाद ऐसी आशायें ख़त्म होती दिख रही थीं। जब ये पक्का हो गया की ये संभव नहीं हो पायेगा तो ये निर्णय लिया गया कि दूसरे स्टेशन, दादर, जहाँ ट्रैन दस मिनिट बाद पहुँचती है वहाँ जाया जाय। या पहुँचने का प्रयास किया जाये।

वहाँ पहुँचने की उम्मीद ही नहीं यक़ीन भी था। बीच में पिताजी एक दो बार गुस्सा भी हुये लेक़िन ट्रैफिक जाम पर किसी का ज़ोर नहीं था। हम लोग साथ में ये भी बात करते जा रहे थे की अग़र वहाँ भी नहीं पहुँचे तो क्या क्या विकल्प हैं। ख़ैर जब दादर के नज़दीक पहुँचे तो सबने राहत की साँस ली। लेक़िन कहानी में ट्विस्ट बाक़ी था।

ट्विस्ट ये था की जो हमारे ड्राइवर साहब थे उन्होंने वो मोड़ छोड़ दिया जहाँ से दादर स्टेशन बस दो मिनिट की दूरी पर था। समय का मोल तुम क्या जानो ड्राइवर बाबू। उस पर महाशय कहने लगे आपको बताना चाहिये था। अचानक फ़ोन की घंटी बजने लगी। श्रीमतीजी का कॉल था।

अब इतना कुछ चल रहा था उसपर ये कॉल। लेक़िन घर वापस भी आना था औऱ चाय भोजन का भी सवाल था। तो फोन सुनना तो था ही। लेक़िन उधर से जो सुना उसके बाद हँसी छूट गयी। दरअसल श्रीमतीजी औऱ बच्चे जो माता पिता को विदा करने आये थे वो स्टेशन पहुँच चुके थे। लेक़िन मुसाफ़िर अभी भी टैक्सी की सवारी का आनद ले रहे थे।

जब स्टेशन पहुँचे तो सबसे पहले पूछा ट्रैन आ गयी है क्या। जब पता चला की अभी आने वाली है तो सबने दौड़ लगा दी। अब ये जो AC वाले डिब्बे होते हैं ये या तो बिलकुल आगे लगे होते हैं या पीछे। वैसे तो आजकल सभी डिब्बे जुड़े रहते हैं तो आप अंदर ही अंदर भी अपनी सीट तक पहुँच सकते हैं। लेक़िन माता पिता को उनकी सीट पर ही बैठाने का निर्णय लिया। ट्रैन आयी औऱ सामान रखकर वो बैठ भी गये। इस बात को समय काफ़ी समय हो गया है लेक़िन अब ये वाक्या समय पर या समय से पहुँचने के लिये एक उदाहरण बन गया है।

ऐसा ही एक औऱ वाक्या हुआ था जब श्रीमती जी एवं बच्चों को मायके में एक विवाह में सम्मिलित होने के लिये जाना था। उस समय टैक्सी मिली नहीं औऱ उन दिनों अपनी गाड़ी नहीं थी। एक पड़ोसी की गाड़ी मिल तो गयी लेक़िन उस समय मेरे लाइसेंस का नवीनीकरण होना बाक़ी था। अच्छी बात ये थी की पिताजी साथ में थे। पहले थोड़ी डाँट खाई उसके बाद हम स्टेशन के लिये रवाना हुये। चूँकि बच्चे छोटे थे औऱ सामान भी था इसलिये सीट तक छोड़ने का कार्यक्रम था। स्टेशन पहुँच कर माँ, श्रीमती जी औऱ मैंने फ़िर वही दौड़ लगाई। माँ के पैर में मोच आयी थी लेक़िन बच्चों का हाँथ पकड़कर उन्होंने भी अपना योगदान दिया। लेक़िन इस बार कोच आगे की तरफ़ था। भागते दौड़ते पहुँच ही गये औऱ सवारी को गाड़ी भी मिल गई। अक्सर ये विचार आता है अगर उस दिन गाड़ी छूट गई होती तो क्या होता? 

2019 में जब भोपाल जाना हुआ था तब हमारी ट्रेन छूट गयी। ट्रैफिक के चलते हम जब हमारी टैक्सी स्टेशन में दाख़िल हो रही थी तब ट्रैन सामने से जाती हुई दिखाई दे रही थी। जब तक टैक्सी रुकती तब तक आख़िरी कोच भी निकल चुका था। वो तो दो घंटे बाद वाली ट्रेन में टिकट मिल गया तो भोपाल जाना संभव हुआ। हमारे जीवन में बहुत सी चीजों का योग होता है तभी संभव होता है। इस यात्रा का योग भी बन ही गया।

ऐ भाई ज़रा देख के चलो

टीवी पर समाचार के नाम पर जो परोसा जाता है वो देखना बहुत पहले ही बंद हो चुका है। लेक़िन दो दशकों की समाचार के बीच रहने आदत के चलते अब अपने को अपडेट करने का दायित्व आकाशवाणी को दिया है। सच मानिये रोज़ सुबह शाम पंद्रह मिनट का बुलेटिन सुनने के बाद किसी दूसरे माध्यम की ज़रूरत महसूस नहीं होती।

ट्विटर एक विकल्प हो सकता था लेक़िन वहाँ पर जो हंगामा होता है उसमें समाचार कहीं गुम हो जाता है और फ़ालतू की बहस शुरू हो जाती है। उसमें बीच में बहुत ही मज़ेदार वाकये होते हैं जैसे किसी गुरु के समर्थक अपने जेल में बंद गुरु की रिहाई की माँग करते हैं। लगभग रोज़ ही ऐसा होता है।

फ़ेसबुक पर भी ऐसा ही कुछ नज़ारा होता है। एक तो अल्गो के चलते अगर कभी ग़लती से किसी पोस्ट को क्लिक कर लिया तो फेसबुक ये मान लेता है आप इस विषय में रुचि रखते हैं। लेक़िन ऐसा होता नहीं है। इसलिए थोड़ा सोच समझ कर ही क्लिक करते हैं।

ये जो मोबाइल डिवाइस है जिससे ट्विटर, फेसबुक का सफ़र होता है, इसके भी कान होते

हैं। हम जाने अनजाने बहुत सारी एप्प्स को इस बात की आज्ञा देते हैं कि वो मोबाइल के माइक्रोफोन (माइक) को इस्तेमाल कर सकते हैं। बस तो वो दीवारों के भी कान होते हैं वाली कहावत में से दीवार को हटा दें औऱ उसकी जगह मोबाइल लगा दें। आपके मुँह से निकले हर शब्द को कोई न कोई सुन रहा है औऱ उसी के आधार पर आपको सुझाव नज़र आते हैं।

ये विश्वास करना शुरू में मुश्किल था। लेक़िन उसके बाद एक दिन ऐसा भी आया जब ये विचित्र किंतु सत्य बात साक्षात सामने प्रकट हुई एक एसएमएस के रूप में। मेरी एक पुरानी चोट है 2009 नवंबर की जिसमें पैर का लिगामेंट चोटिल हो गया था। ये चोट यदा कदा अपना आभास कराती रहती है। डॉक्टर ने फुट मसाज के बारे में कहा।

दो दिन के बाद SMS आया एक मसाज से सेंटर के बारे में। जबकि मैंने किसी से इस बारे में संपर्क भी नहीं किया था तो नंबर किसी के पास होने की संभावना नहीं के बराबर थीं। बाद में एक नामी केरल मसाज सेन्टर गये और मसाज करवाया लेक़िन उस सेन्टर से जाने के बाद कोई संदेश आज तक नहीं आया। अलबत्ता बाकी ढ़ेर सारे सेन्टर के आये और अब भी आते रहते हैं। और वो बहुत सारी \’सेवाओं\’ का भी विज्ञापन भी करते रहते हैं।

इसके अलावा अगर गलती से मोबाइल डेटा चालू रह जाता है तो गूगल आपकी सारी खोज ख़बर रखता है। आप कहाँ गये, वहाँ का मौसम, जहाँ रुके उसके बारे में, सब जानकारी रहती है। इसके बाद भी लोग किसी सीक्रेट मिशन के बारे में बात करते हैं तो थोड़ा अजीब सा लगता है। जैसे हमारे एक जानने वाले घर पर कुछ और बोलकर दो दिन हिल स्टेशन पर बिता कर आये। घर वालों को भले ही पता न चला हो, गूगल सब जानता है।

वैसे ये गूगल मैप है बड़ा उपयोगी। आप उसमें बस सही गली, मोहल्ला डाल दीजिये और वो आपको वहाँ पहुँचा ही देगा। सितंबर में एक रात लांग ड्राइव न होते हुये भी हो गयी इसी मैप के चलते। जहाँ भी वो मुड़ने का बताता या मोहतरमा बतातीं वहाँ से मुड़ना थोड़ा मुश्किल ही होता। नतीजा ये हुआ की 10 km की ड्राइव 110 km की हो गयी।

मॉरल ऑफ द स्टोरी: टेक्नोलॉजी हमारे जीवन को बेहतर ज़रूर बनाती हैं लेक़िन उनके ही भरोसे न रहें। अपने आसपास के मनुष्यों को भी मौका दें। कभी रुक कर किसी से पुराने जमाने की तरह पता भी पूछ लें। टेक्नोलॉजी में बाक़ी सब कुछ होगा लेक़िन एक दिल और कुछ एहसास अपने आसपास के लोगों में ही मिलेगा।https://youtu.be/C_dI4mXlxNg

करोगे याद तो हर बात याद आयेगी…

यात्राओं का मेंरे जीवन में एक बहुत एहम स्थान है और शायद आप सभी के जीवन में भी ऐसा ही कुछ होगा। जो भी खट्टे मीठे अनुभव हुये वो जीवन का बड़ा पाठ पढ़ा गये। जैसे हिंदी में लिखना शुरू करना 2017 में दिल्ली से भोपाल की ट्रैन यात्रा के दौरान हुआ। लेक़िन उसके पहले की कई सारी यात्राओं के बारे में भी लिख चुका हूँ।

2020 में कोरोना के चलते कोई यात्रा नहीं हो पाई। माता पिता के विवाह की स्वर्णिम सालगिरह, जिसका हमने बहुत बेसब्री से इंतजार किया, वो भी सबने ज़ूम पर ही मनाई। उस समय इसका आभास नहीं था की लगभग तीन महीने बाद यात्रा करनी ही पड़ेगी।

किसी भी यात्रा पर जब आप जाते हैं तो उसका उद्देश्य पहले से पता होता है। तैयारी भी उसी तरह की होती है। जैसे जब मैं पहली बार 17 घंटे की फ्लाइट में बैठा था तो ये पता था सुबह जब आँख खुलेगी तो विमान न्यूयॉर्क में होगा। उसके बाद काम और घूमने की लिस्ट भी थी। मतलब एक एजेंडा सा तैयार था और वैसी ही मनोस्थिति।

जब सितंबर 18 को छोटे भाई ने फ़ोन करके यशस्विता की बिगड़ती हालत औऱ डॉक्टरों के कुछ न कर पाने की स्थिति बताई तो जो भी डर थे सब सामने आ गये थे। भाई का साल की शुरुआत में ही तबादला हुआ था और विशाल के बाद उसने ही अस्पताल में यशस्विता के साथ सबसे अधिक समय व्यतीत किया। इस दौरान उसने अपना दफ़्तर भी संभाला, शिफ्टिंग भी करी और कोरोना का असर भी देखा। यशस्विता के अंतिम दिनों में भाई की पत्नी ने भी बहुत ही समर्पित रह कर सेवा करी।

तो जिस यात्रा का मैं ज़िक्र कर रहा था वो अंततः करनी ही पड़ी। इस यात्रा में क्या कुछ होने वाला था इसकी मुझे और बाकी सब को ख़बर थी। जब अक्टूबर 3 की रात ये हुआ तो…

उस क्षण के पहले मुझे लगता था की मैं इस बात के लिये तैयार हूँ की मेरी छोटी बहन हमारे साथ नहीं होगी। मैं बाक़ी लोगों को समझाईश देने की कोशिश भी करता। लेक़िन उनके बहाने मैं शायद अपने आप को ही समझा रहा था। बहरहाल जब ये सच्चाई सामने आई तो इसे पचा पाना बड़ा मुश्किल हो गया। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जितना भी ज्ञान अर्जित किया था लगता है सब व्यर्थ क्योंकि अपने आपको समझा ही नही पा रहे। किसी भी तरह से इसको स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।

ये समझ में नहीं आ रहा था आगे क्या होगा? कैसे यशस्विता के पति, बच्चे अपना आगे का जीवन बितायेंगे। हमारे माता पिता का दुःख भी बहुत बड़ा था। पिछली अक्टूबर से वो यशस्विता के साथ ही थे और माता जी ने कोरोनकाल में जब उनकी मदद करने के लिये कोई नहीं था तब स्वयं ही बच्चों की सहायता से सब मैनेज किया।

पूरे कोरोनकाल के दौरान यशस्विता, उनके पति और छोटे भाई ने अस्पतालों के अनगिनत चक्कर लगाये। यशस्विता आखिरी बार जिस अस्पताल में भर्ती हुईं वो एक कोविड सेन्टर था। कैंसर के कारण शरीर की प्रतिरोधक क्षमता वैसे ही कम हो जाती है। उसपर बढ़ते हुये कैंसर के कारण शरीर भी बेहद कमज़ोर। लेक़िन इन तीनों ने बहुत सावधानी बरती।

फ़िल्म दीवार का वो चर्चित सीन तो आपको पता होगा जिसमें अमिताभ बच्चन अपनी माँ के लिये प्रार्थना करने जाते हैं। आज खुश तो बहुत होंगे… वाला डायलाग। बस वैसी ही कुछ हालत हम सबकी थी। जब डॉक्टरों ने जवाब दे दिया तो भगवान का रुख़ किया। जिसने जो बताया वो दान पुण्य किया, उन मंत्रों का जाप किया। मंदिरों में पूजा अर्चना करी, करवाई। लेक़िन जो होनी को मंज़ूर था वही हुआ। एक ईश्वरीय शक्ति में विश्वास के अलावा बाक़ी सब अब ढकोसला ही लगते हैं।

पिछले दिनों pk और देखली तो मन और उचट सा गया है। फ़िल्म में आमिर खान अपने ग्रह पर वापस जाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं लेक़िन बात कुछ बन नहीं रही है। हताश होकर एक शाम जब वो लौटते हैं तो मूर्तिकार की गली में कई मूर्तियाँ आधी बनी हुई रखी हैं। वो उनसे पूछते हैं की उनकी शंका का समाधान करें। कोई कहता है सोमवार को व्रत रखें, कोई कहता है मंगलवार को रखें। कोई कहता है सुर्यास्त के पहले भोजन करें, कोई कहता है सूरज ढलने के बाद रोज़ा तोड़ें। मंदिर में जूते चप्पल बाहर उतारकर जायें या चर्च में बढ़िया सूटबूट पहन कर।

https://youtu.be/JXJ3rmyBqyg

pk की परेशानी हमारी ही तरह लगी। किसी ने कहा इस मंत्र का जाप, किसी ने कहा फलां वस्तु का दान तो किसीने ग्रह देखकर कहा समय कठिन है लेक़िन अभी ऐसा कुछ नहीं होगा। फ़िर कहीं से कुछ आयुर्वेदिक इलाज का पता चला तो बहुत ही सज्जन व्यक्ति ने ख़ुद बिना पैसे लिये दवाइयाँ भी पहुँचायी। लेक़िन उसका लाभ नहीं हुआ क्योंकि कैंसर बहुत अधिक फ़ैल चुका था।

इस पूरे घटनाक्रम में यशस्विता के बाद जो दूसरे व्यक्ति जो सभी बातों को जानते थे औऱ रोज़ अपनी पत्नी के एक एक दिन का जीवन कम होते हुये देख रहे थे वो हैं उनके पति विशाल। जब पहली बार 2007 में कैंसर का पता चला तो उन्होंने इलाज करवाने के लिये शहर बदल लिया। जब सब ठीक हुआ उसके बाद ही उन्होंने मुम्बई छोडी। इस बार भी जब पता चला तो उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी इलाज में। जहाँ रिपोर्ट भेज सकते थे भेजी। जो टेस्ट करवाना हुआ करवाया ताकि कहीं से कोई उम्मीद की किरण दिखे।

जिन यात्राओं का मैंने ऊपर ज़िक्र किया है उसके अलावा दूसरों की यात्राओं से भी ऐसे ही बहुत कुछ सीखने को मिला है। जैसे यशस्विता को जब अगस्त में डॉक्टरों का जवाब पता चल गया था की धरती पर अब उनकी यात्रा चंद दिनों की बची है तो उन्होंने जो किया जिसका जिक्र मैंने कल किया था, उसके बाद भी अपना जीवन ऐसे जीना जैसे कुछ हुआ ही न हो।

कमाल की हिम्मती हो तुम, पम्मी। ❤️❤️❤️

मैं कुछ लिखूँ, वो कुछ समझें ऐसा नहीं हो जाये

फेसबुक या ट्विटर आपको हर साल ये याद दिलाते रहते हैं की आपको उस प्लेटफार्म पर कितने समय से हैं। फेसबुक एक कदम आगे जाकर आपको अपने सभी दोस्तों के साथ कितने साल हो गये ये भी दिखाता है। लेकिन इन सबसे पहले मैंने और शायद मेरी तरह आपने भी ईमेल का इस्तेमाल शुरू किया था। इसका ठीक ठीक समय तो याद नहीं लेकिन पिछले दिनों इतिहास के पन्ने मजबूरी में पलटने ही पड़े।

ईमेल आ रहे थे की एकाउंट में अब जगह नहीं है। नई मेल आना बंद हो जायेंगी। दो ही विकल्प थे – या तो पुरानी मेल डिलीट करूँ या और जगह बनाने के लिये पैसा दूँ। जबसे एक मेल एकाउंट से सभी चीज़ें – जैसे फ़ोटो वीडियो सेव होने लगे हैं तबसे जगह निश्चित ही एक समस्या बन गयी है। पहले तो लोग मेल भी लिखते थे तो लंबी मेल हुआ करती थीं। लेकिन धीरे धीरे उन मेल में फ़ोटो, वीडियो आदि आने लगे तो ज़्यादा जगह जाने लगी।

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इस समस्या का दूसरा पहलू तब दिखा जब मैं पुरानी ऐसी मेल हटाने लगा जिनको उसी समय डिलीट कर देना चाहिये था जब वो आईं थीं। लेकिन शायद उस समय ये नहीं सोचा था की एक दिन 15GB की जगह भी कम पड़ जायेगी। आज देखिये तो आपके हाँथ में जो फ़ोन है वो ही 128GB की मैमोरी के साथ आता है। इसलिये अब मेल आती है तो उसी समय उसके भविष्य का फ़ैसला हो जाता है। अगर दिन मैं 100 मेल आते हैं तो उसमें से बमुश्किल 10-15 ऐसी होते हैं जिनकी भविष्य में कोई आवश्यकता पड़ेगी।

बाक़ी बची मेल पर फ़टाफ़ट फ़ैसला और आगे के सिरदर्द से छुटकारा। इस पूरी कसरत में कई 15 से ज़्यादा पुरानी मेल पढ़ने को मिली। सच में उस समय चिट्ठी की जगह मेल ने ले ली थी। लेक़िन हम लोग बाकायदा बड़ी मेल ही लिखते थे। मेरे पहले बॉस नासिर साहब की कई मेल भी मिली जिसमें उन्होंने मुझे कई बातें समझाईं। उन पुराने आदान प्रदान को पढ़कर एक अजीब सा सुकून भी हुआ।

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मुझे याद आया मेरा पहला ईमेल एकाउंट जिसे मैंने रेडिफ पर शुरू किया था। उसके बाद याहू और बाकी जगह। शुरू वाले एकाउंट तो बहुत से कारणों से बंद हो गये और कई दिलचस्प मेल इसलिये अब पास में नहीं हैं। इसका मुझे ज़रूर अफ़सोस रहेगा। लेक़िन जो है उसके लिये भी शुक्रगुज़ार हूँ। जगह बन तो गयी लेक़िन इसी बहाने एक बढ़िया यादों का सफ़र भी तय हो गया। क्या क्या छुपा रखा था इस मेल एकाउंट में ये शायद पता भी नहीं चलता।

अब ऐसी नौबत कब आती है पता नहीं। लेक़िन जगह बनाने की इस पूरी प्रक्रिया को दोहराने में कोई परेशानी नहीं होगी ये पक्का है।

हम हो गये जैसे नये, वो पल जाने कैसा था

आपने ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा ज़रूर देखी होगी। दोस्ती के साथ साथ ये फ़िल्म जीने के भी कुछ फ़लसफ़े दे जाती है। फ़िल्म में वर्क फ्रॉम होम या WFH, आजकल जिसका बहुत ज़्यादा ज़िक्र हो रहा है, उसकी भी झलक मिलती है। ऋतिक रोशन को अपने काम से बहुत प्रेम है और वो सफ़र करते हुये भी गाड़ी साइड में खड़ी करके मीटिंग कर लेते हैं (मोशी मोशी वाला सीन)।

लगभग पिछले पंद्रह दिनों से कोरोना के साथ अगर बहुत ज़्यादा इस्तेमाल करने वाला शब्द कोई है तो WFH है। पहले कुछ तरह के काम ही इस श्रेणी में रहते थे। लेकिन अब क्या सरकारी क्या प्राइवेट नौकरी सब यही कर रहे हैं।

मेरा इस तरह के काम करने के तरीके से पहला परिचय हुआ था 2008 में जब मैंने अपना डिजिटल माध्यम का सफ़र शुरू किया था। एक वेबसाइट से जुड़ा था और हमें सप्ताहांत में आने वाले शो के बारे में लिखना होता था। उस समय ये कभी कभार होने वाला काम था इसलिये कोई बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता था। उस समय नेट कनेक्शन भी उतना तेज़ नहीं होता था लेकिन काम चल जाता था।

इससे पहले अपने आसपास सभी को ऑफिस जाते हुये ही देखा था। हाँ सब काम घर पर लाते थे और फ़िर अपनी सहूलियत से करते थे। लेकिन वो भी कुछेक लोगों को देखा था।

इस तरीक़े से पूरी तरह पहचान हुई 2011 में जब मैंने दूसरी कंपनी जॉइन करी। इस समय तक ये कोई अनोखी बात नहीं थी और भारत एक इन्टरनेट क्रांति के युग में प्रवेश कर चुका था। नई जगह पर इससे कोई मतलब नहीं था की आप कहाँ से काम कर रहे हैं जबतक की काम हो रहा है। अगर आपकी तबियत ठीक नहीं है और आप घर से काम करना चाहते हैं तो बस परमिशन ले लीजिये।

अच्छा जब कोई ये विकल्प लेता तो सबके सवाल वही थे – कितना काम किया? आराम कर रहा होगा, मज़े कर रहा होगा। कभी मैंने ख़ुद भी ऐसा किया तो ऐसा लगा ज़्यादा काम हो जाता है घर से। लेकिन ये तभी संभव है जब थोड़ा नियम रखा जाये। नहीं तो एक साइट से दूसरी और इस तरह पचासों साइट देख ली जाती हैं। समय कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता।

2017 में जब नौकरी बदली तो ऐसी कंपनी में नौकरी करी जो इन बदलावों को दूर से देख रही थी लेक़िन अपनाये नहीं थे। वहाँ का मैनेजमेंट ऐसी हर चीज़ को बड़े ही संदेह की दृष्टि से देखता और हमेशा इस कोशिश में रहता की किसी न किसी तरह लोगों को ऑफिस बुलाया जाये। वहाँ ये बदलने के लिये बड़े पापड़ बेलने पड़े।

2019 में लगा अब तो हालात काफ़ी बदल गये होंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। और मैं ये मीडिया कंपनियों की बात कर रहा हूँ। सोचिये अगर 2019 से इस कंपनी ने धीरे धीरे ही सही, इस बदलाव की राह पर चलना शुरू कर दिया होता तो आज इस समय उनकी तैयारी कुछ और ही होती।

शायद समय हमें यही बताता है। समय रहते बदल जाओ, नहीं तो पड़ेगा पछताना। ये सिर्फ़ काम के लिये ही सही नहीं है। जैसे कैटरीना कैफ ऋतिक रोशन से कहती हैं जब वो अपने भविष्य का प्लान उन्हें बताते हैं। \”क्या तुम्हें पता है तुम चालीस साल तक ज़िंदा भी रहोगे?\”

आ अब लौट चलें

दिल्ली से चला परिवार आशा है सकुशल रायपुर के पास अपने गाँव पहुँच गया होगा। हम सभी लोगों के लिये भी ये एक ताउम्र याद रखने वाला अनुभव बन चुका है। कभी न ख़त्म होने वाली लगने वाली यात्रा इस परिवार को अलग कारण से याद रहेगी और हम घर में क़ैद लोग इन दिनों को बिल्कुल अलग कारणों से याद रखेंगे। मैं बोल तो ऐसे रहा हूँ की लोककल्याण मार्ग निवासी से मेरी दिन में दो चार बार बात हो जाती है और वहाँ से मुझे पता चला है कि ये जल्दी ख़त्म होने वाला है। ये कारावास अगले आठ दिनों में ख़त्म होगा, ये मुश्किल लगता है।

आज से करीब चौदह वर्ष पूर्व मुझे भोपाल में कार्य करते हुये एक संस्था से जुड़ने का मौक़ा मिला जो ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहे विकास कार्यों की मोनिटरिंग करती थी। मुझे शुरू से ऐसे कामों में रुचि रही है। इससे पहले भी मैंने थोड़ा बहुत कार्य किया था।

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इस कार्य के लिये मुझे जबलपुर के समीप के गाँव में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। गाँव से मेरा कोई नाता नहीं रहा है। पुष्तैनी गाँव भोपाल के समीप ही था लेक़िन जैसे होता है \’बहुत\’ से कारणों के चलते जाने के बहुत ही सीमित अवसर मिले। शहरों के समीप जो गाँव थे उनका उस समय ज़्यादा शहरीकरण नहीं हुआ था। लेकिन जिस गाँव में मुझे जाना था वो थोड़ा अंदर की और था।

मेरे लिये ये अनुभव बिल्कुल अलग था। गाँव को दूर से देखना और वहाँ जाकर उनके साथ समय बिताना, उनके रहन सहन को देखना, उनके तौर तरीकों को समझना। ये सब इस यात्रा में जानने की कोशिश हुई। एक बार जाना और चंद घंटे में ये समझ पाना बहुत ही मुश्किल है।

लेकिन उस दिन मैंने देखा हमारे गाँव दरअसल एक अलग दुनिया है। गाँधीजी ने सही कहा था – असली भारत गाँव में बसता है। उस समय गाँव में सभी बुनियादी सुविधाओं का अभाव था। दस किलोमीटर दूर से खाने पीने का सामान लेकर आना पड़ता था। स्वास्थ्य सुविधायें कागज़ पर ही रही होंगी। लगा था इतने वर्षों में स्थिति में सुधार हुआ होगा। लेकिन पिछले दिनों देखा दिल्ली के समीप एक गाँव है जहाँ नाव द्वारा पहुँचा जा सकता है लेकिन वहाँ कोई सरकारी मदद नहीं पहुँची थी।

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अगर इसको हम ज़्यादातर गाँव की सच्चाई मान लें तो क्यूँ इतनी बड़ी संख्या में लोग लॉकडाउन के बाद पैदल ही निकल पड़े? कारण बहुत ही सीधा सा है। वो जहाँ के लिये निकले थे वो उनका घर है। वहाँ उनके अपने हैं। घर कैसा भी हो, सुविधाओं का भले ही अभाव हो लेकिन वो अपना है। शहर तो सिर्फ़ परिवार के भरण पोषण के लिये टिके हुए हैं। सिर्फ़ पैसा कमाने के लिये।

घर जाने पर एक आनन्द की अनुभूति। जैसी मुझे आज भी होती है जब कभी भोपाल जाने का मौक़ा मिलता है। बाक़ी बहुत कुछ मुझे उस परिवार से सीखना है।

https://youtu.be/DIbc7G-q6Rg

ये लम्हे ये पल हम बरसों याद करेंगे

इस वर्ष का विम्बलडन भी कोरोना की भेंट चढ़ गया। खेलकूद में कोई विशेष रुचि नहीं रही शुरू से। इस बात की पुष्टि वो लोग कर सकते हैं जिन्होंने मेरी पूरी प्रोफाइल फोटो देखी है। लेकिन टेनिस में रुचि जगी जिसका श्रेय स्टेफी ग्राफ और बोरिस बेकर को तो जाता ही है लेकिन उनसे भी ज़्यादा पिताजी को। विम्बलडन ही शायद पहला टूर्नामेंट था जिसे मैंने देखा और फॉलो करने लगा।

इसके पीछे की कहानी भी यादगार है। इस टूर्नामेंट की शुरुआत हुई थी और शायद स्टेफी ग्राफ का ही मैच था। लेकिन समस्या ये थी की टीवी ब्लैक एंड व्हाइट था। पिताजी और मेरे एक और रिश्तेदार का मन था की मैच कलर में देखा जाये। तो बस पहुँच गये कलर टीवी वाले घर में। मैं भी साथ में हो लिया या ज़िद करके गया ये याद नहीं।

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पिताजी भी बहुत अच्छा टेनिस खेलते थे तो शायद टेनिस के प्रति मेरा रुझान का कारण वो भी हैं। खेलों के प्रति उनका ख़ास लगाव रहा है। उनकी टेनिस खेलते हुये और विजेता ट्रॉफी लेते हुये कई फ़ोटो देखी हैं। उनका पढ़ने और सिनेमा देखने के शौक़ तो अपना लिये लेकिन ये शौक़ रह गया।

पिताजी ने पूरा खेल समझाया। पॉइंट कैसे स्कोर होते हैं और उन्हें क्या कहते है। बस तबसे ये खेल के प्रति रुझान बढ़ गया। उसके बाद नौकरी के चलते सब खेलों पर नज़र रखने का मौका मिला और दिल्ली में पीटीआई में काम के दौरान एक चैंपियनशिप कवर करने का मौका भी मिला।

इन दिनों कुछेक खिलाड़ियों को छोड़ दें तो ज़्यादा देखना नही होता लेकिन नोवाक जोकोविच का मैच देखने को मिल जाये तो मौका नहीं छोड़ता। रॉजर फेडरर एक और खिलाड़ी हैं जो क़माल खलते हैं। उससे कहीं ज़्यादा कोर्ट में वो जिस शांत स्वभाव से खेलते हैं लगता ही नहीं की वो दुनिया के श्रेष्ठ खिलाड़ी हैं।

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कुछ वर्षों पहले जब घर देख रहा था तब एक घर देखा जिस सोसाइटी में टेनिस कोर्ट भी था। मुझे लगा शायद अब मैं टेनिस का रैकेट पकड़ना सीख ही लूंगा। लेकिन उधर बात बनी नहीं तो टेनिस खेलने के प्लान जंग खा रहा है।

अब जो लिस्ट बना रखी है मौका मिलते ही करने की उसमें ये भी शामिल है। और क्या शामिल है इसके बारे में कल। अगर इन दिनों आप की भी लिस्ट में बदलाव हुये हों तो बतायें।

जाते थे जापान, पहुँच गये चीन, समझ गये न

एक खेल है चाइनीज कानाफूसी (Chinese Whispers)। इस खेल में आप एक संदेश देते हैं एक खिलाड़ी को जो एक एक कर सब खिलाड़ी एक दूसरे के कान में बोलते हैं। जब ये आखिरी खिलाड़ी तक पहुँचता है तब उससे पूछा जाता है उसे क्या संदेश मिला और पहले खिलाड़ी से पूछा जाता है आपने क्या संदेश दिया था। अधिकतर संदेश चलता कुछ और है और पहुँचते पहुँचते उसका अर्थ ही बदल जाता है।

इसको आप आज के संदर्भ में न देखें। इस खेल की याद आज इसलिये आई क्योंकि एक व्यक्ति को एक जानकारी चाहिये थी। लेकिन उसने ये जानकारी उस व्यक्ति से लेना उचित नहीं समझा जो इसके बारे में सब सही जानता था। बल्कि एक दूसरे व्यक्ति को फ़ोन करके तीसरे व्यक्ति से इस बारे में जानकारी एकत्र करने को कहा। अब ये जानकारी चली तो कुछ और थी लेकिन क्या अंत तक पहुँचते पहुँचते वो बदल जायेगी? ये वक़्त आने पर पता चलेगा।

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पीटीआई में मेरे एक बॉस हुआ करते थे जिनकी एक बड़ी अजीब सी आदत थी। वो हमेशा किसी तीसरे व्यक्ति का नाम लेकर बोलते की फलाँ व्यक्ति ऐसा ऐसा कह रहा था आपके बारे में। अब आप उस तथाकथित कथन पर अपना खंडन देते रहिये। कुल मिलाकर समय की बर्बादी।

एक बार उन्होंने मेरी एक महिला सहकर्मी का हवाला देते हुये कहा कि उन्होंने मेरे बारे में कुछ विचार रखे हैं। मेरे और उन महिला सहकर्मी के बीच बातचीत लगभग रोज़ाना ही होती थी। इसलिये जब उन्होंने ये कहा तो मैंने फौरन उस सहकर्मी को ढूंढा और इत्तेफाक से वो ऑफिस में मौजूद थीं। उन्हें साथ लेकर बॉस के पास गया और पूछा की आप क्या कह रहे थे इनका नाम लेकर।

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बॉस ने मामला रफा दफा करने की कोशिश करी ये कहते हुये की \”मैंने ऐसा नहीं कहा। मेरे कहने का मतलब था उस सहकर्मी का ये मतलब हो सकता था।\” उस दिन के बाद से मुझे किसी के हवाले से मेरे बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई।

कोई बुरा बनना नहीं चाहता ये भी सच है। इसलिये ऊपर जो फ़ोन वाली बात मैंने बताई उसमें भी यही होगा। दूसरे लोगों का हवाला दिया जायेगा और उनके कंधे पर बंदूक रखकर चलाई जायेगी। कुछ लोग वाकई में इतने भोले होते हैं की उन्हें पता ही नहीं होता की उनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। देर से सही उन्हें इस बात का एहसास होता है और ये उनके जीवन की एक बड़ी सीख साबित होती है।

ये जो चीन से कानाफ़ूसी शुरू हुई है (आज के संदर्भ में), इसका असली सन्देश हमारे लिये सिर्फ़ एक है। अपने जीवन की प्राथमिकता को फ़िर से देखें। कहीं हम सही चीज़ छोड़ ग़लत चीज़ों को तो बढ़वा नहीं दे रहे। बाक़ी देश दूर हैं तो शायद उन तक पहुँचते पहुँचते ये संदेश कुछ और हो जाये। लेकिन हम पड़ोसी हैं इसलिये बिना बिगड़े हुये इस संदेश को भली भांति समझ लें।

ये पल है वही, जिसमें है छुपी पूरी एक सदी, सारी ज़िन्दगी

विगत कुछ वर्षों से विदेश घूमने का चलन बहुत बढ़ गया है। इसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं लेकिन हमारे यहाँ विदेश यात्रा को एक स्टेटस सिंबल की तरह देखा जाता है। आपने भारत भले ही न घुमा हो लेकिन अगर आपने एक भी विदेश यात्रा नहीं करी हो तो आपने अपने जीवन में कुछ नहीं किया।

आज से लगभग 20 वर्ष पहले जब फ़ेसबुक या इंस्टाग्राम या ट्विटर नहीं था तो आपके निकट संबंधियों के अलावा जन सामान्य को आपकी विदेश यात्रा के बारे में कैसे पता चले? अगर आप विदेश यात्रा पर जाते थे या लौटते थे तो कुछ लोग इसका ऐलान बाक़ायदा समाचार पत्र में एक इश्तेहार देकर करते थे। उस छोटे से विज्ञापन का शीर्षक होता था विदेश यात्रा और उस व्यक्ति का नाम और वो कहाँ गये थे और यात्रा का उद्देश्य सब जानकारी रहती थी।

शायद मार्च के पहले हफ़्ते दस दिन तक तो ये बखान यथावत चलता रहा। लेकिन उसके बाद सब कुछ बदलने लगा। वही लोग जो सोशल मीडिया पर अपनी इस यात्रा के टिकट से लेकर हर छोटी बड़ी चीज़ें शेयर करते नहीं थकते थे अचानक उनकी विदेश यात्रा के बारे में बात करने से परहेज़ होने लगा।

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इसमें कुछ ऐसे लोग भी पकड़े गए जो घर से तो काम के सिलसिले में बेंगलुरू और कोलकता का कहकर निकले थे, लेकिन असल में थाईलैंड की यात्रा कर आये थे। उनकी चोरी उनके परिवार को तब पता लगी जब स्थानीय प्रशासन नोटिस लगाने आयी। पकड़े गये व्यक्तियों ने इसका सारा गुस्सा मीडिया पर निकाला।

मेरे एक सीनियर ने मुझे भी ये समझाइश दी थी आज से लगभग पाँच साल पहले की अगर बाहर कहीं जाओ, किसी अच्छे होटल में रुको तो वहाँ की फ़ोटो शेयर करो सोशल मीडिया पर। उनके अनुसार ये अपने आप को मार्केट करने का एक तरीका है। सोशल मीडिया पर लोग फ़ोटो देखेंगे तो आपका स्टेटस सिंबल पता चलेगा और आपके लिये आगे के द्वार खुलेंगे।

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ये सच ज़रूर है की आजकल कंपनियां आपका सोशल मीडिया एकाउंट भी देखती हैं लेकिन वो ये देखने के लिये की आप किस तरह की पोस्ट शेयर कर रहे हैं। कहीं आप कोई आपत्तिजनक पोस्ट तो नहीं करते या शायद ये देखने के लिये भी की आप न कभी उस कंपनी के ख़िलाफ़ कुछ लिखा है क्या? क्या आपने कहाँ अपनी पिछली गर्मी की छुट्टियां बितायीं थीं उसके आधार पर नौकरियां भी दी जाती हैं?

मेरे ध्यान में इस समय वो परिवार है जो रायपुर के समीप अपने गाँव की तरफ़ चला जा रहा है। जिसका कोई सोशल मीडिया एकाउंट नहीं होगा, जिसकी इस यात्रा का कोई वृत्तांत नहीं होगा लेकिन वो इन सबसे बेखबर है। कई बार यूँ बेख़बर होना ही बड़ा अच्छा होता है।

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जब ये महीना शुरू हुआ था तब श्रीमती जी और मेरी यही बात हो रही थी की साल के दो महीने तो ऐसे निकल गये की कुछ पता ही नहीं चला। होली तक इस महीने के भी उड़नछू हो जाने की सभी संभावनाएं दिख रही थीं की अचानक फ़िल्म जो जीता वही सिकन्दर के क्लाइमेक्स सीन के जैसे सब कुछ स्लोमोशन में होने लगा और लगता है जैसे बरसों बीत गये इस महीने के पंद्रह दिन बीतने में। लेकिन जैसा होता है, समय बीत ही जाता है। मार्च 2020 को हम सभी एक ऐसे महीने के रूप में अपने सारे जीवन याद रखेंगे जिसने हमारे जीवन से जुड़े हर पहलू को हमेशा हमेशा के लिये बदल दिया है। क्या ये बदलाव हमें नई दिशा में लेके जायेगा?

सुन खनखनाती है ज़िन्दगी, देख हमें बुलाती है ज़िन्दगी

भोपाल में मेरे एक मित्र हैं राहुल जोशी। इनसे मुलाक़ात मेरी कॉलेज के दौरान मेरे बने दोस्त विजय नारायन के ज़रिये हुई थी। राहुल घर के पास है रहते हैं तो उनसे मुलाक़ात के सिलसिले बढ़ने लगे और मैंने उनको बेहतर जाना।

जोशी जी की एक ख़ास बात है की कोई भी सिचुएशन हो वो उसमें आपके चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं। परेशानी की बात हो, दुख का माहौल हो – अगर राहुल आसपास हैं तो वो माहौल को हल्का करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ज़िंदगी में जो भी घटित हो रहा हो उसको वो एक अलग अंदाज़ से देखते हैं। मेरे घर में आज भी उनके एक्सपर्ट कमेंट को याद किया जाता है।

राहुल के दादाजी का जब निधन हुआ तो मैं उनसे मिलने गया था। राहुल उनके बहुत करीब भी थे और जब वो लौट के आये तो मुलाक़ात हुई। राहुल बोले जब आप किसी के अंतिम संस्कार में शामिल होते हैं तो चंद पलों के लिये ही सही, आपको एहसास होता है अभी तक आप जिन भी चीजों को महत्व देते हैं वो सब पीछे छूट जायेगा। ज़िन्दगी की असली सच्चाई दिख जाती है। लेकिन क्रियाकर्म खत्म कर जैसे जैसे आपके क़दम बाहर की और चलते हैं वैसे वैसे आप वापस इस दुनिया में लौटते हैं। सबसे पहले तो सिगरेट सुलगाते हैं इस बात को और गहराई से समझने के लिये और चंद मिनटों में सब वापस।

आज राहुल और उनके साथ कि ये बातचीत इसलिये ध्यान आयी क्योंकि जिस समस्या से हम जूझ रहे हैं जब ये खत्म हो जायेगा तो क्या हम वही होंगे जो इससे पहले थे या कुछ बदले हुये होंगे? क्या हम महीने भर बाद भी अपने आसपास, लोगों को उसी नज़र से देखेंगे या हमारे अंदर चीजों के प्रति लगाव कम हो जायेगा। शायद आपको ये सब बेमानी लग रहा हो लेक़िन अगर एक महीने हम सब मौत के डर से अंदर बैठे हों और इसके बाद भी सब वैसा ही चलता रहेगा तो कहीं न कहीं हमसे ग़लती हो रही है।

लगभग सभी लोगों ने अपनी एक लिस्ट बना रखी है की जब उन्हें इस क़ैद से आज़ादी मिलेगी तो वो क्या करेंगे। किसी ने खानेपीने की, किसी ने शॉपिंग तो किसी ने पार्टी की तो किसी ने घूमने का प्रोग्राम बनाया है। बस सब थोड़े थोड़े अच्छे इंसान भी बन जायें और अपने दिलों में लोगों के लिये थोड़ी और जगह रखें – इसे भी अपनी लिस्ट में रखें।

https://youtu.be/X_q9IXvt3ro

एक पल तो अब हमें जीने दो, जीने दो

फ़िल्म 3 इडियट्स का एक सीन इन दिनों बहुत वायरल हो रहा है जिसमें तीनों इडियट्स के शराब पीने के बाद उनकी संस्थान के हेड वीरू सहस्त्रबुद्धे जिन्हें वो वायरस बुलाते हैं, उसे धरती से उठाने की प्रार्थना करते हैं। इस सीन को आज चल रहे कोरोना वायरस से जोड़ के देखा जाये तो लगता है किसी भी देश के नागरिक हों सबकी यही प्रार्थना होगी।

ये मेरे जीवन में शायद पहली बार मैंने या हम सभी लोगों के भी जीवन में ऐसा हो रहा है की कोई किसी भी देश में हो सब एक ही दुश्मन से लड़ रहे हैं। इससे पहले भारत में हुई कोई घटना का विश्व पर कोई असर नहीं पड़ता था या विश्व में कोई घटना होती जैसे 9/11 या ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग लगती तो हम उनके लिये प्रार्थना करते। मतलब किसी भी घटना का एक बहुत सीमित और बहुत ही ऊपरी असर दिखता।

लेकिन पिछले लगभग दो महीनों से पूरा विश्व क्या अमेरिका, क्या स्पेन, इटली या भारत, सब बस एक ही बात कर रहे हैं। लोगों से दूरी बनाये, घर से बाहर न निकलें और हाथ धोयें। मैं जिस संस्थान से जुड़ा हूँ वहाँ के सहकर्मी अलग अलग देशों में काम करते हैं। जब कभी हम लोग बात करते हैं इन दिनों तो शुरुआत इसी से होती है की आप के यहाँ कितने दिनों का लॉकडाउन है और क्या आपके पास ज़रूरत का सामान है।

इन बातों से और कुछ नहीं तो सब एक दूसरे की हिम्मत बढ़ाते रहते हैं। ये समय सभी के लिये एक चुनौती की तरह है। इसमें आसपास वाले तो आपके साथ हैं ही लेकिन हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा कोई आपसे आपका कुशलक्षेम पूछता है और आप उनसे उनके हालचाल तो लगता है क्या विकसित और क्या विकासशील देश। सब एक ही नाव में सवार हैं और सब बस इस कठिन समय के निकलने का इंतजार कर रहे हैं।

कई संस्थान ने अपने बहुत से ऑनलाइन कोर्स इस समय फ्री में उपलब्ध कराए हैं। ये समय आपको एक मौका दे रहा है कुछ नया सीखने का, कुछ नया करने का। और जैसा की 3 इडियट्स में आमिर खान शरमन जोशी को अस्पताल में कहते हैं – फ्री फ्री फ्री।

https://youtu.be/HZu3bXWhnX4

कच्चे रंग उतर जाने दो, मौसम है गुज़र जाने दो

इन दिनों मौसम बदला हुआ है। बदलते मौसम के अपने नखरे होते हैं और इस बार के नखरे उठाना बड़ा महंगा पड़ सकता है। तो मत उठाइये नखरे। मौसम ही तो है, गुज़र जायेगा। आप क्यूँ खामख्वाह परेशान हो रहे हैं। आपके पास कामों की एक लंबी फेहरिस्त है जिसे आप समय न होने का बहाना बनाकर टाल रहे थे। ये मान लीजिये आपको समय दिया गया है इन कामों को पूरा करने के लिये ताकि आप इस ब्रेक के बाद जो काम आयेंगे उनके लिये तैयार रहें।

अगर आप एक अच्छे मैनेजर हैं और ऐसा कुछ काम आपका बचा नहीं हुआ है तो आप को सलाम। आप वाकई तारीफ़ के काबिल हैं। आपने ये कैसे किया ये लोगों के साथ साझा करें। अगर आपको पता है किसी को आपके पास जो ज्ञान है उससे फायदा मिल सकता है तो उनके साथ बाँटें। अगर आपको किसी से कोई ज्ञान लेना है तो इससे बेहतर समय क्या हो सकता है?

आज जब पूरा हिन्दोस्तान अपने 24 घंटे घर पर कैसे काटे इसका जवाब ढूंढ रहा है, वहीं दूसरी और कई लोग हैं जिनकी दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं हुआ है। आप वाकई में खुशकिस्मत हैं की आपको ऐसा मौका मिला है जिसमें आप स्वस्थ हैं, परिवार वालों के साथ है। अमूमन ऐसे ब्रेक बहुत कम मिलते हैं।

आप अगर इस बदलाव का हिस्सा हैं तो इस समय कुछ ऐसा कर गुज़रिये की मुड़ के देखने पर आप अपने आप को पहचान ही न पायें। टीवी, वेब सीरीज़, इंटरनेट पर कितना समय बर्बाद करेंगे? हम तो हमेशा से ही किसी भी काम को नहीं कर पाने का ठीकरा वक़्त के सर पर ही फोड़ते रहते हैं। आज वक़्त ने हमें वक़्त दिया है। ऐसा मौका फ़िर कहाँ मिलेगा?

मैं कोई भविष्यवक्ता तो हूँ नहीं लेकिन इतना ज़रूर कह सकता हूँ की आने वाले तीन महीनों में सब कुछ बदल जायेगा। और कुछ भी नहीं बदलेगा और। क्योंकि जो बदल गया होगा वो तो गुज़र चुका होगा।

सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं

यात्राओं का अपना अलग ही मज़ा है। हर यात्रा का अपना एक अनुभव होता है। अगर वो अच्छा तो भी यात्रा यादगार बन जाती है और अगर बुरा हो तो अगली यात्रा के लिये एक सीख बन जाती है।

मेरी ट्रैन की ज़्यादातर यात्रा में बहुत कुछ घटित नहीं होता क्योंकि मैं अक्सर ऊपर वाली बर्थ लेकर जल्दी ही अपने पढ़ने का कोई काम हो तो वो करता हूँ नहीं तो सोने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। काफ़ी सारी ट्रैन की यात्रा भी रात भर की होती हैं तो बाहर देखने का सवाल ही नहीं होता। कभी कुशल अग्रवाल जैसे सहयात्री मिल जाते हैं जो आपको जीवन का एक अलग अंदाज दिखा जाते हैं।

मैंने अक्सर ट्रैन में बर्थ बदलने की बातचीत होते हुये देखा सुना है। मेरे पास ऐसे निवेदन कम ही आते थे क्योंकि अपनी तो ऊपर वाली बर्थ ही रहती थी और अक़्सर ये मामले नीचे की बर्थ को लेकर रहते थे। कई बार तो उल्टा ही हुआ। भारतीय रेल की बदौलत कभी नीचे की बर्थ मिल भी गयी तो सहयात्री से निवेदन कर ऊपर की बर्थ माँग लेता। बहुत कम ऐसा हुआ है की ऊपर की बर्थ के लिये किसी ने मना किया हो।

ज़्यादातर माता-पिता के साथ भी ऐसा कोई वाक्य हुआ जब उन्हें ऊपर की बर्थ मिल गई हो तो बाकी यात्रियों ने उन्हें नीचे की बर्थ देदी। लेकिन अगर साथ में ज़्यादा आयु वाले यात्री हों तो ऐसा होना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। लेकिन उनके साथ ऐसा भी हुआ है।

कल ट्विटर पर एक चर्चा चल रही थी जिसमें एक महिला यात्री जो की गर्भवती हैं, उनको उनके साथ सफर कर रहे एक संभ्रांत घर के युवक ने नीचे की बर्थ देने से मना कर दिया। उस दिखने वाले पढ़े लिखे युवक के इस व्यवहार से वो काफी दुखी भी हुईं। लेकिन उनके एक और युवा सहयात्री जो शायद किसी छोटे शहर से थे, उन्होंने खुशी खुशी अपनी नीचे की बर्थ उन्हें दे दी। ये महिला यात्री जो भारतीय वन सेवा की अधिकारी हैं, उन्हें दोनों के व्यवहार से यही लगा की हमारी सारी तालीम बेकार है अगर हम जिसे ज़रूरत हो उसकी मदद न करें।

उनके इस वाकये पर एक और ट्विटर की यूज़र ने 1990 की अपनी यात्रा के बारे में बताया की कैसे दो अजनबी पुरुष यात्रियों ने अपनी बर्थ उन्हें देकर खुद रात ट्रैन की फ़र्श पर बिताई थी। दोनों आगे चलकर गुजरात के मुख्यमंत्री बने और उनमें से एक इस समय भारत के प्रधानमंत्री हैं। उनकी यात्रा के बारे में आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

http://www.thehindu.com/opinion/open-page/a-train-journey-and-two-names-to-remember/article6070562.ece?homepage=true

क्या आपकी भी ऐसी ही कोई यादगार यात्रा रही है जब किसी अनजाने ने आपकी या आपने किसी अनजाने की मदद करी?

उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं, कुछ याद रह जाते हैं

मेरी लगभग सभी लंबी दूरी की यात्रा ट्रैन से अथवा उड़नखटोले से हुई हैं। ट्रैन में मैं हमेशा से ऊपर की बर्थ लेकर सीधे सोने चला जाता। ट्रैन चलने के बाद नींद टिकट चेक करने के लिये खुलती। कभी खाने के लिये उठे तो ठीक नहीं तो सोते हुये सफ़र निकल जाता था।

हवाई जहाज की यात्रा में जो सीट नसीब हुई उसी पर थोड़ा बहुत सोकर सफ़र पूरा हो जाता। ट्रैन में तो फिर भी कभी आसपास वालों से दुआ सलाम हो जाती है लेकिन हवाई जहाज में एक अलग तरह के लोग सफ़र करते हैं। वो सफ़र के दौरान या तो कुछ पढ़ना या देखना पसंद करते हैं। ग्रुप में सफर करने वाले बातचीत में समय बिताते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे मुम्बई की लोकल ट्रेनों में फर्स्ट और सेकंड क्लास में होता है।

इसलिये मुझे अपनी पिछली ट्रैन यात्रा के दौरान थोड़ा आश्चर्य हुआ जब बोरीवली स्टेशन से मेरी सीट के साझेदार कुशल सवार हुये। उन्होंने अपना परिचय दिया और उसके बाद मुझे उम्मीद थी की बाकी ढेरों यात्रियों की तरह वो भी मोबाइल में खो जायेंगे। मैंने फ़ोन से बचने के लिये उस दिन का अख़बार हथिया लिया था। लेकिन अगले पाँच घंटे हमने बमुश्किल कुल 10 से 15 मिनिट ही मोबाइल देखा और बाकी सारा समय बात करते हुये बताया। वो अख़बार मेरे साथ गया और वापस आ गया। अब बासी खबरों को बाचने का कोई शौक नहीं।

हमारे सामने की सीट पर बैठे दंपत्ति और उनके परिचित कुशल के आने के पहले बहुत बात कर रहे थे। लेकिन उनके आने के बाद से हम दोनों की बातों का जो सिलसिला चला तो उनकी आवाज़ कुछ कम आने लगी। जब कुशल वड़ोदरा में उतर गये तो वो जानना चाहते थे की हम दोनों में से कौन उतरा।

जर्मनी से पढ़ाई कर लौटे कुशल का वडोदरा में स्वयं का पारिवारिक व्यवसाय है और वो काम के सिलसिले में ही मुम्बई आये थे। मुझे याद नहीं मैंने पिछली बार अकेले यात्रा करते हुये किसी से कभी इतनी बात हुई हो। उन्होंने जर्मनी के अपने प्रवास के कई अनुभव साझा किये और कैसे वहाँ एक अध्यापक होना एक बहुत बड़ी बात होती है। उनको एक बहुत ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है एक गर्व की बात है।

बहरहाल, कुशल से मिलना और बातचीत करना एक सुखद अनुभव रहा। इस साल की शुरुआत एक बड़े बदलाव से हुई है और उम्मीद है मैं ख़ुद को ऐसे ही चौंकाते रहने वाले काम आगे भी जारी रखूँगा।

आपने 2020 में क्या नया किया? क्या आपकी भी ऐसी ही कोई यादगार यात्रा रही है? कमेंट कर मेरे साथ शेयर करें।

सफ़र

Man relaxing in car, scenic road trip in summer. Feet out window, enjoying countryside.

चलो चलें आज एक ऐसे सफ़र पर 
जिसकी मंज़िल न हो हमें पता,
मील का पत्थर हो मैप हमारा,
और आँखें ही नापें रास्ता।

चलो चले आज उन गलियों में,
जहाँ सेल्फी खींचे आंखों से,
और रखें पलकों के फोल्डर में,
बस रहें सामने और छिपे भी हों।

चलो चलें आज उन गलियों में,
जहाँ फिल्मी हो लोकेशन,
दिल कहे पैकअप पर आँखें कहें एक्शन,
बस रहें सामने और खोये हुए भी हों।

चलो चलें आज उन गलियों में,
जहाँ याद नहीं मिले हों कभी,
लेकिन मिलते रहें हों हमेेशा,
बस रहे सामने और अनजाने भी।

चलो चलें आज उन गलियों में,
जहाँ तुम्हारा आँचल छुये तो मुझे,
लेकिन सिरहन हो दो जिस्मों में, 
बस रहें सामने और समेटते रहें दामन।