काम के सिलसिले में काफ़ी लोगों से मिलना होता है। बहुत से लोगों के नाम, शक्ल कुछ भी याद नहीं रहती। कई लोगों से दुबारा बरसों बाद किसी दूसरी जगह मुलाक़ात होती है तो वो बताते हैं आपसे वो पहली बार कब मिले थे और किस सिलसिले में। पिछले एक बरस में मेरी ऐसे कई लोगों से मुलाक़ात हुई जिनसे, उनके अनुसार, पहले भी मिलना हुआ था। मुझे तो सच में बिलकुल याद नहीं, कब, कहां, क्यूं।
लेकिन कुछ लोगों से एक छोटी सी मुलाक़ात भी याद रहती है। इस साल मार्च के महीने में मेरे एक सहयोगी मुझसे किसीको मिलवाना चाहते थे। मैंने भी हामी भर दी और एक दिन मेरे सहयोगी और उनके जानकार, शिवा देवनाथ, दोनों सामने बैठे हुए थे।
अच्छा हम जो पत्रकार होते हैं, हमारे पास बहुत सारी कहानियां होती हैं। कुछ हम बता देते हैं, कुछ बहुत से कारणों से अनकही रह जाती हैं। शिवा जो कि एक क्राइम रिपोर्टर रहे थे, उनके पास कहानियों का ढ़ेर था। मुंबई में क्राइम रिपोर्टर के पास ढ़ेरों मसालेदार ख़बरें होती हैं। शिवा का बहुत बढ़िया नेटवर्क था ख़बरियों का। शायद ही ऐसी कोई ख़बर जिसके बारे में उन्हें मालूम नहीं हो।
जिन दिनों शिवा से मुलाक़ात हुई, मैं भी कुछ नई कहानियों के बारे में सोच रहा था। शिवा से मिलने का उद्देश्य भी यही था कैसे हम साथ में आयें और क्राइम से जुड़ी कहानियां लोगों तक पहुंचाएं।
शिवा से मिले तो उन्होंने बहुत सारी बातें करी। उस समय जो हिंदी फ़िल्म कलाकारों के केस चल रहे थे उस पर भी उन्होंने कुछ अंदर की ख़बर साझा करी। शिवा दरअसल जे डे के सहयोगी रह चुके हैं। मुंबई में अगर कोई क्राइम रिपोर्टर हुआ है तो वो जे डे सर थे। उनके काम के ऊपर वेब सिरीज़ बन चुकी हैं और मुझे उनके सहयोगी के साथ काम करने का एक मौक़ा मिल रहा था।
क्राइम से संबंधित ख़बरें लोग बड़े चाव से पढ़ते या अब देखते हैं। उस पर अगर कोई पुराने केस के बारे में ऐसी बातें हों जो लोगों को पता भी नहीं हो, तो उन ख़बरों का चलना तो तय है। इस मुलाक़ात के बाद इस बात की कोशिश शुरू हुई कि कैसे शिवा भाई को संस्था से जोड़ा जाये। ये थोड़ा टेढ़ा काम था क्योंकि मैनेजमेंट के अपने विचार होते हैं। उस पर आज जब AI का ज़ोर है तो ये समझाना कि जो ख़बर लिखी ही नहीं गई है उस पर AI क्या ही करेगा, मतलब मशक्कत वाला काम।
इस बीच शिवा का मैसेज, कॉल आता रहा जानने के लिए कि कुछ बात बनी क्या। लेकिन अब ये सब नहीं होने वाला। शिवा अब हमारे बीच नहीं हैं। अपने साथ वो कितनी ही सारी कहानियां भी लेकर चले गए। उनके साथ काम नहीं करने का अफ़सोस ताउम्र रहेगा। लेकिन उससे भी ज़्यादा अफ़सोस रहेगा एक बेबाक आवाज़ का शांत हो जाना। पत्रकारिता में बहुत कम लोग बचे हैं जो सच बोलने का साहस रखते हों। शिवा उनमें से एक थे।
पिछले लगभग बीस वर्षों से अपने शहर से नाता टूट सा गया है।
कभी शहर की गलियों में ऐसे ही घूमने निकल जाओ तो समय जैसे ठहर सा जाता है। आता जाता हर शख़्स जाना पहचाना लगता है। पिछली बार जब भोपाल गया था तो घर से निकलना बहुत ज़्यादा तो नहीं हुआ लेकिन जब कहीं जाना हुआ हर शक्ल कुछ जानी पहचानी सी लगी। एक दो को तो बस नाम लेकर पुकारने ही वाला था। बस ज़ुबान पर नाम आते आते रुक गया।
कुछ को तो मैने आंखों से ओझल होने तक देखा। इस उम्मीद में की शायद वो दिलवाले दुल्हनियां की काजोल की तरह पलट कर शाहरुख ख़ान को देख लें। अब यहां मामला गड़बड़ हो गया। मतलब ये उम्मीद थोड़ी ज़्यादा हो गई थी। खुद की काया दो राज के बराबर हो गई होगी लेकिन उम्मीद ये की कोई काजोल हमको पहचान ले। वैसे सामने वाले भी अब सिमरन कहां।
इसके पहले की बात बिगड़े, ये बता देना उचित होगा परिचित सिर्फ़ महिला नहीं बल्कि पुरुष भी लग रहे थे। पिछले लगभग बीस वर्षों से अपने शहर से नाता टूट सा गया है। हर बार जाना होता है तो कुछ कड़ी ढूंढते रहते हैं। इसी तलाश में समय निकल जाता है और वहां से मायानगरी वापस। यहां वो कड़ियां कभी बनी ही नहीं, या ये कहूं की मैंने इसमें कभी कोई रुचि नहीं दिखाई।
विदेश में जो लोग जाकर बसते हैं उनकी मनस्थिति क्या होती है? जब ये निश्चित हो जाता है अब यही शहर, देश उनका रहेगा तब उनके लिए कितना आसान या मुश्किल होता है? क्या जब कभी वो देस वापस आते हैं तो कुछ पहचाने हुए चेहरे खोजते रहते हैं? क्या अपने नए देस में वो जाना पहचाना ढूंढ़ते हैं?
पिछले दिनों भोपाल से वापसी के समय स्टेशन पर ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे। एक सज्जन सामने प्रकट हो गए। मुझे बिल्कुल जाने पहचाने नहीं लगे लेकिन वो साहब ने बात शुरू कर दी। मुझे लगा शायद वो मुझे पहचान गए हैं और थोड़ी देर में किसी परिचित के ज़िक्र से मुझे उनका नाम याद आ जायेगा।
पहला सवाल था आपकी ट्रेन आने वाली है क्या। ट्रेन आने में समय था तो उनको बता दिया थोड़ी लेट चल रही है। मुझे लगा शायद वो भी उसी गाड़ी से यात्रा कर रहे होंगे। लेकिन उनके पास कुछ सामान भी नहीं था। बाकी लोगों की तरह मैं मोबाइल में गुम नहीं था और शायद यही गलती मुझे आगे भारी पड़ने वाली थी।
इसके बाद वो मुद्दे की बात पर आ गए। पतलून की जेब से कुछ रुपए निकाले और कहने लगे बस इतने पैसे हैं कुछ कम हैं। उन्हें इंदौर जाना था लेकिन किराये के पैसे नहीं थे। मुझसे उन्होंने कहा की क्या मैं उनकी कोई मदद कर सकता हूं।
मैंने कहा मेरे पास पैसे नहीं है। वो सज्जन कहने लगे आप जितने पैसे देंगे उसके दुगने मैं आपको किसी एप्प के ज़रिए भेज दूंगा। मैने उन्हें कहा मैं दरअसल अपने साथ पैसे नहीं रखता। सारा लेनदेन मोबाईल के ज़रिए ही होता है (ये सौ आने सच बात है)।
मुझे ऊपर से नीचे तक देखने के बाद बोले आप तो मेरे पिता की उमर के हैं। देखिये आपके पास इतने पैसे तो रखे ही होंगे। मुझे अभी तक जो भी थोड़ी बहुत संवेदना उनके लिए थी वो हवा हो चुकी थी। वो स्वयं मुझसे कोई बहुत ज़्यादा छोटे नहीं दिख रहे थे और उन्होंने चंद रुपयों के लिए मुझे अपने पितातुल्य कह दिया था। मैंने उन्हें सलाह दी आपको जो रकम चाहिए वो या तो रेलवे के पुलिसकर्मी या जो आसपास होटल हैं वहां से ले लें। शायद वो आज़मा चुके थे और बात कुछ बनी नहीं थी।
उन्हें लगा (ऐसा मुझे लगा) शायद उनकी पिता की उम्र वाली बात से मैं आहत हो गया था। उन्होंने अगले ही पल कहा आप तो कॉलेज में पढ़ने वाले लगते हैं। कौन से कॉलेज से पढ़ाई करी है। अब मुझे उनकी बातों में रत्तीभर भी रुचि नहीं थी। आसपास खड़े बाकी यात्री भी देख रहे थे ये बात कहां खत्म होती है।
मैने भोपाल के किसी कॉलेज का नाम लिया। कहा वहां से पढ़ाई करी है। लगा अब बात खत्म। लेकिन सज्जन व्यक्ति कहां रुकने वाले थे। उन्होंने अपना बटुआ निकाला और दिखाया। इसके साथ जो उन्होंने कहा वो सुनकर हंसी भी आई और आश्चर्य भी।
उन्होंने बताया उनका उनकी पत्नी से किसी बात पर झगड़ा हो गया था। पत्नी ने बटुए से सारा पैसा निकाल लिया था और उन्हें घर से बाहर निकाल दिया था। तो महाशय ने सोचा क्यूं ना इसी बहाने दोस्तों से इंदौर मिलकर आया जाए। तब तक उनकी पत्नी का गुस्सा भी शांत हो जायेगा।
ये सब बताते हुए उनके मुख से एक बार फ़िर से वही आहत करने वाली बात निकल गई। वो बोले वो आपकी बहू ने…
अभी कुछ दो महीने बाद धरती पर प्रकट हुए पचास वर्ष हो जायेंगे। लेकिन बहु के आने में समय है। मुझे अब उस व्यक्ति से ज़्यादा अपनी काया की चिंता हो रही थी। अंकल तक तो ठीक था। ये कुछ ज़्यादा हो गया था। ये बात सही है पिछले दिनों कुछ वज़न बढ़ा है। लेकिन आज लग रहा है वो कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है। माँ के दो दिन पहले वज़न कम होने की बात की सारी ख़ुशी किसी कोने में दुबक गई थी।
इस पूरे वाक्ये में जो एक बात जिससे मुझे थोड़ी राहत मिली वो ये थी की सज्जन भोपाल की बढ़ती हुई सर्दी से बचने के लिए मदिरा का सेवन किये हुए थे। शायद वो अपना चश्मा भी घर पर ही छोड़ आये थे! (ऐसा सोचने में कोई नुकसान भी तो नहीं है)।
थोड़ी देर में गाड़ी आई उससे अपनी वापसी प्रारंभ करी। उन सज्जन को आईना दिखाने के लिए धन्यवाद। भले ही उन्होंने जो कहा वो नशे की हालत में कहा। लेकिन बात लग चुकी है और इस साल की सर्दियों का पहला गाजर का हलवा खा कर इसको भूलने का प्रयास जारी है। जब खत्म होगा तब हलवे से बढ़े वज़न को कम करने के बारे में सोचा जायेगा। आप भी मौसम का आनंद लीजिए।
नये वर्ष का स्वागत के तरीक़े में जैसे हम देखते देखते बड़े हुये, उसमें अब काफ़ी बदलाव आया है। ये बदलाव हालिया नहीं है औऱ हमारे समय से ये देखने को मिल रहा है।
जब हम बड़े हो रहे थे तो नये वर्ष से सम्बंधित ऐसी कुछ याद नहीं है। ये 1984 तक की बात होगी। उसके बाद हमारे जीवन में टीवी का प्रवेश हुआ। उसके बाद नये साल का मतलब हुआ करता था परिवार के साथ दूरदर्शन के कार्यक्रम देखना औऱ चूँकि दिसंबर के महीने में गाजर आ जाती थी तो गाजर के हलवे से मुंह मीठा कर साल की बदली मनाना। कभी कभार कुछ रिश्तेदार भी साथ में होते। लेक़िन ऐसा कम ही होता था क्योंकि बहुत रात हो जाती थी औऱ कड़ाके की सर्दी भी हुआ करती है इस समय, तो सब अपने अपने घरों में ये कार्यक्रम मानते।
पहला बदलाव आया जब बाहरवीं के समय साथ पढ़ने वालों ने एक मित्र के घर एक पार्टी का आयोजन किया। मुझे ये मिलना जुलना पसंद वैसे ही कम था। लेक़िन किसी दोस्त के कहने पर मैंने भी हांमी भर दी। कैंपियन स्कूल, जहाँ से मेरी पढ़ाई खत्म हुई, वहाँ काफ़ी बड़े घरों के लड़के भी पढ़ने आते थे, उनकी पार्टी भी कुछ अलग तरह की होती (ये मुझे वहाँ पहुँचने के बाद पता चला)।
वहाँ काफ़ी सारे स्कूल के मित्र तो थे ही, कुछ औऱ लोग भी थे। दिसंबर की उस आख़िरी रात मैं स्कूटर पर था औऱ सर्दी भी कड़ाके की थी। बहरहाल तैयार होकर, पिताजी का कोट औऱ टाई लगाकर हम भी पहुँचे। अब इस तरह की जो पार्टियाँ होती हैं ये भी मेरे लिये पहला ही अनुभव था। इससे पहले कभी किसी जन्मदिन की पार्टी में जाना हुआ होगा लेक़िन वो एक अलग तरह की पार्टी होती थी।
इस पार्टी में शायद पहली बार शराब या बियर मिलते हुये देखा था। हमारे जान-पहचान में बहुत कम लोगों को ऐसे खुलेआम शराब पीते हुये देखा था। पिताजी के ऐसे कोई शौक़ नहीं थे औऱ न उनके मिलने जुलने वालों में ऐसा होते हुये देखा था। ये सारे कार्यक्रम सबसे छिपते छिपाते हुये करे जाते थे। कई लोगों के बारे में ये जानकारी तो थी लेक़िन सामने पीने का चलन उन दिनों शुरू नहीं हुआ था।
मुझे याद है जब एक परिचित जो की मदिरा का सेवन करते थे, उनके यहाँ उनके पुत्र का विवाह था। उनका बस यही प्रयास था की किसी तरह हम लोगों को शराब पिलाई जाये। उनके कई सारे प्रयास असफल हुये लेक़िन एक दिन वो अपने मिशन में कामयाब हो ही गये। जैसा की होता है, आपको तो लेनी ही पड़ेगी। थोड़ी थोड़ी। लेक़िन उनके प्रयासों को तब धक्का लगा जब उनकी महँगी महँगी शराब से सजे बार में से कुछ न लेते हुये एक घूँट बियर का ले लिया। उसके बाद कई समारोह में जाना हुआ लेक़िन उन्होंने बुलाना छोड़ दिया। जिनको इसका न्यौता मिला उन्होंने बार की भव्यता के बारे में बताया।
इन दिनों पीने पिलाने का चलन बढ़ गया है। किसी शादी में अगर शराब नहीं तो जैसे कुछ कमी सी रह जाती है। अब आज ये पीने पिलाने के विषय में क्यों ज्ञान बाँटा जा रहा है?
पिछले दिनों ऐसे ही अचानक नव वर्ष गोआ में मनाने का कार्यक्रम बन गया। गोआ इससे पहले भी आना हुआ जब ऑफिस की एक ट्रिप हुई थी। अगर आप कभी गोआ नहीं आये हों तो ये एक तरह का कल्चर शॉक साबित होता है। आप किसी भी शहर में रहते हों, जिस खुलेपन से यहाँ जीवन का आंनद लिया जाता है आपको लगेगा आपने अभी तक कुछ नहीं किया है।
जब मैं पहली बार यहाँ आया तो मुझे जितनी आसानी से शराब मिलती है, ये देख कर एक झटका सा लगा था। इसके पीछे कई कारण हैं। भोपाल में शराब की दुकानें औऱ बार देखे थे। दोस्तों के साथ एकाध बार जाना भी हुआ था। जब नौकरी के सिलसिले में पहले दिल्ली औऱ बाद में मुम्बई जाना हुआ तो बहुत सीमित जगहों पर ये पीने पिलाने का कार्यक्रम होता था।मुम्बई में जहाँ मैं रहता हूँ वहाँ तो कोई शराब की दुकान ही नहीं है। अगर आप पीने का शौक़ रखते हैं तो आपको थोड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
अब ऊपर जिस तरह के माहौल को मैंने देखा था, उसके बाद गोआ में जिस तरह का चलन या कहें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी। जैसे बाक़ी शहरों में कोल्ड ड्रिंक मिलती है, उतनी आसानी से शराब मिलती है, ये देखकर झटका लगना स्वाभाविक ही है। उसके बाद यहाँ कोई तैयार होकर घूमने का कोई चलन नहीं है। आप कम से कम कपड़ों में अपना काम चला सकते हैं।
एक बार आप गोआ आ जायें तो ज़िंदगी एक बड़ी पार्टी की तरह लगती है। सब बस बिंदास, बेफ़िक्र होकर तीन चार गुज़ारते हैं उसके बाद वही ढ़र्रे वाली ज़िंदगी में वापस। जैसे आज 2021 के आख़िरी दिन जब ये पोस्ट लिख रहा हूँ तो सभी औऱ से गानों का ज़बरदस्त शोर है। इस शोर में 2021 में जो भी हुआ वो तो नहीं दबेगा। 2020 के बाद मेरे जीवन में बहुत सारे बदलाव हुये औऱ जैसे इनको अपना कर 2021 शुरू ही कर रहे थे की कोरोना ने अपने तरीक़े से कुछ ज़िन्दगी के नये फ़लसफ़े सिखाये, पढ़ाये। ये क्लास अभी भी शुरू है।
जिस तरह का 2021 हम सभी के लिये रहा है, गोआ से यही सीख मिलती है पार्टी रोज़ चलती रहनी चाहिये। मतलब पार्टी जैसी सोच। किसी भी बात को ज़्यादा गंभीरता से न लें। हाँ, नशा ज़िन्दगी का हो, कुछ अच्छा करने का, कुछ असीमित करने का। 2022 आप सभी के लिये शुभ हो, इसी कामना के साथ।
इन दिनों तो शादी ब्याह की धूमधाम चल रही। जितने भी लोगों को जानते हैं सभी के परिवार में किसी न किसी की शादी का कार्यक्रम है। जिनको नहीं जानते हैं उनकी शादी के अलग अलग कार्यक्रम की तस्वीरें देखने को मिल रही हैं। अब ये कोई विक्की कौशल औऱ कैटरीना कैफ की शादी तो है नहीं। सबने मन भरकर फ़ोटो खींचे हैं औऱ अब जहाँ मौक़ा मिले सब जगह शेयर कर रहे हैं। इतने से भी मन नहीं भरता लोगों को तो वो वहाँ इकट्ठा परिवार वालों से भी वही फ़ोटो लेक़िन दूसरी जगह से खींचा हुआ, वो भी शेयर होता है।
तो वापस शादी पर आते हैं। मेरा विवाह भी इन्हीं दिनों हुआ था। विवाह के लिये कन्या काफ़ी समय से ढूंढ़ी जा रही थी। उन दिनों मुम्बई कर्मस्थली थी औऱ उससे पहले दिल्ली। बहुत से रिश्तेदारों को तो बस इंतज़ार ही था कब मैं धमाका करने वाला हूँ। जब ऐसा नहीं हुआ, मतलब मैंने दिल्ली वाली गर्लफ्रैंड या मुम्बई की मुलगी, को विवाह के लिये नहीं चुना तो उनको मायूसी ज़रूर हुई होगी। बहरहाल, सुयोग्य कन्या की तलाश जारी थी। एक दो जगह तो सबको लगा यहाँ तो पक्की ही समझें। मग़र…
अब थोड़ा सा फ़्लैशबैक के अंदर फ़्लैशबैक। कॉलेज के दिनों में या परीक्षा के दिनों हमारी पढ़ाई, मतलब हम तीन मित्रों की (विजय, सलिल औऱ मेरी) परीक्षा की एक रात पहले से शुरू होती। कई बार साथ पढ़ने का मौक़ा हुआ तो विजय के घर पर ये पढ़ाई होती। ऐसी ही एक रात पढ़ते हुये जीवनसाथी कैसा हो इसपर चर्चा हुई औऱ सबने बताया उनको कैसे साथी की कामना है। उस समय मैं भोपाल से कहीं बाहर जाऊँगा या पत्रकारिता करूँगा ये कुछ भी नहीं पता था। शायद इन दोनों को भी यही लगा था की मेरा विवाह अरेंज नहीं होगा।
जब ये बातें हुई होंगी तो निश्चित रूप से हमने रूप सौंदर्य के बारे में ही कहा होगा। मतलब शक़्ल, सूरत कैसी हो। लेक़िन जब विवाह के लिये कन्या ढूंढना शुरू हुआ तो इसमें कुछ औऱ बातें भी जुड़ गयीं। चूँकि काम करते हुये समय हो गया था औऱ महानगरों में ज़िंदगी एक अलग तरह की होती है। उसपर से पत्रकार की थोड़ी औऱ अलग। मतलब करेला औऱ वो भी नीम चढ़ा। तो इन्हीं अनुभवों के चलते अब जीवनसाथी कैसा हो इसमें थोड़ा बदलाव हुआ था।
एक युवती, जिनसे सब को लगा था मेरा विवाह हो ही जायेगा, से मेरा मिलना हुआ। मतलब इस रिश्ते की बातचीत में जो भी शामिल थे, उन सबकी बातों से मेरे माता-पिता भी ये मान बैठे थे। सगाई की तैयारी शुरू थी (मुझे बाद में पता चला)। लेक़िन मेरी बातचीत हुई तो वो माधुरी दीक्षित ने जो दिल तो पागल है में कहा था, ऊपरवाले ने वो सिग्नल नहीं दिया। सारी तैयारियां धरी की धरी रह गईं। मुझपर बहुत दवाब भी था लेक़िन मुझे उसी दिन मुम्बई वापस आना था तो बात टल गई। हाँ ये बात ज़रूर हुई की जो भी बीच में लोग बातचीत कर रहे थे, वो आज तक इस बात से नाराज़ हैं।
छोटी बहन यशस्विता के विवाह के समय मेरे लिये एक विवाह का प्रस्ताव आया था। लेक़िन हम सब व्यस्त थे तो किसी का ध्यान नहीं गया औऱ फ़ोटो आदि सब उठाकर रख दी गईं थीं। जब एक दो माह बाद भोपाल जाना हुआ तो मुझे फ़ोटो दिखाई गई। अब वापस उस रात तीन दोस्तों की बात पर चलते हैं। जब मैंने फोटो देखी तो मुझे हमारा वो वार्तालाप ध्यान आ गया। मैंने कोई बहुत ज़्यादा मिलने की उत्सुकता नहीं दिखाई। लेक़िन जैसा मेरी सासूमाँ कहा करती थीं, होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
चूँकि मेरी भी बहनों को इस देखने दिखाने के कार्यक्रम से कई बार गुज़रना पड़ा था तो माता पिता ने अपने पुत्रों के लिये ये कार्यक्रम नहीं करने का निर्णय लिया था। उल्टा उन्होंने कन्यापक्ष को न्यौता देकर बुलाया आप पहले लड़के से मिल लीजिए। जहाँ तक कन्या को देखने की बात है तो उन्होंने कहा अगर लड़की मुझे पसंद है तो वो शादी पक्की करके आ जायेंगे। मतलब सारा दारोमदार आपकी हाँ या ना पर था। उसके बाद आप जानो।
अब जो श्रीमतीजी हैं, जब इन्हें मिलने गये तो इनका सखियों के साथ फ़िल्म का प्रोग्राम था, जो मेरे कारण रद्द हो गया था। आपने फ़िल्म ताजमहल का वो गाना तो सुना होगा जो बात तुझमें है, तेरी तस्वीर में नहीं। बस कुछ वैसा ही हुआ। जब वापस आये तो सब मेरी राय जानना चाहते थे। अच्छा पता नहीं ऐसा क्यूँ होता था, जब भी ऐसा कोई कार्यक्रम होता मुझे उसी दिन वापस मायानगरी आना होता था। मैं भी सफ़र का ये समय इस बारे में विचार करने के लिए उपयोग करता था।
उस दिन स्टेशन पर चलते चलते मैंने जो जवाब दिया उसका जैसे बस इंतज़ार हो रहा था। ऐसा पहली बार हुआ था जब मैंने मुम्बई पहुँचकर जवाब देने की बात नहीं करी थी औऱ माता-पिता ने भी बिना देरी किये रिश्ता पक्का कर दिया।
श्रीमतीजी को उस दिन हृतिक रोशन औऱ प्रीति जिंटा की फ़िल्म भले ही देखने को न मिली हो लेक़िन असल जीवन में हम दोनों को ही \’कोई मिल गया\’ था (मुझे पाँच मंज़िल चढ़ने के बाद ही सही)।
माँ और प्रीति किसी तरह जय को उठाकर घर के अंदर लाये और माँ ने उसे पीने के लिये ग्लूकोज़ का पानी दिया और प्रीति से कहा की वो बगल वाले मिश्रा जी के घर से पापा को बैंक फ़ोन कर फौरन घर आने को कहे।
शाम का समय था तो अगल बगल के घर के बच्चे बाहर ही खेल रहे थे और उन्होंने जय को गिरते हुये और प्रीति को माँ को मदद के लिये बुलाते हुये सुन लिया था। उन्होंने अपने अपने घरों में ये बता भी दिया था तो उनमें से कुछ की माताजी जय के घर के बाहर ही खड़ी थीं जब प्रीति बाहर मिश्रा जी के घर जाने को निकली। श्रीमती मिश्रा ने ही सबसे पहले पूछा जय के बारे में। प्रीति ने घटना का संक्षिप्त विवरण दे दिया और उनसे कहा कि \”आंटी पापा को बैंक फ़ोन लगाना था\”। उन्होंने उसको अपने घर ले जाते हुये पूछा, \”जय कुछ कमज़ोर लग रहा है। क्या पढ़ाई का टेंशन है?\”। प्रीति ने सिर्फ पता नहीं कहके पीछा छुड़ाना चाहा। लेकिन श्रीमती मिश्रा को तो जैसे एक मौका मिल गया था। वैसे उनसे सब दूर ही भागते थे। क्योंकि एक बार वो शुरू हो जायें तो बस किसी को बचाने के लिये आना ही पड़ता है।
जय को क्या हुआ था ये बिना जाने ही उन्होंने उसके खाने-पीने की आदतों और बेसमय सोने को इसका ज़िम्मेदार ठहरा दिया। जब मिश्रा जी के घर पहुँचे तो उनका छोटा बेटा अमित घर पर ही था। प्रीति को नमस्ते करते हुये उसने पूछा \”दीदी कुछ ज़रूरत हो तो मैं चलता हूँ।\” प्रीति ने कुछ जवाब नहीं दिया और फ़ोन का रिसीवर उठा कर वो बैंक का नंबर डायल करने लगी। अमित प्रीति को देख रहा था और प्रीति अपने पिताजी को जय का हाल बता रही थी। बात करते करते उसके आँसू निकलने लगे। अमित की माँ चौके में थी। अमित ने आगे बढ़कर प्रीति के कंधे पर हाँथ रखते हुये कहा, \”दीदी जय भैया ठीक हो जायेंगे\”। इतना सुनने के बाद प्रीति का रोना बढ़ गया। अमित ने माँ को आवाज़ देकर बुलाया तो श्रीमती मिश्रा एक गिलास पानी और कुछ बिस्कुट लेकर ड्राइंग रूम में ही आ रहीं थी। उन्होंने भी प्रीति को समझाया।
जय को पहले से बेहतर लग रहा था लेकिन बहुत कमज़ोरी लग रही थी। प्रीति आयी तो उसने पास के डॉ खोना के क्लीनिक चलने को कहा। \”वहाँ तक कैसे जाओगे\”, माँ ने पूछा। उन्होंने प्रीति को जय के पास बैठने के लिये कहा और खुद डॉ खोना के क्लीनिक चली गईं। वहाँ चार पांच मरीज़ पहले से थे। जय की माँ, सरोज सिंह, ने कंपाउंडर से पूछा कि क्या डॉ साहब उनके बेटे को घर पर देख लेंगे। उसको बहुत कमज़ोरी है और यहाँ तक चल कर आना थोड़ा मुश्किल है। कंपाउंडर ने उन्हें इंतज़ार करने को कहा। डॉ साहब से पूछकर उसने कहा की आजायेंगे लेकिन मरीजों को देखने के बाद।
कंपाउंडर के जवाब से थोड़ी निश्चिंत जय की माँ जब घर पहुँची तो जय ड्राइंग रूम में नहीं था। हैरान-परेशान प्रीति उनके पर्स में कुछ ढूंढ रही थी। माँ को देख उसने कहा, \”पापा मिश्रा अंकल की कार से भैया को सरकारी अस्पताल ले गये हैं। हम को भी वहीं चलना है। आप पैसे रख लेना, पापा ने कहा है\”।
इन दिनों नवरात्रि की धूम है। बीते दो साल से त्योहारों की रौनक़ कम तो हुई है लेक़िन उत्साह बरकरार है। लोग किसी न किसी तरह त्यौहार मनाने का तरीक़ा ढूंढ ही लेते हैं। अगर सावधानी के साथ मनाया जाये तो बहुत अच्छा।
पिताजी को जो सरकारी मकान मिला था वो बिल्कुल मेन रोड पर था। भोपाल में चलने वाली बसों का एक रूट घर के सामने से ही जाता था। कुल मिलाकर आजकल जो घर देखे जाते हैं, ये भी पास हो, वो भी नज़दीक हो, बस ऐसा ही घर मिला था।
घर के सामने एक कन्या विद्यालय था जो हमारे सामने ही बना था औऱ हम लोगों ने वहाँ बहुत खेला भी (जब तक क्रिकेट से स्कूल में लगे शीशे नहीं टूटने शुरू हुये)। इसी स्कूल से लगा हुआ था लड़कों का स्कूल। लेक़िन दोनों ही स्कूल के आने जाने का रास्ता विपरीत दिशा में था।
ये जो लड़कों का स्कूल था वहाँ अच्छा बड़ा मैदान था औऱ हर साल नवरात्रि में गरबा का कार्यक्रम आयोजित होता। भोपाल शहर का शायद सबसे बड़ा गरबा कार्यक्रम हुआ करता था। सारा शहर मानो गरबा कर रहा हो इतनी भीड़ हो जाती। औऱ यही हमारी मुसीबत का कारण बनता।
घर के सामने जो भी अच्छी ख़ासी जगह थी रात होते होते वो सब गाड़ियों से भर जाती औऱ अगर हम लोग कोई बाहर निकले तो गाड़ी अंदर रखने का कार्यक्रम देर रात तक रुका रहता। हमारे प्यारे देशवासियों की आदत भी कुछ ऐसी ही है। अपने घर के सामने ऐसा कुछ हो तो पता नहीं क्या कर बैठें लेक़िन ख़ुद बिना सोचे समझे यही काम करते रहते हैं।
उन दिनों मेरा भी भोपाल में उसी संस्था से जुड़ाव था जो ये भव्य कार्यक्रम आयोजित करती थी। लेक़िन चूंकि हमारा काम ही शाम को शुरू होता था तो कभी जाने का मौक़ा नहीं मिला। जब श्रीमती जी से विवाह की बात शुरू हुई तो पता चला वो सामने वाले उसी स्कूल में पढ़ती थीं जिसका निर्माण हमारे सामने हुआ था। कई लोगों को लगा शायद मैंने उन्हें स्कूल आते जाते देखा औऱ…
दूसरा रहस्योद्घाटन ये हुआ की जिस गरबा की भीड़ से हम साल दर साल परेशान रहते थे वो उस भीड़ का भी हिस्सा थीं। अलबत्ता उनके ग्रुप की गाड़ियाँ हमारे घर के सामने नहीं खड़ी होती थीं।
जिस दिन हमारी सगाई हुई उन दिनों भी ये महोत्सव चल रहा था। समारोह के पश्चात सब अपने अपने घर चले गये लेक़िन श्रीमती जी औऱ उनके भाई बहन सबका गरबा कार्यक्रम में जाने का बड़ा मन था। लेक़िन सबको डाँट डपट कर समझाया गया औऱ सीधे घर चलने को कहा गया।
जब गरबा क्या होता है ये नहीं मालूम था, उस समय एक बार अहमदाबाद जाना हुआ था। एक गीत \’केसरियो रंग तने लागयो रे गरबो\’ ये सुना था औऱ यही याद भी रह गया है (अगर बोल ग़लत हो तो बतायें)। भोपाल में गुजराती समाज भी ऐसा कार्यक्रम आयोजित करता था लेक़िन सिर्फ़ सदस्यों के लिये। मुम्बई में भी ऐसे कई बड़े कार्यक्रम होते हैं जहाँ कभी जाना नहीं हुआ। गरबा क्वीन फाल्गुनी पाठक से मिलना ज़रूर हुआ था लेक़िन दिल्ली में जब वो अपने एक एल्बम रिलीज़ के सिलसिले में आई थीं।मुम्बई में तो उनके कार्यक्रम को टीवी पर ही देखा है। गरबे की असली धूम तो गुजरात में होती है लेक़िन अमिताभ बच्चन के बार बार कुछ दिन तो गुज़ारो गुजरात में बोलने के बाद भी इसका मौक़ा नहीं लगा है।
जो हमारे समय नवरात्रि का कार्यक्रम होता था वो था झाँकी देखने जाने का। एक दिन परिवार के सब लोगों को कार में भरकर पिताजी पूरे शहर की झाँकी दिखाते। ये सब घुमाने फिराने का कार्यक्रम पिताजी के ज़िम्मे ही आता क्योंकि – एक तो उनको शहर के इलाके बहुत अच्छे से पता हैं औऱ दूसरा ये की वो बिना किसी परेशानी के आराम से घूमने देते हैं। मतलब घूमते समय घड़ी पर नज़र नहीं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण? श्रीमती जी आज भी कहती हैं मार्केट जाना हो तो पापा के साथ जाना चाहिये वो आराम से घूमने देते हैं। हमारे साथ मार्केट जाना तो घंटो का नहीं मिनटों का काम होता है। अभी तक ये गुण नहीं आया है – देखिये आने वाले वर्षों में क्या कुछ बदलता है।
समय के साथ सब बदलता है। ऐसा ही कुछ शादी के लगभग दो साल बाद हुआ। कहाँ पास होने के बाद भी गरबा कार्यक्रम में कभी नहीं गये औऱ कहाँ विवाह उपरांत पूरे एक महीने गुजरात से सिखाने आये गुरुजी से गरबे की ट्रेनिंग ली। हम चारों – ताऊजी के बेटे और भाभी औऱ हम दोनों, शायद बहुत ही गंभीरता से सीख रहे थे। ये अलग बात है कभी गरबा कार्यक्रम में जाने का औऱ अपनी कला दिखाने का मौक़ा नहीं मिला।
तो ये हमारा भोपाल भ्रमण कार्यक्रम का बड़ा इंतज़ार होता। अलग तरह की प्रतिमाओं को देखना, कोई किसी घटना को दर्शा रहा है या कोई किसी प्रसिद्ध मंदिर की झाँकी औऱ सुंदर सी देवीजी की मूर्ति। इन सबकी अब बस यादें ही शेष हैं। अक्सर ये घूमना षष्ठी या सप्तमी के दिन होता क्योंकि कालीबाड़ी भी जाना होता था। नवरात्रि मतलब गरबा – ये वाला कार्यक्रम अभी भी पूरी तरह से नहीं हुआ है। मुम्बई में झाँकी/पंडाल वाला कार्यक्रम सिर्फ़ बंगाली समाज तक सीमित है तो वहाँ जाना हुआ है।
जो हमारा घर था उसके दायें औऱ बायें दोनों तरफ़ दुर्गाजी की झाँकी लगती औऱ सुबह सुबह से दोनों ही पंडाल भजन लगा देते। शुरुआत एक से होती लेक़िन दूसरे कमरे तक पहुंचते पहुंचते भजन भी बदल जाता। क्योंकि पहले वाले की आवाज़ दूसरे के मुक़ाबले कमज़ोर पड़ जाती।
आप नवरात्रि कैसे मानते हैं औऱ इतने वर्षों में क्या बदला ? अपनी यादें साझा करें।
गुलज़ार मेरे पसंदीदा शायरों में से एक हैं औऱ इसके पीछे सिर्फ़ उनके लिखे गाने या ग़ज़ल ही नहीं बल्कि उनकी फिल्मों का भी बहुत बड़ा योगदान है। वैसे आज तो पूरी पोस्ट ही गुलज़ारमय लग रही है। शीर्षक भी उन्हीं का एक गीत है औऱ आगे जो बात होने जा रही वो भी उनका ही लिखा है। आज जिसका ज़िक्र कर रहे हैं वो न तो फ़िल्म है न ही गीत। औऱ जिस शख्स को याद करते हुये ये पोस्ट लिखी जा रही है, वो भी गुलज़ार की बड़ी चाहने वालों में से एक।
गुलज़ार, विशाल भारद्वाज (संगीतकार), भूपेंद्र एवं चित्रा (गायक) ने साथ मिलकर एक एल्बम किया था सनसेटपॉइंट। इस एल्बम में एक से एक क़माल के गीत थे। मगर इसकी ख़ासियत थी गुलज़ार साहब की आवाज़ जिसमें वो एक सूत्रधार की भूमिका में कहानी को आगे बढ़ाते हैं या अगले गाने के लिये एक पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। इसको सुनकर आपकी गाना सुनने की इच्छा औऱ प्रबल होती है। शायद अपने तरह का ये एक पहला प्रयोग था। एल्बम का पूरा नाम था सनसेट पॉइंट – सुरों पर चलता अफ़साना।
आज से ठीक एक बरस पहले हमारा जीवन हमेशा के लिये बदल गया जब मेरी छोटी बहन कैंसर से अपनी लड़ाई हार गई। कहते हैं बदलाव ही जीवन है। हम में से किसी के पास भी इस बदलाव को स्वीकार कर आगे बढ़ने के अलावा औऱ दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था। आप कुछ भी करिये, नहीं मानिये, लेक़िन वो बदलाव हो चुका था। हमेशा के लिये।
यशस्विता शास्त्री ❤️❤️❤️
365 दिन का लंबा सफ़र पलक झपकते ही ख़त्म हो गया लेक़िन यादों की सुई जैसे अटक सी गयी है। अग़र आपने कभी रिकॉर्ड प्लेयर पर गाने सुने हों तो ठीक वैसे ही। कुछ आगे बढ़ता सा नहीं दिखता लेक़िन 2021 आया भी औऱ अब ख़त्म होने की कगार पर है।
वापस आते हैं आज गुलज़ार साहब कैसे आ गये। इस एल्बम में अपनी भारी भरकम आवाज़ में एक गीत के पहले कहते हैं –
पल भर में सब बदल गया था…
…औऱ कुछ भी नहीं बदला था।
जो बदला था वो तो गुज़र गया।
कुछ ऐसा ही उस रात हुआ था। अपनी आंखों के सामने \’है\’ को \’था\’ होते हुये देखा। पल भर में सब कुछ बदल गया था। सभी ने अपने अपने तरीक़े से अपने आप को समझाया। जब नहीं समझा पाये तो आँखे भीगो लीं। कभी सबके सामने तो कभी अकेले में। हम सब, यशस्विता के परिवारजन, रिश्तेदार, दोस्त सब अपनी अपनी तरह से इस सच्चाई को मानने का प्रयास कर रहे थे। लेक़िन समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा औऱ आज यशस्विता को हमसे बिछड़े हुये एक बरस हो गया। पहली बरसी।
ज़िन्दगी की खूबसूरती भी यही है। ये चलती रहती है। औऱ यही अच्छा भी है। नहीं तो हम सभी कहीं न कहीं अतीत में भटकते ही रहें। सबके पास अपने अपने हिस्से की यादें हैं। कुछ साझा यादें भी हैं औऱ कुछ उनके बताने के बाद हमारी यादों का हिस्सा बन गईं। आज जब यशस्विता को याद करते हैं तो इसमें वो बातें भी होती जो उससे कभी नहीं करी थीं क्योंकि इन्होंने आकार उनके जाने के बाद लिया। जैसे कोई अजीबोगरीब नाम पढ़ो या सुनो तो उसका इस पर क्या कहना होता ये सोच कर एक मुस्कान आ जाती है औऱ फ़िर एक कारवां निकल पड़ता है यादों का। जैसे अमिताभ बच्चन सिलसिला में कहते हैं न ठीक उसी तरह…तुम इस बात पर हैरां होतीं। तुम उस बात पर कितनी हँसती।
जब मैंने लिखना शुरू किया तो अतीत के कई पन्ने खुले औऱ बहुत सी बातों का ज़िक्र भी किया। जब कभी यशस्विता से बात होती औऱ किसी पुरानी बात की पड़ताल करता तो उनका यही सवाल रहता, आज फलां व्यक्ति के बारे में लिख रहे हो क्या। मेरे ब्लॉग की वो एक नियमित पाठक थीं औऱ अपने सुझाव भी देती रहती थीं। जब मैंने एक प्रतियोगिता के लिये पहली बार कहानी लिखी तो लगा इसको आगे बढ़ाना चाहिये। तो ब्लॉग पर कहानी लिखना शुरू किया तो कुछ दिनों तक उनकी कुछ प्रतिक्रिया नहीं मिली। लिखने मैं वैसे भी आलसी हूँ तो दो पोस्ट औऱ शायद तीन ड्राफ्ट (जो लिखे तो लेक़िन पब्लिश नहीं किये) के बाद भूल गये। एक दिन यशस्विता ने फ़ोन कर पूछा कहानी में आगे क्या हुआ? अब लिखने वाले को कोई उसकी लिखी कहानी के बारे में पूछ लें इससे बड़ा प्रोत्साहन क्या हो सकता है, भले ही पाठक घर का ही हो तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैंने उनसे कहा अग़र आगे की कहानी जाननी है तो कमेंट कर के पूछो। न उन्होंने कमेंट किया न वो ड्राफ्ट ही पब्लिश हुये। वैसे उसके बाद उनकी स्वयं की कहानी में इतने ट्विस्ट आये की जय, सुधांशु, कृति औऱ स्मृति की कहानी में क्या ही रुचि होती। ख़ैर।
औऱ वो जो गुलज़ार का गाना जिसका मैंने ज़िक्र किया है ऊपर, उसके बोल कुछ इस तरह से हैं,
तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं, रात भी आई थी और चाँद भी था, सांस वैसे ही चलती है हमेशा की तरह, आँख वैसे ही झपकती है हमेशा की तरह, थोड़ी सी भीगी हुई रहती है और कुछ भी नहीं,
होंठ खुश्क होते है, और प्यास भी लगती है, आज कल शाम ही से सर्द हवा चलती है, बात करने से धुआं उठता है जो दिल का नहीं तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं रात भी आई थी और चाँद भी था, हाँ मगर नींद नहीं …नींद नहीं…
Why I Blog is like asking Why I breathe. To blog was not a choice when I became aware of the blogging platforms. It was an escape I always wanted as a writer. Before blogging happened it was maintaining a diary. But as it happens, I stopped writing for various reasons, primarily being I did not want to share my thoughts to self.
Writing for someone always has its own trappings and while the writer in you would be happy to be part of the creative process, writing for your self is far more liberating.
First there are no set things to keep in mind so you can pretty much write the stuff that you want to send out. Second and very important is this is real you. You are not taking your riders on a ride and nor are you creating any false notions about yourself. You are exposing yourself to the world and that take whole lot of courage.
Different people have different ways to get things out of their system. Some paint, others sing, some dance, others think. I write.
Whoever said writing is therapeutic wasn\’t wrong. It sure is and something more.
Expressing yourself to others is a big challenge because you have to speak in language they understand. Its like a movie which we like or a song we fall in love because it captures your mood in a manner no other song managed to do.
Writing to me is something very personal since I do not comment on what is happening around me, nor am I writing about any particular genre but rather what is inside me.
आज भारत में रेडियो के प्रसारण की वर्षगाँठ पर कुछ बातें रेडियो की
बचपन औऱ उसके आगे के भी कई वर्ष रेडियो सुनते हुये बीते। उस समय मनोरंजन का एकमात्र साधन यही हुआ करता था। फिल्में भी थीं लेक़िन कुछ चुनिंदा फिल्में ही देखी जाती थीं। रेडियो से बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं। आज ये मानने में कुछ मुश्किल ज़रूर हो सकती है लेक़िन एक समय था जब पूरी दिनचर्या रेडियो के इर्दगिर्द घुमा करती थी। चूँकि रेडियो के जो भी कार्यक्रम आते थे उनका एक निश्चित समय होता था तो आपके भी सभी काम उस समय सारिणी से जुड़े रहते थे।
मेरे दादाजी का जो रूटीन था वो इसका एक अच्छा उदाहरण है। उनका रात का खाने का समय एक कार्यक्रम \’हवामहल\’ के साथ जुड़ा था। इस कार्यक्रम में नाटिका सुनाई जाती है औऱ इसके तुरन्त बाद आता है समय समाचारों का। खाना खाते खाते दादाजी नाटिका का आनंद लेते औऱ उसके बाद समाचार सुनते। इस कार्यक्रम के शुरुआत में जो धुन बजती है ये वही है जो मैं दादाजी के समय सुनता था। आज जब सुनो तो एक जुड़ाव सा लगता है इस धुन से।
जब हमारा स्कूल जाने का समय हुआ तो विविध भारती सुबह से सुनते। सुबह 7.30 बजे संगीत सरिता कार्यक्रम आता जिसमें किसी राग पर आधारित फिल्मी गाना औऱ उस राग से जुड़ी बारीकियों के बारे में बताते। इसके बाद 7.45 से आठ बजे तक तीन या चार फ़िल्मी गाने औऱ फ़िर सुबह के समाचार।
कभी स्कूल जाने में देरी होती तो वो भी गाने का नंबर बता कर बताया जाता। मसलन तीसरा गाना चल रहा है मतलब आज तो स्कूल में सज़ा मिलने की संभावना ज़्यादा है। ख़ैर विविध भारती का ये साथ तब तक रहा जब तक स्कूल सुबह का रहा। जब दोपहर की शिफ़्ट शुरू हुई तो विविध भारती सुनने का समय भी बदल गया। अग़र मुझे ठीक ठीक याद है तो सुबह दस बजे सभा समाप्त औऱ बारह बजे फ़िर से शुरू। लेक़िन तबतक अपना स्कूल शुरू हो चुका रहता। स्कूल बदला तो औऱ सुबह जाना पड़ता तो सुबह का रेडियो छूट सा ही गया था।
सुबह का जो एक और कार्यक्रम याद में रहा वो था मुकेश जी की आवाज़ में रामचरित मानस। इसका प्रसारण सुबह 6.10 पर होता था तो अक़्सर छूट ही जाता था लेक़िन जब कभी सुबह जल्दी होती तो ज़रूर सुनते। जैसे ही वो मंगल भवन बोलते लगता बस सुनते रहो।
https://youtu.be/ndamULt4n6c
दोपहर को ज़्यादा सुनने को नहीं मिलता। कभी छुट्टी के दिन ऐसा मौक़ा मिलता तो दो कार्यक्रम ही याद आते – भूले बिसरे गीत औऱ लोकसंगीत। दूसरा कार्यक्रम लोक गीतों का रहता जिसे दादी बड़े चाव से सुनती। जो अच्छी बात थी उस समय रेडियो के बारे में वो थी सभी के लिये कुछ न कुछ कार्यक्रम रहता।
शाम को विविध भारती की सभा शुरू होने से पहले भोपाल के स्थानीय प्रसारण सुनते। एक जानकारी से भरा कार्यक्रम आता \’युववाणी\’। हमारे घर से लगे दूसरे ब्लॉक में सचिन भागवत दादा रहते थे औऱ वो उस कार्यक्रम का संचालन करते तो इस तरह से इसको सुनने का सिलसिला शुरू हुआ। एक बार तो उन्होंने अपने कार्यक्रम में मुझे भी बुला लिया। ये याद नहीं क्या ज्ञान दिया था मैंने लेक़िन उसके बाद कभी मौका नहीं मिला रेडियो स्टेशन जाने का। पिताजी प्रदेश के समाचार जानने के लिये कभी कभार शाम को प्रादेशिक समाचार भी सुनते।
शाम को विविध भारती सुनने का नियम भी हुआ करता था। शाम सात बजे के समाचार औऱ उसके बाद आता फ़ौजी भाइयों के लिये कार्यक्रम \’जयमाला\’। इसमें हमारे फ़ौजी अपनी फ़रमाइश भेजते जिसको हम लोगों को सुनाया जाता। अपने घर से दूर फौजियों का एक तरह से संदेश अपने परिवार के लिये औऱ पूरा परिवार भी रेडियो के आसपास इकट्ठा होकर साथ में गाना भी सुनते। हफ़्ते का एक दिन किसी एक फ़िल्मी हस्ती के नाम रहता जहाँ वो अपनी पसंद के गाने सुनाते औऱ अपने अनुभव भी बताते।
हमारे घर में दो बड़े पुराने रेडियो थे जो शुरू होने में अपना समय लगाते। एक ट्रांज़िस्टर भी था जिसको लेकर हम बाहर जो खुली जगह थी वहाँ बैठ जाते औऱ गाने सुनते। मुझे याद है ऐसे ही रेडियो सिलोन पर अमीन सायानी साहब का बिनाका गीतमाला सुनना। बाद में ये प्रोग्राम विविध भारती पर भी आया लेक़िन रेडियो सिलोन पर ऊपर नीची होती आवाज़ को सुनने का मज़ा ही कुछ औऱ था। ज़्यादा मज़ा तब आता जब वो गाने की पायदान के बारे में कुछ बताना शुरू करते औऱ आवाज़ गायब औऱ जब तक वापस आते तब तक गाना शुरू। अब उस समय रिपीट तो नहीं होता था तो बस अगले हफ़्ते तक इंतज़ार करिये।
जब समसामयिक विषयों पर औऱ अधिक जानकारी की ज़रूरत पड़ी तो बीबीसी सुनना शुरू किया। बीबीसी लंदन पर हिंदी सेवा की पहले तीन शो हुआ करते थे औऱ बाद में एक औऱ जोड़ दिया गया था। कई बार जो सुनते उसको नोट भी करते। औऱ क्या कमाल के कार्यक्रम होते। आज भले ही टेक्नोलॉजी बहुत अच्छी हो गई है लेक़िन उस समय के कार्यक्रम एक से बढ़कर एक।
टीवी का आगमन तो 1984 में हो गया था लेक़िन उसका चस्का लगने में बहुत वक़्त लगा। इसके पीछे दो कारण थे। एक तो बहुत ही सीमित प्रसारण का समय औऱ दूसरा रेडियो तब भी एक सशक्त माध्यम हुआ करता था।
आज भी गाना सुनने में जो आनंद है वो गाना देखने में नहीं। कोई भी रेडियो कार्यक्रम सुन लीजिये, ये आपकी कल्पना को पंख लगा देता। कोई गाना सिर्फ़ सुना हो तो आप कल्पना करते हैं की उसे किस तरह फ़िल्माया गया होगा। लेक़िन जहाँ आपने उस गाने को देखा तो आपकी पूरी कल्पना पर पानी फ़िर जाता है। दूसरा सबसे बड़ा फ़ायदा है रेडियो का वो है आप को कहीं बैठकर उसको सुनना नहीं होता। आप अपना काम भी करते रहिये औऱ बैकग्राउंड में रेडियो चल रहा है। जैसे फ़िल्म अभिमान के गाने \’मीत न मिला रे मन का\’ में एक महिला गाना सुनते हुये अपने होठों पर लिपिस्टिक लगाती रहती हैं। आप यही काम टीवी देखते हुये करके दिखाइये। फ़िल्म चालबाज़ में रोहिणी हट्टनगड़ी जैसा मेकअप हो जायेगा।
जैसे मुझे अभी भी फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक का रेडियो प्रोमो याद है जिसमें जूही चावला का एक डायलॉग था औऱ अमीन सायानी साहब की आवाज़ में फ़िल्म के बारे में कुछ और जानकारी। उसके बाद फ़िल्म का गाना। क्या दिन थे…
रेडियो से जुड़ी एक मज़ेदार घटना भी है। कार्यक्रम के बीच में परिवार नियोजन के विज्ञापन भी आते। एक दिन सभी परिवारजन साथ में बैठे हुये थे औऱ एक ऐसा ही विज्ञापन आ गया। मेरी बुआ के बेटे जो उन दिनों वहीं रहकर परीक्षा की तैयारी कर रहे थे औऱ ये विज्ञापन पहले कई बार सुन ही चुके होंगे, अचानक विज्ञापन के साथ साथ उसकी स्क्रिप्ट बोलने लगे। उस समय परिवार नियोजन तो समझ नहीं आता था लेक़िन ये समझ गये कुछ गड़बड़ बोल गये क्योंकि उसके फ़ौरन बाद वो कमरा छोड़ कर भाग गये थे।
किसी भी कहानी का समय जब आता है तब आता है। अब इस पोस्ट को ही लें। इसको लिखने की प्रेरणा मिले हुये एक अरसा हो गया। मज़ेदार बात ये कि आलस त्यागते हुये पोस्ट लिख भी ली लेक़िन किसी न किसी कारण से इसको पोस्ट नहीं कर पाया। और अब जो चल रहा है मीडिया में उसके बाद आज ऐसा लगा यही सही समय है।
दुख, ग़म की मार्केटिंग भी एक कला है। मुझे इसका ज्ञान मेरे डिजिटल सफ़र के शुरू में तो नहीं लेक़िन कुछ समय बाद मिला। लोगों को दुःख बेचो मतलब ऐसी कहानी जो उनके दिल में वेदना जगाये, उन्हें व्यथित करे। अगर आपने लॉकडाउन के दौरान मीडिया में चल रही खबरों पर ध्यान दिया हो तो ऐसी कई ख़बरों ने ख़ूब सुर्खियां बटोरीं।
आज की इस पोस्ट के बारे में लिखने का ख़याल तो लंबे समय से बन रहा था लेक़िन फेसबुक पर आदित्य कुमार गिरि की पोस्ट पढ़ने के बाद लिखने का कार्यक्रम बन ही गया।
दुःख से दुःख उपजता है और कोई भी मनुष्य दुःख से जुड़ना नहीं चाहता। इसलिए लोग आपके दुःख में रुचि नहीं लेते क्योंकि मनुष्य का स्वभाव आनन्द में रहना है। आप दुःख को खोलकर बैठ जाइए, लोग आपसे कतराने लगेंगे।
भगवान को चिदानंद इसलिए कहा गया है क्योंकि वहां केवल आनन्द है। आप दुःख की दुकानदारी करके लोगों को पकड़ना चाहते हैं। लोग भाग जाएँगे।
इस संसार में जिसे भी पकड़ना चाहेंगे वह भागेगा। व्यक्ति प्रकृत्या स्वतंत्र जीव होता है। वह किसी भी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करता। इसलिए आप जब-जब, जिस-जिस पर बन्धन डालते हैं व्यक्ति तब-तब आपसे भागता है।
जीवन का एक ही सूत्र, एक ही मन्त्र है और वह यह कि आनन्द में रहिए। आनन्द आकर्षित करता है। अपने भीतर के खालीपन को सिर्फ अपने स्वभाव में रहकर ही आनन्द से भरा जा सकता है। दूसरे आपके खालीपन को कभी भी भर नहीं सकते।
व्यक्ति अपने अकेलेपन को दूसरों की उपस्थिति से भरना चाहता है लेकिन दूसरा आपके रीतेपन से नहीं आपके भरे रूप से खिंचते हैं। इसलिए दुःख का प्रचार बन्द कीजिए। दुःख को दिखाने से सहानुभूति मिलेगी, आनन्द में होंगे तो प्रेम मिलेगा।
अपने दुःखों और कष्टों को बढ़ा चढ़ाकर दिखाना एक किस्म का बेहूदापन है। इस तरह के लिजलिजेपन से प्रेम नहीं उपजता। आप जबतक दूसरों को प्रभावित करने के सम्बंध में सोचते रहेंगे, ख़ुद से दूर होते रहेंगे। और ख़ुद से दूर होना ही असल नर्क है।
किसी भी रियलिटी शो को देखिये। उसमें जो भी प्रतिभागी रहते हैं उनमें से किसी न किसी की एक दर्द भरी दास्ताँ होती है। शो के पहले एपिसोड से ही दर्शकों को ये बताया जाता है की वो कितनी मुश्किलें झेल कर उस मंच तक पहुंचा है।
पिछले दिनों ट्वीटर पर इसी से जुड़ा एक बड़ा ही दिलचस्प वाक्या हुआ। इंडियन आइडल शो में ऐसे ही प्रतियोगियों के बारे में बार बार बताते रहते हैं। एक दर्शक ने इस पर कहा की शो को गाने या इससे जुड़े विषय पर फ़ोकस रखना चाहिये औऱ इन बातों से बचना चाहिये। इन सब से लोग उसको नहीं चुनते जो उसका हक़दार है बल्कि उसे जिसकी कहानी से वो ज़्यादा व्यथित हो जाते हैं।
इस पर शो के एक जज विशाल ददलानी ने कहा की किसी भी कलाकार के बारे में फैंस जानना चाहते हैं। जिनको गाना सुनना है या कमेंट्स सुनने हैं वो ये सुनने के बाद अपना टीवी म्यूट कर सकते हैं।
इस पर कई लोगों ने प्रतिक्रिया दी औऱ बताया कैसे शो बनाने वालों ने दर्शकों के मन में सहानुभूति जगाने के लिये कुछ ज़्यादा ही दिखा दिया। वैसे मुझे नहीं पता जो भी कहानियाँ दिखाई जाती हैं उनमें कितनी सच्चाई है, लेक़िन मीडिया से जुड़े होने के कारण मेरी आँखों के सामने कई बार कहानियों के रिटेक हुये हैं।
टीवी पर आने वाले कई शो में ये रोना धोना दरअसल कैमरे के लिये ही होता है। इन आरोपों से मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान भी नहीं बचे हैं। उनके शो सत्यमेव जयते में ऐसा कई बार हुआ। ऐसा ही एक और संगीत से जुड़ा शो था जिसमें एक दिव्यांग प्रतियोगी था। उनका गाना उतना अच्छा नहीं था लेक़िन शो को उस प्रतियोगी के ज़रिये अच्छी रेटिंग मिल रही होगी शायद इसलिये काफ़ी समय तक वो शो में रहा लेक़िन जीता नहीं।
भारत का एक बड़ा हिस्सा मध्यम वर्गीय है और उन सभी के पास कुछ न कुछ ऐसी कहानी बताने के लिये होगी। संघर्ष सभी के जीवन में होता है उसका स्तर अलग हो सकता है। लेक़िन होता ज़रूर है। लेक़िन ये एक चलन सा भी बन गया है की लोग अपने संघर्ष को बड़े ही रोमांटिक अंदाज़ में बताते हैं। सिनेमाजगत में तो लगभग हर कलाकार के पास ऐसी ही कुछ कहानी होती है। किसी ने दस लोगों के साथ कमरा शेयर किया या लोकल के धक्के खाये।
आपके अनुभव किसी न किसी की ज़रूर मदद करेंगे लेक़िन उसके लिये आपको अपनी कहानी बताने का अंदाज़ बदलना होगा। हर बार वो ट्रैजिक स्टोरी सुना कर आप ट्रेजेडी किंग या क्वीन नहीं बन जायेंगे। अलबत्ता लोग ज़रूर आपसे कन्नी काटने लग जायेंगे।
ऐसी ही कहानी आपको आईपीएल के कई खिलाड़ियों के बारे में देखने या पढ़ने को मिलेगी। लेक़िन जब वो खिलाड़ी मैदान में उतरता है तो उसका जो भी संघर्ष रहा हो, पिच पर पहुँचने के बाद सिर्फ़ और सिर्फ़ ये मायने रखता है की वो अपने बल्ले से या गेंदबाजी से क्या कमाल दिखाता है।
पत्रकारिता बनाम व्हाट्सएप चैट
अब आते हैं आजकल जो चल रहा है। रिपब्लिक चैनल के मालिक और पत्रकार अर्णब गोस्वामी की कुछ व्हाट्सएप चैट इन दिनों ख़ूब शेयर की जा रही हैं। मामला है भारतीय जवानों पे हमले का और उनका कहना कि उन्होंने उसपर अच्छा काम किया है। मतलब उनकी चैनल को अच्छा ट्रैफिक मिला।
उनके इस कथन पर सबको घोर आपत्ति हो रही है। लेक़िन ये मीडिया का वो चेहरा है जिसके बारे में लोग कम बात करते हैं। आपने ये न्यूज़ चैनल को चुनाव या बजट पर तो अपनी पीठ ख़ुद थपथपाते देखा होगा। लेक़िन कम ही ऐसे मौक़े आये जब किसी त्रासदी पर कवरेज को लेकर ऐसा हुआ।
मैं अपने अनुभव से बता रहा हूँ आज जितने भी तथाकथित पत्रकार इस चैट पर घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं या अर्णब की तरफ़ उँगली उठा रहे हैं वो ख़ुद त्रासदियों को बेच बेच कर आगे बढ़े हैं। इस पूरे प्रकरण में एक बात औऱ साफ़ करना चाहूँगा की न तो मुझे अर्णब या उनकी पत्रकारिता के बारे में कुछ कहना है।
मॉरल ऑफ द स्टोरी: आपका संघर्ष, आपका दुःख बहुत निजी होता है। लोग संवेदना प्रकट करेंगे, आपसे सहानुभूति भी रखेंगे। लेक़िन आपको दुःख के उस पार का सफ़र भी तय करना होगा। क्योंकि सुख के सब साथी, दुःख में न कोय।
2020 जीवन के ऐसे ऐसे पाठ पढ़ा गया है जो ताउम्र नहीं भूल पायेंगे। यूँ तो साल 2020 से बहुत से गिले शिकवे हैं, लेक़िन इसीकी तारीखों में दर्ज़ हो गयी है एक कभी न भूलने वाली ऐसी तारीख़जिसने हमारी ज़िंदगी को हमेशा हमेशा के लिये बदल दिया है।
कहते हैं जिस तरह किसी का जन्म एक बड़ी घटना होती है, ठीक वैसे ही किसी की मृत्यु एक जीवन बदलने वाली घटना होती है। लेक़िन इस जीवन बदलने वाली घटना ने इस साल बहुत सी ऐसी बातें बताई जिन्हें हम नज़रअंदाज़ करते रहते हैं लेक़िन जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। मैं प्रयास करूँगा उन बातों को आपके साथ साझा करने का।
सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं, जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं।
आज, अभी
हम बहुत से काम कल पर टालते रहते हैं। किसी को फ़ोन करना हुआ, किसी की तारीफ़ करना हुआ, किसी को ये बताना की वो आपके लिये ख़ास हैं, किसी को ये बताना की कैसे उन्होनें आपका जीवन बदल दिया। मतलब लोगों का शुक्रिया अदा करना। अपने मन की बात करना। महीने के आखिरी रविवार नहीं, रोज़। प्रतिदिन।
2020 में मेरे दिल्ली के पीटीआई के मित्र अमृत मोहन ने भी हमको अलविदा के दिया। पीटीआई से निकलने के बाद मैंने अमृत से कई बार संपर्क साधने की कोशिश करी लेक़िन ये संभव नहीं हुआ। मैंने कई लोगों से उनका नंबर माँगा भी लेक़िन बात नहीं हो पाई। जब उनके निधन का दुखद समाचार मिला तो उस समय सिवाय अफ़सोस के मेरे पास कुछ नहीं बचा था। हाँ अमृत के साथ बिताये समय की यादें हैं और अब वही शेष हैं।
हमको मिली हैं आज ये घड़ियाँ नसीब से
अगर आप मोबाइल इस्तेमाल करते हैं या सोशल मीडिया पर फेसबुक देखते हों तो आपको कई बार पिछले वर्षों की कोई फ़ोटो या वीडियो देखने को मिल जाती है जो बताती है उस दिन एक साल या पाँच साल पहले आपने क्या कारनामा किया था। आप अगर सोशल मीडिया पर शेयर नहीं करते हैं तो आप एक बहुत बड़े स्कैंडल से बच जाते हैं। लेक़िन मोबाइल पर फ़ोटो तो फ़िर भी दिख ही जाती हैं। सभी के मोबाइल फ़ोटो से भरे पड़े हैं। लेक़िन आज से एक साल पहले 1 जनवरी 2020 के दिन हमने यशस्विता के साथ बिताया था और आज 1 जनवरी 2021 को बस उन्ही फ़ोटो औऱ हम लोगों की यादों में बसी है।
कुछ लोग एक रोज़ जो बिछड़ जाते हैं वो हजारों के आने से मिलते नहीं उम्र भर चाहे कोई पुकारा करे उनका नाम वो फिर नहीं आते…
तेरा कर्मही
मुझे पूरा विश्वास है चाहे हंसी मज़ाक में ही सही, भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में जो कहा है की कर्म करो फल की चिंता मत करो, इसे आपने कभी न कभी ज़रूर सुना होगा। इसमें ही जीवन का सार छुपा है। हालात कैसे भी क्यूँ न हों, हमे अपना कर्म करना चाहिये। फल को ध्यान में रखकर कर्म न करें। फल इस जीवन में मिले न मिले। लेक़िन कर्म करते रहिये। निरंतर।
जो भाग्य को मानते हैं उनके लिये चाणक्य ने कहा है
प्रश्न: अगर भाग्य में पहले से लिखा जा चुका है तो क्या मिलेगा? उत्तर: क्या पता भाग्य में लिखा हो प्रयास करने से मिलेगा?
आगे बढ़ें या…
कई बार जीवन हमें ऐसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर देता है जहाँ समझ नहीं आता क्या करूँ। इससे जुड़ा एक मज़ेदार किस्सा है। वैसे तो ऐसा आजकल कम होता है, लेक़िन पहले फ़िल्म देखने जाओ तो ऐसे दर्शक बहुत रहते थे जो बीच फ़िल्म में मज़ेदार टीका टिप्पणी करते। ऐसे ही एक फ़िल्म में सीन था जिसमें नायिका भगवान के समक्ष अपनी दुविधा बयाँ करते हुये कहती है, भगवन मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा। आगे भी अंधेरा, पीछे भी अंधेरा समझ में नहीं आता क्या करूं। दर्शक दीर्घा से आवाज़ आयी – मोमबत्ती जलाओ।
ठीक ऐसे ही जीवन में कई क्षण आते हैं जब आपको समझ नहीं आता। अगरआपकी दर्शक दीर्घा से मोमबत्ती जलाने की आवाज़ सुनाई देती है तो ठीक नहीं तो हर्षद मेहता के जैसे अपना लाइटर निकालें और रोशनी कर लें। ये भी ध्यान रखें इन अंधेरों में रहने से रोशनी नहीं मिलेगी। इसके लिये आपको आगे चलना ही होगा।
आँखों में नमी, हँसी लबों पर
फिल्में देखते हुये या कोई किताब पढ़ते हुये या कोई गाना सुनते हुये कई बार आँख भर आती है या कई बार बाल्टी भरने की नौबत भी आ जाती है। लेक़िन इस पूरी प्रक्रिया के पूरे होने के बाद बहुत ही अच्छा, हल्का सा लगता है। इसमें कोई शरमाने वाली बात भी नहीं है। अगर दर्द हो रहा है औऱ आँसू निकल रहे हैं तो उनका निकलना बेहतर है। पुरषों को ये सिखाया जाता रहा है की आँसू कमज़ोरी की निशानी है या उनको ये ताना दिया जाता है लड़कियों वाली हरकत मत करो।
मॉरल ऑफ द स्टोरी:
ज़िन्दगी जीने का कोई एक तरीक़ा नहीं है। सबका अपना अपना तरीक़ा होता है। बस एक बात जो सब पर लागू होती है फ़िर चाहे आप किसी भी धर्म, सम्प्रदाय या देश के हों कि अगर जन्म हुआ है तो मृत्यु अवश्य होगी। फ़र्क होता है बस हम इन दो घटनाओं के बीच में क्या करते हैं। तो आप अपने जीवन को अपने हिसाब से चुने और अपने ही हिसाब से उसे जियें भी। और जियें ऐसे की सबको रंज हो।
ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या खाख जिया करते हैं।
If there has been one year that has changed everything – it is 2020. While in the past these changes were more personal, more local, thanks to covid19 the sufferings, the painis not about a country, state or city.
As I am typing this post to review 2020, the year gone by, I am filled with so many emotions – a big chunk occupied by pain, emptiness and loss. In this short life almost all the years have been filled with ups and down, sometimes more downs and fewer ups but 2020 has left such a vaccum in our lives that I cannot see anything filling it up in future. We will have to learn to live with this while we spend our time on this planet. But I will still attempt to review 2020 because if there has been one year that has changed everything – it is 2020. Surprisingly or not so surprising is the fact that while I feel sad about my personal loss, I also know of so many others who underwent similar pain. The much talked about new normal has become forever normal for us.
The year began on a very hopeful note. We were in Delhi to spend a week with my dear lovely sister Yashasvita who had undergone a rather difficult surgery in October 2019 and as part of her treatment, radiation and chemotherapy were lined up from January 2020. For past few years it had become a rather regular practice to spend end of December or early January, if not new year, with her when she would travel to Mumbai for her annual visit to the Tata Memorial Hospital.
Hope
Diagnosed with jaundice in October, subsequent tests had confirmed presence of cancer in the pancreas and hence the surgery. But post that – we were hopeful that like 2007, this time too Yashasvita will beat cancer. The initial month after surgery was difficult for her as she adjusted to the new diet and medicines. As she did in 2007, this time too Yashasvita was leading the fight from the front and all our conversations were only around how she wants to first beat the monster called cancer and later take care of everything else.
Celebrations
We all were looking forward to 2020 for so many reasons. It was the year when our parents were completing 50 years of togetherness. It was also the year when my father turned 75. So it was double celebration time. We started planning for it in 2019 itself with searching for a suitable venue to host the event. By January end coronavirus had arrived in India but things were not looking that bad and even after the lockdown we were hopeful that by June things would be better and the mega family get together would happen.
All is not well
The first signs of something was not right were felt in May when Yashasvita’s report showed alarming increase in one of the parameters. The parameters had reported increase in the past as well and while the doctors were still trying to find out the possible reason for this, we consulted the doctor at Tata Memorial who had treated her in 2007. When your mind is full of doubts and you are looking for some positive, reassuring sign – you want someone to tell you – things are okay. This is what happened when I met the doctor at TMH on a rather hot May afternoon. Dr Sudeep Gupta not only discussed how Yashasvita was doing but he also spoke to her doctor in Delhi who had worked with him in the past.
I still remember the glee on my face as I walked out of TMH to know it is fine. Remember the celebrations? Well as it became clear the lockdown was here to stay and that travelling is ruled out – we decided to have e-celebrations. Leading the tech team was Vishal – Yashasvita’s husband. Yashasvita was in and out of hospital during this period for her chemo sessions and she even had one couple of days before the event. But now it seems she had saved all her energy for the event. The first and second day after the chemo are really bad as all the chemicals inside the body do their trick and you just let the body adjust.
She is the jaan of all our get togethers. Cracking jokes, mandatory dance, may be some Madhuri Dixit steps too. And she danced that night. Like she had in all the gatherings she was part of in the past. And that was the last dance.
Things only got worse from there. The alarming increase in her parameter continued in July as well and her cramps only got worse and she was in terrible pain. Another test in July confirmed our worst fears – the disease was spreading.
I was to meet Dr Gupta again in August. This was after that phone call from Yashasvita that will remain in memory forever. When she was first diagnosed with cancer in 2007, she was expecting her second child. She gave birth to boy in October that year and continued with her treatment. But never during those trying times had I seen her spirit broken. She was the one who was giving us strength in her fight against cancer.
It was no different this time either. But that morning in August 2020 she was in pain. Terrible pain. Asking me, pleading me, ordering me to go and find out how can this pain go. The sheer helplessness I felt that moment. And when I met Dr Gupta he said it in so many words. I could barely walk to the car and burst into tears. There was no treatment possible now.
Could there be something else that we can try? We looked for all options and even got alternate medicines but nothing worked.
While we were all trying to come to terms with what was in store for all of us, Yashasvita and her husband Vishal, also knew how it is going to happen and how much time she has on her hands. Yashasvita was admitted to the hospital one last time in August. Around same time, I also fell ill with some mysterious disease and my darling sister who had few days on this planet, was telling me to take care of my health and the usual brother sister stuff. I was trying to give her gyan not knowing she had more gyan than me as far as her illness was concerned. She even recorded a sweet message for her kids while she was in hospital which Vishal shared after she left us.
And that brings me to a rather special thing that happened this year. It was the role reversal when younger siblings showed us the way. I will only remain indebted to them for life for their strength.
Our lives changed forever after Yashasvita has left us. Nothing and I mean nothing is the same anymore. We all are picking up pieces of our lives and finding our own ways and means to cope with this loss. There is no day when her memory comes rushing out of nowhere and leaves with a heavy heart and few tears.
Vishal has started work on a charitable trust in Yashasvita\’s memory and we will be working on areas and issues she strongly believed in. What better way to keep the memory of such a wonderful person alive than working on her dream project.
The mask, social distancing, lockdown etc were the new normal for us and everybody else in 2020. But those of us who know Yashasvita and were blessed to have her presence in our lives, this is not the new normal we wanted to live with. But live we will, because that is what life is all about.
कल जो समाचार सुनने के बारे में लिखा था उसके बारे में कुछ और बातें। जब हम लोग बड़े हो रहे थे तब रेडियो ही एकमात्र मनोरंजन का साधन हुआ करता था। अगर आकाशवाणी और विविध भारती मनोरंजन/समाचार का स्त्रोत हुआ करते तो बहुत से दूसरे रेडियो स्टेशन भी इस का हिस्सा थे।
आज जो बीबीसी देख रहे हैं हम लोग उसकी हिंदी सेवा को सुनकर बड़े हुये हैं। उनकी चार सभाएँ या कहें दिन में चार बार प्रसारण हुआ करता था। सब कार्यक्रम एक से बढ़कर एक। बस तकलीफ़ यही थी की सिग्नल अच्छा नहीं मिले तो कान को ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती। चूँकि सारे कार्यक्रम शॉर्टवेव पर होते थे तो ऐसा कई बार होता। लेक़िन तीन चार फ्रीक्वेंसी पर प्रसारण होता था विकल्प रहता था जब कभी सिग्नल ठीक न हो तो।
हमारे यहाँ शॉर्टवेव पर जो कार्यक्रम बड़े चाव से सुना जाता था वो था अमीन सायानी जी का बिनाका गीतमाला जो रेडियो सीलोन पर आता था। मुझे आज भी याद है जब रात में ट्रांज़िस्टर पर ये कार्यक्रम चलता रहता और हम सब उसके आसपास बैठे रहते और हफ़्ते के गानों के उतार चढ़ाव का किस्सा उनकी दिलकश आवाज़ में सुनते।
इसके बाद ये कार्यक्रम विविध भारती पर भी आया लेक़िन सच कहूँ तो जब तक ये हुआ तब तक काफ़ी कुछ बदल चुका था। शायद इसलिये इसका दूसरा संस्करण बहुत ज़्यादा कामयाब नहीं हुआ। आज जब किसी टीवी चैनल पर ऐसे किसी प्रोग्राम को देखता हूँ तो हँसी आती है – क्योंकि अपने दर्शकों को बांधे रखने के लिये वो तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं।
बीबीसी सुनने का चस्का या कहें शौक़ मुझे मामाजी के ज़रिये मिला। वो शाम को 7.30 बजे वाला कार्यक्रम सुनते और वहीं से ये आदत भी बन गयी। समय के साथ मेरा जुड़ाव बीबीसी के कार्यक्रमों से बढ़ता गया। लेक़िन उस समय ये नहीं पता था एक दिन मेरा जुड़ना इस पेशे से होगा।
औऱ सबसे यादगार दिन बना दिसंबर 3 की वो सुबह जब मैं भोपाल गैस पीड़ितों के एक कार्यक्रम में गया था। ये एक सालाना कार्यक्रम बन गया था जब सभी राजनीतिक दलों के नेतागण, संस्थाओं से जुड़े लोग एक रस्म अदायगी करते थे। मैं कार्यक्रम के शुरू होने का इंतज़ार कर रहा था कि एक सफ़ेद अम्बेसडर कार आकर रुकी और उसमें से बीबीसी के उस समय के भारत के संवाददाता मार्क टली साहब कार से उतरे।
उनको रेडियो पर ज़्यादा सुना था और टीवी पर कम देखा था लेक़िन पहचान गया। उनसे पाँच मिनिट ऐसे ही बात हुई औऱ उसके बाद वो अपने काम में लग गए। उसके बाद उनकी किताब भी पढ़ी और उनके कई कॉलम भी। लेक़िन उनको सुनने में जो मज़ा आता है वो कुछ और ही है।
बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो आपको अपने पद या बड़े होने का एहसास नहीं कराते हों। एक रिश्तेदार महोदय को अपने पद का बड़ा घमंड था। अपने आगे वो बाकी सबको छोटा ही महसूस करते और कराते। ऐसे कोई ऊँचे पद पर तो नहीं थे लेक़िन कमाई करने वाली पोस्ट ज़रूर थी तो उन्होंने पैसे को ही अपना रुतबा बना लिया, समझ लिया।
कभी किसी के यहाँ मिलने जाना हो तो पहले संदेश भिजवाते की वो मिलने आ रहे हैं। मज़ा तो तब आया कि ऐसे ही संदेश वो जिनको भिजवाते थे वो प्रमोट होकर बहुत बड़े ओहदे पर पहुँच गये और अब ये महाशय मिलने का समय माँगते फ़िरते। वो तो पुरानी पहचान के कारण उनको ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। लेक़िन सीख ज़रूर मिल गयी।
मामाजी जिनसे बीबीसी सुनने की सीख मिली वो प्रदेश में पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुये। लेक़िन न तो हम घरवालों को या बाहर वालों को लगता की वो किसी पुलिस अफ़सर से बात कर रहे हैं। एक बहुत ही साधारण सा जीवन जीने वाले एक बहुत ही असाधारण व्यक्ति थे। ऊपर बताये हुये सज्जन से बिल्कुल उलट।
ऐसी ही यादगार बात हुई थी गुलज़ार साब से फ़ोन पर उनकी भोपाल यात्रा के दौरान। इन दोनों वाक़ये से क्या सीखा?
मॉरल ऑफ द स्टोरी: आप कितने भी बड़े क्यूँ न हो जायें, अपना ज़मीनी रिश्ता कभी मत भूलिये। कभी भी अपने पद का घमंड न करें। वक़्त सभी का बदलता है औऱ इसकी कोई आहट भी नहीं होती। इन दोनों महानुभवों से जब बात हुई तब मैं अपने पत्रकारिता के जीवन की शुरुआत ही कर रहा था। लेक़िन उन्होंने अपना एक सीनियर होने या एक नामी गिरामी गीतकार-लेखक-निर्देशक होने का एहसास नहीं कराया।
टीवी पर समाचार के नाम पर जो परोसा जाता है वो देखना बहुत पहले ही बंद हो चुका है। लेक़िन दो दशकों की समाचार के बीच रहने आदत के चलते अब अपने को अपडेट करने का दायित्व आकाशवाणी को दिया है। सच मानिये रोज़ सुबह शाम पंद्रह मिनट का बुलेटिन सुनने के बाद किसी दूसरे माध्यम की ज़रूरत महसूस नहीं होती।
ट्विटर एक विकल्प हो सकता था लेक़िन वहाँ पर जो हंगामा होता है उसमें समाचार कहीं गुम हो जाता है और फ़ालतू की बहस शुरू हो जाती है। उसमें बीच में बहुत ही मज़ेदार वाकये होते हैं जैसे किसी गुरु के समर्थक अपने जेल में बंद गुरु की रिहाई की माँग करते हैं। लगभग रोज़ ही ऐसा होता है।
फ़ेसबुक पर भी ऐसा ही कुछ नज़ारा होता है। एक तो अल्गो के चलते अगर कभी ग़लती से किसी पोस्ट को क्लिक कर लिया तो फेसबुक ये मान लेता है आप इस विषय में रुचि रखते हैं। लेक़िन ऐसा होता नहीं है। इसलिए थोड़ा सोच समझ कर ही क्लिक करते हैं।
ये जो मोबाइल डिवाइस है जिससे ट्विटर, फेसबुक का सफ़र होता है, इसके भी कान होते
हैं। हम जाने अनजाने बहुत सारी एप्प्स को इस बात की आज्ञा देते हैं कि वो मोबाइल के माइक्रोफोन (माइक) को इस्तेमाल कर सकते हैं। बस तो वो दीवारों के भी कान होते हैं वाली कहावत में से दीवार को हटा दें औऱ उसकी जगह मोबाइल लगा दें। आपके मुँह से निकले हर शब्द को कोई न कोई सुन रहा है औऱ उसी के आधार पर आपको सुझाव नज़र आते हैं।
ये विश्वास करना शुरू में मुश्किल था। लेक़िन उसके बाद एक दिन ऐसा भी आया जब ये विचित्र किंतु सत्य बात साक्षात सामने प्रकट हुई एक एसएमएस के रूप में। मेरी एक पुरानी चोट है 2009 नवंबर की जिसमें पैर का लिगामेंट चोटिल हो गया था। ये चोट यदा कदा अपना आभास कराती रहती है। डॉक्टर ने फुट मसाज के बारे में कहा।
दो दिन के बाद SMS आया एक मसाज से सेंटर के बारे में। जबकि मैंने किसी से इस बारे में संपर्क भी नहीं किया था तो नंबर किसी के पास होने की संभावना नहीं के बराबर थीं। बाद में एक नामी केरल मसाज सेन्टर गये और मसाज करवाया लेक़िन उस सेन्टर से जाने के बाद कोई संदेश आज तक नहीं आया। अलबत्ता बाकी ढ़ेर सारे सेन्टर के आये और अब भी आते रहते हैं। और वो बहुत सारी \’सेवाओं\’ का भी विज्ञापन भी करते रहते हैं।
इसके अलावा अगर गलती से मोबाइल डेटा चालू रह जाता है तो गूगल आपकी सारी खोज ख़बर रखता है। आप कहाँ गये, वहाँ का मौसम, जहाँ रुके उसके बारे में, सब जानकारी रहती है। इसके बाद भी लोग किसी सीक्रेट मिशन के बारे में बात करते हैं तो थोड़ा अजीब सा लगता है। जैसे हमारे एक जानने वाले घर पर कुछ और बोलकर दो दिन हिल स्टेशन पर बिता कर आये। घर वालों को भले ही पता न चला हो, गूगल सब जानता है।
वैसे ये गूगल मैप है बड़ा उपयोगी। आप उसमें बस सही गली, मोहल्ला डाल दीजिये और वो आपको वहाँ पहुँचा ही देगा। सितंबर में एक रात लांग ड्राइव न होते हुये भी हो गयी इसी मैप के चलते। जहाँ भी वो मुड़ने का बताता या मोहतरमा बतातीं वहाँ से मुड़ना थोड़ा मुश्किल ही होता। नतीजा ये हुआ की 10 km की ड्राइव 110 km की हो गयी।
मॉरल ऑफ द स्टोरी: टेक्नोलॉजी हमारे जीवन को बेहतर ज़रूर बनाती हैं लेक़िन उनके ही भरोसे न रहें। अपने आसपास के मनुष्यों को भी मौका दें। कभी रुक कर किसी से पुराने जमाने की तरह पता भी पूछ लें। टेक्नोलॉजी में बाक़ी सब कुछ होगा लेक़िन एक दिल और कुछ एहसास अपने आसपास के लोगों में ही मिलेगा।https://youtu.be/C_dI4mXlxNg
पिछले कुछ दिनों से सभी जगह ठंड ने अपने पैर जमा लिये हैं। मुम्बई में भी मौसम कुछ रूमानी सा ही रहा है पिछले कुछ दिनों से। उत्तर भारत जैसी कड़ाके की सर्दी तो नहीं लेक़िन मुम्बई वालों के हिसाब से यही काफी है सबके गर्म कपड़ों के ढ़ेर को बाहर निकालने के लिये।
हर मौसम की अपनी एक ख़ासियत होती है। सर्दियों के अपने आनंद हैं। आज की इस पोस्ट का श्रेय जाता है मेरे फेसबुक मित्र चारुदत्त आचार्य जी को। उन्होंने एक पोस्ट करी थी सर्दियों में स्नान के बारे में और कैसे पानी बचाते हुये ये स्नान होता था और उसका अंतिम चरण। आप इस पोस्ट को यहाँ पढ़ सकते हैं।
आज जो शहरों में लगभग सभी घरों में जो गीजर होता है, उसका इस्तेमाल 1980-90 के दशक में इतना आम नहीं था। सर्दियाँ आते ही गरम पानी की भी ज़रूरत होती स्नान के लिये। चूँकि गैस सिलिंडर उन दिनों इतनी जल्दी जल्दी नहीं मिलते थे तो पानी गर्म करने के लिये दो ही विकल्प रहते – या तो घासलेट (केरोसिन) से चलने वाला स्टोव या लकड़ी या कोयले से चूल्हा जलाया जाये।
केरोसिन के साथ भी समय पर मिलने की समस्या होती। राशन की दुकान पर आने के पहले ही ख़त्म हो जाने का बोर्ड लग जाता। स्टोव जलाना भी एक मशक्क़त वाला काम हुआ करता था। थोड़ी थोड़ी देर में जैसे चूल्हे की आग को देखते रहना पड़ता वैसे ही स्टोव को भी पंप करते रहना पड़ता था।
लेक़िन कोयला आसानी से मिलता था। सुबह सुबह ठेले पर जैसे सब्ज़ी वाले निकलते वैसे ही कोयले वाले भी निकलते। कोयला स्टॉक कर लीजिये और सर्दियों की सुबह लग जाइये इस काम पर। अगर कोयला भी नहीं मिले तो लकड़ी का जुगाड़ करिये क्योंकि ठंडे पानी से नहाने का अवार्ड अभी भी नहीं मिलता। वैसे कई लोगों को जानता हूँ जो हर मौसम ठंडे पानी से ही स्नान करते हैं।
बहरहाल, बहुत लंबे समय तक पानी ऐसे ही गर्म होता रहा। हमारे सरकारी घर में जो पड़ोसी थे उनके यहाँ पानी गर्म करने का अलग यंत्र था। उसकी तस्वीर नीचे लगी है। बस रोज़ सुबह जिस समय हमारे यहाँ आग लगा कर चूल्हा जलाने की मशक्कत चालू रहती उनके यहाँ इस यंत्र को आंगन में रखा जाता और पानी गर्म करने की प्रक्रिया शुरू।
पानी की समस्या तो नहीं थी लेक़िन जैसा चारुदत्त जी ने कहा गर्म पानी का सप्लाई बहुत ही सीमित मात्रा में होता। मतलब जितनी बड़ी पतीली उतना ही पानी। तो आज जो शॉवर के नीचे या टब के अंदर समय न पता चलने वाला जैसा स्नान संभव नहीं होता। और उस स्नान का अंत एकदम वैसा जैसा की वर्णन किया गया है – बाल्टी उठा कर सिर पर पानी डालने की प्रक्रिया।
जैसे गीजर जीवन में लेट आया वैसे ही प्लास्टिक भी। तो उस समय जो बाल्टी हुआ करती थी वो भी लोहे की। मतलब उसका भी वज़न रहता। बस वो 3 Iditos वाला सीन, सिर के ऊपर बाल्टी, नहीं हुआ।
जब गीजर आया तो वो ड्रम गीजर था। मतलब जो आजकल के स्टोरेज गीजर होते हैं वैसा ही लेक़िन दीवाल पर नहीं टंगा होता। मतलब अब गर्म पानी की सप्लाई में कोई रोकटोक नही। जब तक सरकारी घर में रहे तब तक इसका ही आसरा रहा। जब स्वयं के घर में गये तो थोड़ा सॉफिस्टिकेटेड से हो गए। मतलब अब सबके बाथरूम में अलग गीजर।
गीजर से जुड़ा एक मज़ेदार वाकया भी है। किसी रिश्तेदार के यहाँ सर्दियों में गये थे। उनके यहाँ एक गीजर था जिसकी सप्लाई सभी जगह थी। लेक़िन समस्या ये थी की अगर कहीं और भी गर्म पानी का इस्तेमाल हो रहा होगा तो आपको नहीं मिलेगा या कम मात्रा में मिलेगा। ये बात तब मालूम पड़ी जब शॉवर के नीचे खड़े हुये।
मॉरल ऑफ द स्टोरी: सर्दी हो या गर्मी हर मौसम के मज़े लीजिये। हर मौसम के ज़ायके का भी जब तक मज़ा ले सकते हैं, ज़रूर से लें। जैसे सर्दियों में गाजर का हलवा और छौंका मटर।
मुँह में राम बगल में छुरी वाली कहावत जब बचपन में सुनी थी तो लगता था छुरी भी दिखाई देगी। वक़्त के साथ समझ आया कि ये छुरी दिखने वाली नहीं है। हाँ आपको इसका आभास अलग अलग रूप में हो जाता है।
जैसे आपके सच्चे हितेषी कौन हैं ये बात आपको समझते समझते समझ में आती है। अक़्सर ऐसा होता है कि जिसको आप अपना शुभचिंतक समझ रहे थे वो दरअसल अपने मतलब के लिये आपके पास था। ये वो लोग होते हैं जो आपको चने के झाड़ पर चढ़ाने का काम करते हैं औऱ चूँकि हम सभी को तारीफ़, प्रशंसा अच्छी लगती है तो हम ये सब सुन सुनकर फूल फूल के कुप्पा हुये जाते हैं। लेक़िन जब तक समझ आता है की आप उतने भी अच्छे नहीं है जितना बताया जा रहा था तो बड़ी ठेस लगती है।
जब मुझे टीम को नेतृत्व करने का मौक़ा मिला तो कई सारे ट्रेनिंग प्रोग्राम में जाने का मौक़ा भी मिला। इसमें से एक था कि आप किसी को फ़ीडबैक कैसे दें। कंपनी के नियम ही कुछ ऐसे थे कि आप को हर महीने टीम के सभी सदस्यों की परफॉर्मेंस देखनी होती थी और रेटिंग देनी होती थी। इसके बाद हर तिमाही आपको आमने सामने बैठकर इस पर थोड़े विस्तार से बातचीत करनी होती थी। एक समय मेरी टीम लगभग 70 से अधिक सदस्यों की हो गयी थी और मेरे कई दिन इसमें निकल जाते थे। साल के अंत में तो महीना इसके लिये निकाल कर रख दिया जाता था।
इसका दूसरा पहलू भी था। टीम के सदस्यों को भी उनके लीडर (यानी मुझे) रेट करना होता था। जो भी अच्छा बुरा होता वो सीधे HR के पास पहुंच जाता और इसके बाद बॉस, मैं और HR के बीच मेरे बारे में इस फीडबैक पर चर्चा होती। इसमें बहुत सी बातें पता चलती। मसलन टीम भले ही अपने टारगेट कर रही थी लेक़िन कुछ न कुछ शिक़ायतें भी ज़रूर रहतीं। वैसे तो मैंने टीम के सभी सदस्यों को ये छूट दे रखी थी की अगर मेरी कोई बात ग़लत हो तो बता दें। लेक़िन कुछ को छोड़ दें तो बाक़ी लोगों को कोई शिक़ायत नहीं होती। ऐसा मुझे लगता।
लेक़िन जब शिकायतों की शुरुआत होती तो लगता ये तो कुछ अलग ही मामला है। लेक़िन जब आप नेतृत्व कर रहे होते हैं तो आपको एक और बात भी समझ में आती है की कुछ तो लोग कहेंगें, लोगों का काम है कहना। आप इस कहने से कितना परेशान होते हैं ये आप पर निर्भर करता है क्योंकि उस कहने की सच्चाई आपको भी पता होती है। लेक़िन इसका ये मतलब नहीं की जो आपकी निंदा कर रहे हो वो ग़लत ही हों। शायद आपको अपने में कुछ बदलने की भी ज़रूरत हो सकती है।
लेक़िन कुछ लोगों की फ़ितरत ऐसी नहीं होती। मतलब बेईमानी तो जैसे उनके डीएनए में ही होती है। और न तो समय और न उम्र उनमें कुछ बदलाव लाती है। आप कह सकते हैं ये उनका मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट होता है। लेक़िन जैसे किसी उपकरण की कई खामियां/कमियाँ आपको उनके इस्तेमाल के बाद पता चलती हैं, वैसे ही इन महानुभावों के असली चेहरे के बारे में तब पता चलता है जब आप किसी मुसीबत में हों या आपको उनकी सहायता की ज़रूरत हो।
अगर आपने फ़िल्म नासिर हुसैन की तीसरी मंज़िल देखी हो तो जैसे उसमें आख़िर में पता चलता है तो आपको एक शॉक सा लगता है। पहली बार तो ऐसा हुआ था। मैंने अपने कार्यस्थल और निजी जीवन में भी ऐसी कई उदाहरण देखे जिनके बारे में सुनने पर विश्वास नहीं होता। ऐसे लोगों के चलते मन ख़राब भी बहुत होता है क्योंकि आपको सामने ये दिखता है की सब कुछ ग़लत करने के बाद भी (जिसके बारे में सबको मालूम भी है) वो व्यक्ति अपने जीवन को ऐसे जी रहा है जैसे कुछ हुआ ही न हो। आप यही उम्मीद करते हैं जैसे सबको अपने कर्मों का फल मिलता है इन \’गुणी\’ लोगों को भी मिले।
वापस मुँह में राम बगल में छुरी पर आते हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिलेंगे जहाँ दानवीर धर्मस्थलों पर बड़ी रक़म तो दान कर देते हैं लेक़िन किसी असली ज़रूरतमंद की मदद करने से कतराते हैं। अब जब चूँकि अंदर वो अपनी आस्था का लेनदेन कर चुके होते हैं तो बाहर काला चश्मा पहनकर वो निकल जाते हैं।
मॉरल ऑफ द स्टोरी: अपना काम करते रहिए। जिनको आपका ऐसे या वैसे उपयोग करना होगा वो करेंगे। उनसे आप नहीं बच सकते। अगर घर में आपके सगे संबंधी आपको छोड़ देंगे तो बाहर कोई आपका दोस्त, सहयोगी आपकी ताक में बैठा होगा। लेक़िन इन लोगों के चलते उसकी उम्मीद मत तोड़ियेगा जिसका जीवन आप के एक भले काम से बदल सकता है।
पहली लाइन में क्लियर कर दूँ। ये उस दिल के मामले की बात नहीं हो रही है जिसपर काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है बल्कि ये बात है और गहरे कनेक्शन की।
जब घर से बाहर निकले नौकरी करने के लिये तो शुरुआती समय तो काम समझने और अकेले रहने के तामझाम में ही निकल जाता। तामझाम से मेरा मतलब है अपने रहने, खाने आदि का इंतज़ाम करने में निकल जाता। जो छुट्टी मिलती उसके काम बिल्कुल निर्धारित होते। कपड़े धुलना, उनका प्रेस करवाना और सोना। उस समय गाने देखने से ज़्यादा सुनने का चलन था तो रेडियो चलता रहता और काम भी।
इन सबके बीच अगर घर की याद आये तो एसटीडी बूथ पर पहुंच जाइए औऱ 11 बजे का इंतजार करिये जब कॉल करने में सबसे कम पैसे लगते। उसके बाद सरकार ने तरस खाकर ये समय बदला। आज जब फ़ोन कॉल फ्री हो गया है और आप जितनी चाहें उतनी बात कर सकते हैं। लेक़िन एक समय था जब नज़र सामने चलते काउंटर पर होती थी और उँगली तुरंत डिसकनेक्ट करने को तैयार।
इन सबके बीच घर की याद बीच रोड पर आ जाती या इस बात का एहसास करा जाती की आप घर से दूर हैं, जब आपको उस प्रदेश/शहर के नंबर प्लेट की गाड़ियों के बीच एक नंबर अपने प्रदेश का दिखाई दे जाय। औऱ चूँकि आपकी नज़रें उन नंबरों को अच्छे से पहचानती हैं तो वो नज़र भी फ़ौरन आ जाते हैं। मुझे नहीं पता ऐसा आप लोगों के साथ हुआ है या नहीं लेक़िन मेरे साथ ज़रूर हुआ है।
आदमी स्वभाव से लालची ही है। तो प्रदेश का नंबर ठीक है लेक़िन अपने शहर का देखने को मिल जाये तो लगता उस गाड़ी वाले को रोककर उससे कुछ गप्प गोष्ठी भी करली जाये। क्या पता कुछ जान पहचान भी निकल जाये। हालांकि ऐसा कभी किया नहीं लेक़िन इच्छा ज़रूर हुई।
पहले जो गाड़ियों के नंबर हुआ करते थे उनमें ऐसा करना थोड़ा मुश्किल होता था लेक़िन जब नया सिस्टम आया जिसमें राज्य के बाद शहर का कोड होता है तो अब शहर जानना आसान हो गया है। मतलब वाहन चालक आपके शहर से है ये नंबर प्लेट बता देती है। अब तो एप्प भी है जिसमें आपको गाड़ी की पूरी जानकारी भी मिल सकती है। कहाँ तो नंबर प्लेट से कनेक्शन ढूंढ रहे थे और कहाँ अब मालिक का नाम पता भी मिल जाता है। वैसे मैं तबकी बात कर रहा हूँ जब ये व्हाट्सएप या वीडियो कॉल या फ़ेसबुक कुछ भी नहीं होता था। लेक़िन लोगों की नेटवर्किंग ज़बरदस्त। लोगों ने अपने प्रदेश, शहर आदि के लोगों को ढूंढ भी लिया और वो नियमित मिलते भी।
ये दिल का कनेक्शन तब और खींचता है जब आप कहीं बाहर गये हों। मतलब घर से और दूर विदेश में। उस समय कोई भारत से मिल जाये तो अच्छा, उस पर अपनी बोली, प्रदेश और शहर का हो तो लगता है दुआ कबूल हो गई औऱ घर पर खाने के लिये बुला ले तो…
पिछले दिनों कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति बनने पर कुछ ऐसा ही देखने को मिला। सबने ढूंढ ढूंढ कर उनके भारतीय कनेक्शन निकाले औऱ उसके बाद बस ऐसा माहौल बना जैसे कोई भारतीय बन गया हो। लेक़िन सच्चाई कुछ और ही है। वैसे भी इस राजनीतिक टिप्पणी से भटकने की संभावना ही ज़्यादा है।
तो विदेश यात्रा पर ये दिल हिंदुस्तानी हो जाता है औऱ एक दो दिन के अंदर ही भारतीय खाने की तलब लगने लगती है। अच्छा बुरा जैसा मिले बस खाना अपना हो। उस समय ये जज़्बात फूट फूट के बाहर निकलते हैं। अब भारत वापस आ जाते हैं। यहाँ भी ऐसा ही होता है। जैसे जिस शहर से आप आये हैं वहाँ का अगर कुछ खानपान मिलने लगे तो सबको पता चल जाता है।
मैं तो कुछ ऐसे लोगों को भी जनता हूँ जो शहर, प्रदेश घूमने के बाद भी वही नंबर रखते हैं क्योंकि ये नंबर प्लेट से उनका दिल का कनेक्शन होता है। आज ये विषय दरअसल कौन बनेगा करोड़पति की देन है। एक प्रतियोगी ने मध्यप्रदेश में अपने किसी संबंधी को कॉल करके मदद माँगी थी। टीवी स्क्रीन पर इंदौर देखा तो एक अलग सी फीलिंग आयी। हालाँकि इंदौर शायद बहुत कम जाना हुआ है लेक़िन है तो अपना शहर।
वैसे अब ऐसा नंबर प्लेट देखकर प्यार कम उमड़ता है क्योंकि जैसे जैसे समझ आती जा रही है ये पता चल रहा है की ये सब सोच का कमाल है। आप कई बार सिर्फ़ शरीर से कहीं होते हैं लेक़िन मन से कहीं और। मतलब घर की यादों को अब महसूस करते हैं और रूहानी तौर पर वहीं पहुँच भी जाते हैं। लेक़िन फ़िर भी कभी कभी ऐसा हो जाता है।
वैसे ये फीलिंग आप नीचे धरती पर हों या हवाई जहाज में या अंतरिक्ष में। पहले और एकमात्र भारतीय अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा से भी जब इंदिरा गांधी ने पूछा कि ऊपर से भारत कैसा दिखता है तो उनका जवाब – सारे जहाँ से अच्छा।
यात्राओं का मेंरे जीवन में एक बहुत एहम स्थान है और शायद आप सभी के जीवन में भी ऐसा ही कुछ होगा। जो भी खट्टे मीठे अनुभव हुये वो जीवन का बड़ा पाठ पढ़ा गये। जैसे हिंदी में लिखना शुरू करना 2017 में दिल्ली से भोपाल की ट्रैन यात्रा के दौरान हुआ। लेक़िन उसके पहले की कई सारी यात्राओं के बारे में भी लिख चुका हूँ।
2020 में कोरोना के चलते कोई यात्रा नहीं हो पाई। माता पिता के विवाह की स्वर्णिम सालगिरह, जिसका हमने बहुत बेसब्री से इंतजार किया, वो भी सबने ज़ूम पर ही मनाई। उस समय इसका आभास नहीं था की लगभग तीन महीने बाद यात्रा करनी ही पड़ेगी।
किसी भी यात्रा पर जब आप जाते हैं तो उसका उद्देश्य पहले से पता होता है। तैयारी भी उसी तरह की होती है। जैसे जब मैं पहली बार 17 घंटे की फ्लाइट में बैठा था तो ये पता था सुबह जब आँख खुलेगी तो विमान न्यूयॉर्क में होगा। उसके बाद काम और घूमने की लिस्ट भी थी। मतलब एक एजेंडा सा तैयार था और वैसी ही मनोस्थिति।
जब सितंबर 18 को छोटे भाई ने फ़ोन करके यशस्विता की बिगड़ती हालत औऱ डॉक्टरों के कुछ न कर पाने की स्थिति बताई तो जो भी डर थे सब सामने आ गये थे। भाई का साल की शुरुआत में ही तबादला हुआ था और विशाल के बाद उसने ही अस्पताल में यशस्विता के साथ सबसे अधिक समय व्यतीत किया। इस दौरान उसने अपना दफ़्तर भी संभाला, शिफ्टिंग भी करी और कोरोना का असर भी देखा। यशस्विता के अंतिम दिनों में भाई की पत्नी ने भी बहुत ही समर्पित रह कर सेवा करी।
तो जिस यात्रा का मैं ज़िक्र कर रहा था वो अंततः करनी ही पड़ी। इस यात्रा में क्या कुछ होने वाला था इसकी मुझे और बाकी सब को ख़बर थी। जब अक्टूबर 3 की रात ये हुआ तो…
उस क्षण के पहले मुझे लगता था की मैं इस बात के लिये तैयार हूँ की मेरी छोटी बहन हमारे साथ नहीं होगी। मैं बाक़ी लोगों को समझाईश देने की कोशिश भी करता। लेक़िन उनके बहाने मैं शायद अपने आप को ही समझा रहा था। बहरहाल जब ये सच्चाई सामने आई तो इसे पचा पाना बड़ा मुश्किल हो गया। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जितना भी ज्ञान अर्जित किया था लगता है सब व्यर्थ क्योंकि अपने आपको समझा ही नही पा रहे। किसी भी तरह से इसको स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।
ये समझ में नहीं आ रहा था आगे क्या होगा? कैसे यशस्विता के पति, बच्चे अपना आगे का जीवन बितायेंगे। हमारे माता पिता का दुःख भी बहुत बड़ा था। पिछली अक्टूबर से वो यशस्विता के साथ ही थे और माता जी ने कोरोनकाल में जब उनकी मदद करने के लिये कोई नहीं था तब स्वयं ही बच्चों की सहायता से सब मैनेज किया।
पूरे कोरोनकाल के दौरान यशस्विता, उनके पति और छोटे भाई ने अस्पतालों के अनगिनत चक्कर लगाये। यशस्विता आखिरी बार जिस अस्पताल में भर्ती हुईं वो एक कोविड सेन्टर था। कैंसर के कारण शरीर की प्रतिरोधक क्षमता वैसे ही कम हो जाती है। उसपर बढ़ते हुये कैंसर के कारण शरीर भी बेहद कमज़ोर। लेक़िन इन तीनों ने बहुत सावधानी बरती।
फ़िल्म दीवार का वो चर्चित सीन तो आपको पता होगा जिसमें अमिताभ बच्चन अपनी माँ के लिये प्रार्थना करने जाते हैं। आज खुश तो बहुत होंगे… वाला डायलाग। बस वैसी ही कुछ हालत हम सबकी थी। जब डॉक्टरों ने जवाब दे दिया तो भगवान का रुख़ किया। जिसने जो बताया वो दान पुण्य किया, उन मंत्रों का जाप किया। मंदिरों में पूजा अर्चना करी, करवाई। लेक़िन जो होनी को मंज़ूर था वही हुआ। एक ईश्वरीय शक्ति में विश्वास के अलावा बाक़ी सब अब ढकोसला ही लगते हैं।
पिछले दिनों pk और देखली तो मन और उचट सा गया है। फ़िल्म में आमिर खान अपने ग्रह पर वापस जाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं लेक़िन बात कुछ बन नहीं रही है। हताश होकर एक शाम जब वो लौटते हैं तो मूर्तिकार की गली में कई मूर्तियाँ आधी बनी हुई रखी हैं। वो उनसे पूछते हैं की उनकी शंका का समाधान करें। कोई कहता है सोमवार को व्रत रखें, कोई कहता है मंगलवार को रखें। कोई कहता है सुर्यास्त के पहले भोजन करें, कोई कहता है सूरज ढलने के बाद रोज़ा तोड़ें। मंदिर में जूते चप्पल बाहर उतारकर जायें या चर्च में बढ़िया सूटबूट पहन कर।
https://youtu.be/JXJ3rmyBqyg
pk की परेशानी हमारी ही तरह लगी। किसी ने कहा इस मंत्र का जाप, किसी ने कहा फलां वस्तु का दान तो किसीने ग्रह देखकर कहा समय कठिन है लेक़िन अभी ऐसा कुछ नहीं होगा। फ़िर कहीं से कुछ आयुर्वेदिक इलाज का पता चला तो बहुत ही सज्जन व्यक्ति ने ख़ुद बिना पैसे लिये दवाइयाँ भी पहुँचायी। लेक़िन उसका लाभ नहीं हुआ क्योंकि कैंसर बहुत अधिक फ़ैल चुका था।
इस पूरे घटनाक्रम में यशस्विता के बाद जो दूसरे व्यक्ति जो सभी बातों को जानते थे औऱ रोज़ अपनी पत्नी के एक एक दिन का जीवन कम होते हुये देख रहे थे वो हैं उनके पति विशाल। जब पहली बार 2007 में कैंसर का पता चला तो उन्होंने इलाज करवाने के लिये शहर बदल लिया। जब सब ठीक हुआ उसके बाद ही उन्होंने मुम्बई छोडी। इस बार भी जब पता चला तो उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी इलाज में। जहाँ रिपोर्ट भेज सकते थे भेजी। जो टेस्ट करवाना हुआ करवाया ताकि कहीं से कोई उम्मीद की किरण दिखे।
जिन यात्राओं का मैंने ऊपर ज़िक्र किया है उसके अलावा दूसरों की यात्राओं से भी ऐसे ही बहुत कुछ सीखने को मिला है। जैसे यशस्विता को जब अगस्त में डॉक्टरों का जवाब पता चल गया था की धरती पर अब उनकी यात्रा चंद दिनों की बची है तो उन्होंने जो किया जिसका जिक्र मैंने कल किया था, उसके बाद भी अपना जीवन ऐसे जीना जैसे कुछ हुआ ही न हो।
इस पोस्ट को लिखने का सिलसिला पिछले कई दिनों से चल रहा है, लेक़िन मैं किसी न किसी बहाने इसको टालता रहा। अब आज जब न लिखने के सब बहाने ख़त्म हो गये तो प्रयास पुनः आरंभ किया।
आपके परिवार में माता पिता के अलावा आपके भाई बहन ही आपका पहला रिश्ता होते हैं। समय के साथ ये लिस्ट बड़ी होती जाती है और इसमें दोस्तों, रिश्तेदारों एवं जीवनसाथी, उनके परिवार के सदस्य का नाम भी जुड़ जाता है। लेक़िन जो आपके कोर ग्रुप होते हैं वो वही होते हैं।
ऐसा कई बार हुआ है हम भाई, बहन किसी बात पर हँस हँस कर लोटपोट हुये जाते हैं लेक़िन वो जोक किसी और को समझ में नहीं आता। ये जो वर्षों का साथ होता है इसमें आपने साथ में कई उतार चढ़ाव साथ में देखे हैं। आपको माता पिता का वो संघर्ष याद रहता है। कई यात्रओं की स्मृति साथ रहती है। अक्सर इन अच्छी यादों, अच्छे अनुभवों को आपने अपने बच्चों के साथ एक बार फ़िर से जीना चाहते हैं और इसलिये कुछ वैसे ही काम करते हैं।
जैसे जब हम बड़े हो रहे थे तब टीवी देखना परिवार की बड़ी एक्टिविटी हुआ करती थी। अब आज के जैसा जब समय मिले तब देखना हो जैसी सुविधा नहीं थी। दिन और समय नियत होता था। आप काम ख़त्म करके या ऐसे ही टीवी के सामने बैठ जायें ये आपके ऊपर है। कुछ वैसा ही हाल रेडियो का भी था। संगीत का शौक़ और उससे जुड़ी कई बातें पहले भी साझा करी हैं। लेक़िन जिस घटना को आज बता रहा हूँ उसका संगीत से सीधा जुड़ाव नहीं है।
इस बात को लगभग 20-22 साल बीत चुके हैं लेक़िन ये पूरा वाकया बहुत अच्छे से याद है। पिताजी से मैंने एक सोनी के म्यूजिक सिस्टम की ज़िद कर ली। ज़िद भी कुछ ऐसी की ना सुनने को तैयार नहीं। जब लगा की बात बन नहीं रही है तो एक दिन उनके स्कूल पहुँचकर उनको साथ लेकर दुकान पर गया और सिस्टम लेकर ही बाहर निकला।
घर पर काफ़ी समय से इस मुद्दे पर गरमा गरम चर्चा हो चुकी थी। लेक़िन जब सिस्टम घर पहुंचा तो पिताजी ने कुछ नहीं कहा अलबत्ता छोटी बहन यशस्विता ने मेरी ख़ूब खिंचाई करी। ख़ूब गुस्सा हुई औऱ शायद रोई भी। उसको इस बात से बहुत दुख था की एक मोटी रक़म ख़र्च कर सिस्टम लिया था जबकि वही पैसा किसी और काम में इस्तेमाल आ सकता था।
इसके बाद ये झगड़ा, अलग सोच एक रेफरेंस पॉइंट बन गया था। कुछ सालों बाद हम इस बात पर हँसते भी थे लेक़िन इस एक घटना ने मेरी बहन की सोच को सबके सामने लाकर रख दिया था। वैसे वो म्यूजिक सिस्टम अभी भी है, अलबत्ता अब चलता नहीं है।
2007 में जब छोटी बहन यशस्विता को कैंसर का पता चला तो उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था इस बीमारी को हराना और अपने आने वाले बच्चे को बड़ा करना। टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में जब हम डॉक्टर का इंतजार कर रहे तो वो इधर उधर टहल रही थी। जब डॉक्टर ने ये बताया की कैंसर ही है तो शायद एकाध बार ही उसके आँसू निकले होंगे। उसके बाद तो जैसे उसने लड़ाई की ठान ली थी।
उस पूरे समय मुझे ये लगता था की उसका ये लड़ने का जज़्बा ही हम सबकी हिम्मत बन गया था। सारी तकलीफ़ झेली उन्होंने लेक़िन हिम्मत हम सबको देती रही। इस लड़ाई की योद्धा, सेनापति सभी रोल वो बखूबी निभा रही थीं। ट्रीटमेंट ख़त्म होने के बाद मुंबई सालाना दिखाना के लिये आना होता औऱ सब कुछ ठीक ही चल रहा था।
लेक़िन अक्टूबर 2019 में जब कैंसर ने दुबारा दस्तक दी तो बात पहले जैसी नहीं थी। लेक़िन हमारी योद्धा की हिम्मत वैसी ही रही जैसी बारह साल पहले थी। हमेशा यही कहती की मुझे इसको हराना है। जब ये साफ हो गया की अब बात चंद दिनों की ही है तो उन्होंने एक और हिम्मत का काम किया और अपने पति और बच्चों, परिवार के लिये एक बहुत ही प्यारा सा संदेश भी रिकॉर्ड किया जो 3 अक्टूबर 2020 को उनके जाने के बाद सुना। जब ये सुना तब लगा जिस सच्चाई को स्वीकारने में मुझे इतनी मुश्किल हो रही थी उसको उसने कैसे स्वीकारा।
वैसे तो जब साथ में बड़े हो रहे थे तब सभी ने एक दूसरे को ढेरों नाम दिये। लेक़िन एक नाम जो मैंने पम्मी को दिया और एक उसने मुझे जो बाद के वर्षों में बस रह गया साथ में। मुझे ये याद नहीं इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई। लेक़िन ये याद रहेगा इसका अंत कब हुआ।
आज जब वो हमारे बीच नहीं है तो भी मेरी हिम्मत वही बढ़ाती है। उसके जाने के बाद बहुत से ऐसे मौके आये जब मैंने अपने आपको बहुत कमज़ोर पाया लेक़िन अपनी छोटी बहन के जज़्बे ने बहुत हिम्मत दिलाई। कैंसर से उसकी लड़ाई, जीने की उसकी ललक अब ताउम्र हम सभी का हौसला बढ़ाती रहेगी।
जब मेरा डिजिटल पत्रकारिता का दूसरा चरण शुरू हुआ तब जल्द ही मुझे एक टीम को नेतृत्व करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस समय डिजिटल का इतना बोलबाला नही था। जो मीडिया संस्थान इस माध्यम का उपयोग कर रहे थे उनके पास दूसरे माध्यम भी थे।
मैं जिस वेबसाइट में काम कर रहा था वो केवल डिजिटल पर ही निर्भर थी। मतलब किसी अन्य तरह का कोई सपोर्ट नहीं था। मेरी टीम के सभी सदस्य कॉलेज में या तो पढ़ रहे थे या बस पढ़ाई पूरी ही करी थी। मतलब अनुभव की कमी थी। यही सबसे अच्छी बात भी थी क्योंकि सब कुछ नया सीख रहे थे तो कोई पुराना सीखा हुआ भुलाने की ज़रूरत नहीं थी।
लेक़िन जो ऊपर बताया ये टीम के सदस्यों को कैसे समझायें? खाने पीने के शौकीन मैंने उसी का सहारा लिया। अपने आप को रोज़ दुकान लगाने वाले एक दुकानदार की तरह सोचने को कहा। उसको रोज़ ताज़ा सामान तैयार करना पड़ता है बनिस्बत उस दुकानदार के जिसके पास जगह होती है पहले से तैयारी की और सामान बना कर रखने की।
पिछले दिनों जीवन में बड़ा उलटफेर हो गया। जो सारे फलसफे पढ़े थे सब फालतू हो गये। अपने आसपास जो भी देखा, पढ़ा सब को आज़माने का मौक़ा मिल गया। लेक़िन सब सिखा, पढ़ा धरा का धरा रह गया। जो बदला था उसको गले लगाना था औऱ आगे के सफ़र पर कूच करना था। लेक़िन दिल इधर उधर भटक ही जाता। उस समय मुझे रोज की ये दुकान लगाने वाला वाक्या याद आया। अच्छा नहीं हो हम एक एक कर दिन गुज़ारें औऱ कल की चिंता कल पर छोड़ दें? आज का काम अच्छे से, सच्चे दिल से करें।
वैसे ऐसा सभी कहते हैं लेक़िन हम एक एक दिन जीना भूलकर भविष्य के दिनों में जीने का इंतज़ार करते रहते हैं। उस भविष्य में हम होंगे की नहीं ये हमें नहीं मालूम लेक़िन लालच हमें आज के आनंद से वंचित कर देता है या यूं कहें हम अपने आप को वंचित रखते हैं।
2007 की बात है। अक्टूबर का महीना रहा होगा। वैसे तो शाम को ऑफिस 6 या 6.30 बजे तक छूट जाता था लेक़िन घर पहुँचते पहुँचते 8.30 बज ही जाते थे। उस शाम मैंने जल्दी निकलने की बात करी बॉस से। मेरे पीटीआई के पुराने सहयोगी जो उस संस्था में पहले से कार्यरत थे उन्हें समझ नहीं आया ऐसा मैं क्यों जल्दी जा रहा था। उन्होनें पूछा तो मैंने बताया की आज करवा चौथ है इसलिये जल्दी जाना है। उन्होनें ख़ूब हँसी भी उड़ाई लेक़िन उससे मुझे कोई शिकायत नहीं थी।
आज इस घटना का उल्लेख इसलिये कर रहा हूँ क्योंकि आज हरछठ त्यौहार है। वैसे तो हमारे यहाँ त्योहारों की कोई कमी नहीं है औऱ सावन मास ख़त्म होते ही इनकी शुरुआत हो जाती है। लेक़िन हरछठ या सकट चौथ या करवा चौथ जैसे त्योहारों से मुझे घोर आपत्ति है। क्योंकि बाकी का तो नहीं पता लेक़िन ये तीन त्यौहार सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरुषों (बेटों/पतियों) के लिये किये जाते हैं। पहले दो माँ अपने बेटों के लिये करती हैं औऱ आख़िरी वाला पत्नी अपने पत्नियों के लिये।
आप ये बात समझिये की हम एक बहुत ही छोटी उम्र से अपने बच्चों में ये भेदभाव शुरू कर देते हैं। ये बेटे और बेटियों के बीच का भेदभाव। लड़का दुनिया में आता नहीं की माँयें उसके लिये उपवास रखना शुरू कर देतीं हैं। विवाह ऊपरांत पत्नी भी माँ के साथ इस कार्य में जुट जाती है। हमारी बेटियाँ शुरू से ये देख कर ही बड़ी हो रहीं हैं। जब घर पर ही एक बेटी और बेटे के बीच फ़र्क़ दिखेगा तो कैसे दोनो बच्चे अपने आप को समान समझेंगे?
दुख की बात ये है की हमारे समाज के पढ़े लिखे लोग भी इन सब बातों को मानते हैं। एक बेटे की लालसा में लोग न जाने क्या क्या करते हैं लेक़िन वो बेटा नालायक निकल जाये तब भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। बस बेटा होना चाहिये। अगर किसी की दो या तीन बेटियाँ हो जायें तो उसका मज़ाक बनाया जाता है। जिनके बेटे होते हैं वो सीना चौड़ा करके चलते हैं और उन लोगों पर ताना मारते हैं जिनकी बेटीयाँ होती हैं। ये सब उस सोच का नतीजा है जो लड़का और लड़की में भेदभाव करती है। महाभारत क्या है? अगर धृतराष्ट्र अपना पुत्र मोह त्याग देते तो संभवतः महाभारत ही नहीं होती।
फ़िल्म दंगल हमारे समाज को आईना दिखाने का काम करती है। महावीर सिंह फोगाट ने बेटे की चाह में चार बेटीयाँ को इस दुनिया में लाया। क्यूँ? क्योंकि उनकी चाहत थी की उनका बेटा हो और वो कुश्ती में स्वर्ण पदक जीते। उनके इस पदक की चाहत उनकी बेटी ने ही पूरी की। लेक़िन आज भी ऐसे परिवार हैं जो एक बेटे की चाहत में लड़कियों की लाइन लगा देते हैं। उनको समाज में अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिये एक बेटे की सख़्त ज़रूरत महसूस करवाई जाती है। दंगल में ही देख लें जब तीसरी बेटी पैदा होती है तो गाँव के बड़े बुज़ुर्ग सांत्वना देते हैं।
अगर बेटों के लिये न होकर ये सन्तान के लिये किया जाने वाला व्रत होता तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होती। लेक़िन ऐसा नहीं है। फ़ेसबुक पर एक आज सज्जन बोल गये की उनकी माँ ये उपवास करती थीं लेक़िन उनकी पत्नी नहीं करती। लेक़िन उनकी बेटियाँ ये व्रत ज़रूर रखती हैं। उन्होंने शायद ध्यान नहीं दिया होगा की उन्होंने अनजाने में ही सही लेक़िन अपने पत्नी के इस व्रत को न रखने की वजह भी बता दी।
हमारे यहाँ बेटियों को देवी कहा जाता है। उनकी पूजा होती है। लेक़िन पूछ परख सिर्फ़ बेटों की। कौन सा ऐसा व्रत है जो बेटियों के लिये रखा जाता है? वो बेटी, बहु, पत्नी जो वंश को आगे बढ़ाने का काम करती है उसको हम समाज के पुरुष क्या देते हैं?
और दूसरी बात जिससे मुझे आपत्ति है वो बेटी को बेटा बनाने की ज़िद। क्या आप कभी अपने बेटे को बेटी कहते हैं? नहीं? तो फ़िर बेटी को बेटा बनाने पर क्यों तूल जाते हैं? क्यों बेटी के दिमाग में ये बात डालते हैं की आपको एक बेटे की ज़रूरत थी लेक़िन वो नहीं है तो अब तुम्हे उसका रोल भी निभाना पड़ेगा। अलबत्ता अगर आपका बेटा कुछ बेटीयों जैसा व्यवहार करने लगे तो आप तो उसकी क्लास लगा दें।
मेरी माँ ने इस बेटों के व्रत की प्रथा को अपने परिवार के लिये ही सही लेक़िन बदला। उन्होनें ये पहले ही बोल दिया ये दोनों व्रत बच्चों के लिये रखे जायें न की सिर्फ़ पुत्रों के लिये। ये एक बहुत बड़ा बदलाव था लेक़िन क्या बाकी लोग ऐसी सोच रखते हैं? मैं दावे के साथ कह सकता हूँ की बहुत कम ऐसे परिवार होंगे जो पुत्रियों के लिये इस व्रत को रखने की आज्ञा भी देंगे। हम अपने रूढ़िवादी विचारों में इतने जकड़े हुये हैं की \”लोग क्या कहेंगे\”, \”समाज क्या कहेगा\” इस डर से जो सही है वो करने से भी डरते हैं।
और ये एक तरफा चलने वाला ट्रैफिक क्यूँ है? संतान माता पिता की लंबी आयु, उनके स्वस्थ रहने के लिये क्यों कोई व्रत उपवास नहीं रखते? माँ 70 साल की भी हो जाये तब भी अपने 40 से ज़्यादा उम्र के बेटे के लिये ये व्रत रखती है। ये कहाँ तक उचित है? करवा चौथ अगर पति के लिये रखा जाता है तो उस पत्नी के लिये पति उपवास क्यों न रखे जो परिवार का ध्यान रखती है और हमेशा उनकी सेवा में लगी रहती है।
जब उस 2007 की शाम में जल्दी घर आने का प्रयास कर रहा था तो उसका मक़सद अपने को भगवान बना कर पूजा करवाना नहीं था। मैं तो सिर्फ़ काम में हाँथ बटाना चाहता था क्योंकि श्रीमती जी उपवास तो रखेंगी और सारे पकवान भी बनायेंगी। लेक़िन दिनभर निर्जला रहकर शाम को इन पकवानों का स्वाद आता है? इस बार रहकर देख लीजिये।
पिताजी गाड़ी में जब काम करवाने जाते तो सुबह से निकल जाते और शाम होने पर लौटते। वो गाड़ी मरम्मत के लिये छोडने के सख़्त ख़िलाफ़ थे। उन दिनों आज की जैसी सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी की फ़ोन कर दिया औऱ घर पर कोई गाड़ी लेने आ जायेगा। अगर होती भी तब भी इसकी संभावना कम ही होती।
लेक़िन ये सिर्फ़ गाड़ियों के साथ ही नहीं था। अगर कोई बिजली का काम करने आया है तो उसके पास खड़े रहो और उसको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो वो देना। मतलब अग़र कोई काम हो रहा है तो आप उसको देखें। हम लोग पिताजी से हमेशा इस बात पर बहस करते की आपको काम करनेवालों से कुछ ज़्यादा ही लगाव है। आम बोलचाल में \’चाय पानी\’ के पैसे पिताजी ने नहीं दिये लेक़िन उनको चाय-नाश्ता करवाते। उस समय हम मुँह बनाते लेक़िन आज लगता है उन कामकरने वालों को इज़्ज़त देना ऐसे ही सीखा।
आज इनका ज़िक्र इसलिये क्योंकि पिछले दिनों घर पर कुछ मरम्मत का काम करने के लिये कोई आया। आदत से मजबूर मैं उसके पास ही खड़े होकर उसका काम करता देख रहा था। लेक़िन शायद उस बंदे के साथ ऐसा नहीं होता था। मतलब शहरों में जैसे होता है कि जब कोई ऐसे काम के लिये आता है तो उसको क्या ठीक करना है वो बता कर उसको काम करने दिया जाता है और आप अपने मोबाइल पर वापस एक्शन में।
जो शख़्स काम करने आया था वो बार बार पीछे मुड़कर देखता की क्या मैं वहीं खड़ा हूँ। पहले तो मुझे भी ठीक नहीं लगा औऱ एक बार ख़्याल आया कि मैं भी मोबाइल पर अपनी व्यस्तता दिखाऊँ। लेक़िन वहीं खड़ा रहा। शायद उस काम करनेवाले शख़्स को भी अंदाज़ा हो गया था क्योंकि उसके बाद वो अपने काम में मसरूफ़ हो गया।
वापस गाड़ी पर आते हैं। जब गाड़ी बदली तो लगा पिताजी का ये गैरेज पर दिन भर बिताना बंद हो जायेगा। अब तो कंपनी वाले स्वयं फ़ोन करते हैं और पूछ भी लेते हैं कि गाड़ी लेने किसी को भेजें। लेक़िन पिताजी को अपने सामने गाड़ी ठीक होते हुये देखना अच्छा लगता है। तो वो अपने सामने ही काम कराते। इसका उन्होंने एक दूसरा तोड़ भी निकाल लिया औऱ वर्कशॉप के एक मैकेनिक से बातों बातों में पूछ लिया अगर वो घर पर गाड़ी ठीक करेगा।
अब जब भी घर पर ठीक करने लायक कोई ख़राबी होती तो उसको फ़ोन करते और वो अपनी सहूलियत से आकर काम करते। जब मैंने जीवन की पहली गाड़ी ख़रीदी और उसकी सर्विसिंग करवाने गया तो मुझे याद आया काली कार की मरम्मत के वो दिन और वो दिन भर बैठे रहना औऱ इंतज़ार करना।
उन दिनों सबके पास लैंडलाइन फोन भी नहीं होते थे तो पहले से अपॉइंटमेंट लेने जैसा कोई कार्यक्रम नहीं होता। आप कब आने वाले हैं ये आप दुकान पर जाकर बताते और अग़र कोई और गाड़ी नहीं होती तो आपकी बुकिंग कन्फर्म होती। मैने ज़्यादा तो नहीं लेक़िन 4-5 बार पिताजी के साथ इस काम में साथ दिया। गाड़ी ठीक करने वाले भी सब एकदम तसल्ली से काम करते। कहीं कोई दौड़ाभागी नहीं। आज तो जिधर देखिये सब अति व्यस्त दिखते हैं।
हमारे यहाँ बच्चे अगर पढ़ाई में अच्छे नंबर नहीं लाता है तो उसको क्या ताना देते हैं? अच्छे से पढ़ो नहीं तो मेकैनिक का काम करने को भी नहीं मिलेगा। वैसे तो सब कहते रहते हैं कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। लेक़िन छोटे छोटे शब्दों में नीचे लिखा रहता है नियम व शर्तें लागू। हम ये सब काम, मतलब जिनके लिये हम एक फ़ोन करते हैं औऱ बंदा हाज़िर, उनको हम ज़रा भी इज़्ज़त नहीं देते। लेक़िन विदेश में यही काम करवाने के लिये एक मोटी रक़म ख़र्च करनी पड़ती है। इसलिये आपने देखा होगा वो अपने घर की पुताई भी स्वयं करते हैं औऱ बाक़ी अन्य काम भी।
लॉक डाउन में अगर लॉक डाउन हटने के बाद सबसे ज़्यादा इंतज़ार हो रहा है तो वो है कामवाली बाई के लौटने का। जबतक मैं व्हाट्सएप पर था तो लगभग सभी ग्रुप में इस पर या तो चर्चा चल रही होती या इसपर कुछ हल्का फुल्का हँसी मज़ाक चलता रहता। लॉक डाउन की शुरुआत वाला वो वीडियो शायद सबने देखा होगा जिसमें एक गृहणी कार में अपने यहाँ काम करनेवाली महिला को लेकर आती है औऱ उनकी इस पर उस सोसाइटी की सिक्युरिटी और बाकी लोगों से गर्मागर्म बहस हो जाती है। आज भी सब एक दूसरे से यही पूछ रहे हैं कि घर कब आओगे।
गाड़ी से बाई और बाई से वापस गाड़ी ऐसा ही लगता है जैसे फ़िल्म पड़ोसन में एक चतुरनार बड़ी होशियार में मेहमूद जी बोलते हैं ये फ़िर गड़बड़ किया, ये फ़िर भटकाया। तो वापस विषय पर। अब जो गाड़ियाँ ठीक होती हैं तो आपको नहीं पता होता कौन इसको देख रहा है। एक सुपरवाइजर आपको समय समय पर संदेश भेजता रहता है और जब काम ख़त्म तो आप गाड़ी ले जाइये। कई बार तो ऐसा भी हुआ की एक सर्विस से दूसरी सर्विस के बीच में नंबर वही रहता लेक़िन सुपरवाइजर बदल जाते। वो ठीक करने वाले के साथ चाय पीने का मौसम अब नहीं रहा।
आज शुरुआत गुलज़ार साहब की एक रचना के चंद शब्दों के साथ। फ़िल्म इजाज़त और गाना वही मेरा कुछ सामान। लेक़िन इस बार बात उस ख़त की जो टेलीग्राम के रूप में महिंदर और सुधा तक पहुँचता है। लिखा माया ने है और वो सामान वापस करने का ज़िक्र कर रही हैं एक कविता के ज़रिये।
आपने कभी वो ऑनलाइन सेल में कुछ खरीदा है? जिसमें सेल शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाती। थोड़ी देर बाद वो कंपनी बड़े घमंड के साथ सोशल मीडिया पर आती और बताती कितने सेकंड में उनका माल बिक गया। इन सेल में मेरी किस्मत बहुत नहीं चली (अपने लिये) लेक़िन बाक़ी लोगों के लिये मुझे एक दो बार कामयाबी ज़रूर मिली।
कोरोना के चलते मुझे इस सेल वाले अनुभव की फ़िर से याद आयी जब रात में राशन पानी लेने के लिये वेबसाइट के खुलने का इंतज़ार कर रहे थे। आसपास की सभी दुकानें बंद और वो सभी डिलीवरी करने वाली एप्प ने भी हमारे इलाके से कन्नी काट रखी थी। एक वेबसाइट तो 20 में से चार वो चीज़ें ही डिलीवर करने को तैयार थी जिनके बिना काम चल सकता था।
रात के लगभग 12 बजे जब साइट ने आर्डर लेना शुरू किया तो बस किसी तरह आर्डर जल्दी से हो जाये इसका ही प्रयास कर रहे थे। जल्दी इसलिये की अगर 10 चीज़ें आर्डर करी हैं तो कमी के चलते उसमें ही 5 ही आपके घर पहुँचती हैं। ऐसा पहले भी होता रहा है की पूरा सामान नहीं आया हो। लेक़िन इन दिनों लालच बढ़ गया है और दूसरा ये की बाहर निकलने पर क्या मिले क्या न मिले इसका कोई भरोसा नहीं है।
बहरहाल सभी प्रयासों के बाद सामान का आर्डर नहीं हुआ। एक दो बार पैसा भरने तक पहुँचे भी लेक़िन उसके आगे टायें टायें फिस्स। सभी डिलीवरी स्लॉट भर गये थे। सेल में फ़ोन या एक रुपये में फ़िटनेस बैंड मिलने का इतना दुख नहीं हुआ जितना इस आर्डर के न होने पर हुआ था।
आँखों से नींद कोसों दूर थी औऱ उस कंपनी के लोगों को ज्ञान देने की भी इच्छा थी। ढेर सारा की वो हम ग्राहकों से इतना बेचारा जैसा व्यवहार क्यों करती हैं। इसी उधेड़बुन में एक बार फ़िर वेबसाइट पर पहुंचा और एक औऱ प्रयास किया। ये क्या? बड़ी आसानी से एक के बाद एक रुकावटें पार करते हुये आख़िरी पड़ाव यानी भुगतान तक पहुँच गये। विश्वास नहीं हो रहा था और लग रहा था जैसे सिग्नल की लाइट लाल होती है वैसे ही किसी भी समय ये हो सकता था।
लेक़िन उस रात कोई तो मेहरबान था। क्योंकि अंततः आर्डर करने में सफलता मिली औऱ जब कंपनी से इसका संदेश आ गया तो उस समय की फीलिंग आप बस समझ जाइये। लेक़िन साथ ही उस शख़्स के लिये भी बुरा लगा जिसने प्रयास किये होंगे लेक़िन समय सीमा के चलते शायद वो ऐसा नहीं कर पाये।
इस पूरे घटनाक्रम से यही सीख मिली कि जब आपको लगने लगे सब ख़त्म हो चुका है, एक बार औऱ प्रयास कर लीजिये। शायद कुछ हो जाये। वैसे हमारे ऐसे अनुभव काली कार के साथ बहुतहुये हैं। चूँकि चलती कम थी तो बैटरी की हमेशा साँस फूली रहती। हूं लोगों को कभी घर के अंदर नहीं तो बाहर सड़क पर उसको धक्का देना होता। और कुछ नख़रे दिखाने के बाद जब कार स्टार्ट होती तो उससे मधुर आवाज़ कोई नहीं होती।
ऐसा ही एक अनुभव पिछले वर्ष हुआ था अगस्त के महीने में। सपरिवार भोपाल जाने का कार्यक्रम था और टिकट भी करवा लिये थे। लेक़िन मुम्बई में हमेशा बनती रहने वाली सड़कों के चक्कर में स्टेशन पहुँचे तक गार्ड साहब वाला डिब्बा और उसमें से वो हरा सिग्नल दिख रहा था। मायूस से चेहरे लेकर ऐसे ही टिकट काउंटर पर जाकर पूछा शाम की दूसरी ट्रेन के बारे में औऱ… तीन घंटे बाद वाली ट्रेन में कन्फर्म टिकट मिल गया।
सीख वही ऊपर वाली। प्रयास करते रहिये।
अब इसमें गुलज़ार साहब का क्या योगदान? जी वो चिल्लर की बात जो माया देवी कर रहीं थी, बस वैसी ही ज़िन्दगी लगती है जब ऐसा कुछ होता है।
Check out Atthanni Si Zindagi by Hariharan on Amazon Music
अभी बोर्ड की परीक्षाओं के परिणाम आने शुरू हुये हैं और कई राज्यों के परिणाम आ भी चुके हैं। जैसा की पिछले कई साल से चलन चल रहा है, अब माता पिता अपने बच्चों के परिणाम को अपनी ट्रॉफी समझ कर हर जगह दिखाते फ़िरते हैं।
मुझे लगता है कभी कभी कुछ चीज़ों का न होना बहुत अच्छा होता है। जैसे हमारे समय ये सोशल मीडिया नहीं हुआ करता था। बस घर के सदस्य, कुछ और रिश्तेदारों तक आपके परिणाम की ये ख़बर रहती। बाकी जगह ख़बर फ़ैलते थोड़ा समय लगता और तब तक बात पुरानी हो जाती तो बात होती नहीं।
पिताजी शिक्षक रहे हैं और शायद उन्हें जल्दी ही पता लग गया था की मेरा और पढ़ाई का रिश्ता कैसा होने वाला है। लेक़िन उन्होंने एकाध बार ही नम्बरों के लिये कुछ बोला होगा। इसके बाद भी उन्होंने मुझे हर परीक्षा में सम्मिलित होने के लिये प्रोत्साहित किया। जिसके चलते मेरा पहली बार अकेले मुंबई-शिरडी-पुणे यात्रा का संयोग बना।
पिछले हफ़्ते से सोशल मीडिया और व्हाट्सएप पर माता पिता अपने बच्चों के नंबर बता रहें हैं। कुछेक ने तो बाकायदा मार्कशीट भी डाल दी। बहुत अच्छी बात है की बच्चों की मेहनत रंग लाई। उनको बहुत बहुत बधाई। मैं माता पिता को ऐसा करने से रोकने वाला कौन होता हूँ लेक़िन ये पूरे सर्कस से थोड़ा दुखी हूं।
मेरा माता-पिता से सिर्फ़ एक ही प्रश्न है अगर आपके बच्चे के नंबर कम आते तो भी क्या आप उतने ही उत्साह से ये ख़बर सबको बताते? अगर आप बताते तो आपको मेरा सादर प्रणाम। अगर नहीं तो इस इम्तिहान में आप फेल हो गये हैं।
लेक़िन मुझे बहुत ख़ुशी होती है ऐसे पालकों के बारे में जानकर बड़ी ख़ुशी होती है जो अपनी संतान को नंबर से नहीं आँकते। जो भी परिणाम है वो सबके सामने। अगर बहुत ख़राब आया है तो भी। ऐसे माता पिता की संख्या भी अधिक है जो ऊपर ऊपर तो कह देते हैं उन्हें नम्बरों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लेक़िन दिल ही दिल में ये मनाते रहते हैं कि इतने प्रतिशत तो आ ही जायें। मेरे मामले में माता पिता का तो पता नहीं लेक़िन मैं तो बस किसी तरह पास होने की उम्मीद ही करता।
अभिनेता अनुपम खेर ने इससे जुड़ा किस्सा सुनाया था। जब वो परीक्षा में फेल हो गये थे तो उनके पिताजी ने उसका जश्न मनाया था। उस दिन से उनका असफ़ल होने का डर जाता रहा। आजकल माता पिता जब नम्बरों को पूरी दुनिया को बताते है (सिर्फ़ अच्छे नंबर आने पर ही) तो वो अनजाने में ही अपने बच्चों के ऊपर और प्रेशर डाल रहे होते हैं।
मैं ऐसे कई बच्चों को जानता हूँ जो एक या दो नंबर कम आने पर बहुत निराश हो जाते हैं क्योंकि घर पर इसके चलते हंगामा होगा। बच्चों के लिये दुःख होता है और माता पिता पर तरस आता है। अच्छे परिणाम से ही क्या आपकी संतान अच्छी मानी जायेगी?
आजकल जितने प्रतिशत बच्चों के आ रहे हैं उसको देख कर लगता है मेरा परिणाम तो नेगेटिव में होना चाहिये। मुझे याद है जब जान पहचान वालों के बच्चे बोर्ड परीक्षा देते थे तो उनका घर पर आना जाना बढ़ जाता था। कारण? वो पिताजी से ये पता करना चाहते थे कि फलाँ विषय की कॉपी कहाँ चेक होने जा रही है और वो ट्रेन का टिकट कटाकर पहुँच जाते। नंबर बढवाये जाते जिससे परिणाम अच्छे आयें। आज वो बच्चे लोग अच्छी पोस्ट पर हैं, कुछ विदेशी नागरिकता लेकर वहाँ पर \’सफलता\’ के झंडे गाड़ रहे हैं। वो यहाँ कैसे पहुँचे ये उन्हें मालूम तो होगा लेक़िन क्या वो इस बारे में कभी सोचते होंगे? शायद।
जैसा मैंने पहले ज़िक्र किया था विदेशी तोहफों के बारे में, ऐसे ही एक सज्जन को परिवार के बहुत से लोगों से कोफ़्त हुआ करती थी। उन लोगों से मिलना, उनका आना जाना सब बिल्कुल नापसंद। लेक़िन जैसे ही ये ग्रुप के लोग धीरे विदेशी धरती को अपनी कर्मभूमि बनाने लगे साहब के रंग भी बदल गये। वही नापसंद लोग उनके पसंदीदा बन गये।
ये मैं इसलिये बता रहा हूँ की आज अगर आपके नंबर कम आये हैं तो निराश मत हों। समय और नज़रिया बदलते देर नहीं लगती। जो आज आपको आपके नंबर के चलते आपको अपमानित महसूस करा रहे हैं वो आपको भविष्य के लिये तैयार ही कर रहे हैं। और कल आपने जब कुछ मक़ाम हासिल कर लिया तो यही लोग आपके गुण गायेंगे।
फ़ेसबुक और ट्विटर पर अगर आप भ्रमण पर निकल जाये तो मिनिट घंटे कैसे बन जाते हैं पता ही नहीं चलता। एक क्लिक से दूसरे और फ़िर तीसरे और सिलसिला चल निकला। समय रहते रुकना और वापस यथार्थ में लौटना एक कठिन काम बन जाता है। चूँकि मैं डिजिटल में काम करता हूँ तो ये मेरे कार्यक्षेत्र में आता है। इसलिये काम के लिये ही सही मेरी सर्फिंग चलती रहती है।
पिछले दो दिनों में दो ऐसी पोस्ट पढ़ीं जिनके बारे में लिखने का मन बन गया। आज उस पोस्ट के बारे में जिसमें 90 के दशक उन फिल्मों की लिस्ट थी जो हिट थीं लेक़िन बकवास थीं और एक लिस्ट वो फ़िल्में जो अच्छी तो थीं लेक़िन चली नहीं।
अब जैसा अमूमन होता है, दस साल बाद सबको अक्ल होने का घमंड हो ही जाता है। तो वही लोग जिन्होंने इन फिल्मों को हिट कराया, आज उसको बक़वास कहने लगे। अगर आप आज उन फिल्मों के कलाकारों से पूछेंगे तो वो भी शायद यही कहेंगे आज वो ये फिल्में नहीं करते। लेक़िन दोनो – दर्शक और कलाकार लगभग 20 वर्षों के अनुभव के बाद इस ज्ञान को प्राप्त कर पाये हैं।
ट्विटर पर भी ऐसा ही एक खेला चलता है। अग़र आपको जब आप 15 वर्षीय थे, उसको कोई सलाह देनी होती तो क्या देते? अरे भाई आज तीस साल बाद मैं अपने अकेले को काहे को – पूरे भोपाल शहर को ही ढ़ेर सारी समझाईश दे देता। लेक़िन मेरे जैसे तो लाखों 40-45 साल के भोपाली युवा होंगे जिनके पास ज्ञान का भंडार होगा। अगर 30 साल बाद भी नहीं मिला तो अब निक्कल लो मियां।
ऐसा हमेशा होता है। आप ने बीस साल पहले कुछ निर्णय लिये जो आज शायद गलत लगें। लेक़िन अगर हम अपने हर निर्णय को लेकर ऐसे ही सवाल उठाते रहेंगे तो फ़िर लगेगा हमने कुछ भी सही नहीं किया। जैसे ग्रेजुएशन के बाद मैने कानून पढ़ने का मन बनाया लेक़िन अंततः वो विचार त्याग कर इतिहास में एमए किया।
हम सब वक़्त के साथ समझदार होते जाते हैं। आज भले ही हमें अपना पुराना निर्णय ग़लत लगे लेक़िन उस समय के जो हालात थे और आपके पास जो ऑप्शन थे उसमें से आपको जो सही लगा आपने वो किया। बीस साल बाद चूँकि आपकी समझ बढ़ गयी है तो आप उस वक़्त के निर्णय को ग़लत कैसे कह सकते हैं? भले ही ये बात एक फ़िल्म के बारे में है, लेक़िन उस समय जब आप टिकट खिड़की पर धक्का खा कर वो फ़िल्म देखने जा रहे थे तो कोई तो कारण रहा होगा।
फ़िल्म डर का मैंने किस्सा बताया था। पिछले दिनों डर दोबारा देखने का मौक़ा मिला तो लगा इस फ़िल्म को एडिटिंग की सख्त ज़रूरत है। लेक़िन मैं तब भी ये कहूँगा की फ़िल्म अच्छी है। इसमें मेरे जूही चावला के फैन वाला एंगल आप नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
फ़िल्मों के हिट या फ्लॉप होने के कई कारण होते हैं। उस समय तो सोशल मीडिया भी नहीं था जो फ़िल्म के हिट या फ्लॉप होने का ज़िम्मा ले ले। नहीं तो आप सोचिये यश चोपड़ा की लम्हे और आमिर खान-सलमान खान की अंदाज़ अपना अपना जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर ढ़ेर हो गयीं लेक़िन कई फूहड़ कॉमेडी वाली फिल्में हिट हो गईं। और यही मेरा इन सभी समझदार व्यक्तियों से सवाल है – आप ने उस समय किन फिल्मों का साथ दिया?
आज की बात करें तो दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की फ़िल्म सोन चिड़िया की बेहद तारीफ़ हुई।सबने इसको साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक बताया। लेक़िन फ़िल्म अपनी लागत भी वसूल नहीं कर पाई। क्या इन समझदार व्यक्तियों ने इस फ़िल्म का साथ दिया या दस साल बाद एक और ऐसे पोल में फ़िर अपनी राय देंगे?
इतने वर्षों में बहुत सी अच्छी फिल्में देखी हैं और ढ़ेर सारी बर्बाद फ़िल्में भी। बहुत से ऐसे निर्णय लिये जो बिल्कुल सही लगे और कुछ ऐसे भी जो उस समय, उन परिस्थितियों के हिसाब से सही थे। आज ऐसे निर्णय को रिव्यु करने का मौक़ा मिले तो कुछ अलग होगा। लेक़िन ये खट्टे मीठे अनुभव ही तो हमको बनाते हैं।
आपको क्या लगता है जो लोग आज फ़िल्म राजा हिंदुस्तानी को बक़वास क़रार दे रहे हैं, वो फ़िल्म आमिर खान के सशक्त अभिनय को देखने गये थे? लेक़िन उसी आमिर खान और निर्देशक धर्मेश दर्शन की फ़िल्म मेला क्यों नहीं देखने गये? शायद चार साल के अंतराल में समझदारी आने लगी थी?
राम जाने। (आप नीचे 👇जो ये गाना है उसे ज़रूर से सुने। ये एक क्लासिक है और लोगों ने इसके बारे में अपनी राय इतने वर्षों के बाद बदली नहीं है। आप इस बारे में कक्कड़ परिवार के किसी सदस्य या बादशाह से न पूछें)
हमारे इस छोटे से जीवन में ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं जिनसे हम अच्छे खासे प्रभावित होते हैं और उन्हें अपना गुरु मानने लगते हैं। शिक्षा के दौरान हमारे शिक्षक इस पद पर रहते हैं और बाद में हमारे काम से जुड़े हुए लोग। कुछ ऐसे भी लोग मिल जाते है इस यात्रा में जो बस कहीं से प्रकट हो जाते हैं और कुछ सीख दे कर चले जाते हैं।
इन सबमे सबसे अहम शिक्षक – हमारे माता पिता कहीं छूट से जाते हैं। वो रहते तो हैं हमारे आसपास लेकिन हम उन्हें उस रूप में नहीं देखते और सोचते हैं उन्हें मेरे काम या काम से संबंधित ज़्यादा जानकारी नहीं होगी तो वो मेरी मदद कैसे करेंगे। ऊपरी तौर पर शायद ये सही दिखता है लेकिन हर समस्या भले ही दिखे अलग पर उसका समाधान बहुत मिलता जुलता है।
मसलन अगर आप एक टीम लीड कर रहें हो तो सबको हैंडल करने का आपका तरीका अलग अलग होगा। कोई प्यार से, कोई डाँट से तो कोई मार खाकर। हाँ आखरी वाला उपाय ऑफिस में काम नहीं आएगा तो उसके बारे में न सोचें। लेकिन क्या ये किसी की ज़िंदगी बदल सकता है?
भोपाल के न्यूमार्केट में घूम रहे थे परिवार के साथ कि अचानक भीड़ में से एक युवक आया और बीच बाजार में पिताजी के पैर छूने लगा। सर पहचाना आपने? सर आपने मार मार कर ठीक कर दिया नहीं तो आज पता नहीं कहाँ होता। पिताजी को उसका नाम तो याद नहीं आया क्योंकि उन्होंने इतने लोगो की पिटाई लगाई थी लेकिन खुश थे कि उनकी सख्ती से किसी का जीवन सुधार गया। लेकिन वो एक पल मुझे हमेशा याद रहेगा। और शायद शिक्षक के प्रति जो आदर और सम्मान देख कर ही शिक्षक बनने का खयाल हमेशा से दिल में रहा है।
ऐसा एक बार नहीं कई बार हुआ है जब पिताजी कहीं जाते हैं तो उनके छात्र मिल जाते हैं। पिताजी एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे सेवानिवृत्त होने से पहले और काफी चर्चा थी उनके एक सख्त शिक्षक होने की। आज भी उनसे अच्छा रसायन शास्त्र कोई नहीं पढ़ा सकता। उस समय जब कोचिंग संस्थानों में शिक्षक की बहुत डिमांड थी तब संचालक उनसे कहते थे आप नोट्स दे दीजिए। कुछ किताब लिखने के लिए भी मनाने आते। लेकिन पिताजी सबको मना कर देते। चाहते तो अच्छी मोटी रकम जमा कर सकते थे लेकिन नहीं। उन्हें मुफ्त में पढ़ाना मंज़ूर था लेकिन ये सब नहीं।
जब ये सब सब होता था तब लगता था क्यों नहीं कर लेते ये सब जब सभी लोग ये कर रहे हैं। जवाब कुछ वर्षों बाद मिला। उनसे नहीं लेकिन अपने आसपास हो रहीे घटनाओं से।
ये शायद उनकी इस ईमानदारी का ही नतीजा है कि मेरे अन्दर की ईमानदारी आज भी जिंदा है। फ़िल्म दंगल में आमिर खान अपनी छोटी बेटी से कहते हैं कहीं भी पहुंच जाओ ये मत भूलना की तुम कहाँ से आई हो। अपनी जड़ें मत भूलना। लेकिन ये जीवन की दौड़ में भागते दौड़ते हम ये भूल जाते हैं और याद रखते हैं सिर्फ आज जो हमारे पास है।
माताजी से अच्छा मैनेजमेंट गुरु नहीं हो सकता। घर में अचानक मेहमान आ जायें और खाना खाकर जाएंगे तो आप को समझ नहीं आएगा क्या करें। पर माँ बिना किसी शिकन के मेनू भी तैयार कर लेतीं और सादा खाना परोसकर भी सभी को खुश कर लेतीं।
आजकल तो घर में खाने लोग ऐसे जाते हैं जैसे कभी हम होटल में जाया करते थे। इसको समय का अभाव ही कह सकते हैं क्योंकि रोज़ रोज़ ये बाहर का खाना कोई कैसे खा सकता है ये मुझे नहीं समझ आता। मजबूरी में कुछ दिन चल सकता है लेकिन हर दिन? लेकिन जो ऊपर समय वाली मजबूरी कही है दरअसल वो सच नहीं हो सकती है क्योंकि मेरी टीम में ऐसे लड़के भी हैं जो अकेले हैं और कमाल का खाना बनाते हैं।
किसी भी बालक के पहले गुरु उसके माता-पिता होते हैं। जैसे एक मोबाइल फोन होता है उसमें पहले से एक बेसिक ऑपरेशन के लिये सब होता है और उसको इस्तेमाल करने वाला अपनी जरूरत के हिसाब से उसमें नई एप्प इंस्टॉल करता है। ठीक वैसे ही माता पिता अपने जीवन की जो भी महत्वपूर्ण बातें होती हैं वो हमें देते हैं। आगे जीवन के सफ़र जो मिलते जाते हैं या तो वो नई एप्प हैं या वो पुरानी अप्प अपडेट होती रहती है।
हम अपने माता पिता के अनुभव का लाभ ये सोचकर नहीं लेते की उनका ज़माना कुछ और था और आज कुछ और है। हम ये भूल जाते हैं कि अंत में हम जिससे डील कर रहें वो भी एक इंसान ही है। मुझे स्कूली शिक्षा में बहुत ज़्यादा विश्वास न पहले था और अब तो बिल्कुल भी नहीं रहा। लेक़िन मुझे तराशने में सभी का योगदान रहा है, ऐसा मेरा मानना है। मुझे पत्रकारिता के गुर सिखाने वाले कई गुरु, डिजिटल सीखाने वाले भी, भाषाओं का ज्ञान देने वाले और न जाने क्या क्या। लेक़िन जीवन के जिन मूल्यों को लेकर मैं आज भी चल रहा हूँ वो मुझे मेरे पहले गुरु से ही मिले हैं। हाँ अब मैं उन्ही मूल्यों को आधार बनाकर अपने आगे का मार्ग खोज रहा हूँ और इसमें मेरे नये गुरु मेरा साथ दे रहे हैं।
ऐसी है एक शिक्षक बीच मे प्रकट हो गए और आज मैं जो भी कुछ हूँ वो उनकी ही देन है। लेकिन आज उन्होंने हम सबके जीवन में उथल पुथल मचा रखी है।
अंग्रेज़ी भाषा ही मेरा पढ़ाई का माध्यम रही और उसके बाद नौकरी भी अंग्रेज़ी की सेवा में शुरू की। अब भाषा का ज्ञान होना कोई ग़लत बात नहीं है और अगर ये आपकी आजीविका का साधन बनती है तो और भी अच्छा।
अगर 2017 नवंबर भोपाल यात्रा न की होती तो क्या आज 2020 जून में मैं ये ब्लॉग हिंदी में लिख रहा होता? ये बहुत ही गहरा प्रश्न है जिसका की जवाब ढूँढने लग जायें तो समय बर्बाद ही करेंगे। वैसे हम अक्सर ऐसे ही प्रश्नों में उलझ कर ही अपना समय बर्बाद करते हैं और मिलता है सिफ़र अर्थात 0। जैसा की मैं इस समय कर रहा हूँ।
तो अंग्रेज़ी से वैसे तो मेरा कोई बैर नहीं है। लेकिन अंग्रेजी भाषा में कुछ पेंच हैं जैसा की धर्मेंद्र जी ने फ़िल्म चुपके चुपके में समझाया था। जैसे चाचा, मामा, फूफा सब अंकल में सिमट जाते हैं, बड़ा अटपटा सा लगता है। लेक़िन उसी अंग्रेज़ी में क़माल का शब्द है फ़ैमिली – परिवार। हिंदी में आज से 20 वर्ष पहले परिवार में चाचा, मामा, ताऊ सब आते थे (अभी नहीं आते हैं)। लेक़िन अब न्यूक्लियर फैमिली हो गयी है और रिश्तेदार एक्सटेंड फ़ैमिली। मामा, चाचा के बच्चे कजिन हो गए हैं। मैं जब छोटा था तब सबको अपने परिवार में गिनता, पिताजी के पास एक कार भी नहीं थी लेक़िन रिश्तेदारों की कार भी अपनी गिनता। वो तो जब गैराज खाली रहता तब समझ में आया कि अपनी चीज़ क्या होती है।
ये जो ऊपर इतना समझाने का प्रयास कर रहा हूँ उसकी असल बात तो अब शुरू हो रही है। हर परिवार में सब तरह के स्वभाव वाले लोग होते हैं। यहाँ परिवार से मेरा मतलब है चाचा, मामा, ताऊ – अंग्रेज़ी वाली फैमिली। एक दो लोग होते हैं जिनसे आप बहुत आसानी से बात कर सकते हैं किसी भी बारे में और एक दो लोग होते हैं जिनके होने से आप असहज हो जाते हैं। और नमूने तो भरे होते हैं (उनके बारे में बाद में)।
जैसे मेरे रिश्ते के भाई बहन जो हैं इसमें से कुछ से बहुत नियमित रूप से मुलाक़ात होती रही और कुछ से सालाना वाली। जिनसे नियमित होती रही उनके मुकाबले सालाना वालों से संबंध कहीं बेहतर रहे। और सालाना वालों में से भी कुछ से ही ऐसे संपर्क बने रहे कि आज भी फ़ोन करते समय बात शुरू नहीं करनी पड़ती। इसके अलावा अब एक नीति बना ली है और उसी पर अमल करता हूँ।
भाषा ज्ञान से चलते हैं संस्कार पर क्योंकि आज का विषय यही है। हम अपने बचपन से अपनी अंतिम साँस तक अपने संस्कार के लिये जाने जाते हैं। अब ये संस्कार आप को घर से भी मिल सकते हैं या आप किसी को ये करता देख कर भी इसे अपना लेते हैं। मतलब फलाँ व्यक्ति खडूस है क्योंकि उसका व्यवहार ही वैसा है या फलाँ व्यक्ति को सिर्फ़ पैसों से मतलब है क्योंकि ये उसके संस्कार ही हैं कि उसको पैसे के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। या कोई ऐसा व्यक्ति जो सबसे अच्छे से बात करता है, सबकी मदद करता है लेक़िन लोग उसका सिर्फ़ फायदा ही उठाते हैं। बाक़ी दो श्रेणी के व्यक्तियों की तरह ये आख़िरी श्रेणी वाला व्यक्ति इसके बाद भी अपना स्वभाव तो नहीं बदल सकता। तो वो बहुत सारे अप्रिय अनुभव के बाद भी वही करता है जो उसका दिल कहता है।
हमारे जीवन में हर एक अनुभव का अपना एक महत्व होता है। भले ही वो कितने भी कटु या कितने भी मीठे क्यों न हों, उन अनुभव से हमें सीख ही मिलती है। कोशिश हमारी ये होनी चाहिये कि उन कटु अनुभव का रस हमारे जीवन में न आये और हम अपने अनुभव जैसा अनुभव उस किसी भी व्यक्ति को हमसे मिलने पर न होने दें।
हम सब कुछ जानते नहीं हैं लेक़िन प्रयास करें तो बहुत कुछ जान सकते हैं। इस प्रयास में – अज्ञानता से ज्ञान के इस प्रयास में आप को बस सही लोगों से मदद मांगनी है। जो ये जानते हैं ज्ञान बाँटने से बढ़ता है, वो आगे आकर आपकी मदद करेंगे। सावधान रहना है आपको ऐसे लोगों से, (अ) ज्ञानी व्यक्तियों से, जो अंदर से खोखले हैं और आपको भी उसी और धकेल देंगे। इन महानुभावों को पहचाने और दूर रहें।
ट्विटर पर कल किसी ने एक सवाल पूछा की अगर आपकी ज़िंदगी कोई फ़िल्म होती तो आप उसको क्या रेटिंग देते। अर्थात आप उसको 5 में से कितने स्टार * देते। वैसे तो ये पूरा कार्यक्रम मज़े के लिये किया था लेक़िन लोगों के जवाब काफ़ी चौकानें वाले थे।
लगभग 90 प्रतिशत जवाब वहाँ पर नेगेटिव थे। कुछ ने अपने को – में रेटिंग दी तो कुछने अपने को 0। बहुत ही कम लोग थे जो अपनी ज़िंदगी से ख़ुश दिखे। मुझे जवाब देने वालों के बारे में कोई जानकारी तो नहीं है लेक़िन इतना कह सकता हूँ इनमें से ज़्यादातर एक मध्यम वर्गीय परिवार के तो होंगे ही। ठीक ठाक स्कूल/कॉलेज भी गये होंगे और शायद बहुत अच्छा नहीं तो ठीक ठाक कमा भी रहे होंगे। फ़िर इतनी निराशा क्यूँ?
ज़िन्दगी से शिक़ायत होना कोई बुरी बात नहीं लेक़िन अगर मैं स्वयं अपने बारे में अच्छा नहीं सोचूंगा तो राह चलता कोई भी व्यक्ति जिसके पास अपने ही कई झमेले होमगे, ऐसा क्यूँ करेगा। हम में से किसी की भी ज़िन्दगी परफ़ेक्ट नहीं होगी लेक़िन ये हमारी सोच ही इसे बेहतर बना सकती है।
–―――――――――――――
कुछ साल पहले की बात है। मैं अपने तत्कालीन बॉस से किसी विषय पर चर्चा कर रहा था। बात करते करते मैंने उन्हें कुछ कह दिया। शायद दीवार फ़िल्म में जैसा शशि कपूर जी अमिताभ बच्चन जी से कहते हैं और जवाब में अमिताभ बच्चन कहते हैं \”उफ़्फ़ तुम्हारे ये उसूल, ये आदर्श\”।
हमारे बीच बातचीत टीम के सदस्यों को लेकर चल रही होगी और मैं उनका मुखिया होने के नाते उनके लिये ही कुछ बोल रहा होऊँगा इसका मुझे पक्का यक़ीन है। लेक़िन बॉस ने जो कहा उससे मुझे थोड़ा दुख भी हुआ और थोड़ा आश्चर्य भी।
पिछले कुछ हफ़्तों से घर में एक बड़े समारोह की तैयारी चल रही थी। कोरोना के चलते ये अब एक इंटरनेट पर होने वाली गतिविधि बन गया था। इसके लिए हमें बहुत से पुराने पारिवारिक मित्रों को ढूंढना पड़ा और कई रिश्तेदारों से भी संपर्क में आने का मौक़ा मिला। बहुत से ऐसे लोग जिनसे हम वर्षों से मिले नहीं, और बहुत से ऐसे जिनसे हम कई बार मिलते रहे हैं – सब मिले।
इस समारोह में कई बार ऐसा हुआ कि जब किसी से बात करी तो उस दिन वो बॉस से हुई बात याद आ गयी। मेरे कुछ कहने पर उन्होंने कहा \”अरे यार कहाँ तुम ये मिडिल क्लास वैल्यू को लेकर बैठे हुये हो। इनको कोई नहीं पूछता\”। वो शायद मुझे चेता रहे थे कि आज इन चीज़ों का कोई मतलब नहीं है तो मुझे भी बहुत ज़्यादा इमोशनल नहीं होना चाहिये।
जबसे इस कार्यक्रम के सिलसिले में बात करना शुरू हुआ तो मुझे उनकी याद आ गयी और याद आया अपना जवाब। मैंने उन्हें कहा, \”सर ये किसी के लिये भी दकियानूसी या बेकार हो सकती हैं, लेक़िन मेरे लिये ये बहुत अनमोल हैं क्योंकि इन्ही को मानते हुये मैं जीवन में आगे बढ़ा हूँ औऱ मेरा व्यक्तित्व इनसे ही बना है। मेरा विश्वास इनमें है किसी और का हो न हों। और मैं चाहता भी नहीं की कोई मुझे इनके सही, ग़लत होने का कोई सबूत दे\”।
पिछले दिनों जिनसे भी बात हुई सबने मेरे माता-पिता के बारे में ख़ूब सुंदर बोल बोले, लिखे और उनके प्रति अपना आदर, प्रेम सब व्यक्त किया। किसी ने बहुत ही छोटी सी बात बताई की अगर कोई आपको बुलाये तो क्या है या हाँ की जगह जी कह कर जवाब दिया जाये ये सीख उन्हें पिताजी से मिली तो किसी ने उनके व्यक्तित्व की सरलता बताई जिसके चलते कोई बड़ा या कोई छोटा, सब उनसे अपनी बात कर सकते थे।
―――――――――――――――
ग्लास आधा भरा है या आधा खाली ये आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
पुराने ऑफिस में ये धमाल चल रहा था तो नौकरी ढूँढने का काम शुरू किया। मुझे एक शख्स मिले जो एक बिल्कुल ही अलग क्षेत्र से आते थे लेक़िन अब मीडिया में कार्यरत थे। उनसे एक मुलाकात हुई थी और बात फ़िर कुछ रुक सी गयी थी। अचानक एक शाम उन्होंने मिलने के लिये बुलाया।
इस मुलाक़ात के समय से ख़तरे की घंटी बजना शुरू हुई थी लेक़िन मैंने उसे नज़रअंदाज़ किया। जो घंटी थी वो थी दोनों ही शख्स – पहले वाले महानुभाव और अब ये – बात ऐसे करते की आप झांसे में आ जाते। ख़ैर मुलाकात हुई और उन्होंने कंपनी के शीर्ष नेतृत्व से मिलने के लिये बुलाया।
माई बाप सरकार
जबसे मैंने पत्रकारिता में कदम रखा है तबसे सिर्फ़ शुरुआती दिनों में एक अखबार में काम किया था तब न्यूज़रूम का मालिकों के प्रति प्रेम देखा था। उसके बाद से एक अलग तरह के माहौल में काम किया जहाँ आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि मायने नहीं रखती थी। लगभग 18 वर्षों बाद मैं वापस उस माहौल में पहुँच गया।
इतने वर्षों में मालिकों के पास और महँगी गाड़ियाँ आ गईं थीं और सबसे नया मोबाइल फोन। लेक़िन मानसिकता वही माई बाप वाली जारी थी। माहौल पूरा अजीबोगरीब था। आपको ऑफिस में किसी से बात नहीं करनी थी और दुनिया इधर की उधर हो जाये आपके काम के घंटे पूरे होने चाहिये।
नई जगह जॉइन करने के दूसरे दिन बाद समझ में आ गया था ग़लती हो गई है। अब हम मध्यम वर्गीय परिवार के लिये नौकरी बहुत ज़रूरी होती है। अगर किसी कारणवश आप घर पर बैठ भी जायें तो ज़्यादा दिन तक ये चलता नहीं। तो मैंने भी इन सब विचारों को ताक पर रखकर काम पर ध्यान देना शुरू किया।
एक दो अच्छे सहयोगी मिले जो अच्छा काम करने की इच्छा रखते थे। लेकिन माहौल ऐसा की आपके हर कदम पर नज़र रहती। आप कितने बजे लंच के लिये गये, कब वापस आये ये सब जानकारी मैनेजमेंट के पास रहती थी।
सब चलता है
आफिस पॉलिटिक्स से मेरा कभी भी पाला नहीं पड़ा था। लेक़िन इस नए संस्थान में ये संस्कृति बेहद ही सुचारू रूप से चालु थी। मेरा एक मीटिंग में जाना हुआ जहाँ और भी विभागों से जुड़े संपादक मंडल के लोगों का आना हुआ। जैसे ही मालिक का प्रवेश हुआ तो सब ने नमस्ते के साथ चरण स्पर्श करना शुरू किया। मेरे लिये ये पूरा व्यवहार चौंकाने वाला था और मैं अपनी पहली नौकरी के दिन याद करने लगा।
उस समय भी मालिक को सिर्फ़ न्यूज़रूम में कदम रखने की देरी थी की सब खड़े हो जाते। निश्चित रूप से मालिकों के ईगो को इससे बढ़ावा मिलता होगा इसलिये उन्होंने कभी भी ये ज़रूरी नहीं समझा कि इस पर रोक लगाई जाये। इस नई जगह पर भी यही चल रहा था।
आसमान से गिरे और ख़जूर में अटके वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। मैं सिर्फ़ इस इंतज़ार में था की मुझे जल्दी से उस शहर भेज दिया जाये जहाँ से मुझे नया काम शुरू करना था। जब ऐसी दूरी हो जाये तो थोड़ी राहत तो मिलती है। एक बार फ़िर नई टीम बनानी थी। लोग खोजे गये और ये कार्यक्रम शुरू हुआ। नये ऑफिस को लेकर ढ़ेर सारे वादे किये गये। ऑफिस इस सोशल मीडिया कंपनी के ऑफिस की टक्कर का होगा, ये होगा, वो होगा। लेक़िन सब बातें।
मेरा प्रत्याशी
ये जो शख्स थे ये एक कैंडिडेट के पीछे पड़े हुये थे की इनको लेना है। मैंने थोड़ी पूछताछ करी तो कुछ ज़्यादा ही तारीफें सुनने को मिलीं इन महोदय के बारे में और मैंने मना कर दिया। पहले तो शख्स बोलते रहे तुम्हारी टीम है तुम देखो किसको लेना है। लेक़िन उन्होंने इन महोदय को फाइनल कर लिया और नौकरी भी ऑफर कर दी।
अच्छा ये शख्स की ख़ास आदत थी। ये सबकी दिल खोलकर बुराई करते। क्या मालिक, क्या सहयोगी। ऐसी ऐसी बातें करते कि अगर यहाँ लिखूँ तो ये एडल्ट साइट हो जाये। मुझे इन सब में कोई दिलचस्पी नहीं थी और जब अंततः शहर छोड़ने का सशर्त आदेश मिला तो लगा अब ये सब चक्कर ख़त्म। लेक़िन अभी तो कुछ और नया शुरू होने वाला था।
शर्त ये थी कि हम दो लोग जो उस ऑफिस में शीर्ष अधिकारी होंगे वो किसी केबिन में नहीं बैठेंगे। क्यों नहीं बैठेंगे ये पता नहीं, लेक़िन ये बात बार बोली गयी और हमें भी ये स्वीकार्य थी। आज़ादी बड़ी बात लग रही उस समय।
नया शहर पुरानी आदतें
नया शहर, कुछ पुराने, ढ़ेर सारे नये लोगों के साथ काम शुरू किया। मुझे लग रहा था अब शांति से काम होगा लेक़िन मैं एक बार फ़िर गलत था। कुछ दिनों के अंदर पता तो लग गया था की शख्स जी दरअसल हर चीज़ पर कंट्रोल रखने में दिलचस्पी रखते हैं। आप की किसी दूसरी कंपनी में काम को लेकर अगर कोई मीटिंग हो तो उनको सब पता होना चाहिये और सब जगह के ईमेल, फ़ोन नंबर उन्हें दिए जाने चाहिये। लेक़िन निर्णय लेने में इनके पसीने छूटते क्योंकि इनके हाँथ में भी कुछ नहीं था। कोई बड़ी विदेशी कंपनी हो तो ये सब कुछ स्वयं ही करते। आपको बस साथ में जाकर नोट लेना होता।
अब मैं दूसरे शहर में था तो फ़ोन उनका सबसे बड़ा सहारा था। सुबह शाम फोन पर फ़ोन, मैसेज पर मैसेज। मेरी ये आदत नहीं रही कि उनको फ़ोन पर हाज़री लगवाउँ तो मैंने फ़ोन पर बातें कम करदीं और मूड नहीं होता तो बात नहीं करता। लेक़िन साहब को ये नहीं भाया और उन्होंने टीम से एक बंदे को अपना संदेशवाहक बनाया। इसका पता तब चला जब मैंने दो तीन लोगों की एक मीटिंग बुलाई थी। बाहर निकलने पर उन्होंने फोन करके पूछा मीटिंग कैसी रही। उनकी तरफ से संदेश साफ था – मेरे पास और भी तरीकें हैं खोज ख़बर रखने के।
एक दो महीने काम ठीक से चलना शुरू हुआ था की शख्स ने फ़रमाइश करना शुरू कर दिया कि जिन महोदय को इन्होंने रखा है उनको और बडी ज़िम्मेदारी दी जाये। इन दो महीनों में इन महोदय का सारा खेल समझ में आ चुका था। काम में इनकी कोई रुचि नहीं थी। टीम की महिला सदस्यों के आगे पीछे घूमना और फ़ालतू की बातें करना इनका पेशा था। शख्स के जैसे ये भी बोल बच्चन और काम शून्य।
मैं किसी तरह इसको टालता रहा। लेक़िन शख्स को जो कंट्रोल चाहिये था उसकी सबसे बड़ी रुकावट मैं था। मैं किसी भी विषय में निर्णय लेना होता तो बिना किसी की सहायता से ले लेता। अब अग़र उस ऑफिस का मुखिया मैं था तो ये मेरे अधिकार क्षेत्र में था। लेक़िन उनको ये सब नागवार गुजरता क्योंकि उनकी पूछपरख कम हो जाती।
जैसी उनकी आदत थी, वैसे वो मेरे बारे में मेरे अलावा पूरे ऑफिस से बात करते और अपना दुखड़ा रोते। एक दो बार वो आये भी नये ऑफिस में और मुझे अपनी तरफ़ रखने के लिये सब किया। लेक़िन मुझे ऐसे माहौल में काम करने की आदत नहीं थी और न मैंने वो चीज़ इस नये ऑफिस में आने दी थी। हमारी एक छोटी सी प्यारी सी टीम थी और सब एक अच्छे स्वस्थ माहौल में काम कर रहे थे।
अंदाज़ नया खेल पुराना
तब तक इस शख्स का भी संयम जवाब दे रहा था। उन्होंने नया पैंतरा अपनाया और अब व्हाट्सएप में जो ग्रुप था वहाँ मेसेज भेजते और वहीं खोज ख़बर लेते। इसके लिये भी मैंने उनको एक दो बार टोका। जब नहीं सुना तो मैंने भी नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया। काम हो रहा था और सबको अपना काम पता था। लेक़िन उनको परेशानी ये थी कि दूसरे शहर में हम लोग क्या कर रहे थे उनको इसका पूरा पता नहीं मिलता।
मेरे वरिष्ठ सहयोगी को मैंने बोल रखा था अग़र कोई बात तुम्हें मुझसे करनी हो या मुझे तुमसे तो सीधे बात करेंगे। बाक़ी ऊपर वालों को मैं संभाल लूँगा।
आज जब सब वर्क फ्रॉम होम की बात करते हैं और इसके गुण गाते हैं तो मुझे याद आता है दो साल पहले का वो दिन। हुआ कुछ ऐसा की जिस सदस्य की रात की ड्यूटी थी उसको किसी कारण अपने गृहनगर जाना पड़ा। मुझे पता था और मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं थी कि वो काम दुनिया के किस हिस्से से हो रहा था। काम हो रहा था ये महत्वपूर्ण था।
ऑफिस में शख्स को ये बात पता चली और कुछ दिनों में वो साक्षात दर्शन देने आ गये। उन्होंने सबकी क्लास ली और कड़ी चेतावनी दी कि अब से लैपटॉप से आपकी लोकेशन भी ट्रैक की जायेगी। मेरे समझाने का कोई फायदा नज़र नहीं आ रहा था। उसपर से शीर्ष नेतृत्व ने कहीं से एक स्टडी निकाली जिसके मुताबिक़ घर से काम करने से फ़ायदा कम और नुकसान ज़्यादा था। आज पता नहीं उस स्टडी का क्या हाल होगा।
दोस्त के नाम पर…
शख्स जैसा व्यक्ति मैंने आज तक नहीं झेला था। वो सोशल मीडिया पर टीम के सदस्यों को अपना दोस्त बनाते और उसके बाद उनकी जासूसी करते। मसलन कौन कहाँ घूमने गया है, उसके साथ कौन है और कौन किसकी कौनसी फ़ोटो को लाइक कर रहा है। ये सब करने के बाद वो बताते फलाँ का चक्कर किसके साथ चल रहा है। आप कंपनी के बड़े अधिकारी हैं, काम की आपके पास कमी है नहीं। इन सब में क्यों अपना टाइम बर्बाद कर रहे हैं? उसके बाद जब वो ये कहते कि वो रात को फलाँ धर्मगुरु का उपदेश सुनकर ही सोते हैं तो लगता गुरुजी को पता नहीं है उनके शिष्य कितने उच्च विचार रखते हैं।
शिकंजा धीरे धीरे कसता जा रहा था। इसी सिलसिले में कंपनी ने एक और अधिकारी की नियुक्ति करी अपने दूसरे ऑफिस से। मैं अक़्सर लोगों को पहचानने में ग़लती करता हूँ और इस बार भी वही हुआ। इस पूरे नये ऑफिस में सभी लोग बाहर के थे – मतलब कंपनी के नये मुलाज़िम थे। कंपनी को अपना के संदेशवाहक रखना था और वो ये साहब थे।
ये साहब ने भी गुमराह किया कि वो इस ऑफिस में काम करने वालों के हितेषी हैं लेक़िन उन्होंने भी अपनी पोजीशन का भरपूर फ़ायदा उठाया, कंपनी के नियमों की धज्जियां उड़ाईं और खूब जम के राजनीति खेली।
एक दिन शख्स का फ़िर फोन आया और वो महोदय की पैरवी करने लगे। उनको वो टीम में एक पोजीशन देना चाहते थे और अभी भी मैं उसके ख़िलाफ़ था। उन्होंने मेरे कुछ निर्णय पर भी सवाल उठाने शुरू किये और एक दिन हारकर मैंने उन्हें वो तोहफा दे दिया जिसका उन्हें एक लंबे समय से इंतज़ार था। अगर भविष्य में ये शख्स किसी बड़ी देसी या विदेशी कंपनी के बडे पद पर आसीन हो जायें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। और जिस दिन ये होगा उस दिन से वो कंपनी बर्बाद होना शुरू हो जायेगी।
इस कंपनी के लगभग एक वर्ष बहुत ही यादगार रहे। बहुत सी कड़वी यादें थीं तो कुछ मीठी भी। नौकरी बहुत महत्वपूर्ण होती है लेक़िन उस नौकरी का क्या फ़ायदा जो आपको चैन से सोने भी न दें। सीखा वही जो इससे पहले सीखा था – कॉरपोरेट में कोई किसी का सगा नहीं होता।
मीडिया कीचड़ है
मीडिया इंडस्ट्री नई तकनीक के साथ आगे तो बहुत निकल गया लेक़िन इंसानियत में बहुत पीछे चला गया है। लोगों को कम तन्ख्वाह देना और उनका ख़ून चूस लेना जैसे एक नियम से है। ये सभी पर लागू नहीं होता लेक़िन अधिकतर संस्थायें ऐसी ही हैं। उसपर भाई भतीजावाद भी जम कर चलता है। आप का \’दूसरा\’ टैलेंट आपका भविष्य तय करता है। ऐसे दमघोंटू माहौल में जो रह जाते हैं और काम कर पाते हैं और बाकी लोगों जैसे नहीं बनते उनको मेरा नमन। ये मेरी ही कमी है की मुझे काम के अलावा और कुछ, जैसे चापलूसी, राजनीति करना या लोगों का शोषण करना, नहीं आता। जिनके साथ मैंने काम किया है वो शायद इससे भिन्न राय रखते होंगे। उनसे मेरा सिर्फ़ इतना कहना है वो ये पता करलें जो मेरे साथ थे वो सब इस समय कहाँ हैं। जवाब इसी में है।
अपने काम करने के तीन वर्ष मेरे लिये बहुत ही कष्टदायक रहे। अगर इसमें मेरे काम की गलती होती तो मैं मान भी लेता। लेक़िन इतनी घटिया राजनीति और उससे भी घटिया मानसिकता वाले लोगों और मालिकों के साथ काम किया है की अब उनसे दूर रहना ही बेहतर है। पहले लगता कुछ नहीं बोलना चाहिये काहे को अपने लिये परेशानी खड़ी करना। लेक़िन फ़िर लगता अगर किसी को काम करना होगा तो वो काम करने की काबिलियत देखेगा। बाक़ी चीजों के लिये मैं सही कैंडिडेट नहीं हूँ।
जिस दिन मैं चुपचाप ऑफिस से और उसके बाद शहर से निकला तो बहुत दुखी था। टीम के साथ बहुत सारे काम करने का सपना था। लेक़िन बहुत से अधूरे सपने लेकर वापस घर आ रहा था और मेरे लिये यही सबसे बड़ा सुकून था।
ये भी गुज़र जायेगा। आप इसे उम्मीद कहें या आशा, हमारे जीवन में इसका एक बहुत ही बड़ा रोल होता है। जैसे अभी इस कठिन दौर में ही देखिये। सबने सरकार से उम्मीद लगा रखी है और ऐसे में जब उम्मीद पर कोई खरा न उतरे तो दुख होता है।
ये तो बात हुई सरकार की। लेकिन हम अपने आसपास, अपने परिवार, रिश्तेदारों में ही देखिये। सब कुछ न कुछ उम्मीद ही लगाये बैठे रहते हैं। जब बात ऑफिस की या आपके सहयोगियों की आती है तो ये उम्मीद दूसरे तरह की होती हैं और अगर कोई खरा नहीं उतरता तो बुरा भी लगता है और अपने भविष्य की चिंता भी।
पिछले दिनों मेरे एक पुराने सहयोगी से बात हो रही थी नौकरी के बारे में। ऐसे ही बात निकली कैसे लोग अपनी ज़रूरत में समय आपको भगवान बना लेते हैं और मतलब निकलने पर आपकी कोई पूछ नहीं होती। ये सिर्फ़ नौकरी पर ही लागू नहीं होता मैंने निजी जीवन में ऐसे कई उदाहरण देखे हैं। इससे संबंधित मैंने अपना अनुभव साझा भी किया उनके साथ। बात खत्म हो गयी लगती थी।
लेकिन पिछले दो दिनों से डिप्रेशन के विषय में बहुत सारी कहानियां पढ़ी। ये मनगढ़ंत नहीं बल्कि लोगों की भुगती हुई बातें थीं। आज फ़ेसबुक पर नज़र पड़ गयी और मैंने एक पोस्ट पढ़ना शुरू किया। जैसे जैसे पढ़ता गया लगा मेरे ही जैसे कोई और या कहूँ तो लगा मेरी आपबीती कोई और सुना रहा था। सिर्फ़ जगह, किरदार और इस समस्या से उनके निपटने का अंदाज़ अलग था। उनके साथ ये सब उनके नये संपादक महोदय कर रहे थे और मैं एक संपादक कंपनी के मैनेजमेंट के हाथों ये सब झेल रहा था।
इस बारे में मैंने चलते फ़िरते जिक्र किया है लेक़िन मुझे पता नहीं क्यों इस बारे में बात करना अच्छा नहीं लगा। आज जब उनकी कहानी पढ़ी तो लगा अपनी बात भी बतानी चाहिये क्योंकि कई बार हम ऐसे ही बहुत सी बातें किसी भी कारण से नहीं करते हैं। लेक़िन अब लगता है बात करनी चाहिये, बतानी चाहिये और वो बातें ख़ासकर जो सिर्फ़ और सिर्फ़ अच्छाइयों के बारे में न हों।
चक्र की शुरुआत
साल 2014 बहुत ही बढ़िया रहा। टीम ने बेहतरीन काम किया था। चुनाव का कवरेज बढ़िया रहा। कुल मिलाकर एक अच्छे दौर की शुरुआत थी।आनेवाले दो साल भी ठीक ठाक ही गुज़रे। ठीक ठाक ऐसे की जब आप अच्छा काम करके एक मक़ाम पर पहुँच जाते हैं तो आपसे उम्मीद बढ़ जाती है। आप भी एक नशे में रहते हैं और जोश खरोश से लगे रहते हैं। ये जो प्रेशर है ये आपकी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाता है और साथ में दे देता है आपको कई बीमारियों की सौग़ात बिल्कुल मुफ्त। आप उस समय एक अलग दुनिया में होते हैं। पैसा भी होता, नाम भी और शोहरत भी। मेरी टीम हार जगह अव्वल आ रही थी। लेक़िन इसके यहाँ तक पहुंचने की मैंने एक कीमत अदा करी थी जिसका खुलासा 2016 में डॉक्टर ने किया।
मुझे याद है इस समय मेरी टीम में कई नये सदस्यों का आना हुआ। हमने और अच्छा काम किया। मुझे बाक़ी टीम से बात करने को कहा जाता की अपना फॉर्मूला उनके साथ साझा करूं। लेक़िन मेरे पास कोई फॉर्मूला नहीं था। मेरे पास सिर्फ़ टीम थी और उनपर विश्वास की कुछ भी हो सकता है। मेरी टीम में इतना विश्वास देख मेरे एक वरिष्ठ ने चेताया भी की ये कोई तुम्हारे साथ नहीं देंगे। तुम पीठ दिखाओगे और ये तुम्हारी बुराई शुरू कर देंगे। मुझे इससे कोई ख़ास फर्क़ नहीं पड़ता था (ये झूठ है ये मुझे बाद में समझ आया).
ख़ैर 2016 में कंपनी बदलाव के दौर से गुज़र रही थी। सीनियर मैनेजमेंट के सभी लोगों ने नौकरी छोड़ दी थी और नये लोगों की तलाश शुरू थी। ये जो नये महानुभाव आये ये दरअसल इसी कंपनी के पुराने मुलाज़िम थे और इन्हें अब एक वरिष्ठ अधिकारी बनाकर लाया जा रहा था। मैं इनके साथ पहले काम कर चुका था जब ये पहले कंपनी का हिस्सा थे। जब पता चला कौन होगा नया बंदा तो लगा अच्छा है। मैं कितना ग़लत था ये आनेवाले दिनों में मुझे पता चला।
बदले बदले से मेरे सरकार नज़र आते हैं
इन महानुभाव के आने के बाद बदलाव धीरे धीरे होने लगे। चूँकि मेरी टीम सबसे बड़ी थी तो शुरआत हुई कुछ और सीनियर लोगों को रखने से। मुझसे कहा गया की ये मेरे सहयोगी ही होंगे और टीम अच्छे से मैनेज हो पायेगी। इन्होंने जेफ़ बेजोज़ की पिज़्ज़ा थ्योरी का भी उदाहरण दिया। इस तरह से पहले सहयोगी आ गये। अच्छा इन सबके लिये जो भर्ती हो रही थी उसमें मेरा कोई रोल नहीं था। मतलब वो लोग जो मेरे साथ काम करनेवाले थे उनका इंटरव्यू मैंने लिया ही नहीं। न मुझे उनके बारे में कोई जानकारी दी गयी।
इसके बाद दूसरे सज्जन की भर्ती की बात होने लगी। इन के साथ महानुभाव ने पहले काम किया था। चूँकि किसी कारण से उन्हें भी वो नौकरी छोड़नी पड़ी तो महानुभाव कि मानवता जगी हुई थी। इनको भी रख लिया गया। अब जो इनके पहले सज्जन थे वो ये दूसरे महापुरुष के आने से काफी विचलित थे। वो रोज़ मुझे सुबह सुबह फ़ोन करके इन महापुरुष की गाथाएं सुनाते।
ख़ैर। अब दोनों आ गये थे तो काम का बंटवारा होना था। पहले सज्जन को एक भाषा दे दी गई और दूसरे महापुरुष को राष्ट्रीय भाषा का दायित्व दिया गया। बस एक ही मुश्किल थी – महापुरुष ने इस भाषा में कभी कुछ किया नहीं था। लेकिन ये पूरा ट्रेलर था और फ़िल्म अभी बाकी थी। मुझे बहुत कुछ समझ आ रहा था और ये स्क्रिप्ट में क्या होने वाला है ये भी।
जब महानुभाव से मिलता तो पूछता मेरे लिये कोई काम नहीं बचा है। वो कहते बाकी दो भाषायें हैं उनके बारे में सोचो और स्पेशल प्रोजेक्ट पर ध्यान दो। तुम संपादक हो। इन सबमें क्यों ध्यान दे रहे हो। तुम स्ट्रेटेजी बनाओ। धीरे धीरे खेल का अंदाज़ा हो रहा था।
प्लान B
अगर पहले मेरे पास 20 काम थे तो 18 मुझसे ले लिये गये और दो रहने दिये। अब काम करना है तो करना है तो जो बाक़ी दो बचे थे उसमें भी अच्छा काम हो गया और सबकी अपेक्षाओं के विपरीत परिणाम रहे।
इस पूरे समय जो अंदर चल रहा था उसको समझ पाना थोडा मुश्किल हो रहा था। टीम का हर एक सदस्य किसी भी भाषा का हो मेरे द्वारा ही चयनित था। इसमें से बहुत बड़ी संख्या में लोगों का पहला जॉब था। अचानक उनसे बात बंद और कभी कभार बातचीत का मौका मिलता। पहले अजीब सा लगा लेक़िन मैंने भी जाने दिया क्योंकि आफिस में मैं किसी कैम्प में नहीं था। शराब पीने का कोई शौक़ नहीं था और अगर कभी पार्टी में दोस्त मिले तो बात अलग। महानुभाव को इन सबकी बहुत आदत थी। उनके साथ चंद लोगों का ग्रुप रहता था और मुझे न उसका हिस्सा बनने की कोई ख्वाहिश थी न कोई मलाल। ये उनके घर के पास रहते थे और लगभग हर हफ़्ते मिलते। मुझे इन सबसे वैसे ही कोफ़्त होती और खोखले लोगों से सख्त परहेज़। लेकिन इनकी अपनी एक दुनिया थी और उसमें ये सब साथ, बहुत खुश और बहुत कामयाब भी।
दिसंबर 2016 में टीम के साथ एक पार्टी थी। ये एक लंबे समय से टल रही पार्टी थी और कभी किसी न किसी के रहने पर टलती जा रही थी। आखिरकार दिन मुक़र्रर हुआ लेक़िन इत्तेफाक ऐसा हुआ की महानुभाव ने उसी दिन दूसरे शहर में मेरी ही दूसरी टीम के साथ पार्टी रखी थी। काम के बंटवारे के चलते उनकी पार्टी में एक बंदा नहीं जा पाया और उनको पता चला की मुम्बई की मेरी टीम पार्टी कर रही है इसके लिये उसको आफिस में रहना होगा।
दूसरे दिन महानुभाव ने मेरी पेशी लगाई। दरअसल वो बहुत समय से किसी मौके की तलाश में थे कि कैसे मुझे रास्ते से हटाया जाये। इस घटना के बाद उनकी ये मंशा उन्हें लगा पूरी होगी। लेकिन बात थोड़ी गड़बड़ ऐसे हो गयी की उनको लगा की पार्टी कंपनी के पैसे से हुई थी। जब मैंने कहा की ये मेरे तरफ़ से दी हुई पार्टी थी तो उन्होंने टीम के सदस्यों के ख़िलाफ़ एक्शन लेने की बात करी। मैने उनसे कहा कि अगर ऐसा है तो मुझसे शुरू करें और अपना त्यागपत्र भेज दिया।
महानुभाव ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं करी लेकिन उन्होंने पता ज़रूर लगाया कि जो मैंने कहा था उसमें कितनी सच्चाई थी। बाद में पता चला की इस घटना के कुछ दिनों बाद मेरे त्यागपत्र को मंज़ूर करने की सोची। लेक़िन उन्हें ऐसा नहीं करने की सलाह दी गई। मुझे भी साथ में सलाह दी गयी की मैं अपना त्यागपत्र वापस ले लूँ लेक़िन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।
अभी तो पार्टी शुरू हुई है
अब ऑफिस जाने का मतलब हुआ करता था टाइम पास। काम न के बराबर था। मैनेजमेंट शायद ये सोच रहा था की बंदे को काम ही नहीं देंगे तो झकमारकर खुद ही नौकरी छोड़ देगा। लेकिन हम भी ढीठ ठहरे। निकालना हो तो निकालो हम नहीं जानेवाले।
इसी दौरान कहानी में एक और ट्विस्ट आया। महानुभाव ने अपनी पता नहीं किस कला से विदेश में पोस्टिंग पा ली। मतलब अब कोई औऱ आनेवाला था टार्चर करने के लिये।
जैसा कि हमेशा किसी भी बदलाव के साथ होता है, पहले से ज्ञान दिया गया कुछ भी नहीं बदलेगा। सब वैसे ही चलेगा। लेक़िन मालूम था ये सब बकवास है और आने वाले दिन और मज़ेदार होने वाले हैं। मज़ेदार इसलिये क्योंकि मेरे पास खोने के लिये कुछ बचा नहीं था। 70-80 की टीम में से अब सिर्फ़ शायद दो लोग मेरे साथ काम कर रहे थे। बाक़ी बात करने से कतराते थे। अब था सिर्फ़ इंतज़ार। कब तक मैं या दूसरी पार्टी खेलने का दम रखती थी।
जल्द ही वो दिन भी आ गया। नहीं अभी और ड्रामा बाकी था। नये महाशय ने मेल लिखा पूरी टीम को। बहुत से बदलाव किये गये थे। जिन राष्ट्रीय भाषा वाले महाशय का मैंने ज़िक्र किया है ऊपर, अब वो मेरे बॉस बन गये थे। मुझे उनको रिपोर्ट करना था और अपने काम का लेखा जोखा उनको देना था। जिस वेबसाइट को मैंने शुरू किया, जिसको टीम के साथ नई ऊचांइयों तक पहुंचाया की वो एक ब्रांड बन गयी, उसका मैं संस्थापक संपादक रहा और अब मुझे किसी और को रिपोर्ट करना था। उसको जो कभी मेरे नीचे काम कर रहा था। जुलाई की उस शाम मुझे उतना बुरा तब नहीं लगा जितना तब लगा जब मेरी एक टीम मेंबर मेरे पास आकर रोने लगीं। कहने लगीं आपके साथ ये लोग ठीक नहीं कर रहे। ख़ैर मैंने उनको समझाया लेक़िन उस बहाने शायद अपने आप को भी समझाया। ये बहुत ही कष्ट वाला दिन था।
अपना ढीठ पना तब भी दिखाया और अपने नये बॉस से काम माँग कर किया। काम करने में कोई परहेज तो था नहीं इसलिये जो मिला कर लिया। महाशय ने छोटी मोटी स्टोरीज़ लिखने को दीं और मैंने लिख भी दीं। मुम्बई में बारिश के चलते मैंने ऑफिस जाने में असमर्थता बताई तो दरियादिली दिखाते हुये महाशय ने घर से काम करने की आज्ञा दी।
और फ़िर…
महीने के आख़िरी दिन मुझे कंपनी की HR का फ़ोन आया। नहीं शायद मैसेज था ये पूछने के लिये की मैं आज ऑफिस कब आनेवाला हूँ। मैंने जवाब में उनसे पूछा की क्या कंपनी का सामान लौटाने का समय आ चुका है। उन्होंने कहा हाँ और मुझे अपना त्यागपत्र भेजने को कहा। जिस दिन ये सब चल रहा था ठीक उस दिन मैंने घर शिफ़्ट किया था। नये घर में सामान आ ही रहा था जब ये शुभ समाचार आया।
इस तरह के अंत की मुझे उम्मीद तो नहीं थी। लेक़िन ऑफिस से निकाले जाने वाली ट्रेजेडी से बच गया। 2014-2017 तक का जो ये सफर रहा इसमें शिखर बहुत ज़्यादा रहे। हर सफ़र का अंत होता है तो इसका भी हुआ। बस महानुभाव, महाशय जैसे किरदारों को ये मौका नहीं मिला कि वो मुझे सामने से जाने को कहें और शायद ये मेरी लिये सांत्वना है। मैंने बहुत सारे किस्से सुने हैं कैसे लोगों को लिफ्ट में घुसने नहीं दिया या उनका पंच कार्ड डिसएबल कर दिया। कई दिनों नहीं कई महीनों तक मैं बहुत ही परेशान रहा। क्या वो डिप्रेशन था? मुझे नहीं पता लेक़िन मेरे लिये वो महीने बहुत मुश्किल थे। वो तो मेरे परिवार से संवाद ने इसको बड़ी समस्या नहीं बनने नहीं दिया।
इसके कुछ दिनों बाद ही मुझे विपश्यना के कोर्स करने का मौका मिल गया और शायद संभलने का मौका भी। लेक़िन अंदर ही अंदर ये बात खाती रहती की सब अच्छा चल रहा था और कितना कुछ करने को था। मुझे ये भी समझ में नहीं आ रहा था क्यों मैंने सब इतनी आसानी से जाने दिया? क्यों मैंने लड़ाई नही लड़ी। लेक़िन कुछ लोगों के चलते सब ख़त्म हो गया। और उस टीम का क्या? उन्हें ढ़ेर सारी शुभकामनाएं। मुझे मेरा सबक मिल गया। लेक़िन अभी एक औऱ सबक मिलना बाकी था।
ऐसा कितनी बार होता है जब हम किसी से मिलते हैं, किसी जगह जाते हैं या कोई फ़िल्म देखते हैं, लेकिन हम सबकी राय अलग अलग होती हैं। जैसे मैं किसी से मिला तो मुझे वो व्यक्ति बहुत अच्छा लगा लेक़िन कोई और उस व्यक्ति से मिला तो उसकी राय बिल्कुल विपरीत।
जब बात फ़िल्म की आती है तो ऐसा अक्सर होता है की आपको कोई फ़िल्म बिल्कुल बकवास लगी हो लेक़िन आपको ऐसे कई लोग मिल जायेंगे जिन्हें वो अब तक कि सबसे बेहतरीन फ़िल्म लगी हो। राय में 19-20 का अंतर समझ में आता है लेक़िन यहाँ तो बिल्कुल ही अलग राय है, बिल्कुल उल्टी राय है। तो अब ऐसे में क्या किया जाये? फ़िल्म देखी जाये या लोगों की राय मानकर छोड़ दी जाये?
फ़िल्मी बातें
चूँकि बात फिल्मों की चल रही है तो मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा। फ़िल्म थी ठग्स ऑफ हिंदुस्तान। आमिर खान की फ़िल्म थी और पहली बार वो अमिताभ बच्चन जी के साथ थे। इसलिए देखने की इच्छा तो बहुत थी। लेक़िन फ़िल्म की रिलीज़ से दो दिन पहले से ऐसी खबरें आनी शुरू हो गईं की फ़िल्म अच्छी नहीं बनी है और बॉक्स ऑफिस पर डूब जायेगी।
फ़िल्म रिलीज़ हुई और पहले दिन सबसे ज़्यादा कमाई वाली हिंदी फिल्म बनी। लेक़िन उसके बाद से कमाई गिरती गयी और फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर वो क़माल नहीं दिखाया जो उम्मीद थी। लेक़िन क्या फ़िल्म वाक़ई में इतनी ख़राब थी? लोगों की माने तो ये सही था। फ़िल्म की कमाई भी यही दर्शा रही थी।
मैंने फ़िल्म लगभग ख़ाली सिनेमाघर में देखी थी। लेक़िन फ़िल्म मुझे और मेरे साथ जो बच्चों की फ़ौज गयी थी, सबको अच्छी लगी। लेक़िन एक बहुत बडी जनता ने इन खबरों को माना औऱ फ़िल्म देखने से परहेज़ किया।
एक समय था जब मैं भी फिल्मों के रिव्यु पढ़कर ये निर्णय लेता था कि फ़िल्म देखनी है या नहीं। अब निर्णय रिव्यु से ज़्यादा इस पर निर्भर करता है की कहानी क्या है। अगर ज़रा भी लगता है की फ़िल्म कुछ अच्छी हो सकती है तो फ़िल्म देख लेते है। फ़िल्म ख़राब ही निकल सकती है लेक़िन अगर वो अच्छी हुई तो?
ऐसे ही इस साल की शुरुआत में कोरियन फ़िल्म पैरासाइट आयी थी। जिसे देखो उसकी तारीफ़ के क़सीदे पढ़े जा रहा था। किसी न किसी कारण से फ़िल्म सिनेमाघरों से निकल गयी और मेरा देखना रह गया। उसके बाद फ़िल्म ने ऑस्कर जीते तो नहीं देखने का और दुख हुआ। जब आखिरकार फ़िल्म प्राइम पर देखने का मौका मिला तो समझ ही नही आया कि इसमें ऐसा क्या था की लोग इतना गुणगान कर रहे थे। उसपर से ऑस्कर अवार्ड का ठप्पा भी लग गया था। लेक़िन फ़िल्म मुझे औसत ही लगी। आपने अगर नहीं देखी हो तो देखियेगा। शायद आप की राय अलग हो।
फ़िल्म vs असल जिंदगी
अगर बात फ़िल्म तक सीमित होती तो ठीक था। लेक़िन जब आप लोगों की बात करते हैं तो मामला थोड़ा गड़बड़ हो जाता है। बहुत ही कम बार ऐसा होता है जब सबकी नहीं तो ज़्यादातर लोगों की राय लगभग एक जैसी हो।
फिल्मों से अब आते हैं असली दुनिया में जहाँ लोगों को भी ऐसे ही रफा दफा किया जाता है या उनके गुणगान गाये जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में जो याद रखने लायक बात है वो ये की आपकी व्यक्तिगत राय मायने रखती है। सोशल मीडिया पर मैं ऐसे कई लोगों को जनता हूँ जिनके ढ़ेर सारे फॉलोवर्स हैं। सब उन्हें बेहद प्यार करते हैं लेक़िन उनका एक दूसरा चेहरा भी है जो ज़्यादा लोगों ने नहीं देखा है।
शुरुआती दिनों में जो मेरे बॉस थे मेरा उनके साथ काम करने का अनुभव बहुत ही यादगार रहा। लेक़िन मेरे दूसरे सहयोगी की राय मेरे अनुभव से बिल्कुल उलट। उन्होंने मुझे ये बताया भी लेक़िन न तो मैं उनके बुरे अनुभव से या वो मेरे अच्छे अनुभव से राय बदलने वाले थे।
हम अक़्सर जब तक किसी से मिलते नहीं हैं तो उनके बारे में सुन सुनकर अपनी एक धारणा, अच्छी या बुरी, बना लेते हैं। लेक़िन सच्चाई तो तभी पता चलती है जब उनसे मिलते हैं। बहुत बार जैसा सुना होता है इंसान वैसा ही निकलता है। कई बार उल्टा भी होता है। इसके लिये जरूरी है की हम उस व्यक्ति को दूसरे के अनुभवों से न देखें या परखें। हम ये देखें उनका व्यवहार हमारे साथ कैसा है।
लोगों का काम है कहना
एक और फ़िल्मी उदाहरण के साथ समझाना चाहूँगा। फ़िल्म मिली में अमिताभ बच्चन के बारे में तरह तरह की बातें होती हैं जब वो उस सोसाइटी में रहने आते हैं। सब उन्हें अपने नज़रिये से देखते हैं और उनके बारे में धारणा बना लेते है। यहीं तक होता तो ठीक था। लेक़िन यही सब बातें सब करते हैं और उनकी एक विलेन की छवि बन जाती है। लेक़िन जब जया बच्चन उनसे मिलती हैं तो पता चलता है वो कितने संजीदा इंसान हैं।
पिछले दिनों फ़ेसबुक पर किसी ने पूछा की सबसे दर्द भरा गीत कौनसा लगता है। मैंने अपनी पसंद लिखी लेक़िन मुझे एक जवाब मिला कि वही गीत उनके लिये बहुत अच्छी यादें लेकर आता है। गीत वही, शब्द वही लेक़िन बिल्कुल ही अलग अलग भाव महसूस करते हैं।
अग़र सबके अनुभव एक से होते तो सबको शांति, प्यार और पैसा एक जैसा मिलना चाहिये। लेक़िन जिस शेयर मार्केट ने करोड़पति बनाये, उसी शेयर बाजार ने लोगों को कंगाल भी किया है। अगर किसी को किसी धर्म गुरु के द्वारा शांति का रास्ता मिला है तो किसी को लोगों की निस्वार्थ भाव से सेवा करके। सबके अपने अनुभव हैं जो अलग हैं और यही इनकी खूबसूरती भी है।
सुनी सुनाई बातों पर यक़ीन न करें। अपनी धारणा अपने अनुभव के आधार पर बनाये।
कई बार हम लोग किसी मुसीबत में होते हैं और किसी मदद की उम्मीद करते हैं। आपको लगता है वो व्यक्ति जिसके लिये आपने क्या क्या नहीं किया वो आपकी मदद ज़रूर करेगा। फ़िर परिस्थियाँ ऐसी बनती हैं कि वो आपकी मदद नहीं कर पाता और आपको दो टूक शब्दों में बता भी देता है की वो कुछ नहीं कर सकता।
इसके विपरीत आप ऐसे किसी व्यक्ति से मिलते हैं जो आपको आश्वासन तो देता रहता है पर करता कुछ नहीं है। लेक़िन तब भी आपका मन ख़राब होता है पहले व्यक्ति से क्योंकि उसने साफ़ मना कर दिया लेक़िन दूसरे व्यक्ति के लिये आप ऐसी कोई भावना नहीं रखते क्योंकि उसने आपके अंदर आशा को जीवित रखा है।
उम्मीद की किरण
दोनों में से कौन सही है? मेरे लिये तो पहला व्यक्ति सही है क्योंकि उसने सच तो कहा। झूठी उम्मीद तो नहीं दिखाई। ये कहने के लिये भी हिम्मत चाहिये विशेषकर तब जब कोई आपसे उम्मीद लगाये बैठा हो। कोई मुझे ये कहे तो दुख तो ज़रूर होगा। लेक़िन वो उस व्यक्ति से लाख गुना बेहतर है जो कहता है चलिये देखते हैं। कई बार दूसरा वाला व्यक्ति भी सही होता है। कैसे?
लेखक ओ हेनरी की कहानी द लास्ट लीफ़ (आखिरी पत्ती) आपने शायद पढ़ी हो या देखी हो। एक बीमार लड़की ने अपनी जीवन की साँसें उसकी खिड़की से दिखने वाले एक पेड़ से जोड़ दी हैं और उसका ऐसा मानना है की जिस दिन आख़िरी पत्ती गिरेगी उस दिन उसका जीवन भी समाप्त हो जायेगा। उसके घर के करीब रहने वाला एक पेंटर जो अपनी मुश्किलों में उलझा हुआ है, उस लड़की की खिड़की पर पत्ती पेंट करता है। जब आखिरी पत्ती गिरती नहीं है तो लड़की की कुछ उम्मीद बंधनी शुरू होती है और कुछ दिनों में वो ठीक हो जाती है।
मेरे जीवन में दो बार ऐसे क्षण आये जब मैंने लोगों से मदद माँगी। दोनों ही बार उन लोगों की संख्या ज़्यादा थी जिन्होंने कुछ किया ही नहीं। उनको मेल लिखा, फ़ोन किया और मैसेज भी। लेक़िन उन्होंने ये भी ज़रूरी नहीं समझा की वो उसका जवाब दें। बात करने की तो नौबत तक नहीं पहुंची।
मानवता सबसे पहले
मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है। लेक़िन अगर हम सामने वाले के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करें तो उससे ज़्यादा ग़लत बात क्या हो सकती है। ज़रूरी नहीं है की जो भी आपके पास मदद के लिये आये आप उसकी मदद कर ही पायें। कई बार सिर्फ़ उनको ज़रूरत होती है किसी की जो उनकी बातें सुने और उनकी हिम्मत बढ़ाये।
जिस कठिन समय से हम सब किसी न किसी रूप में साथ हैं, ऐसे में हमें ही एक दूसरे का साथ देना है। अगर आप किसी को जानते हैं या आपको उनकी परेशानी का अंदाज़ा है तो आप उनसे बात करिये।
बस हमें वो उम्मीद बंधानी है। ये भी गुज़र जायेगा। उन सभी को जिनसे हम मिलते हैं (या आने वाले दिनों में मिलेंगे) या बात करते हैं। अगर कोई आकर आपसे अपनी तक़लीफ़, परेशानी बताता है तो आप ये मानिये वो आप पर विश्वास करता है। उसके विश्वास का मान रखिये और उसको प्रोत्साहित करें कि वो इस मुश्किल में अकेले नहीं है। हर मदद पैसे से नहीं होती। किसी की तकलीफों के बारे सुनना भी मदद ही है।
धीरे धीरे सब सामान्य होता जायेगा और फ़िर एक दिन ऐसा भी आयेगा जब कोरोना सिर्फ़ एक याद बनकर रह जायेगा। लॉक डाउन और उस समय की कहानियाँ अतीत का हिस्सा बनकर रह जायेंगी। हमारे जीवन की सभी घटनाओं के साथ ऐसा ही होता आया है फ़िर वो चाहे कितनी भी अच्छी या कितनी ही दुख देने वाली ही क्यों न हों। लेकिन क्या ये लॉक डाउन इतनी जल्दी यादों में ही सिमट जायेगा?
यही ज़िन्दगी का संदेश है। शो मस्ट गो ऑन (ये तमाशा चलता रहना चाहिये). सभी ने पैदल चलते हुये हमारे श्रमिकों की फ़ोटो या वीडियो देखें हैं। चिलचिलाती गर्मी में माँ सूटकेस खींच रही है और बेटा उस पर सो रहा है या बिटिया पिताजी को सायकल पर बिठा कर गाँव तक पहुंच गई। ऐसी कई घटनाओं से चैनल, वेबसाइटें या समाचार पत्र भरे पडे हैं। इन सभी भाई, बहनों को भी सलाम और उनके जज़्बे को भी नमन। इतनी मुश्किलें झेलकर भी उन्होंने कहीं भी कानून व्यवस्था में कोई अड़चन डाली।
सामने हैं मगर दिखते नहीं
लेक़िन एक तबका जो सामने रहता भी है लेक़िन उसकी समस्याओं की अनदेखी हो जाती है वो है हमारा मध्यम वर्गीय परिवार। हम ऐसे कितने परिवारों को जानते हैं जो शायद श्रमिकों जितनी ही मुश्किलें झेल रहे हैं लेक़िन अपना दर्द बयां नहीं कर रहे? कई लोगों की नौकरी चली गयी है और आगे नौकरी जल्दी मिलने की संभावना भी नहीं के बराबर है। बहुत से लोगों की तनख्वाह कम हो गयी है। लेक़िन उनके बाक़ी खर्चे जैसे बच्चों की पढ़ाई, लोन की किश्त आदि में तो कोई कमी नही हुई है। कई को इन्हीं महीनों में नौकरी मिलना तय हुआ था। लेकिन अब कोई उम्मीद भी नहीं है।
कई प्राइवेट कंपनियों में अप्रैल-मई का समय आपके सालाना बोनस एवं प्रोमोशन का समय होता है। कर्मचारी बस इसी का इंतजार करते रहते हैं की इस बार उन्हें क्या मिल रहा है। पूरे वर्ष वो अपना अच्छे से अच्छा काम करते हैं और साल के आख़िर में उन्हें पता चलता है की उन्हें ये कुछ तो मिलेगा नहीं और नौकरी भी नहीं रहेगी। लेकिन आपको इनकी कहानी सुनने को नहीं मिलेगी। क्योंकि ये तबका इसे अपनी नियति मान चुका है। काम करो, ढ़ेर सारा टैक्स भरो और सुविधा एक नहीं। लेकिन ये तब भी पीछे नहीं हटते। जुटे रहते हैं क्योंकि उनको अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देनी है ताकि वो अच्छी नौकरी पा सकें। यही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य रहता है।
क्या हल है
तो क्या ग़रीबों को उनके हाल पर छोड़ दें? बिल्कुल नहीं। आप उनको जितनी सुविधाएं देना चाहते हैं दीजिये ताकि उनका जीवन और बेहतर हो और वो भी देश की प्रगति का हिस्सा बने। लेक़िन ज़रा उन लोगों के बारे में भी तो सोचिये जो कर तो भरते रहते हैं लेक़िन उनको सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं मिलता। मैं उनके लिये उनकी छत पर हेलिपैड बनवाने की बात नहीं कर रहा हूँ लेक़िन बुनियादी सुविधाएं। अच्छी सड़क, रहने की साफ सुथरी जगह, अच्छी शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं। इस पूरे कोरोना वायरस वाले घटनाक्रम से ये तो पता चलता है हमारी खामियाँ क्या हैं, कहाँ कुछ सुधारने की गुंजाइश है और कहाँ सब बदलने की। जो इस बार भी हम चूक गये तो…
वो जो चले गये उनके पास एक आसरा है, एक उम्मीद है। जो रह गये उन्हें नहीं पता उनकी जमापूंजी कितने दिनों तक चलेगी और उसके बाद क्या होगा। सच मानिये तो अभी तक हमको इसका आभास भी नहीं है की ये दो महीने कितनों की ज़िंदगी में एक ऐसा तूफ़ान लाया है जिसका असर वर्षों तक दिखेगा।
याद तो वो रह जाता है जो ख़त्म हो जाता है, इस पूरे घटनाक्रम को कई लोग अभी कई वर्षों तक जियेंगे। ये वो सफ़र है जो अभी शुरू भी नहीं हुआ है। निराश होने का विकल्प लेकर ही न चलें। सफ़र (अंग्रेज़ी वाला नहीं) का आनंद लें, मंज़िल की चिंता न करें। प्रयास करें अपने स्तर पर सुधार करने का। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं सोनू सूद। उनसे प्रेरणा लें और जो आप कर सकते हैं वो करें।
पत्रकारिता में जब शुरुआत हुई तो सभी चीजें नौकरी पर ही सीखीं। किसी संस्थान से कोई डिग्री, डिप्लोमा तो किया नहीं था, तो कैसे लिखने से लेकर, क्या लिखना, क्या नहीं लिखना ये सब सीखा। शुरुआत अखबार से करी थी तो ख़बर हमेशा जगह की मोहताज़ रहती थी। कभी जगह कम मिली तो बड़ी ख़बर छोटी हो जाती, लेकिन जब जगह ज़्यादा होती तो जैसे नासिर साब कहते, \”आज खुला मैदान है, फुटबॉल खेलो\”।
अख़बार में काम करते करते एक और चीज़ सीखी और जिसे प्रोफेशनल होने का लिबास पहना दिया – वो थी गुम होती सम्वेदनशीलता। उदाहरण के लिये जब किसी दुर्घटना की ख़बर आती तो पहला सवाल होता, फिगर क्या है। यहाँ फिगर से मतलब है मरने वालों की संख्या क्या है। अगर नंबर बड़ा होता तो ये फ्रंट पेज की ख़बर बन जाती है, अगर छोटी हुई तो अंदर के पेज पर छप जाती है या जैसे किसानों की आत्महत्या की खबरें होती हैं, छुप जाती हैं।
कुछ वर्षों पहले मुम्बई में मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी ने भी एक बार मुझे ये समझाया। \”लोगों को किसी दूसरे की ट्रेजेडी, दुख से एक अनकहा जुड़ाव रहता है। वो खुद दुखी होते हैं और यही हमारी सफलता है। तुम बस इसको समझ जाओ और इसको बेचो\”। उन्होंने कुछ गलत भी नहीं कहा था। 1984 में जब इंदिरा गांधी का निधन हुआ था तो उस समय उनके अंतिम संस्कार से लेकर बाकी सभी काम दूरदर्शन पर दिखाये जाते थे। उस दिन जब अस्थिसंचय का काम चल रहा तो शायद माँ ने टीवी बंद करने को कहा था। लेकिन मैंने बोला देखने दीजिये। पहली बार देख रहे हैं ये सब।
शायद ये सही भी होगा। अभी पिछले दिनों जब अभिनेता इरफ़ान खान और ऋषि कपूर जी की दुखद मृत्यु हुई तो सबने इसको बढ़चढ़ कर कवर किया। रही सही कसर उस बंदे ने पूरी करदी जिसने उनके अंतिम संस्कार के वीडियो बनाये और शेयर करने शुरू कर दिये। मुझे यकीन है इसको एक बड़ी जनता ने देखा भी होगा।
कोरोना वायरस के बाद ऐसी खबरों की जैसे बाढ़ आ गयी है। एक मोहतरमा भारत भ्रमण कर ऐसी खबरों का नियमित प्रसारण कर रही हैं। मुझे इन खबरों से कोई परहेज नहीं है। लोगों को परेशानी हो रही है और ये बताना चाहिये। लेक़िन क्या यही सब पत्रकार क्या अपने जानकारों के ज़रिये किसी भी तरह से इन लोगों की मदद नहीं कर सकते? सभी की मदद करना एक पत्रकार के लिये संभव नहीं होगा लेकिन वो किसी संस्था के ज़रिये ये काम कर सकते हैं। लेकिन किसी की ऐसी कहानी के ऊपर अपनी रोटियां सेंकना या अपने मालिकों के एजेंडे को आगे बढ़ाना कहाँ तक उचित है? अगर आपने Delhi Crime देखा हो तो उसमें एक पत्रकार पुलिस अफसर को बताती है की कैसे उनके संपादक महोदय ने दिल्ली पुलिस की नींद हराम करने की ठानी है। ये उनका एजेंडा है।
मेरा हमेशा से ये मानना रहा है की अगर आपको समस्या मालूम है तो समाधान की कोशिश करें। समस्या कितनी बड़ी है या छोटी है, उसके आकार, प्रकार पर समय न गवांते हुये उसका समाधान तलाशें। जब मेरा MA का पेपर छूट गया था तो समाधान ढूंढने पर मिल गया और मैंने साल गवायें बिना पढ़ाई पूरी करली। ऐसा कुछ खास नहीं हुआ लेक़िन ये एक अच्छी वाली फ़ील के लिये था।
तो क्या पत्रकार ही सब करदें? फ़िर तो किसी सरकार, अधिकारी की ज़रूरत नहीं है। नहीं साहब। लेकिन क्या आप हमेशा पत्रकार ही बने रहेंगे या कभी एक इंसान बन कर कोई मुश्किल में हो तक उसकी मदद करने का प्रयास करेंगे?
(इस फ़ोटो को देखने के बाद अपने को लिखने से रोक न सका)
कई बार ऐसा होता है की लिखने को बहुत कुछ होता है लेक़िन समझ नहीं आता क्या लिखें। मेरे साथ अक्सर ये होता है क्योंकि आईडिया की कोई कमी नहीं है बस विषय चुनने का मुद्दा रहता है। मैंने इससे बचने का अच्छा तरीक़ा ये निकाला कि लिखो ही मत तो कोई परेशानी नहीं होगी।
लेक़िन जब से 2017-18 से लिखने का काम फ़िर से शुरू किया है तब से ऐसा लगता है लिखो। जिन दिनों ये उधेड़बुन ज़्यादा रहती है उस दिन थोड़ा सा ध्यान देना पड़ता है। विचारों की उस भीड़ में से कुछ ढूंढना और फ़िर लिखने पर बहुत बार तो ये हुआ की पोस्ट लिखी लेक़िन मज़ा नहीं आया। उसे वहीं छोड़ आगे बढ़ जाते हैं। फ़िर कभी जब समय मिलता है तब ऐसी अधूरी पोस्ट पढ़कर खुद समझने की कोशिश की जाती है आख़िर क्या कहना चाह रहे थे। और हमेशा मैं ऐसी सभी पोस्ट को डिलीट कर देता हूँ।
आज भी मामला कुछ ऐसा ही बन रहा था। एक तरफ़ इरफ़ान खान जी के निधन से थोड़ा मन ठीक नहीं था, तो सोचा आज उनके बारे में लिखा जाये। लेक़िन फ़िर ये ख़्याल आया की क्या लिखूँ? ये की शादी के बाद श्रीमतीजी को जब पहली बार मुंबई आयीं थी उनको लेकर मेट्रो सिनेमा में उनकी फ़िल्म मक़बूल देखी थी और श्रीमतीजी को उस दिन मुझे किस तरह की फिल्में पसंद हैं इसका एक नमूना देखने को मिल गया था?
वैसे इसे एक इत्तेफाक ही कहूँगा की बीते कुछ दिनों से उनका ज़िक्र किसी न किसी और बात पर हो रहा था। जैसे मैं श्रीमतीजी से कह रहा था की उनकी फिल्म क़रीब क़रीब सिंगल देखनी है फ़िर से (इसका लॉक डाउन से कोई लेना देना नहीं है)। पहली बार देखी तो अच्छी लगी थी और उनका वो चिरपरिचित अंदाज़। फ़िल्म की स्क्रिप्ट और डायलाग भी काफ़ी अच्छे थे।
वैसे ही श्रीमती जी की एक मित्र ने मेरी एक काफ़ी पुरानी पोस्ट पढ़ कर उन्हें फ़ोन किया था। इत्तेफाक की बात तो ये है जिस पोस्ट का वो ज़िक्र कर रहीं थीं उसमें इरफ़ान जी के इंटरव्यू में उन्होंने क्या कहा था उसका ज़िक्र था।
पिछले दिनों एक बार और उनके बारे में बिल्कुल ही अजीब तरीक़े से पढ़ना हुआ। अजीब आज इसलिये लग रहा है और कह रहा हूँ क्योंकि आज वो नहीं हैं। दरअसल मैं पढ़ रहा था कंगना रानौत पर लिखी हुई एक स्टोरी पढ़ रहा था जो क़रीब दो साल पुरानी थी। उससे पता चला की जिस इंटीरियर डिज़ाइनर ने कंगना का मनाली वाला बंगला डिज़ाइन किया है उन्होंने उससे पहले इरफ़ान जी का मुम्बई वाला घर डिज़ाइन किया था। कंगना को वो पसंद आया और इसलिये उन्होंने उन डिज़ाइनर साहिबा की सेवाएँ लीं।
जैसा मेरे साथ अक्सर होता है मुझे ये जानने की उत्सुकता हुई की इरफ़ान जी का घर कैसा है। बस इंटरनेट पर ढूंढा और देख लिया और पढ़ भी लिया। इंटीरियर डेकोरेशन का मुझे कभी शौक़ हुआ करता था लेक़िन बाद में नये शौक़ पाल लिये तो वो सब छूट गया। लेक़िन उस दिन फ़िर से थोड़ी इच्छा जगी। अब श्रीमतीजी इसको कितना आगे बढ़ने देती हैं, ये देखना पड़ेगा।
आज जब इऱफान खान जी के निधन की ख़बर आयी तो ये बातें याद आ गयी। कुछ समय के लिये बहुत बुरा भी लगा। लेक़िन किसी चैनल पर कोई कह रहा था हमें उनके काम को, उनके जीवन को सेलिब्रेट करना चाहिये।
बस फ़िर क्या था। उनकी क़रीब क़रीब सिंगल टीवी पर चालू। योगी बने इरफ़ान खान और न जाने कितने किरदारों के ज़रिये वो हमेशा हमारे बीच रहेंगे। उनको कोई भी क़िरदार दे दीजिये उसमें वो अपने ही अंदाज़ में जान फूँक देते थे।
रामायण ख़त्म होने के बाद उत्तर रामायण शुरू हुआ है। जब ये पहले आया था तब पता नहीं क्यूँ, लेक़िन देखा नहीं था। शायद दोनों के बीच अंतराल था तो देखने का उत्साह ख़त्म हो गया था या उस समय इसका प्रसारण समय कुछ और रहा होगा। बहरहाल, कारण जो भी रहा हो तीस साल पहले उत्तर रामायण नहीं देखा था सो अब पूरे मग्न होकर तो नहीं लेक़िन बीच बीच के कुछ प्रसंग देखे जा रहे हैं।
पहले भी जब रामायण देखी होगी तो उसका कारण बहुत अलग रहा होगा। आज इसमें ज़्यादा ध्यान रहता है की क्या ग्रहण कर रहे हैं और शायद इसीलिये अब देखते हैं तो ध्यान देते हैं ज्ञान की बातों पर।
कल के एपिसोड में लक्ष्मण को ये जानकर बड़ा आश्चर्य होता है की उनके पिता, बड़े भाई राम और भाभी सीता को मालूम था की भविष्य में क्या होने वाला है। लेक़िन सब जानते हुये भी उन्होंने सब कुछ स्वीकार किया। ये जानते हुये भी की अगर वो चाहते तो इन सबको बदल सकते थे।
लक्ष्मण को ये बड़ा अजीब लगता है की अगर कोई भविष्य के बारे में जानता हो और तब भी कुछ न करे तो उसका क्या फायदा। राम उन्हें समझाते हैं की भविष्य के ज्ञान का कोई महत्व नहीं है। महत्व इस बात का है की व्यक्ति दुःख और सुख में तटस्थ रहता है या नहीं। होनी तो होगी ही लेकिन उसका सामना प्राणी किस प्रकार करता है ये महत्वपूर्ण बात है।
राम उदाहरण देते हैं अपने पिता दशरथ का जिन्हें भविष्य में क्या होने वाला है इसका पूरा ज्ञान था। लेक़िन तब भी उन्होंने अपने वचन का पालन किया और इसके लिये उन्हें अपने प्राण त्यागना पड़ा और यही उनकी महानता थी। वर्तमान का जो धर्म है, कर्तव्य है उसे निभाओ।
इससे पूर्व लक्ष्मण आर्यसुमंत से भी ऐसा ही वार्तालाप करते हैं। जब उन्हें पता चलता है की राजा दशरथ को पता था। आर्यसुमंत उन्हें समझाते हैं कि होनी को मान लेना चाहिये लेक़िन फ़िर इससे आगे जाने का मार्ग ढूँढना चाहिये। जिन्हें पता होता है क्या होने वाला है वो इसके मार्ग में हस्तक्षेप नहीं करते।
हम में से ज़्यादातर लोग इसको जानने के लिये उत्सुक रहते हैं कि भविष्य में क्या होने वाला है। लेकिन क्या किसी भी भविष्य वक्ता ने ये बताया था जो इस समय हो रहा है? मुझे तो ऐसे किसी की भविष्यवाणी पढ़ने को नहीं मिली।
मैं भी हर हफ़्ते बाकायदा अगले हफ़्ते में क्या होने वाला है, ज़रूर पढ़ता हूँ। और कुछ नहीं तो सिर्फ़ इसलिये की पढ़कर अच्छा लिखा हो तो अच्छा लगता है। लेक़िन मैंने ऐसे बहुत से लोग देखे हैं जो काल आदि देखकर अपना सारा काम करते हैं और ऐसे भी जो ये कुछ नहीं देखते और सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने काम पर विश्वास रखते हैं।
अक्सर दोस्ती ऐसे होती है की आपकी और आपके दोस्तों की कुछ पसंद मिलती हो। मतलब कोई एक ऐसी चीज़ होती है जो आपको साथ लाती है। वो आपके शौक़, कलाकार या कोई खेल। जैसे हिंदुस्तान में क्रिकेट खेलने वाले दोस्त न सही लेकिन जान पहचान की शुरुआत का ज़रिया तो बन ही जाते हैं।
अंग्रेज़ी का एक शब्द है vibe (वाइब)। मतलब? आप जब किसी से मिलते हैं तो उसका पहला इम्प्रेशन। कुछ लोग आपको पहली ही मुलाक़ात में पसंद आते हैं और कुछ कितनी भी बार मिल लीजिये, उनके बारे में अवधारणा नहीं बदलती। कुछ लोगों से पहली बार मिलकर ही आप को पता लग जाता है की ये कहाँ जानेवाला है या कहीं नहीं जानेवाला है।
फ़ेसबुक जहाँ सभी दोस्त हैं – आपका रिश्ता कुछ भी हो, अगर आप फ़ेसबुक पर हों तो आप फ्रेंड ही हैं। ठीक वैसे ही जैसे पहले फेसबुक पर कोई भी कुछ भी शेयर करे – अच्छा या बुरा आपके पास बस लाइक बटन ही क्लिक करने को था। वो तो पता नहीं किसने मार्क भाई को समझाया तब जाकर कुछ और इमोजी जोड़ी गईं। नहीं तो आप सगाई का ऐलान करें या अलग होने का सब को लाइक ही मिलते थे। ये आप पता करते रहिये की इसमें से किस लाइक का क्या मतलब है।
तो आज फ़ेसबुक की सैर पर देखा तो एक सज्जन ने बड़े प्यार से बताया की वो इन दिनों कौन सी किताब पढ़ रहे हैं। उनके ज़्यादातर दोस्तों ने तो किताब की बड़ाई करी और साथ में ये भी बताया की उस किताब ने उनके जीवन पर क्या प्रभाव डाला है। लेकिन एक दो लोगों ने इसके विपरीत ही राय रखी। एक सज्जन ने तो कई बार ये लिखा की ये एक बकवास किताब है और इसको न पढ़ा जाये तो बेहतर है।
उनका ये कहना था की उन्होंने अपने जीवन के पाँच वर्ष इस किताब को पढ़ कर और उसमें जो लिखा है उसका पालन करने में लगाये लेक़िन उन्हें निराशा ही हाथ लगी। उन्होंने लोगों को ये समझाईश भी दे डाली की इस किताब को छोड़ उन्हें दूसरी किताबें पढ़नी चाहिये।
इस पूरे मामले का ज़िक्र मैं इसलिये कर रहा हूँ की उन सज्जन का ये कहना की ये किताब अच्छी नहीं है हो सकता है उनके लिये बिल्कुल सही हो। लेक़िन क्या वो सबके लिये सही हो सकता है? मैं ये भी मानने के लिये तैयार हूँ की उनकी मंशा अच्छी ही रही होगी।
लेकिन जब बच्चे बडे हो रहे होते हैं तब माता पिता उनको जितना हो सके ज्ञान देते हैं। क्या गर्म है, क्या ठंडा ये बताते हैं लेकिन जब तक बच्चे एक बार गर्म बर्तन को छू नहीं लेते उनकी जिज्ञासा शांत नहीं होती है। ठीक उसी तरह मुझे इनकी समझाईश से परेशानी है। निश्चित ही वो अपने दोस्त का भला चाहते होंगे इसलिये उन्होंने अपना अनुभव साझा किया। लेकिन अगर ऐसे ही चलता होता तो हम आगे कैसे बढ़ेंगे? और हमारे अपने अनुभव न होंगे तो हमारे व्यक्तित्व का विकास कैसे होगा?
हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है हमारी गलतियाँ। छोटी या बड़ी कैसी भी हों वो हमें सीखा ज़रूर जाती हैं। बात तो तब है जब आप अपनी ग़लती माने और उसको सुधारें भी। यही मैं उन सज्जन को भी बताना चाहता हूँ।
लॉकडाउन शुरू हुआ तो बहुत से लोगों को ये लगा की ये एक स्वर्णिम अवसर है कुछ करने का। मेरा भी ऐसा ही मानना था – मेरे लिये नहीं क्योंकि मेरा रूटीन इससे पहले भी ऐसा ही था और इसमें कोई भी बदलाव नहीं हुआ है। लेकिन उन लोगों के लिये एक बड़ा बदलाव ज़रूर आया जिनको अब घर से काम करना पड़ रहा है। उनके पास थोड़ा ज़्यादा समय है जब वो कुछ और कर सकते हैं। मसलन कुछ नया सीख सकते हैं या कुछ नया कर सकते हैं या लिस्ट बना कर वो सारी वेब सीरीज़ देख लें जो किसी न किसी कारण से नहीं देख पाये थे।
इस \’कुछ करो अब तो टाइम भी है\’ कैंपेन के चलते जो नुकसान हुआ उसपर किसी की नज़र भी नहीं गयी। शायद मेरी भी नहीं। हम सभी जो ये ज्ञान दे रहे थे की कुछ और करो, नया सीखो, लिखो, पढ़ो, देखो के चलते बहुत से लोग इस अनावश्यक द्ववाब में भी आ गये। उसपर ऐसे मैसेज चलने लगे जो यही कह रहे थे कि अगर अब भी आपने कुछ नहीं किया तो धिक्कार है आपके जीवन पर।
लेक़िन ये उतना ही गलत था, है तब जब आप लॉक डाउन में नहीं थे। बल्कि इस समय ये और ग़लत है। कैसे?
जब सब कुछ ठीक ठाक था तब आप घर से बाहर निकल सकते थे। एक रूटीन था। हर चीज़ का समय बंधा हुआ था। उसमें आपके स्वास्थ्य की देखभाल भी शामिल था और आपकी हॉबी के लिये भी समय था। लेकिन अब सब बदल गया था। आपको अपना रूटीन घर के अंदर ही फॉलो करना है और उसपर घर के सभी काम भी करने हैं। निश्चित रूप से घर के सभी सदस्य इसमें योगदान कर रहे होंगे लेकिन अब वो समय की पाबंदी खत्म है।
मैं जब मुम्बई की भीड़ का हिस्सा था तो सुबह 7.42 की लोकल पकड़ना एकमात्र लक्ष्य रहता था। उसके लिये तैयारी करीब डेढ़ घंटे पहले से शुरू हो जाती थी। जब ये बाध्यता खत्म हो जाये तो? कुछ वैसा ही ऑफिस से वापस आने के समय रहता था। लेक़िन अब तो सब घर से है तो 6 बजे की मीटिंग अगर 7 बजे तक खिंच भी गयी तो क्या फ़र्क़ पड़ता है।
लेक़िन इसके चलते बाक़ी सभी काम का समय जो है वो उसी समय होना है। परिवार के अन्य सदस्य होंगे जिनका भी ख्याल रखना हैं। ये मान लेना की आप घर से काम कर रहे हैं तो आपके पास ज़्यादा समय होगा सबसे बड़ी ग़लती है। आपका ऑफिस जाने के समय में बचत ज़रूर हुई है लेक़िन आप घर से ज़्यादा काम करते हैं। उसपर घर के भी कुछ न कुछ काम रहते हैं।
दरअसल घर से काम करना इतना आसान है ही नहीं। ये सुनिश्चित करना कि सब ठीक से हो उसके लिये बहुत नियमों का पालन करना होता है। इसमें इंटरनेट से लेकर कमरे की उपलब्धता शामिल है। इसको लेकर बहुत ही शानदार मिमस भी बने हैं।
इसलिये अगर आप इस दौरान कुछ नया नहीं सीख पाये या पढ़ पाये तो कोई बात नहीं। आप इसका बोझ न ढोयें। इस समय ज़रूरी है कि आप अपनी क्षमता अनुसार जितना कर सकते हैं उतना करिये। आपके पास इस समय वैसे ही कामों की लंबी लिस्ट है और उसमें अगर कुछ सीखने सीखना वाला काम नीचे है तो उसे वहीं रहने दे। जब उसका समय आयेगा तब उसको भी देख लीजियेगा।
आप जिन मोर्चों पर डटे हैं उन्हें संभाल लीजिये। ऐसा कहा भी गया है की जब शिष्य तैयार होगा तो गुरु प्रकट हो जायेंगे।
जब भी कोई बड़ी घटना होती है या आपदा आती है तो वो उस क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के लिये एक बड़ा अवसर होता है। जैसे इस समय हमारे डॉक्टर और मेडिकल स्टॉफ के अन्य सदस्य, पुलिस, स्थानीय प्रशासन के लोग कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे अवसर को अगर आपकी ज़िंदगी बदलने वाला अवसर कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
बीते 20 दिनों के बाद ये तो मैं दावे से सबके लिये कह सकता हूँ की जब हमारा जीवन पटरी पर लौटेगा तो कुछ भी पहले जैसा नहीं होगा। इसका हमारी ज़िंदगी पर असली असर शायद एक दो महीने नहीं बल्कि उसके भी बाद में पता चलेगा।
पत्रकारिता के क्षेत्र की बात करूं तो सबके पास बहुत से किस्से कहानियां होती हैं। हम लोग बहुत सी ऐसी घटनाओं के साक्षी भी होते हैं जो जीवन पर बहुत गहरा असर छोड़ती हैं।
वैसे तो मैं इन 20 वर्षों में कई बड़ी घटनाओं का साक्षी रहा हूँ लेक़िन इनमें से दो का ज़िक्र यहाँ करना चाहूँगा। पहली घटना उस रात की है जब पीटीआई की न्यू ईयर पार्टी थी। हमारा पूरा बैच इस पार्टी का इंतजार कर रहा था। जो पीने पिलाने का शौक़ रखते थे उनके लिये तो ये एक अच्छा मौका था। पार्टी अमूमन दिसंबर के अंतिम हफ़्ते में होती थी लेकिन नये साल से लगभग एक हफ़्ते पहले ताक़ि सब नया साल अपने परिवार के साथ मना सकें।
लेकिन शाम होते होते पार्टी का माहौल थोड़ा फ़ीका पड़ने लगा था। एक न्यूज एजेंसी के रूप में पीटीआई का काम कभी नहीं रुकता था। उस दिन जो एक विमान अपहरण की घटना हुई थी वो कहाँ से कहाँ पहुँच जायेगी इसका कोई अंदाज़ा नहीं था। लेक़िन पल पल मामला ख़राब होता जा रहा था। जब अमृतसर से विमान उड़ा तब हम लोग होटल के लिये निकल रहे थे।
पार्टी हुई लेक़िन सीनियर ने अपनी हाज़री लगायी और वापस आफिस। उनके साथ कुछ और लोग भी चले गये। रात होते होते विमान अपहरण की घटना कोई पुरानी घटना जैसी नहीं रही थी। कंधार विमान अपहरण की याद शायद इसीलिए हमेशा ताज़ी रहती है।
पहली घटना अगर पार्टी की रात थी तो दूसरी घटना थी 26 जनवरी की। जैसा मैंने बताया पीटीआई में कोई त्योहार हो या राष्ट्रीय पर्व, काम चलता रहता है। मैं नाईट शिफ़्ट ख़त्म कर चेंबूर वाले फ्लैट में पहुँच कर बाक़ी लोगों के साथ चाय पी रहा था। उसी समय ऑफिस से फ़ोन आया और भुज के भूकंप के बारे में पता चला।
इस बार की बात बहुत ही अलग है। जिन दो घटनाओं का मैंने ज़िक्र ऊपर किया उसका असर बहुत ही सीमित लोगों पर हुआ। लेकिन कोरोना वायरस का सबका अपना अनुभव है। इस देश में रहने वाले हर एक व्यक्ति के पास, हर गली मोहल्ले में आपको एक कहानी मिल जायेगी। इसमें से अगर बहुत सी कहानियां उन लोगों के बारे में होंगी जो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने ही बारे में सोचते हैं, तो कुछ ऐसी भी होंगी जिसमें लोग निस्स्वार्थ भाव से सिर्फ़ मदद कर रहे हैं। उन्हें न अपनी फ़ोटो खिंचवाने का शौक़ है न अपने काम का बखान करने का। संख्या उनकी कम होगी लेक़िन उनका पलड़ा हमेशा भारी रहेगा।
आपने ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा ज़रूर देखी होगी। दोस्ती के साथ साथ ये फ़िल्म जीने के भी कुछ फ़लसफ़े दे जाती है। फ़िल्म में वर्क फ्रॉम होम या WFH, आजकल जिसका बहुत ज़्यादा ज़िक्र हो रहा है, उसकी भी झलक मिलती है। ऋतिक रोशन को अपने काम से बहुत प्रेम है और वो सफ़र करते हुये भी गाड़ी साइड में खड़ी करके मीटिंग कर लेते हैं (मोशी मोशी वाला सीन)।
लगभग पिछले पंद्रह दिनों से कोरोना के साथ अगर बहुत ज़्यादा इस्तेमाल करने वाला शब्द कोई है तो WFH है। पहले कुछ तरह के काम ही इस श्रेणी में रहते थे। लेकिन अब क्या सरकारी क्या प्राइवेट नौकरी सब यही कर रहे हैं।
मेरा इस तरह के काम करने के तरीके से पहला परिचय हुआ था 2008 में जब मैंने अपना डिजिटल माध्यम का सफ़र शुरू किया था। एक वेबसाइट से जुड़ा था और हमें सप्ताहांत में आने वाले शो के बारे में लिखना होता था। उस समय ये कभी कभार होने वाला काम था इसलिये कोई बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता था। उस समय नेट कनेक्शन भी उतना तेज़ नहीं होता था लेकिन काम चल जाता था।
इससे पहले अपने आसपास सभी को ऑफिस जाते हुये ही देखा था। हाँ सब काम घर पर लाते थे और फ़िर अपनी सहूलियत से करते थे। लेकिन वो भी कुछेक लोगों को देखा था।
इस तरीक़े से पूरी तरह पहचान हुई 2011 में जब मैंने दूसरी कंपनी जॉइन करी। इस समय तक ये कोई अनोखी बात नहीं थी और भारत एक इन्टरनेट क्रांति के युग में प्रवेश कर चुका था। नई जगह पर इससे कोई मतलब नहीं था की आप कहाँ से काम कर रहे हैं जबतक की काम हो रहा है। अगर आपकी तबियत ठीक नहीं है और आप घर से काम करना चाहते हैं तो बस परमिशन ले लीजिये।
अच्छा जब कोई ये विकल्प लेता तो सबके सवाल वही थे – कितना काम किया? आराम कर रहा होगा, मज़े कर रहा होगा। कभी मैंने ख़ुद भी ऐसा किया तो ऐसा लगा ज़्यादा काम हो जाता है घर से। लेकिन ये तभी संभव है जब थोड़ा नियम रखा जाये। नहीं तो एक साइट से दूसरी और इस तरह पचासों साइट देख ली जाती हैं। समय कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता।
2017 में जब नौकरी बदली तो ऐसी कंपनी में नौकरी करी जो इन बदलावों को दूर से देख रही थी लेक़िन अपनाये नहीं थे। वहाँ का मैनेजमेंट ऐसी हर चीज़ को बड़े ही संदेह की दृष्टि से देखता और हमेशा इस कोशिश में रहता की किसी न किसी तरह लोगों को ऑफिस बुलाया जाये। वहाँ ये बदलने के लिये बड़े पापड़ बेलने पड़े।
2019 में लगा अब तो हालात काफ़ी बदल गये होंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। और मैं ये मीडिया कंपनियों की बात कर रहा हूँ। सोचिये अगर 2019 से इस कंपनी ने धीरे धीरे ही सही, इस बदलाव की राह पर चलना शुरू कर दिया होता तो आज इस समय उनकी तैयारी कुछ और ही होती।
शायद समय हमें यही बताता है। समय रहते बदल जाओ, नहीं तो पड़ेगा पछताना। ये सिर्फ़ काम के लिये ही सही नहीं है। जैसे कैटरीना कैफ ऋतिक रोशन से कहती हैं जब वो अपने भविष्य का प्लान उन्हें बताते हैं। \”क्या तुम्हें पता है तुम चालीस साल तक ज़िंदा भी रहोगे?\”
दिल्ली से चला परिवार आशा है सकुशल रायपुर के पास अपने गाँव पहुँच गया होगा। हम सभी लोगों के लिये भी ये एक ताउम्र याद रखने वाला अनुभव बन चुका है। कभी न ख़त्म होने वाली लगने वाली यात्रा इस परिवार को अलग कारण से याद रहेगी और हम घर में क़ैद लोग इन दिनों को बिल्कुल अलग कारणों से याद रखेंगे। मैं बोल तो ऐसे रहा हूँ की लोककल्याण मार्ग निवासी से मेरी दिन में दो चार बार बात हो जाती है और वहाँ से मुझे पता चला है कि ये जल्दी ख़त्म होने वाला है। ये कारावास अगले आठ दिनों में ख़त्म होगा, ये मुश्किल लगता है।
आज से करीब चौदह वर्ष पूर्व मुझे भोपाल में कार्य करते हुये एक संस्था से जुड़ने का मौक़ा मिला जो ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहे विकास कार्यों की मोनिटरिंग करती थी। मुझे शुरू से ऐसे कामों में रुचि रही है। इससे पहले भी मैंने थोड़ा बहुत कार्य किया था।
इस कार्य के लिये मुझे जबलपुर के समीप के गाँव में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। गाँव से मेरा कोई नाता नहीं रहा है। पुष्तैनी गाँव भोपाल के समीप ही था लेक़िन जैसे होता है \’बहुत\’ से कारणों के चलते जाने के बहुत ही सीमित अवसर मिले। शहरों के समीप जो गाँव थे उनका उस समय ज़्यादा शहरीकरण नहीं हुआ था। लेकिन जिस गाँव में मुझे जाना था वो थोड़ा अंदर की और था।
मेरे लिये ये अनुभव बिल्कुल अलग था। गाँव को दूर से देखना और वहाँ जाकर उनके साथ समय बिताना, उनके रहन सहन को देखना, उनके तौर तरीकों को समझना। ये सब इस यात्रा में जानने की कोशिश हुई। एक बार जाना और चंद घंटे में ये समझ पाना बहुत ही मुश्किल है।
लेकिन उस दिन मैंने देखा हमारे गाँव दरअसल एक अलग दुनिया है। गाँधीजी ने सही कहा था – असली भारत गाँव में बसता है। उस समय गाँव में सभी बुनियादी सुविधाओं का अभाव था। दस किलोमीटर दूर से खाने पीने का सामान लेकर आना पड़ता था। स्वास्थ्य सुविधायें कागज़ पर ही रही होंगी। लगा था इतने वर्षों में स्थिति में सुधार हुआ होगा। लेकिन पिछले दिनों देखा दिल्ली के समीप एक गाँव है जहाँ नाव द्वारा पहुँचा जा सकता है लेकिन वहाँ कोई सरकारी मदद नहीं पहुँची थी।
अगर इसको हम ज़्यादातर गाँव की सच्चाई मान लें तो क्यूँ इतनी बड़ी संख्या में लोग लॉकडाउन के बाद पैदल ही निकल पड़े? कारण बहुत ही सीधा सा है। वो जहाँ के लिये निकले थे वो उनका घर है। वहाँ उनके अपने हैं। घर कैसा भी हो, सुविधाओं का भले ही अभाव हो लेकिन वो अपना है। शहर तो सिर्फ़ परिवार के भरण पोषण के लिये टिके हुए हैं। सिर्फ़ पैसा कमाने के लिये।
घर जाने पर एक आनन्द की अनुभूति। जैसी मुझे आज भी होती है जब कभी भोपाल जाने का मौक़ा मिलता है। बाक़ी बहुत कुछ मुझे उस परिवार से सीखना है।
व्हाट्सएप ग्रुप भी बड़े मज़ेदार होते हैं इसका एहसास मुझे अभी बीते कुछ दिनों से हो रहा है। मैं बहुत ज़्यादा ग्रुप में शामिल नहीं हूँ और जहाँ हूँ वहाँ बस तमाशा देखता रहता हूँ। बक़ौल ग़ालिब होता है शबोरोज़ तमाशा मेरे आगे।
इसमें से एक ग्रुप है मेरे स्कूल के साथियों का। और इसमें क्या धमाचौकड़ी होती है। व्हाट्सएप पर लड़ाई ग्रुप छोड़ दिया और फ़िर वापस। उसके बाद फ़िर लड़ाई और फ़िर वापस। मतलब ये लॉकडाउन में सब घर में बैठे हैं और बीवियों से कोई पंगा लेने की हिम्मत नहीं कर सकता तो सब इस ग्रुप में निकल जाता है। और सब बातें ऐसे करते हैं जैसे सामने बैठे हों। मतलब सब बातें बिना किसी लाग लपेट के। कुछ लोग समय समय पर ज्ञान देते रहते हैं। कुछ समय सब ठीक और उसके बाद फ़िर से वापस हंगामा। लेकिन सब होने के बाद वापस वैसे ही जैसे दोस्त होते हैं। शायद यही इस ग्रुप की ख़ासियत है। कोई किसी को कुछ बोल भी देता है तो माफ़ी माँगो और आगे बढ़ो। दिल पे मत ले यार।
सबको ऐसे ऐसे नामों से बुलाया जाता है। सही कहूँ तो इन सबकी बातें पढ़कर कई बार हंसी भी आती है और लगता है अभी हम जिस स्थिति में है उसमें सब साथ हैं। कुछ हंसी मज़ाक और कुछ नाराज़गी सब चलता है। लेकिन ग्रुप में सब एक दूसरे की मदद भी बहुत करते हैं। किसी को अगर नौकरी बदलनी है तो वहाँ भी सब आगे और किसी को दूसरे शहर में कुछ मदद चाहिये तो सब जैसे संभव हो मदद करते हैं।
ग्रुप के सदस्य दुनिया में अलग अलग जगह पर हैं तो इस समय के हालात पर भी जानकारी का आदान प्रदान भी चल रहा है। जो लोग इस समय बार नहीं जा पा रहे वो घर से अपनी शामों की तस्वीरें शेयर कर रहे हैं। कुल मिलाकर स्कूल की क्लास ही छूटी है बाकी सब वैसे ही चालू है।
इनमें से शायद 98% लोगों से मेरी स्कूल छोड़ने के बाद कोई बातचीत भी नहीं हुई। एक मित्र से बात हुई थी पिछले दिनों जिसका बयां मैंने अपनी पोस्ट में किया था। जी वही टिफ़िन वाली पोस्ट। एक बात शायद आपको बता दे की ग्रुप में क्या होता है – मेरा ये स्कूल सिर्फ़ लड़कों के लिये था। अब आप अंदाज़ा लगा सकते हैं…
जब भी कोई भोपाल में स्कूल जाता है तो ज़रूर सबको बताता है। जो भोपाल में हैं वो भी कभी कभार स्कूल का चक्कर लगा लेते हैं। अगर उनको कैंटीन के समोसे खाने को मिल गये तो सबको जलाने के लिये उसकी फ़ोटो शेयर करना नहीं भूलते। सही में आंटी के उन समोसों का स्वाद कमाल का है और आज भी वैसा ही स्वाद। अगली भोपाल की यात्रा में इसके लिये समय निकाला जायेगा।
अब ये लॉकडाउन के ख़त्म होने का इंतज़ार है। क्या आप भी ऐसे ही किसे ग्रुप का हिस्सा हैं? क्या ख़ासियत है इस ग्रुप की?
इस वर्ष का विम्बलडन भी कोरोना की भेंट चढ़ गया। खेलकूद में कोई विशेष रुचि नहीं रही शुरू से। इस बात की पुष्टि वो लोग कर सकते हैं जिन्होंने मेरी पूरी प्रोफाइल फोटो देखी है। लेकिन टेनिस में रुचि जगी जिसका श्रेय स्टेफी ग्राफ और बोरिस बेकर को तो जाता ही है लेकिन उनसे भी ज़्यादा पिताजी को। विम्बलडन ही शायद पहला टूर्नामेंट था जिसे मैंने देखा और फॉलो करने लगा।
इसके पीछे की कहानी भी यादगार है। इस टूर्नामेंट की शुरुआत हुई थी और शायद स्टेफी ग्राफ का ही मैच था। लेकिन समस्या ये थी की टीवी ब्लैक एंड व्हाइट था। पिताजी और मेरे एक और रिश्तेदार का मन था की मैच कलर में देखा जाये। तो बस पहुँच गये कलर टीवी वाले घर में। मैं भी साथ में हो लिया या ज़िद करके गया ये याद नहीं।
पिताजी भी बहुत अच्छा टेनिस खेलते थे तो शायद टेनिस के प्रति मेरा रुझान का कारण वो भी हैं। खेलों के प्रति उनका ख़ास लगाव रहा है। उनकी टेनिस खेलते हुये और विजेता ट्रॉफी लेते हुये कई फ़ोटो देखी हैं। उनका पढ़ने और सिनेमा देखने के शौक़ तो अपना लिये लेकिन ये शौक़ रह गया।
पिताजी ने पूरा खेल समझाया। पॉइंट कैसे स्कोर होते हैं और उन्हें क्या कहते है। बस तबसे ये खेल के प्रति रुझान बढ़ गया। उसके बाद नौकरी के चलते सब खेलों पर नज़र रखने का मौका मिला और दिल्ली में पीटीआई में काम के दौरान एक चैंपियनशिप कवर करने का मौका भी मिला।
इन दिनों कुछेक खिलाड़ियों को छोड़ दें तो ज़्यादा देखना नही होता लेकिन नोवाक जोकोविच का मैच देखने को मिल जाये तो मौका नहीं छोड़ता। रॉजर फेडरर एक और खिलाड़ी हैं जो क़माल खलते हैं। उससे कहीं ज़्यादा कोर्ट में वो जिस शांत स्वभाव से खेलते हैं लगता ही नहीं की वो दुनिया के श्रेष्ठ खिलाड़ी हैं।
कुछ वर्षों पहले जब घर देख रहा था तब एक घर देखा जिस सोसाइटी में टेनिस कोर्ट भी था। मुझे लगा शायद अब मैं टेनिस का रैकेट पकड़ना सीख ही लूंगा। लेकिन उधर बात बनी नहीं तो टेनिस खेलने के प्लान जंग खा रहा है।
अब जो लिस्ट बना रखी है मौका मिलते ही करने की उसमें ये भी शामिल है। और क्या शामिल है इसके बारे में कल। अगर इन दिनों आप की भी लिस्ट में बदलाव हुये हों तो बतायें।
एक खेल है चाइनीज कानाफूसी (Chinese Whispers)। इस खेल में आप एक संदेश देते हैं एक खिलाड़ी को जो एक एक कर सब खिलाड़ी एक दूसरे के कान में बोलते हैं। जब ये आखिरी खिलाड़ी तक पहुँचता है तब उससे पूछा जाता है उसे क्या संदेश मिला और पहले खिलाड़ी से पूछा जाता है आपने क्या संदेश दिया था। अधिकतर संदेश चलता कुछ और है और पहुँचते पहुँचते उसका अर्थ ही बदल जाता है।
इसको आप आज के संदर्भ में न देखें। इस खेल की याद आज इसलिये आई क्योंकि एक व्यक्ति को एक जानकारी चाहिये थी। लेकिन उसने ये जानकारी उस व्यक्ति से लेना उचित नहीं समझा जो इसके बारे में सब सही जानता था। बल्कि एक दूसरे व्यक्ति को फ़ोन करके तीसरे व्यक्ति से इस बारे में जानकारी एकत्र करने को कहा। अब ये जानकारी चली तो कुछ और थी लेकिन क्या अंत तक पहुँचते पहुँचते वो बदल जायेगी? ये वक़्त आने पर पता चलेगा।
पीटीआई में मेरे एक बॉस हुआ करते थे जिनकी एक बड़ी अजीब सी आदत थी। वो हमेशा किसी तीसरे व्यक्ति का नाम लेकर बोलते की फलाँ व्यक्ति ऐसा ऐसा कह रहा था आपके बारे में। अब आप उस तथाकथित कथन पर अपना खंडन देते रहिये। कुल मिलाकर समय की बर्बादी।
एक बार उन्होंने मेरी एक महिला सहकर्मी का हवाला देते हुये कहा कि उन्होंने मेरे बारे में कुछ विचार रखे हैं। मेरे और उन महिला सहकर्मी के बीच बातचीत लगभग रोज़ाना ही होती थी। इसलिये जब उन्होंने ये कहा तो मैंने फौरन उस सहकर्मी को ढूंढा और इत्तेफाक से वो ऑफिस में मौजूद थीं। उन्हें साथ लेकर बॉस के पास गया और पूछा की आप क्या कह रहे थे इनका नाम लेकर।
बॉस ने मामला रफा दफा करने की कोशिश करी ये कहते हुये की \”मैंने ऐसा नहीं कहा। मेरे कहने का मतलब था उस सहकर्मी का ये मतलब हो सकता था।\” उस दिन के बाद से मुझे किसी के हवाले से मेरे बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई।
कोई बुरा बनना नहीं चाहता ये भी सच है। इसलिये ऊपर जो फ़ोन वाली बात मैंने बताई उसमें भी यही होगा। दूसरे लोगों का हवाला दिया जायेगा और उनके कंधे पर बंदूक रखकर चलाई जायेगी। कुछ लोग वाकई में इतने भोले होते हैं की उन्हें पता ही नहीं होता की उनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। देर से सही उन्हें इस बात का एहसास होता है और ये उनके जीवन की एक बड़ी सीख साबित होती है।
ये जो चीन से कानाफ़ूसी शुरू हुई है (आज के संदर्भ में), इसका असली सन्देश हमारे लिये सिर्फ़ एक है। अपने जीवन की प्राथमिकता को फ़िर से देखें। कहीं हम सही चीज़ छोड़ ग़लत चीज़ों को तो बढ़वा नहीं दे रहे। बाक़ी देश दूर हैं तो शायद उन तक पहुँचते पहुँचते ये संदेश कुछ और हो जाये। लेकिन हम पड़ोसी हैं इसलिये बिना बिगड़े हुये इस संदेश को भली भांति समझ लें।
विगत कुछ वर्षों से विदेश घूमने का चलन बहुत बढ़ गया है। इसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं लेकिन हमारे यहाँ विदेश यात्रा को एक स्टेटस सिंबल की तरह देखा जाता है। आपने भारत भले ही न घुमा हो लेकिन अगर आपने एक भी विदेश यात्रा नहीं करी हो तो आपने अपने जीवन में कुछ नहीं किया।
आज से लगभग 20 वर्ष पहले जब फ़ेसबुक या इंस्टाग्राम या ट्विटर नहीं था तो आपके निकट संबंधियों के अलावा जन सामान्य को आपकी विदेश यात्रा के बारे में कैसे पता चले? अगर आप विदेश यात्रा पर जाते थे या लौटते थे तो कुछ लोग इसका ऐलान बाक़ायदा समाचार पत्र में एक इश्तेहार देकर करते थे। उस छोटे से विज्ञापन का शीर्षक होता था विदेश यात्रा और उस व्यक्ति का नाम और वो कहाँ गये थे और यात्रा का उद्देश्य सब जानकारी रहती थी।
शायद मार्च के पहले हफ़्ते दस दिन तक तो ये बखान यथावत चलता रहा। लेकिन उसके बाद सब कुछ बदलने लगा। वही लोग जो सोशल मीडिया पर अपनी इस यात्रा के टिकट से लेकर हर छोटी बड़ी चीज़ें शेयर करते नहीं थकते थे अचानक उनकी विदेश यात्रा के बारे में बात करने से परहेज़ होने लगा।
इसमें कुछ ऐसे लोग भी पकड़े गए जो घर से तो काम के सिलसिले में बेंगलुरू और कोलकता का कहकर निकले थे, लेकिन असल में थाईलैंड की यात्रा कर आये थे। उनकी चोरी उनके परिवार को तब पता लगी जब स्थानीय प्रशासन नोटिस लगाने आयी। पकड़े गये व्यक्तियों ने इसका सारा गुस्सा मीडिया पर निकाला।
मेरे एक सीनियर ने मुझे भी ये समझाइश दी थी आज से लगभग पाँच साल पहले की अगर बाहर कहीं जाओ, किसी अच्छे होटल में रुको तो वहाँ की फ़ोटो शेयर करो सोशल मीडिया पर। उनके अनुसार ये अपने आप को मार्केट करने का एक तरीका है। सोशल मीडिया पर लोग फ़ोटो देखेंगे तो आपका स्टेटस सिंबल पता चलेगा और आपके लिये आगे के द्वार खुलेंगे।
ये सच ज़रूर है की आजकल कंपनियां आपका सोशल मीडिया एकाउंट भी देखती हैं लेकिन वो ये देखने के लिये की आप किस तरह की पोस्ट शेयर कर रहे हैं। कहीं आप कोई आपत्तिजनक पोस्ट तो नहीं करते या शायद ये देखने के लिये भी की आप न कभी उस कंपनी के ख़िलाफ़ कुछ लिखा है क्या? क्या आपने कहाँ अपनी पिछली गर्मी की छुट्टियां बितायीं थीं उसके आधार पर नौकरियां भी दी जाती हैं?
मेरे ध्यान में इस समय वो परिवार है जो रायपुर के समीप अपने गाँव की तरफ़ चला जा रहा है। जिसका कोई सोशल मीडिया एकाउंट नहीं होगा, जिसकी इस यात्रा का कोई वृत्तांत नहीं होगा लेकिन वो इन सबसे बेखबर है। कई बार यूँ बेख़बर होना ही बड़ा अच्छा होता है।
जब ये महीना शुरू हुआ था तब श्रीमती जी और मेरी यही बात हो रही थी की साल के दो महीने तो ऐसे निकल गये की कुछ पता ही नहीं चला। होली तक इस महीने के भी उड़नछू हो जाने की सभी संभावनाएं दिख रही थीं की अचानक फ़िल्म जो जीता वही सिकन्दर के क्लाइमेक्स सीन के जैसे सब कुछ स्लोमोशन में होने लगा और लगता है जैसे बरसों बीत गये इस महीने के पंद्रह दिन बीतने में। लेकिन जैसा होता है, समय बीत ही जाता है। मार्च 2020 को हम सभी एक ऐसे महीने के रूप में अपने सारे जीवन याद रखेंगे जिसने हमारे जीवन से जुड़े हर पहलू को हमेशा हमेशा के लिये बदल दिया है। क्या ये बदलाव हमें नई दिशा में लेके जायेगा?
दो दिनों से महाभारत देखना शुरू किया है। जब ये पहले देखा था तब इतनी समझ नहीं थी की ये क्या है। बस कहानियां सुनते थे और गीता उपदेश के बारे में सुना था। गीता सार का एक बड़ा सा पोस्टर किसी ने दिया था पिताजी को जिसमें बिंदुवार गीता समझाई गयी थी।
बीच में मुझे इस्कॉन के एक प्रभुजी से मिलने का मौका मिला और कुछ दिन उनसे गीता का ज्ञान लेने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। लेकिन फ़िर मेरा तबादला दिल्ली हो गया तो ये सिलसिला ख़त्म हो गया। मुम्बई वापस आने के बाद फ़िर ये मौका नहीं मिला।
लेकिन दो दिनों से महाभारत देख कर लगा की गीता उपदेश के पहले भी काफी कुछ सीखने योग्य है। जैसे हस्तिनापुर नरेश शांतनु ने अपने बड़े पुत्र भीष्म को युवराज पद से हटा कर अपने अजन्मे पुत्र को युवराज बना दिया। मतलब कर्म को नहीं मानते हुये जन्म को ज़्यादा महत्व दिया।
हमारे आसपास भी देखिये यही हो रहा है। फलां का बेटा या बेटी ही किसी कंपनी की कमान संभालेंगी। उनके कर्म कैसा भी हो लेकिन जन्म के आधार पर ही उनके भविष्य का फैसला हो गया। कई राजनीतिक दलों में भी यही हो रहा है। सब एक दूसरे को आईना दिखाते रह जाते हैं लेक़िन कोई खुद अपने को देखना नहीं चाहते।
ऐसी ही एक घटना 2017 में हुई जब एक कंपनी के मालिक के घर नई संतान का आगमन हुआ। कंपनी के तमाम कर्मचारी गिरे जा रहे थे ये बताने के लिये की कंपनी को उसका भविष्य में होने वाला मालिक मिल गया है। बच्चे के जन्म को घंटे ही हुये थे लेकिन उसका भविष्य तय हो गया था।
लेकिन ये तो कंपनी का मामला है। आजकल साधारण माता पिता भी अपने बच्चे का भविष्य खुद ही तय कर लेते हैं। 3 इडियट्स में जो दिखाया है वो कतई ग़लत नहीं है। रणछोड़दास चांचड़ में इंजीनियर बनने की काबिलियत नहीं थी। इसलिये फुँसुक वांगड़ू उनकी जगह वो डिग्री लेते हैं और रणछोड़दास कंपनी में पिता का स्थान। फरहान अख्तर के जन्म से ही उनके इंजीनियर बनने की तैयारी शुरू हो जाती है।
अगर कोई बड़ा व्यवसाय खड़ा करता है लेकिन वो इसको परिवार का व्यवसाय न बनाकर सिर्फ़ व्यवसाय की तरह करता है तो क्या उसके पास सभी अच्छी योग्यता प्राप्त लोगों का अकाल रहेगा? अगर केवल और केवल योग्यता को ही आधार माना जाये तो क्या हम एक अलग देश होंगे? नेता के बेटे को नेता बिल्कुल बनने दिया जाये लेक़िन सिर्फ़ उनका एक उपनाम है इसके चलते उन्हें कोई पद न दिया जाये। पद सिर्फ़ उसे मिले जो उसका सही हक़दार है। जन्म लेने भर से पद का फैसला नहीं हो सकता। लेकिन अगर महत्वकांक्षी व्यक्ति हो तो? महाभारत होना तय है!
भोपाल में मेरे एक मित्र हैं राहुल जोशी। इनसे मुलाक़ात मेरी कॉलेज के दौरान मेरे बने दोस्त विजय नारायन के ज़रिये हुई थी। राहुल घर के पास है रहते हैं तो उनसे मुलाक़ात के सिलसिले बढ़ने लगे और मैंने उनको बेहतर जाना।
जोशी जी की एक ख़ास बात है की कोई भी सिचुएशन हो वो उसमें आपके चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं। परेशानी की बात हो, दुख का माहौल हो – अगर राहुल आसपास हैं तो वो माहौल को हल्का करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ज़िंदगी में जो भी घटित हो रहा हो उसको वो एक अलग अंदाज़ से देखते हैं। मेरे घर में आज भी उनके एक्सपर्ट कमेंट को याद किया जाता है।
राहुल के दादाजी का जब निधन हुआ तो मैं उनसे मिलने गया था। राहुल उनके बहुत करीब भी थे और जब वो लौट के आये तो मुलाक़ात हुई। राहुल बोले जब आप किसी के अंतिम संस्कार में शामिल होते हैं तो चंद पलों के लिये ही सही, आपको एहसास होता है अभी तक आप जिन भी चीजों को महत्व देते हैं वो सब पीछे छूट जायेगा। ज़िन्दगी की असली सच्चाई दिख जाती है। लेकिन क्रियाकर्म खत्म कर जैसे जैसे आपके क़दम बाहर की और चलते हैं वैसे वैसे आप वापस इस दुनिया में लौटते हैं। सबसे पहले तो सिगरेट सुलगाते हैं इस बात को और गहराई से समझने के लिये और चंद मिनटों में सब वापस।
आज राहुल और उनके साथ कि ये बातचीत इसलिये ध्यान आयी क्योंकि जिस समस्या से हम जूझ रहे हैं जब ये खत्म हो जायेगा तो क्या हम वही होंगे जो इससे पहले थे या कुछ बदले हुये होंगे? क्या हम महीने भर बाद भी अपने आसपास, लोगों को उसी नज़र से देखेंगे या हमारे अंदर चीजों के प्रति लगाव कम हो जायेगा। शायद आपको ये सब बेमानी लग रहा हो लेक़िन अगर एक महीने हम सब मौत के डर से अंदर बैठे हों और इसके बाद भी सब वैसा ही चलता रहेगा तो कहीं न कहीं हमसे ग़लती हो रही है।
लगभग सभी लोगों ने अपनी एक लिस्ट बना रखी है की जब उन्हें इस क़ैद से आज़ादी मिलेगी तो वो क्या करेंगे। किसी ने खानेपीने की, किसी ने शॉपिंग तो किसी ने पार्टी की तो किसी ने घूमने का प्रोग्राम बनाया है। बस सब थोड़े थोड़े अच्छे इंसान भी बन जायें और अपने दिलों में लोगों के लिये थोड़ी और जगह रखें – इसे भी अपनी लिस्ट में रखें।
फ़िल्म 3 इडियट्स का एक सीन इन दिनों बहुत वायरल हो रहा है जिसमें तीनों इडियट्स के शराब पीने के बाद उनकी संस्थान के हेड वीरू सहस्त्रबुद्धे जिन्हें वो वायरस बुलाते हैं, उसे धरती से उठाने की प्रार्थना करते हैं। इस सीन को आज चल रहे कोरोना वायरस से जोड़ के देखा जाये तो लगता है किसी भी देश के नागरिक हों सबकी यही प्रार्थना होगी।
ये मेरे जीवन में शायद पहली बार मैंने या हम सभी लोगों के भी जीवन में ऐसा हो रहा है की कोई किसी भी देश में हो सब एक ही दुश्मन से लड़ रहे हैं। इससे पहले भारत में हुई कोई घटना का विश्व पर कोई असर नहीं पड़ता था या विश्व में कोई घटना होती जैसे 9/11 या ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग लगती तो हम उनके लिये प्रार्थना करते। मतलब किसी भी घटना का एक बहुत सीमित और बहुत ही ऊपरी असर दिखता।
लेकिन पिछले लगभग दो महीनों से पूरा विश्व क्या अमेरिका, क्या स्पेन, इटली या भारत, सब बस एक ही बात कर रहे हैं। लोगों से दूरी बनाये, घर से बाहर न निकलें और हाथ धोयें। मैं जिस संस्थान से जुड़ा हूँ वहाँ के सहकर्मी अलग अलग देशों में काम करते हैं। जब कभी हम लोग बात करते हैं इन दिनों तो शुरुआत इसी से होती है की आप के यहाँ कितने दिनों का लॉकडाउन है और क्या आपके पास ज़रूरत का सामान है।
इन बातों से और कुछ नहीं तो सब एक दूसरे की हिम्मत बढ़ाते रहते हैं। ये समय सभी के लिये एक चुनौती की तरह है। इसमें आसपास वाले तो आपके साथ हैं ही लेकिन हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा कोई आपसे आपका कुशलक्षेम पूछता है और आप उनसे उनके हालचाल तो लगता है क्या विकसित और क्या विकासशील देश। सब एक ही नाव में सवार हैं और सब बस इस कठिन समय के निकलने का इंतजार कर रहे हैं।
कई संस्थान ने अपने बहुत से ऑनलाइन कोर्स इस समय फ्री में उपलब्ध कराए हैं। ये समय आपको एक मौका दे रहा है कुछ नया सीखने का, कुछ नया करने का। और जैसा की 3 इडियट्स में आमिर खान शरमन जोशी को अस्पताल में कहते हैं – फ्री फ्री फ्री।
जो केबल टीवी या अब डिश टीवी देखकर बड़े हुये हैं उन्हें शायद रुकावट के लिये खेद है का संदर्भ नहीं समझ आये। लेक़िन दूरदर्शन की जनता इससे भली भांति परिचित होगी। आज जो माहौल चल रहा है ये वही रुकावट के लिये खेद है वाला है और आज इससे नई पीढ़ी का मिलना भी हो गया।
जब दूरदर्शन पर कोई प्रोग्राम देख रहे होते थे तो अचानक लिंक गायब और स्क्रीन पर रुकावट के लिये खेद है का नोटिस दिखाई देने लगता। ये कई बार होता और अगर मैं ये कहूँ की फ़िर इसकी आदत सी बन गयी तो ग़लत नहीं होगा।
आज अगर आप टीवी देख रहें हो तो ऐसा कोई अनुभव नहीं होता। आज तो ब्रेक होता है और आप चैनल बदल लेते हैं। उन दिनों ऐसा कोई ऑप्शन नहीं हुआ करता था। अगर प्रोग्राम में कोई रुकावट आ जाये तो आप अपनी नज़रें स्क्रीन पर ही गड़ाये बैठे रहते की कब वापस आ जाये। अच्छा ये प्रोग्राम की लिंक या तो दिल्ली से टूट जाती या सैटेलाइट के व्यवधान से। कई बार ऐसा भी होता की जब तक लिंक वापस आयी तो प्रोग्राम ख़त्म। कोई रिपीट टेलिकास्ट का भी ऑप्शन नहीं।
पिछले कुछ दिनों से ऐसा ही हुआ है। रुकावट के लिये खेद है वाला बोर्ड लगा दिया गया है। आप के पास भी कोई ऑप्शन नहीं सिवाय इसके की आप लिंक के फ़िर से जुड़ने का इंतजार करें। इस दौरान आप क्या करते हैं ये बहुत ज़रूरी है क्योंकि आपको इतना पता है लिंक के जुड़ने की संभावना कब है। बजाय इसके की आप एक एक दिन गिन कर इसके ख़त्म होने का इंतज़ार करें, क्यूँ न अपने आप को ऐसे ही कामों में व्यस्त रखें। समय निकल भी जायेगा और आपके कई काम भी निपट जायेंगे।
कहने के लिये तो लिंक टूट गयी है, लेकिन ये समय है लिंक जोड़ने का। अपने आप से, परिवार के सदस्यों से। ट्विटर पर किसी ने सुझाव दिया कि हर दिन अंग्रेज़ी वर्णमाला के एक एक वर्ण से शुरू होने वाले नाम के लोगों को फ़ोन करें। जब तक ये कर्फ्यू हटेगा आपकी फ़ोन लिस्ट में A से Z तक बात हो चुकी होगी।
इन दिनों मौसम बदला हुआ है। बदलते मौसम के अपने नखरे होते हैं और इस बार के नखरे उठाना बड़ा महंगा पड़ सकता है। तो मत उठाइये नखरे। मौसम ही तो है, गुज़र जायेगा। आप क्यूँ खामख्वाह परेशान हो रहे हैं। आपके पास कामों की एक लंबी फेहरिस्त है जिसे आप समय न होने का बहाना बनाकर टाल रहे थे। ये मान लीजिये आपको समय दिया गया है इन कामों को पूरा करने के लिये ताकि आप इस ब्रेक के बाद जो काम आयेंगे उनके लिये तैयार रहें।
अगर आप एक अच्छे मैनेजर हैं और ऐसा कुछ काम आपका बचा नहीं हुआ है तो आप को सलाम। आप वाकई तारीफ़ के काबिल हैं। आपने ये कैसे किया ये लोगों के साथ साझा करें। अगर आपको पता है किसी को आपके पास जो ज्ञान है उससे फायदा मिल सकता है तो उनके साथ बाँटें। अगर आपको किसी से कोई ज्ञान लेना है तो इससे बेहतर समय क्या हो सकता है?
आज जब पूरा हिन्दोस्तान अपने 24 घंटे घर पर कैसे काटे इसका जवाब ढूंढ रहा है, वहीं दूसरी और कई लोग हैं जिनकी दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं हुआ है। आप वाकई में खुशकिस्मत हैं की आपको ऐसा मौका मिला है जिसमें आप स्वस्थ हैं, परिवार वालों के साथ है। अमूमन ऐसे ब्रेक बहुत कम मिलते हैं।
आप अगर इस बदलाव का हिस्सा हैं तो इस समय कुछ ऐसा कर गुज़रिये की मुड़ के देखने पर आप अपने आप को पहचान ही न पायें। टीवी, वेब सीरीज़, इंटरनेट पर कितना समय बर्बाद करेंगे? हम तो हमेशा से ही किसी भी काम को नहीं कर पाने का ठीकरा वक़्त के सर पर ही फोड़ते रहते हैं। आज वक़्त ने हमें वक़्त दिया है। ऐसा मौका फ़िर कहाँ मिलेगा?
मैं कोई भविष्यवक्ता तो हूँ नहीं लेकिन इतना ज़रूर कह सकता हूँ की आने वाले तीन महीनों में सब कुछ बदल जायेगा। और कुछ भी नहीं बदलेगा और। क्योंकि जो बदल गया होगा वो तो गुज़र चुका होगा।
तुम्हे पता है मेरे पिताजी कौन हैं? फिल्मों में ये सवाल कोई बिगड़ैल औलाद पूछती ही है। जब सामने अफ़सर को पता चलता है तो अगर वो ईमानदार है तो उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन अगर बेइमान हो तो झट से पहचान हो जाती है। चोर चोर मौसेरे भाई जो ठहरे।
आप इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति जी की पत्नी सुधा मूर्ती जी को जानते ही होंगे। शायद आपने उनका वो किस्सा कैसे उन्हें एयरपोर्ट पर इकोनॉमी क्लास की यात्री बताकर लाइन में पीछे जाने को कहा गया था। शायद आपने स्वर्गीय मनोहर पर्रिकर जी का किस्सा भी सुना होगा कैसे एक विवाह समारोह में वो भी कतार में खड़े रहकर नवविवाहित जोड़े को आशीर्वाद देने के अपने नंबर का इंतज़ार करते रहे। या भारतीय क्रिकेट के महान खिलाड़ी राहुल द्रविड़ जो बच्चों के स्कूल में अपने नम्बर का इंतज़ार करते हैं अपने बच्चों के अध्यापक से मिलने के लिये।
आज मुझे ये किस्से याद इसलिये आ रहे हैं क्योंकि अपने आसपास मैं बहुत सी ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ रहा हूँ, देखरहा हूँ जहाँ लोग जिनकी या तो किसी अफ़सर से पहचान है या उनके परिवार से की कोई ऊंचे पद पर कार्यरत है, उन्होंने उसका फ़ायदा उठा कर बाकी लोगों की जान को मुश्किल में डाल दिया।
दरअसल प्रथम दृष्टया वो दोषी दिखते हैं लेकिन ये असल में एक लंबे समय से हमारे समाज में चली आ रही एक और कुरीति ही है जिसमें जो ऊँचे ओहदे वाले माई बाप का रोल निभाते हैं। हम अपने आसपास ऐसा हमेशा से होता देख रहे हैं लेक़िन ये अब इतना नार्मल सा लगता है की अगर कोई वीआईपी स्टीकर लगी गाड़ी जब ग़लत पार्किंग में नहीं खड़ी हो तो आश्चर्य होता है।
जबसे मैंने होश संभाला है मैं ऐसे ही रसूख़ वालों से घिरा रहा हूं। ये सत्ता का नशा और दुरुपयोग बहुत क़रीब से देखा है। और ऐसे भी सत्ता के पीछे भागने वाले देखे हैं जो अपना प्रोमोशन न होने पर डिप्रेशन में चले जाते हैं। किसी भी तरह जोड़ तोड़ करके बड़े पद से रिटायरमेंट लेना है। इसके लिये जो करना पड़े सब करने को तैयार। इन्हें सिर्फ़ एक बात मालूम है – सब हो सकता है अगर आपके पास पैसा है।
अभी कोरोना वायरस के चलते ऐसे कई किस्से सामने आये जहाँ माता पिता स्वयं ही अपने बच्चों की बीमारी छुपा रहे हैं। कोलकाता में राज्य सरकार की एक बडी अफसर का बेटा लंदन से आने के बाद दो दिन पूरा शहर घुमा। इस नवयुवक ने सभी सरकारी आदेशों की अवेल्हना कर सरकारी अस्पताल में रहने को भी मना कर दिया।
अब इसका उल्टा सोचिये। इन अफ़सर के घर काम करने वाली कोई औरत को ये बीमारी होती और वो छुपाती तो उसका क्या हश्र होता? उस कनिका कपूर का क्या करें जो फाइव स्टार होटल में रहीं और सरकार पर ही आरोप लगा दिये। मैं इस बात से सहमत हूँ की कोई भी देश परफ़ेक्ट नहीं होता। लेकिन उसके नागरिक होने के नाते हमारा कर्तव्य है की अपने साथ वालों को बर्बाद होने से बचायें।
गुलज़ार साहब का गीत आनेवाला पल जानेवाला है देखने से पहले सुना था। जी आपने बिल्कुल सही पढ़ा है। उस समय गाने सुने ज़्यादा जाते थे और देखने को मिल गये तो आपकी किस्मत। गाना है भी बड़ा फिलासफी से भरा हुआ। उसपर किशोर कुमार की आवाज़ और आर डी बर्मन का संगीत।
फरवरी के अंतिम सप्ताह में श्रीमती जी से चाय पर चर्चा हो रही थी की कितनी जल्दी 2020 के दो महीने निकल गये। बच्चों की परीक्षा शुरू हो गयी और उसके बाद समय का ध्यान बच्चों ने रखा। लेकिन होली आते आते कहानी में ट्विस्ट और ट्विस्ट भी ऐसा जो न देखा, न सुना।
पिछले लगभग दो हफ्तों में दो बार ही घर से बाहर निकलना हुआ। अब घर के अंदर दो हफ़्ते और क़ैद रहेंगे। इतनी ज़्यादा उथलपुथल मची हुई है की लगता है जब ये सब ख़त्म हो जायेगा तो छोटे छोटे सुख का फ़िर से अनुभव करूँगा। जैसे पार्क में सैर करने जाना, किसी से बात करना, किसी चाय की दुकान पर बैठकर चाय पीना और अपने आसपास लोगों को देखना।
सोशल मीडिया के चलते सूचना की कोई कमी नहीं है बल्कि ओवरडोज़ है। लेकिन इन सब में एक बात समान है – सब उम्मीद से भरे हैं की ये समय भी निकल जायेगा। सब एक दूसरे से जुड़े हुये हैं और एक दूसरे को हिम्मत भी दे रहे हैं। मैंने इससे पहले ऐसी कोई घटना अगर देखी थी तो वो भोपाल गैस त्रासदी के समय थी। उस समय ये नहीं मालूम था हुआ क्या है बस इतना मालूम था लोगों को साँस लेने में तक़लीफ़ थी। उसके बाद कुछ दिनों के लिये शहर बंद हो गया था और हम सब भी ज़्यादातर समय घर के अंदर ही बिताते। कपड़े में रुई भरकर एक गेंद बना ली थी और इंडोर क्रिकेट खेला जाता था।
टीवी उस समय नया नया ही आया था लेक़िन कार्यक्रम कुछ खास नहीं होते थे। दिनभर वाला मामला भी नहीं था। दूरदर्शन पर तीन चार शिफ़्ट में प्रोग्राम आया करते थे। आज के जैसे नहीं जब टीवी खोला तब कुछ न कुछ आता रहता है। अगर कुछ नहीं देखने लायक हो तो वेब सीरीज़ की भरमार है। आपमें कितनी इच्छा शक्ति है सब उसपर निर्भर करता है।
लेकिन गाने सुनने का कोई सानी नहीं है। आप अपना काम करते रहिये और गाने सुनते रहिये। आज जब ये गाना सुना तो इसके मायने ही बदल गये। आनेवाले महीनों में क्या होने वाला है इसकी कोई ख़बर नहीं है। लेक़िन ज़रूरी है आज के ये लम्हे को भरपूर जिया जाये। ऐसे ही हर रोज़ किया जाये। जब पीछे मुड़कर देखेंगे तो वहाँ दास्ताँ मिलेगी, लम्हा कहीं नहीं।
लगता है जैसे कुछ दिन पहले की ही बात थी जब मैं नये साल के बारे में लिख रहा था और आज नये साल के दूसरे महीने के तीन दिन निकल चुके हैं। जनवरी का महीना कई नये अनुभवों की सौगात लाया। जैसे नये लोगों से मुलाक़ात और उनके ज़रिये अपने को नई रोशनी में देखना।
जनवरी में ही अस्पताल में इलाहाबाद/प्रयागराज से आईं एक महिला से मिलना हुआ। वो अपने इलाज के लिये अकेले ही शहर में डेरा डाले हुईं थीं। रुकने के लिये जगह नहीं थी तो अस्पताल को ही अपना घर बना लिया और बाहर से ही खाने का इंतज़ाम भी कर लिया। दिनभर वो अस्पताल के आसपास बिताती और शाम होते होते अस्पताल का एक कोना उनके सोने की जगह बन जाता। निश्चित रूप से कड़ाके की सर्दी में उन्हें कई परेशानियों का सामना भी करना पड़ रहा होगा लेकिन उनसे मिलके आपको इसका अंदाज़ा भी नहीं होगा।
उनकी बातें सुनकर एक तो अपने देश की स्वास्थ्य सेवाओं की ख़स्ता हालत से फ़िर सामना हुआ। दूसरी बात जो बड़ी मायने रखती है वो ये की मुझे जिस बात को सुनकर इतनी परेशानी हो रही थी, उनको इस बात से कोई परेशानी हुई हो इसकी कोई झलक नहीं दिखी। तो क्या मैं आधा ख़ाली ग्लास देख दुखी हो रहा था या वो आधा खाली ग्लास नहीं बल्कि आधा पानी से और आधा हवा ग्लास देख रही थीं?
हम ऐसे कितने लोगों से मिलते हैं जो मिलते ही अपनी परेशानियों की लिस्ट खोल के बैठ जाते हैं। वहीं ऐसे भी लोगों से भी मुलाक़ात होती है जिनके जीवन में परेशानी तो होती ही होंगी लेकिन तब भी वो उनको अपने ऊपर हावी नहीं होने देते। पिताजी हमेशा एक फ़िल्म का उदाहरण देते हैं जिसमें एक शॉट है उसमें एक रईस नींद न आने की वजह से परेशान है वहीं उसकी खिड़की के बाहर एक मज़दूर दिन भर की मेहनत कर पत्थरों पर ही सो रहा है। अगर इसकी क्लिप मिली तो ज़रूर शेयर करूँगा।
ऐसे ही फ़िल्म पंगा में जब कंगना रनौत को अपने परिवार को छोड़ कर जाना पड़ता है तो उनके लिये ये बड़ा मुश्किल होता है। वो अपने पति से कहती हैं की अगर वो अपने काम की लिस्ट बनायें तो एक पूरी कॉपी भर जाये। लेकिन एक बार जब वो अपने खेल में व्यस्त हो जाती हैं तब सिर्फ़ खेल पर ही उनका ध्यान रहता है। उस समय न तो उन्हें इस बात की चिंता होती की उनके बेटे ने बाहर का खाना खाया या उनके पति ने दाल पकाने के लिये कुकर की कितनी सीटियाँ बजाई।
मैं ये फ़िल्म देखना चाहता था क्योंकि इसकी काफ़ी शूटिंग भोपाल में हुई है और मैंने बहुत कम भोपाल में शूट हुई फ़िल्म बड़े पर्दे पर देखी हैं। मेरे हिसाब से बाकी फ़िल्म के किरदारों की तरह शहर भी एक किरदार होता है और मुझे ये उत्सुकता थी की भोपाल का क्या किरदार है। लेक़िन ऐसा कुछ खास था नहीं। लेकिन उसकी खामी एक अच्छी कहानी और उम्दा अभिनय ने पूरी कर दी।
अगर आपने फ़िल्म नहीं देखी है तो नज़दीकी सिनेमाघर में परिवार के साथ ज़रूर देखें। आपको अपने आसपास, शायद अपने ही घर में, एक जया निगम मिल जायेंगी।
मेरी लगभग सभी लंबी दूरी की यात्रा ट्रैन से अथवा उड़नखटोले से हुई हैं। ट्रैन में मैं हमेशा से ऊपर की बर्थ लेकर सीधे सोने चला जाता। ट्रैन चलने के बाद नींद टिकट चेक करने के लिये खुलती। कभी खाने के लिये उठे तो ठीक नहीं तो सोते हुये सफ़र निकल जाता था।
हवाई जहाज की यात्रा में जो सीट नसीब हुई उसी पर थोड़ा बहुत सोकर सफ़र पूरा हो जाता। ट्रैन में तो फिर भी कभी आसपास वालों से दुआ सलाम हो जाती है लेकिन हवाई जहाज में एक अलग तरह के लोग सफ़र करते हैं। वो सफ़र के दौरान या तो कुछ पढ़ना या देखना पसंद करते हैं। ग्रुप में सफर करने वाले बातचीत में समय बिताते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे मुम्बई की लोकल ट्रेनों में फर्स्ट और सेकंड क्लास में होता है।
इसलिये मुझे अपनी पिछली ट्रैन यात्रा के दौरान थोड़ा आश्चर्य हुआ जब बोरीवली स्टेशन से मेरी सीट के साझेदार कुशल सवार हुये। उन्होंने अपना परिचय दिया और उसके बाद मुझे उम्मीद थी की बाकी ढेरों यात्रियों की तरह वो भी मोबाइल में खो जायेंगे। मैंने फ़ोन से बचने के लिये उस दिन का अख़बार हथिया लिया था। लेकिन अगले पाँच घंटे हमने बमुश्किल कुल 10 से 15 मिनिट ही मोबाइल देखा और बाकी सारा समय बात करते हुये बताया। वो अख़बार मेरे साथ गया और वापस आ गया। अब बासी खबरों को बाचने का कोई शौक नहीं।
हमारे सामने की सीट पर बैठे दंपत्ति और उनके परिचित कुशल के आने के पहले बहुत बात कर रहे थे। लेकिन उनके आने के बाद से हम दोनों की बातों का जो सिलसिला चला तो उनकी आवाज़ कुछ कम आने लगी। जब कुशल वड़ोदरा में उतर गये तो वो जानना चाहते थे की हम दोनों में से कौन उतरा।
जर्मनी से पढ़ाई कर लौटे कुशल का वडोदरा में स्वयं का पारिवारिक व्यवसाय है और वो काम के सिलसिले में ही मुम्बई आये थे। मुझे याद नहीं मैंने पिछली बार अकेले यात्रा करते हुये किसी से कभी इतनी बात हुई हो। उन्होंने जर्मनी के अपने प्रवास के कई अनुभव साझा किये और कैसे वहाँ एक अध्यापक होना एक बहुत बड़ी बात होती है। उनको एक बहुत ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है एक गर्व की बात है।
बहरहाल, कुशल से मिलना और बातचीत करना एक सुखद अनुभव रहा। इस साल की शुरुआत एक बड़े बदलाव से हुई है और उम्मीद है मैं ख़ुद को ऐसे ही चौंकाते रहने वाले काम आगे भी जारी रखूँगा।
आपने 2020 में क्या नया किया? क्या आपकी भी ऐसी ही कोई यादगार यात्रा रही है? कमेंट कर मेरे साथ शेयर करें।
लोग आपकी क्या क्या बातें याद रखते हैं इसका आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा। कल से पहले मुझे भी नहीं था। मैं अपने स्कूल के एक पुराने मित्र से बात कर रहा था। ये हमारी पिछले 25 सालों में, मतलब स्कूल छोड़ने के बाद, पहली बातचीत थी।
दोनों एक दूसरे की अभी तक के सफर के बारे में बात कर चुके थे लेकिन भाईसाहब को मेरी शक्ल याद ही नहीं आ रही थी। जब मैं किसी से मिलता हूँ तो मेरे साथ अक्सर ये परेशानी होती है लेकिन इनके साथ नहीं थी। मुझे इनकी शक्ल और इनके कारनामे सभी याद थे। बात करते करते उन्होंने बोला यार इस नाम के एक लड़के की याद है और फ़िर उन्होंने मेरे बारे में बताना शुरू किया। इस नाम का लड़का जोकि खाते पीते घर का दिखता था और उसके बाल कुछ इस तरह के होते थे। लेकिन जो बात उन्हें बिल्कुल साफ साफ याद थी वो ये की लंच ब्रेक में मैं किस तरीके से अपना टिफिन पकड़ कर खाता था। शायद ये भी मेरे खाते पीते शरीर के पीछे का राज़ था।
जब वो ये बता रहे तो मैं ये सोच रहा था अच्छा हुआ उन्हें ये याद नहीं रहा की मैं कितना खाता था। लेकिन सोचिये याद रहा भी तो क्या। हमें अक्सर लोगों की क्या बातें याद रह जाती हैं? उनके हावभाव, बोलने का तरीका, खाने पीने का तरीका या चलने का तरीका। लेकिन टिफिन पकड़ने का तरीका? मैं सही में वक़्त में वापस जाकर देखना चाहता हूँ की उसमें ऐसा क्या अनोखा था? क्या इन्होंने कभी मेरा टिफिन खाने की इच्छा व्यक्त करी हो और मैंने उन्हें नहीं खाने दिया हो। अब पच्चीस साल बाद सिर्फ़ कयास ही लगा सकते हैं।
जब से लिखना शुरू किया है इन यादों के ख़ज़ाने से ही कुछ न कुछ ढूंढता रहता हूँ। लेकिन किसी के टिफ़िन पकड़ने के अंदाज़ को याद नहीं रखा। लोगों की कंजूसी और दरियादिली याद है और उनका किसी बात पर नाराज़ होना भी। जैसे हमारे एक पड़ोसी हुआ करते थे। उनका हँसने का अंदाज़ एकदम जुदा और इसके चलते हम उनकी न हँसने वालीं बातों पर भी हँस दिया करते थे। लेकिन मुझे उनके या उनके बच्चों का टिफ़िन पकड़ने का अंदाज़ याद नहीं आ रहा।
कुछ ऐसी ही यादों के पुलिंदे खुल गये पिछले गुरुवार की रात जब ख़बर आयी की हमारी एक करीबी रिश्तेदार की अचानक मृत्यु हो गयी है। पहले तो जब ये संदेश पढ़ा तो विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि उनके स्वास्थ्य को लेकर ऐसा कुछ मालूम ही नहीं था। सब कुछ अचानक में हो गया और रह गईं सिर्फ़ यादें। मैं उनके विवाह में भी सम्मिलित हुआ था और जब कुछ समय वो मुम्बई में थीं तब भी उनके यहाँ आना जाना था। कुछ महीनों पहले भोपाल प्रवास के दौरान उनसे मिलना हुआ था। बहुत ही मिलनसार और चेहरे पर हमेशा एक मुस्कुराहट याद रहेगी और याद रहेगा उनकी रसोई से निकलने वाले हर पकवान का स्वाद।
तो आप भी हमेशा हँसते मुस्कुराते मिला करें, ताकि आपकी यादें भी मुस्कुराती हुई ही मिलें। मैं फिलहाल किसी तरह टिफ़िन पकड़ने की याद को किसी और बेहतर व्यवहार से बदलने की कोशिश करता हूँ।
जहाँ दशक की शुरुआत में एक बहुत बड़े बदलाव का साक्षी बना, दस साल का अंत होते होते एक और कड़वी सच्चाई से पाला पड़ा। एक संस्थान में जाने का मौका मिला जो बदलाव की कगार पर खड़ा है लेकिन बदलाव को अपना नहीं रहा।
इन दस वर्षों में बहुत सी चीज़ें बदलती हुई देखी। जब ये दशक शुरू हुआ था तो किसे पता था हमारी दुनिया एक पाँच इंच की स्क्रीन पर सिमट जायेगी। लेकिन आज मैं ये पोस्ट उसी स्क्रीन पर टाइप कर रहा हूँ। कहने का मतलब है सिर्फ़ और सिर्फ़ बदलाव ही निरंतर है। लेकिन उस संस्थान को देखकर लगा समय जैसे रुक सा गया है। कहाँ हम इंटरनेट क्रांति की बात कर रहे हैं और कहाँ लोगों के पास अच्छी स्पीड वाला इंटरनेट नहीं है जो कि उनके काम को आसान बनाता है। ऐसा नहीं है की पैसे नहीं है, लेकिन जो चला आ रहा है उसको बदलने का डर और फ़िर हमारी माईबाप वाली मानसिकता जो इस बदलाव का सबसे बड़ा रोड़ा बन बैठी है।
ऐसे किसी भी बदलाव को हम सिर्फ़ कुछ समय तक रोक सकते हैं। लेकिन वो बदलाव होगा ये निश्चित है। अगर समय रहते हम नहीं बदले तो पीछे ही रह जायेंगे। चार्ल्स डार्विन ने भी तो यही कहा है। तो क्या ये बेहतर नहीं है कि हम अपने आप को किसी भी बदलाव के लिये तैयार रखें?
इस बीते दशक में दुनिया में कई जगह जाने का मौका मिला। दूसरे देशों के लोगों के साथ काम करने का मौका भी मिला और उनसे बहुत कुछ सीखने को भी। ऐसे शुभचिंतकों की लंबी लिस्ट भी है जिनसे अब अगले कई दशकों तक मिलने का कोई मन नहीं है और एक छोटी सी लिस्ट उन लोगों की भी जिनसे मुलाक़ात के लिये बस एक बहाने की तलाश रहती है।
कुल मिलाकर इन दस सालों में बहुत कुछ सीखने को मिला। सबसे बड़ी उपलब्धि? ये जो मैं लिख रहा हूँ और जो आप पढ़ रहे हैं। मेरे अंदर का लेखक जो पिछले दो दशकों में कहीं खो गया था वो मिल गया और वो हिंदी में भी लिख सकता है।
पिछली पोस्ट में आप सभी को नये साल की शुभकामनायें देना भूल गया था। आप सभी के लिये ये वर्ष मंगलमय हो और आप सभी स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें। नया दशक चुनोतियों से भरा हो और आप हर चुनौती का डट कर मुकाबला करें।
ये लेखा जोखा, बही खाते वाला काम तो हम कायस्थों के ही ज़िम्मे है। इसलिये जब कई लोगों का पिछले दशक का लेखा जोखा पढ़ रहा था तो सोचा एक बार अपना भी लिखा जाये। इस फ्लैशबैक में बड़ी खबरें तो आसानी से याद रह जाती हैं, लेकिन छोटी छोटी बातें जिनका असर ज़्यादा समय तक रहता है वो बस ऐसे ही कभी कभार याद आ जाती हैं।
2010 के ख़त्म होते होते ज़िन्दगी को एक नई दिशा मिल गयी। उसके पहले कुछ न कुछ चल रहा था लेकिन भविष्य कुछ दिख नहीं रहा था। और ये जो नई दिशा की बात कर रहा हूँ वो दरअसल कुछ समय बाद दिखाई दी। हम लोग जिस समय हमारे जीवन में ये घटनाक्रम चल रहे होते हैं, उस समय उससे अनजान ही रहते हैं। वो तो थोड़े समय बाद समझ में आता है की क्या हुआ है या हो गया है। थोड़े और समय बाद समझ आता है उसका असर।
2011 से 2019 तक का समय काम के हिसाब से स्वर्णिम रहा। बहुत कुछ नया सीखने को मिला और पिछले दशक के अपने पुराने अनुभवों से जो सीखा उसे अमल करने का मौका मिला। इस दौरान ऐसे कई लोग मिले जिन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया। ये मेरे सीनियर जैसे देबाशीष घोष, संदीप अमर, मनीष मिश्रा, नीपा वैद्य और मेरे बहुत से टीम के सदस्य जिनमें प्रमुख रहे आमिर सलाटी, आदित्य द्विवेदी, मोहम्मद उज़ैर, नेहा सिंह। वैसे सीखा सभी से लेकिन जिनके नाम लिये हैं उनसे मिली सीख याद रही।
जो मेरे सीनियर हैं उनसे मैंने काम करने के कई नये गुर तो सीखे ही उनसे जीने का फ़लसफ़ा भी मिला। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय मुझे काम करने का सौभाग्य मिला कुणाल मजूमदार के साथ। जब कुणाल से पहली बार मिला तो इसका अंदाज़ा नहीं था कुणाल का नेटवर्क कितना कमाल का है। उनके ज़रिये आज के कई चर्चित लेखकों ने उस समय हमारे लिये लेख लिखे। कुणाल फ़ोन पर सम्पर्क कर बात करते और स्टोरी या वीडियो तैयार। लेकिन कुणाल से मिल कर आपको इस बात का एहसास ही नहीं होता। इतने समय में कुणाल में कोई बदलाव नहीं आया है। वो आज भी वही हैं या कहूँ समय और अनुभव के साथ और बेहतर इंसान बने हैं तो कुछ ग़लत नहीं होगा।
जिस समय हम लोग ये कर रहे थे उस समय चुनाव की उठापटक शुरू थी। लेकिन इस सबके बीच सभी काम अच्छे से हुये और 16 मई 2014 को जब परिणाम आया तो हमारा ट्रैफिक का रिकॉर्ड बन गया। ये उस समय के हमारे टीम के सभी सदस्यों की मेहनत ही थी जिसके चलते हमारी वेबसाइट को लोग जानने लगे।
लेकिन अगले तीन साल में मैनेजमेंट में हुये बदलाव के चलते सब ख़त्म हो गया। मतलब तीन सालों में मैंने अपनी टीम के साथ मेहनत कर एक ब्रान्ड बनाया और फ़िर उसको ख़त्म होते हुये देखा। ये शायद जीवन की सबसे बड़ी सीख भी थी।
जीवन की दूसरी बडी सीख मिली वो शायद किसी का व्हाट्सऐप स्टेटस था – कॉरपोरेट में कोई किसी का सगा नहीं होता *+#&$#। ये वाली सीख थोड़ी देर से समझ में आई लेकिन अभी भी कभी कभी फ़िर गलती दोहरा देता हूँ। नये लोगों के साथ।
इसका एक और भाग होगा। अब दशक के लिये इतना लिखना तो बनता है।
मैं अपनी नज़रें एक स्क्रीन से दूसरी और दूसरी से तीसरी की तरफ़ बारी बारी से दौड़ा रहा था। श्रीमती जी ने ऐसे ही पूछ लिया अपने किसी लिबास के बारे में। क्या मुझे याद है? अगर आप स्क्रीन पर ही उलझे रहे तो आपको नहीं समझ आयेगा की ये एक ट्रैप है।
अब अगर आप शादीशुदा हैं तो आपको दिख रहा होगा की श्रीमान जी ने कुछ ज़्यादा ही छूट ले ली है। एक तो स्क्रीन पर नज़रें हैं, मतलब ध्यान कहीं और है उसपर \’किसी लिबास\’ कह कर तो बस आगे का सारा मंज़र साफ दिख रहा है।
अब अगर ये कहूँगा की बीवियों को भी ऐसे जाल बिछाना बहुत अच्छे से आता है तो मुझे भी पड़ोसी देशों में शरणार्थी के लिये अर्ज़ी लगानी पड़े। लेकिन ये एक ऐसा खेल है जिसमें आप ने भाग लिया यही आपका बड़प्पन है। इस खेल का विजेता तो उस समय ही तय हो गया था जब आपने बाकायदा कार्ड छपवाकर सबको अपनी आज़ादी के दिन खत्म होने की बड़ी पार्टी दी थी।
इस खेल के नियम भी बिल्कुल साफ हैं। विजेता कभी भी बदलेगा नहीं। कुछ दिन श्रीमती जी सही होंगी और बाकी दिन आप ग़लत। एक बार फ़िर से पढ़ लें। श्रीमती जी कभी ग़लत नहीं होती हैं, कभी भी नहीं। हो सकता है वो हमेशा ही सही हों। सब आपकी किस्मत है, आज़माते रहिये।
अब अगर आपने ऊपर पूछे गये सवाल \’क्या तुम्हें याद है\’ का जवाब सही दिया जैसे डिनो मोरिया ने बिपाशा बसु को दिया था, तो दूसरे सवाल का इंतजार करें। जैसे केबीसी में दसवें सवाल के बाद जैकपॉट प्रश्न खुल जाता है, ठीक वैसे ही आपके ऊपर प्रश्नों की बौछार शुरू हो जायेगी। अगर आपको याद नहीं होता तो बात आगे नहीं बढ़ती। मतलब बढ़ती लेकिन उस दिशा में नहीं जिधर आपका सही जवाब लेकर जायेगा।
बात शुरू एक बहुत ही सादे से प्रश्न से हुई थी। लेकिन दिन चढ़ते चढ़ते ये सबको अपने लपटे में ले लेती है। आप को मालूम है अंत में क्या होने वाला है लेक़िन पूरे जोश खरोश से डटे रहते हैं। कभी घरवालों का तो कभी अपनी ऑफिस की कोई सहयोगी का और उस दिन चहलकदमी करते हुये जो नये पड़ोसी आये थे उनकी श्रीमती से मुस्कुराकर बात करने का – सभी का बचाव करते हुये। लेकिन एक दो मिसाइल अपने ससुराल पक्ष पर दाग देने के बाद।
अगली बार क्या ये नहीं होगा? बिल्कुल होगा जनाब। हाँ इसमें थोड़े बहुत फेरबदल ज़रूर होंगे। वो कोई शायर कह भी गया है, किसी रंजिश को हवा दो, अभी में ज़िंदा हूँ।
https://youtu.be/YkEHvTuoEDU
नोट: ये कहानी या इसके पात्र बिल्कुल भी काल्पनिक नहीं है। ये सब अपने इर्दगिर्द होते घटनाक्रम का ही बयान है। इसमें लिखी घटना एक अलसायी सी दोपहर की \’सूचना के आदान प्रदान\’ प्रक्रिया का हिस्सा थी।
टीम मैनेजमेंट के बारे में मैंने जो भी कुछ सीखा या जिसका अनुसरण किया उसमें दो चीजों का बड़ा योगदान रहा। पहली तो अपने सभी पुराने बॉस और दूसरा उसमें से क्या था जो पालन करने योग्य नहीं था। इसके अलावा अपने आसपास – घर पर और बाहरी दुनिया में मिलने जुलने वालों से। चूँकि बाहर वालों से मिलने का समय असीमित नहीं होता था तो घर पर माता-पिता को देखकर काफी पहले से ये मैनेजमेंट की शिक्षा ग्रहण की जा रही थी।
एक अच्छे मैनेजर के लिये सबसे ज़रूरी चीज़ होती है संयम और दूसरी संवाद। जब शुरुआती दिनों में टीम की ज़िम्मेदारी मिली तो मुझमें दोनों ही की कमी थी। किसी और बात पर टीम के किसी सदस्य से नाराज़गी हो लेकिन गुस्सा निकलता काम पर। पीटीआई के मेरे सहयोगियों ने मेरा ये दौर बहुत अच्छे से झेला है। ख़ैर अपनी गलतियों से सीखा और कोशिश करी की टीम को सही मार्गदर्शन मिले।
इसमें कितनी सफलता मिली ये तो नहीं बता सकता लेकिन हर बार ऐसे कुछ नमूने ज़रूर मिल गये जो फ़िर से सीखा गये की गुरुजी, अभी भी आपको बहुत कुछ सीखना बाकी है। नमूना इसलिये कह रहा हूँ की वो सैंपल पीस थे।
मेरी टीम के एक सदस्य थे। बहुत मेहनती और अच्छा काम करने वाले। एक दिन अचानक उन्होंने आकर त्यागपत्र देने की सुचना दी। बात करी, पता किया कि ऐसा क्या हुआ की उन्हें ये कदम उठाना पड़ रहा है। उनके परिवार में कुछ आकस्मिक कार्य के चलते उन्हें लंबे अवकाश पर जाना था लेक़िन इतने दिनों की छुट्टी की अर्ज़ी ख़ारिज होने के अंदेशे से उन्होंने संस्थान छोड़ना ही बेहतर समझा। वो पहले भी बहुत छुट्टी लेते थे तो उनका ये डर लाजमी था। ख़ैर, सब उनके हिसाब से करके उन्हें अवकाश पर जाने दिया लेकिन लौटने के हफ़्ते भर के अंदर उन्होंने फ़िर से त्यागपत्र डाल दिया। इस बार हम दोनों ने कोई बात भी नहीं करी। न मैंने उन्हें समझाईश देना ज़रूरी समझा और उनके त्यागपत्र को स्वीकृति प्रदान कर दी।
ख़ैर, सब उनके हिसाब से करके उन्हें अवकाश पर जाने दिया लेकिन लौटने के हफ़्ते भर के अंदर उन्होंने फ़िर से त्यागपत्र डाल दिया। इस बार हम दोनों ने कोई बात भी नहीं करी। न मैंने उन्हें समझाईश देना ज़रूरी समझा और उनके त्यागपत्र को स्वीकृति प्रदान कर दी।
मेरा ऑफिस में चल रही पॉलिटिक्स या रोमांस दोनों में ज़रा भी रुचि नही रहती। इसलिये मुझे दोनों ही बातें जब तक पता चलती हैं तब तक काफ़ी देर हो चुकी रहती है। जैसे इन महोदय ने बाकी जितने दिन भी रहे सबसे खूब अपने गिले शिकवे सुनाये। तबसे मन और उचट गया। लेक़िन कुछ लोगों को तो जैसे मसाला मिल गया। मुझे नहीं पता उनसे अगर अब आगे मुलाक़ात होगी तो मेरा क्या रुख़ रहेगा।
लेकिन मैं तब भी जानता हूँ की जब हम मिलेंगे तो सब अच्छे से ही मिलेंगे। यही शायद एक अच्छे लीडर की पहचान भी होती है। आप सार्वजनिक जीवन में सब अच्छे से ही व्यवहार करते हैं।
ऐसे ही एक सज्जन हैं जो मुझसे भी बहुत नाराज़ चल रहे हैं। हम साथ में काम करना चाहते थे लेकिन कुछ कारणों के चलते शुरू करने के बाद काम बीच में ही रुक गया और फ़िर टलता ही रहा। जैसे मुझे अपने टीम के साथी से नाराजगी है वैसे ही कुछ वो भी ख़फ़ा से हैं। मुझे एहसास-ए-जुर्म तो है लेकिन अब सब समय के ऊपर छोड़ दिया है।
जब नया साल शुरू होता है तो सब नई नई वाली फीलिंग आ जाती है। जैसे जैसे महीने निकलते जाते हैं, तो गिनने लगते हैं या यूं कहें सोशल मीडिया के चलते गिनाया जाता है इस साल के इतने महीने निकल गये पता ही नहीं चला। दिसंबर तक आते आते तो सब पीछे मुड़कर देखना शुरू कर देते हैं और साल का लेखा जोखा लिखने का काम शुरू हो जाता है। लिस्ट बनने लगती है साल की सबसे अच्छी या सबसे बुरी चीज़ों की। फिल्में, गाने, किताबें, वेब सिरीज़ भी इस लिस्ट में शुमार होते हैं।
दूसरी लिस्ट होती है अगले साल कुछ कर गुज़रने वाले कामों की। इसमें कहाँ घूमेंगे, अपनी कौन सी बुरी आदतों को छोड़ देंगे और मेरा प्रिय – इस साल तो वज़न कम करना है। लेकिन जैसे जैसे दिन निकलते जाते हैं दृढ़ संकल्प कमज़ोर होता जाता है और वज़न लेने वाली मशीन का काँटा आगे नही भी बढ़ता है तो पीछे जाने में भी बहुत नख़रे करता है। एक शख़्स जिन्हें मैंने ये वज़न कम करने वाले प्रण पर टिके रहते देखा है वो हैं मेरे पुराने सहयोगी मोहित सिंह। अगर उनकी इच्छाशक्ति का दस प्रतिशत भी मैं अपने जीवन में फॉलो करूं तो मेरा अच्छा खासा वज़न कम हो जायेगा।
कितना अच्छा हो अगर हम कैलेंडर में बदलते दिन, महीने और साल को न देखकर हर दिन भरपूर आनंद के साथ जियें और अगले दिन का इंतजार ही न करें। साल के 364 दिन निकलने के बाद साल के आखिरी दिन सब चंद घंटों के लिये ही सही जी उठते हैं। और उसके बाद फ़िर वही 364 का इंतजार और एक दिन का जीना।
ये जो इस पोस्ट की हेडलाइन है वो दरअसल ख़ुद से ही रोज़ाना की मुलाक़ात के बारे में है। आपने अगर क्लब 60 फ़िल्म देखी हो तो रघुबीर यादव के सबसे रंगीन क़िरदार की तरह आप भी स्वस्थ रहिये और मस्त रहिये।
और जैसे अमिताभ बच्चन फ़िल्म मिस्टर नटवरलाल के एक गाने में कहते हैं, ये जीना भी कोई जीना है लल्लू!
एक पुराना विज्ञापन आज फ़िर से देखा। घर की बहू सुबह से सबकी सेवा में लगी रहती है। अपनी चाय भी पीना भूल जाती है। रात को पति देखता है की सबको गर्म गर्म खाना खिलाने के बाद वो स्वयं अकेले ठंडा खाना खाती है। लेकिन उस बीच में भी उसे कभी सास की दवाई तो कभी बिटिया की किताब ढूंढने के लिये उठना पड़ता है। पति बड़ा आहत होता है और अगले ही दिन से उसमें पत्नी प्रेम जाग उठता है और वो उससे कहता है अबसे पहले तुम, जो की विज्ञापन की थीम भी है।
इस पर लोगों की प्रतिक्रिया ही इस पोस्ट की जननी है। कुछ महिलाओं ने इससे सहमति जताई और कहा की महिलाओं को भी घर में सम्मान मिलना चाहिये। लेकिन कुछ अन्य महिलाओं ने कहा दरअसल अंत में खाने के पीछे कारण है सही अंदाज़ा लगाना की कितनी रोटियां बनाई जायें और कितनी सब्ज़ी बच रही है। इसमें कोई महिला सशक्तिकरण जैसी कोई बात नहीं है और ये एक प्रक्टिकल सोच है।
इस विज्ञापन के बारे में दो विचार थोड़े अलग थे। एक किसी ने पूछा कि सास क्यों नहीं बहु का साथ देती रसोई में। क्या बहु सिर्फ़ काम करने के लिये ही है। शायद जिन महिलाओं को इस विज्ञापन का संदेश पसंद आया उनके साथ ऐसा व्यवहार होता है इसलिये उन्हें कहीं न कहीं अपनी पीड़ा दिखाई दी।
मैं स्वयं ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ जो पढ़े लिखे हैं। अच्छे पद पर काम कर चुके हैं लेकिन बहु को रिमोट कंट्रोल करते हैं। सास ससुर रहते दूसरे शहर में हैं लेकिन बहु की मजाल है कि वो अपने हिसाब से कोई काम कर सके। उसके कहीं आने जाने पर रोकटोक है और रिश्तेदारों से फ़ोन पर बात करने पर भी पाबंदी।
दूसरी बात जिसने मुझे सोचने पर मजबूर किया वो पति जी का एकदम से जागृत होना। मतलब इतने वर्षों से क्या ये उन्हें दिखाई नहीं दे रहा था? अच्छी बात है की उन्हें इस बात का एहसास हुआ, देर से ही सही।
बचपन में और शायद उसके कुछ समय बाद भी गणपति और दुर्गाउत्सव के दौरान भोपाल में बड़ी रौनक रहती। घर के आसपास कई जगह पर प्रतिमा स्थापित होती और सब जगह कुछ न कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते। उसमें से जिस कार्यक्रम का बेसब्री से इंतज़ार रहता वो था रात का फ़िल्म शो।
बीच रोड पर रात को दिखायी जाने वाली फिल्म का नाम दिन में बोर्ड पर लिखा रहता और रात 10 बजे से सफ़ेद चादर की स्क्रीन तैयार रहती हम लोगों के मनोरंजन के लिये। अक्टूबर की हल्की हल्की ठंडी रात और हाथ में गर्म ताज़ी सीकी हुई मूंगफली के साथ उस फ़िल्म को देखने का आनंद ही कुछ और था।
मुझे याद है शोले फ़िल्म की इस सीजन में बहुत डिमांड रहती। मैंने इसे हॉल में भी देखा है और खुली सड़क पर भी। दोनों के अपने मज़े हैं।
अब पता नहीं ये प्रथा चालू है या नहीं लेकिन आज शाहरुख खान के जन्मदिन पर फ़िल्म स्वदेस का ये गाना देखा तो वो समय याद आ गया। इस सीन/गाने में उन्होंने इस पर्दे के इस पार और उस पार की जो दूरी थी उसको मिटाने की कोशिश करी। गांव के बड़े बूढ़े ये सब देख कर थोड़े सकपकाये हुए से हैं। स्वदेस शाहरुख़ खान की मेरी सबसे पसंदीदा फिल्मों में से एक है। बहुत कम फिल्में हैं जिसमें शाहरुख खान ने किरदार को बहुत ही सहज रूप में निभाया है।
बरसों बाद ऐसे ही खुले आकाश में फ़िल्म देखने का मौका मिला अहमदाबाद में। वहाँ एक ड्राइव-इन थिएटर हुआ करता था। आप बस अपनी गाड़ी लेकर सीधे मैदान में चले जाइये और अपने साथ लायी हुई दरी, चटाई आदि बिछाकर बैठ जाइये या आराम करने के मूड में हैं तो लेट जाइये। खुले आकाश के नीचे शाहरुख़ ख़ान और काजोल को हो गया है तुझ को तो प्यार सजना देखने का आनंद ही कुछ और रहा होगा।
फ़िलहाल आप रोमांस के किंग के इस गाने का आनंद यहीं उठा सकते हैं।
ट्विटर पर आज एक बड़ा अच्छा संवाद चल रहा था। अगर आपने किसी के सामने अपने दिल के अंदर जो कुछ भी है वो सब निकाल कर रख देते हैं, उसके बाद क्या आप फ़िर से अजनबी हो सकते हैं?
करीब करीब सभी का ये कहना था कि ऐसा उनके साथ हमेशा होता है। और छह महीने बाद यही घटना फ़िर से दोहराई जाती है। मुझे इस पूरे संवाद ने बड़ा विचलित किया। मैंने ऐसे प्रकरण देखे हैं लेकिन ये दोस्तों के बीच नहीं – भाई बहन के बीच, माता पिता और संतान और पति पत्नी के बीच। सालों से बने हुये सम्बन्ध एक झटके में ख़त्म हो जाते हैं और दोनों सामने से बिल्कुल अजनबियों की तरह व्यवहार करते हैं।
मेरे साथ ऐसा बहुत हुआ है ये कहना गलत होगा। मैंने बहुत लोगों के साथ ऐसा किया है। मतलब पूरी तरह से एक अजनबी की तरह पेश आना। जब कुछ दिनों बाद दिमाग शांत होता और अक्ल ठिकाने आती तो फ़िर से चीजें नार्मल हो जाती। इन दिनों ऐसे दौरे कम पड़ते हैं लेकिन पुराने मिलने जुलने वाले जानते हैं उस दौर के बारे में।
दोस्तों से लड़ाई हुई और बातचीत बंद। लेकिन सामनेवाले की उतनी ही चिंता तो किसी माध्यम के ज़रिये मदद करते। लेकिन क्या हो जब सामने वाला भी ऐसा ही हो? इसके बारे में विस्तार से और जल्दी ही।
गुलज़ार साहब ने कहा भी है, कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी एक तस्लीम लाज़मी सी है…
जगजीत सिंह जी की मखमली आवाज़ में आप भी इस ग़ज़ल का आनंद लें और बातचीत चालू रखें क्योंकि बात करने से बात बनती है।
फ़िल्म \’लक्ष्य\’ के इस गीत में गीतकार जावेद अख़्तर साहब ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा फ़लसफ़ा देते हैं। फ़िल्म के हीरो ऋतिक रोशन प्रीति जिंटा से अपने प्यार का इज़हार कर रहे हैं और वो कुछ और ज़्यादा रोमांटिक अंदाज़ की उम्मीद कर रही थीं। जावेद साहब ने इस बात को कुछ इस अंदाज़ में लिखा है \”इस बात को अगर तुम ज़रा और सजा के कहते, ज़रा घुमा फिरा के कहते तो अच्छा होता\”.
फ़िलहाल के लिये हम रोमांस को हटा देते हैं और सिर्फ कहने के अंदाज़ पर बात करते हैं। ये बात शायद नहीं यक़ीनन पहले भी कही होगी की बात करने का एक सलीका होता है, एक तहज़ीब होती है। सही मायने में ये आपकी परवरिश दिखाती है। कई बार ऐसा बोल भी देते हैं की कैसे गवारों जैसी बात कर रहे हो। मतलब सिर्फ़ इतना सा की बातें ऐसे कही जायें की किसी को तक़लीफ़ भी न हो।
मैं अपने आप को अक्सर ऐसी स्थिति में पाता हूँ जब कोई मुझसे अपने लिखे के बारे में पूछने आता है। ऐसी ही स्थिति मैं उन लोगों की भी समझ सकता हूँ जो कभी मेरा लेख पढ़ते हैं लेक़िन टिप्पणी करने से कतराते हैं। कुछ करते हैं लेक़िन सब मीठा मीठा। कुछ बोलने की हिम्मत करते हैं – लेकिन थोड़ा घुमा फिरा कर। मुझे उसमे से समझना होती है वो बात जो कही तो नही गयी लेकिन मुझ तक पहुंचाने की कोशिश करी गयी।
कई बार इसी उधेड़बुन में दिन हफ़्ते बन जाते हैं। लेक़िन अब जो लिखना शुरू किया है तक सब साफ़ है। इसलिये तो बिना किसी लागलपेट के कह रहा हूँ लोगों की सुनना छोड़ें। अपने मन की सुनें और करें। अंत में कम से कम और कोई नहीं तो आप तो खुश रहेंगे। जो आपकी खुशी में शरीक़ होना चाहेँगे वो होंगे और जो नहीं होंगे वो वैसे भी कहाँ ख़ुश थे।
जब इसकी हैडलाइन लिख रहा था तो सोच रहा था देखो कौन लिख रहा है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल ये ब्लॉग ही है। जब लिखना शुरू किया तो जोश ऐसा की पता नहीं क्या कर जायें। कुछ दिनों तक तो बरकरार रहा ठीक वैसे ही जैसे शादी के बाद का रोमांस। शुरू में तो लगता बस लैला मजनू के बाद ये नव विवाहित जोड़ा ही है। लेकिन समय के जाते जाते ये थोड़ा कम हो जाता है। बस इज़हार के तरीक़े बदल जाते हैं। मेरा ब्लॉग के प्रति प्यार दिखाने का एकमात्र तरीका यही है की में नियमित लिखूँ लेकिन ऐसा होता नहीं। फ़िर \’चाहने वालों\’ की प्रतिक्रिया के बाद थोड़ा सा फ़ोकस गया तो गया।
हर महीने की शुरुआत में ये प्रण लिया जाता है की इस बार ब्लॉग की बहार होगी। लेकिन ऐसा नहीं होता क्योंकि आलस कर जाते हैं। जैसे इस महीने की ये दूसरी पोस्ट है। मतलब वॉर देखने के बाद कुछ भी लिखने को नहीं बचा। वैसे अगर आपने फ़िल्म देखी हो तो सचमुच देखने के बाद कुछ नहीं बचता। हाँ ऋतिक रोशन की बॉडी देखने के बाद अपने को आईने में देखा तो बस यही डायलाग याद आया, \”रहने दो तुमसे न होने पायेगा\”।
इस महीने के ख़त्म होते साल के आखिरी दो महीने बचेंगे। मतलब 2019 खत्म। लगता है जैसे अभी तो साल शुरू हुआ था। ये साल की शुरुआत की कुछ ख़ास याद नहीं सिवाय इसके की बहुत से फ़ोन और ईमेल का इंतज़ार रहा। अक्टूबर के आते आते या कहें जाते जाते एक बहुत बड़ा बदलाव हो गया है मेरे नज़रिये में। इसके बारे में आने वाले दिनों में आपसे साझा करूँगा।
जिस रोमांस के बारे में मैंने शुरुआत में ज़िक्र किया था वो रंग बिरंगी फ़िल्म में बहुत अच्छे से दिखाया गया है। हिंदी फिल्मों में रोमांस के नाम पर इन दिनों जो परोसा जा रहा है उससे मेरा तो मन भर गया है। नौजवानों का रोमांस तो इनके बस का है नही तो शादी शुदा जोड़े का रोमांस तो इन्हें समझ में नहीं आयेगा। लेकिन फ़िल्म रंगबिरंगी में अमोल पालेकर जी और परवीन बॉबी के बीच जो रोमांस है वो कमाल का है और शायद बहुत से जोड़ों की हकीकत। पति-पत्नी के बीच चल रही बातचीत ध्यान से सुने और अपने जीवन में रोमांस को भी बनाये रखें।
https://youtu.be/pRTfJB8_oDY?t=628
रही बात आलस की तो एक बार और लिखने की ठानी है। अब ये सिलसिला चलेगा और अधूरी कहानियां अपने अंजाम तक जायेंगी।
जय और सुधांशु शोले के जय-वीरू तो नहीं थे लेकिन दोनों कॉलेज में अक्सर साथ रहते थे। सुधांशु होस्टल में रहता था तो कभी कभार जय उसको घर पर खाने के लिये ले जाता था। सुधांशु जब घर जाता तो जय के लिये अलग से घर की बनी मिठाई का डिब्बा लेकर आता और सबसे बचाते हुये उसे दे देता। कृति दोनों के बीच एक कड़ी थी।
कृति और सुधांशु ने एक ही कॉलेज से ग्रेजुएशन किया था लेकिन कोई ख़ास जान पहचान नहीं थी। वो तो जब पोस्ट ग्रेजुएशन में इनकी दस लोगों की क्लास बनी तब सब का एक दूसरे को ज़्यादा जानना हुआ। जय को कृति शुरू से ही पसंद थी। वो ज़्यादा बात नहीं करती थी, ऐसा उसको लगा था। लेकिन एक दिन कैंटीन जब वो बाकी लोगों के साथ बैठा था तब उसको अपनी गलतफहमी समझ आयी। बहुत ज़्यादा खूबसूरत भी नहीं थी लेकिन उसे ओढ़ने पहनने का सलीक़ा था। जय को उसके बाल बांधने का तरीका बहुत पसंद था।
उस दिन ठंड कुछ ज़्यादा ही थी। जय का मन नहीं था कॉलेज जाने का तो उसने सुबह से ही आलस ओढ़ लिया था। माँ को भी अच्छा लगा की बेटा आज घर पर है नहीं तो सारा सारा दिन गायब रहता और शाम को पढ़ाई में व्यस्त। उन्होंने उसके पसंद के आलू के परांठे बनाये नाश्ते में और दोनों माँ बेटे ने सर्दी की उस सुबह आराम से नाश्ता किया। जय के पिताजी बैंक में मैनेजर थे और उसकी छोटी बहन प्रीति इस साल बारहवीं की परीक्षा देने वाली थी। नाश्ते के बाद रजाई ओढ़ कर जय कब सो गया उसे पता ही नहीं चला।
प्रीति ने स्कूल से लौटकर जय को जगाया तब उसकी आंख खुली। प्रीति को भी जय को घर पर देखकर आश्चर्य हुआ। उसने माँ से भाई की तबीयत पूछने के बाद जय को उठाना शुरू किया। जैसे तैसे जय ने बिस्तर छोड़ा और ड्राइंग रूम में सोफे पर जाकर बैठ गया।
\”भैया आज तुम घर पर हो तो क्यों न मार्केट चला जाये। मुझे कुछ किताबें भी देखनी हैं और फ़िर विजय की चाट भी…\”, प्रीति ने जय से बहुत प्यार से कहा। जय की आज घर से कहीं बाहर निकलने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी।
\”तुम कविता के साथ क्यों नहीं चली गईं\”, जय ने ग्लास में पानी निकालते हुए पूछा। \”उसकी गाड़ी बनने गयी हुई है नहीं तो मेरी इतनी हिम्मत की आपको परेशान करूँ,\” प्रीति ने भाई की टांग खींचते हुये कहा।
वैसे प्रीति अपनी पढ़ाई के संबंध में जय से ज़रूर सलाह लेती। जय भी अपनी बहन को आगे पढ़ने के लिये प्रोत्साहित करता। माता-पिता की भी कोई बंदिश नहीं थी प्रीति पर।
जय को मार्किट जाने से बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा था। लेकिन तैयार होते हुये उसे बड़ा अजीब सा लग रहा था। घर के गेट पर पहुँचना जय की लिये मुश्किल हो गया था। कदम साथ नहीं दे रहे थे। पीछे से आ रही प्रीति ने उसका हाथ पकड़ लिया नहीं तो क्यारी में लगी ईंट से जय का सिर टकरा जाता। जय प्रीति की गोद में लगभग बेहोश सा पड़ा था।
जय और सुधांशु कॉलेज की कैंटीन में चाय की चुस्कियां ले रहे थे तभी वहाँ कृति आ गयी। \”सरकार यहाँ चाय का लुत्फ़ उठा रहे हैं और इधर हम उन्हें ढूंढ के परेशान हुए जा रहे है,\” उसने सुधांशु की तरफ़ देखते हुये कहा। जय को मालूम था की ये ताना उसपर कसा जा रहा है इसलिये वो सर झुकाये सब सुन रहा था। सुधांशु के पास बचने का कोई उपाय नहीं था सो उसने कृति को भी चाय पीने का न्योता दे दिया।
जय उठ कर खड़ा हुआ जाने के लिये तो कृति ने हाँथ में पकड़ी किताबों को देखते हुये कहा, \”कहाँ तुम किताबों के चक्कर में फंसे हुए हो। ज़रा ज़िन्दगी के बाकी मज़े भी लो।\”
\”उसी की तो तैयारी कर रहा हूँ। थोड़ा सा त्याग अभी और बाद में मज़े,\” जय बोला।
\”पर तब उम्र निकल जाएगी,\” सुधांशु ने कहा।
\”भाई मज़े लेने की कोई उम्र नहीं होती,\” जय ने चलते हुए कहा।
सुधांशु हाथ जोड़ते हुए बोला \’बाबा की जय हो\’ और दोनों कृति को वहीं छोड बात करते हुए कॉलेज की तरफ चल पड़े। जय ने एक बार मुड़कर कृति को देखा जो बाकी लोगों से बात कर रही थी और यूँ ही मुस्कुरा उठा। उसे ध्यान आया की कृति से ये पूछना तो रह गया की वो उसे क्यों ढूंढ रही थी। लेकिन अब फ़िर से कौन डाँट खाये। आज का कोटा हो गया था।
जय अपने आप को बड़ा प्रैक्टिकल इन्सान मानता था। उसे इमोशन फ़िज़ूल तो नहीं लेकिन फालतू लगते थे। उसका मानना था भावनाओं में पड़ कर इन्सान बहुत कुछ गवां बैठता है। लेकिन कृति के लिये उसके दिल में एक ख़ास इमोशन था। वो दोस्ती थी, प्यार था या वो उसकी इज़्ज़त करता था ये समझना उसके लिये थोड़ा मुश्किल हो रहा था।
जय इन्हीं ख़यालों में खोया हुआ था की स्मृति की आवाज़ उसे वापस वर्तमान में ले आयी। वो उसे किसी से मिलवा रही थी। डॉ रायज़ादा के पुराने सहयोगी थे जिनके साथ वो रोज़ सुबह सैर के लिये जाते थे। उस ग्रुप के बाकी सदस्यों से भी जय, स्मृति, सुधांशु और कृति मिले। इस मिलने मिलाने से जय थोड़ा परेशान हो गया था। उसने सुधांशु को ढूंढा और उससे पूछा की उसके पास सिगरेट है क्या। दोनों ने किशन काका से छत की चाबी ली और चल दिये।
जय की तरफ़ सिगरेट बढ़ाते हुये सुधांशु ने पूछा, \”कैसे हो जय?\”। जबसे वो जयपुर आया था तबसे वो और सुधांशु साथ में थे लेकिन पूरे समय डॉ रायज़ादा के अंतिम संस्कार की तैयारी में लगे रहे तो दोनों को समय ही नहीं मिला एक दूसरे से बात करने का।
इस बात को दस बरस हो गये थे लेकिन आज भी जब वो सुधांशु को देखता तो जय को याद आती कृति और सुधांशु की नीचे ड्राइंग रूम में लगी शादी वाली फ़ोटो और कृति का वो फ़ोन कॉल। \”जय मैं शादी कर रही हूँ\”। उसको टूटे फूटे शब्दों में बधाई देते हुये जय ने ये पूछा ही नहीं लड़का कौन है।
इस कहानी का भी वही अंत न जो कि पिछली कई कहानियों का हुआ है, इसलिये समय मिलते ही लिखना शुरू कर दिया। मुम्बई में या बाकी बड़े शहरों में गाड़ी चलाना अपने आप में एक अवार्ड जीतने जैसा लगता है। नवी मुम्बई में जहां मैं रहता हूँ वहाँ से उल्टे हाथ पर मुम्बई जाने की सड़क है और सीधे हाथ वाले मोड़ से आप मुम्बई से बाहर निकल सकते हैं। मेरी कोशिश यही रहती है की सीधे हाथ की ओर गाड़ी मुड़े लेकिन काम के चलते उल्टे हाथ पर ज़्यादा जाना होता है। अच्छी टैक्सी सर्विस के चलते उन्हीं की सेवा लेते हैं। और ऐसे ही कल मेरी मुलाकात हुई प्रदीप से।
जब भी में टैक्सी में बैठता हूँ तो अक्सर चालक से बात करता हूँ क्योंकि उनके पास कहानियां होती हैं। दिनभर न जाने कितने अनजान लोग उनकी गाड़ी में बैठते होंगे और सबकी छोटी बड़ी कोई तो कहानी होती होगी। लेकिन मुझे सुनाने के लिये प्रदीप के पास दूसरों के अलावा अपनी भी कहानी थी। पुणे से माता-पिता के देहांत के बाद मुम्बई आये प्रदीप ने गाड़ी साफ करने से अपना सफर शुरू किया। फ़िर गाड़ी चलाना सीखी और टैक्सी चलाना शुरू किया। इसी दौरान उनका संपर्क एक चैनल के बड़े अधिकारी से हुआ और प्रदीप उनके साथ काम करते हुये नई ऊंचाइयों को छुआ। अपनी कई गाड़ियां भी खरीदीं लेकिन कुछ ऐसा हुआ की सब छोड़ कर उन्हें फ़िर से एक नई शुरुआत करनी पड़ी। जीवन एक गीत है तो कोरस है अनुभव
इस बार गाड़ी छोटी थी लेकिन तमन्ना कुछ बड़ा करने की थी। फ़िर से टैक्सी चलाना शुरू किया और अब वो एक सात सीट वाली गाड़ी चलाते हैं। बातों ही बातों में प्रदीप ने बताया की अगर उन्हें लॉटरी लग जाये तो वो ज़मीन खरीद कर उसमें फुटपाथ पर रहनेवालों के लिये घर बनवायेंगे और पास ही एक छोटी सी फैक्टरी भी शुरू करेंगे जिससे की ये लोग पैसा भी कमा सकें। सब अपना कुछ छोटा मोटा काम भी करें। इसके लिये वो पैसे भी बचा रहें हैं और उम्मीद है मुम्बई के आसपास उन्हें ज़मीन मिल जायेगी। दूसरा काम जो प्रदीप करते हैं वो सिग्नल पर खड़े भीख मांगने वाले बच्चों को पैसा न देकर कुछ खाने के लिये देना जैसे बिस्किट या टॉफ़ी। प्रदीप को कभी कोई ज़रूरतमंद मिल जाता है तो वो उसको अपने कमरे में रहने खाने के लिये जगह भी देते हैं और ज़रूरत पड़ने पर पैसा भी। अपने इसी व्यवहार के चलते प्रदीप ने अभी शादी नहीं करी है और उनकी गर्लफ्रैंड का भी इस काम के लिये पूरा समर्थन प्राप्त है। जीवन सिर्फ सीखना और सिखाना है
प्रदीप जब ये सब बता रहे थे तो मैं सोचने लगा हम सब अपने ही स्तर पर अगर उनके जैसे ही कुछ करने लगें तो ये समाज कितना बेहतर बन सकता है। लेकिन हम सोचते ही रह जाते हैं और ये प्रदीप जैसे कुछ कर गुज़रने की चाह रखने वाले चुपचाप काम करते रहते हैं। शायद समाज अगर आज कुछ अच्छा है तो इसमें प्रदीप जैसे कईयों का योगदान होगा न कि मेरे जैसे कई जो बस सही वक्त का इंतजार ही करते रहते हैं।
आज छुट्टी का दिन और काम की लंबी लिस्ट। लेकिन काम नहीं होने का मतलब अगले हफ्ते तक की छुट्टी। जबसे ये पाँच दिन का हफ़्ता आया है जिंदगी में, एक बड़ी बोरिंग सी ज़िन्दगी लगती है (है नहीं), सिर्फ़ लगती है। पहले जब पीटीआई और हिन्दुस्तान टाइम्स में काम किया था तब हफ़्ते में एक रोज़ छुट्टी मिल जाती थी। जब डिजिटल की दुनिया में प्रवेश किया तो वहाँ पाँच दिन काम होता। पिछले नौ सालों से ये आदत बन गयी है। हालांकि ऐसा कम ही होता जब छुट्टी पूरी तरह छुट्टी हो। समाचार जगत में तो ऐसा कुछ होता नहीं है। जैसे आज ही शीला दीक्षित जी का निधन हो गया। ऐसे बहुत से मौके आये हैं जब ये सप्ताहांत में ही बड़ी घटनायें घटी हैं। मतलब कोई घटना सप्ताह के दिन या समय देख कर तो नहीं होती। जैसे पीटीआई में एक मेरे सहयोगी थे। उनकी जब नाईट शिफ़्ट लगती तब कहीं न कहीं ट्रैन दुर्घटना होती। बाकी लोग अपनी शिफ़्ट रूटीन के काम करते उन्हें इसके अपडेट पर ध्यान रखना पड़ता।
विषय पर वापस आते हैं। वीकेंड पर पढ़ने और टीवी देखने का काम ज़रूर होता। अख़बार इक्कट्ठा करके रख लेते पढ़ने के लिये। हाई कमांड की इसी पर नज़र रहती है की कब ये पेपर की गठरी अपने नियत स्थान पर पहुँचायी जाये। काउच पटेटो शब्द शायद मेरे लिये ही बना था। जिन्होंने रूबरू देखा है वो इससे सहमत भी होंगे। मुझे टीवी देखने का बहुत शौक़ है और शुरू से रहा। जब नया नया ज़ी टीवी शुरू हुआ था तब उसके कार्यक्रम भी अच्छे होते थे। उसके पहले दूरदर्शन पर बहुत अच्छे सीरियल दिखाये जाते थे। लेकिन वो सास-बहू वाले सीरियल नहीं पसंद आते। हाँ सीरियल देखता हूँ लेकिन जिनकी कहानी थोड़ी अलग हो। जब नया नया स्टार टीवी आया था, जब उसके प्रोग्राम सिर्फ़ अंग्रेज़ी में होते थे, तब बोल्ड एंड द ब्यूटीफुल भी देखा।
अभी तक गेम ऑफ थ्रोन्स नहीं देख पाया। उसके शुरू के कुछ सीजन लैपटॉप में रखे हैं जो मनीष मिश्रा जी ने दिये थे लेक़िन थोड़ी देर देखने के बाद बात कुछ बनी नहीं तो आगे बढ़े नहीं। देवार्चित वर्मा ने तो इसको नहीं देखने के लिये बहुत कुछ बोला भी लेक़िन आज भी मामला पहले एपिसोड से आगे नहीं बढ़ पाया। उन्होंने मुझे और नीरज को इस शो को नहीं देखने को अपराध की श्रेणी में शामिल कर दिया है। शनिवार, इतवार थोड़ा बहुत टीवी ज़रूर देखा जाता है। लेकिन चूंकि लोकतंत्र है तो रिमोट \’सरकार\’ के पास रहता है। सरकार से मतलब श्रीमतीजी और बच्चों के पास। उसमें भी बच्चों के पास ज़्यादा क्योंकि उनकी नज़रों में बादशाह, अरमान मलिक, सनम जैसे कलाकार ही असली हैं।
इन दिनों मैं बिटिया के साथ सोनी टीवी का पुराना सीरियल माही वे देख रहे हैं। वैसे सोनी ऐसे अलग, हट के सीरियल के मामले में बहुत आगे है। पाउडर भी बहुत ही ज़बरदस्त सीरियल था। ये दोनों नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध हैं। मौका मिले तो ज़रूर देखें। जो नई वेब सीरीज बन रही हैं हमारे यहाँ उनमें एडल्ट सीन में कहानी होती है और बाकी भाषाओं में कहानी में एडल्ट सीन होते हैं। इसलिये कई अच्छी सीरीज़ देखने के लिये समय निकालना पड़ता है।
सोनी पर इन दिनों दो और सीरियल चल रहे हैं – पटियाला बेब्स और लेडीज़ स्पेशल। दोनों की कहानी आम सीरियल से अलग हैं और इसलिये जब देखने को मिल जाये तो कहानी अच्छी लगती है। पटियाला… एक तलाक़शुदा औरत और उसकी बेटी के समाज में अपना स्थान बनाने की लड़ाई को लेकर हैं। दोनों सीरियल ने कई जगह कहानी या कॉमन सेंस को लेकर समझौता किया है। लेकिन कुछ बहुत अच्छे सवाल भी उठाए हैं – विशेषकर पटियाला…। श्रीमतीजी का ये मानना है कि दोनों सीरियल में शायद रोमांस का तड़का है इसलिये मैं बड़े चाव से देखता हूँ। वो बहुत ज़्यादा गलत नहीं हैं वैसे।
काम भी ऐसा है की सबकी ख़बर रखनी पड़ती है। तो सीरियल में क्या हो रहा है इसका पता रखते हैं। आपके पास अगर कोई सीरीज़ देखने का सुझाव हो तो नीचे कमेंट में बतायें। आपका वीकेंड आनंदमय हो।
समय को जैसे पर लग गये हैं। एक दिन में साल के छह महीने गुज़र जायेंगे। वैसे समय तो उसी रफ्तार से चल रहा है लेक़िन हम इस रफ़्तार से भी तेज चलना चाहते हैं और चौबीस घंटे के दिन में तीस घंटे गुज़ारना चाहते हैं। थोड़ा रुक कर, इत्मीनान से आसपास का मंजर देखने का भी समय नहीं निकालते। लेक़िन क्या हम एक अच्छी ज़िन्दगी जी रहे हैं?
अब ये फलसफे झाड़ने में तो महारत मिली हुई है। लेक़िन आज मैं यही सोच रहा था। हम काम से कब फुरसत पाते हैं। एक ख़त्म तो दूसरा शुरू और ऐसे ये सिलसिला चलता रहता है। कुछ दिनों के लिये कहीं घूम आये लेकिन वापस फ़िर वही दौड़भाग। और ये सब किस के लिये? उस कल के लिये जिसका कोई अता पता भी नहीं है। लेकिन हम अपना आज रोज़ उसके लिये दाँव पर लगा देते हैं।
छोटे शहर से बड़े शहर जाते हैं। अच्छा पैसा कमाने के लिये ताकि ज़िन्दगी अच्छी हो, बच्चों की सारी ख्वाहिशें पूरी कर सकें। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में जो आप होते हैं वो कहीं खो जाते हैं। और फ़िर धीरे धीरे आप भी इस पुराने आप से मिलने से कतराते हैं। सब काम एक व्यवस्था के जैसे चलते रहते हैं। आप उसका एक हिस्सा और यही आपकी ज़िंदगी बन जाती है।
लेक़िन ये सब करके आपको क्या मिला जो आपके पिताजी या उनके पिताजी के पास नहीं था? ऑटोमेटिक कार? बिजली से भी तेज इंटरनेट? मैं ये इसलिये पूछ रहा हूँ क्योंकि कल एक टैक्सी ड्राइवर मिला था। उसकी अमेठी में ख़ुद की दुकान है लेकिन वो ये सब छोड़ मुम्बई आया है और यहाँ आकर 14-16 घंटे टैक्सी चलता है। कोई छुट्टी नहीं लेता क्योंकि वो छुट्टी लेकर क्या करेगा। मैं हम दोनों में फ़र्क समझने की कोशिश कर रहा हूँ।
दरअसल ये कहना जितना आसान है उसका पालन उतना ही मुश्किल है। हम सबको अपने हिसाब से ढालना चाहते हैं लेकिन हम अपने आप को बदलना नहीं चाहते। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारी अर्धांगिनी यानी पत्नियाँ होती हैं।
भोपाल प्रवास के दौरान परिवार में एक विवाह की स्वर्णजयंती समारोह में सम्मिलित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मतलब साथ रहते हुये पचास साल। बाकी सारे रिश्ते आते जाते रहे जैसे माता-पिता, भाई-बहन, बच्चे। लेकिन ये दो प्राणी साथ में रहे पूरे पचास साल। इस लंबे सफ़र की शुरुआत थोड़ी अजीब सी होती है।
वो ऐसे की एक लंबे समय तक लड़की अपने माता-पिता के घर पर अपने हिसाब से रहती थी। लेकिन एक दिन सब बदल जाता है और एक नये रिश्ते, परिवार के बीच एक शुरुआत होती है। जो काम करने ऑफिस जाते हैं अगर उन्हें बताया जाये कि अगले दिन से ऑफिस नई जगह लगेगा और सब नये सहयोगी होंगे। कपड़े भी नये तरीक़े से पहनने होंगे। ये बदलाव कैसा होगा?
2017 में जिस कंपनी में काम करता था उसने अपना ऑफिस नई जगह शिफ्ट करने का निर्णय लिया। ये काफ़ी समय से चल रहा था। कुछ लोग इससे बहुत खुश थे तो कुछ लोग खासे परेशान थे। अच्छा इसमें आपके पास इस बदलाव को गले लगाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। ठीक उस दुल्हन की तरह जो किसी दूसरे प्रान्त से आती है और अपने अभी तक के सीखे सभी तौरतरीकों को भुलाकर नये को अपना लेती है।
आज जब भोजन कर रहा था तो श्रीमती जी ने जो सब्जी बनाई थी उसको उन्होंने विवाह पूर्व देखा तक नहीं था। लेकिन उन्होंने बनाना भी सीखा और खाना भी शुरू किया। मैं कितना अपना रंग बिना गवायें उनके रंग में रंगा इसका पता नहीं लेकिन उन्होंने यहां के काफी सारे रंगों को अपना लिया है।
बरसों पहले अभिनेता अजय देवगन का एक इंटरव्यू पढ़ा था जिसमें उन्होंने यही बात कही थी अपनी पत्नी काजोल के बारे में। वो विवाह पूर्व जैसी थीं वैसी ही हैं। उन्होंने एक दूसरे को पसंद ही उनकी इन खूबियों के कारण किया था। तो अब बदलने का मतलब की अब हम उन्हें पसंद नहीं करते।
हम पति-पत्नी के रिश्ते को सफल भी तभी मानते हैं जब हम उन्हें पूरी तरह से बदल लेते हैं। अब चाय का ही उदाहरण ले लें। हम चाय ऐसी पीतें हैं, आप ऐसी बनाना सीख लें। थोड़े समय बाद दोनों एक जैसी चाय पीने लगते हैं। पचास साल बाद साथ में खड़े होते हैं तो क्या दोनों ही ये कहते हैं तुम कितना बदल गये हो?
मुम्बई या कहें नवी मुंबई में जहां में रहता हूँ वहाँ इन दिनों ट्रैफिक पुलिस काफी सक्रिय है ग़लत तरह से पार्क हुई गाड़ियों के खिलाफ कार्यवाही करने में। ये एक अच्छा प्रयास है। लेकिन जिस जगह वो ये सब कर रहे हैं वहाँ से ट्रैफिक कभी भी बाधित नही होता। जहाँ से गाड़ी उठायी जाती हैं उसके बिल्कुल सामने गाड़ियां बहुत ही बेतरतीब तरीक़े से खड़ी रहती हैं लेकिन उस पर इस पूरी टीम की नज़रें ही नहीं पड़ती। इसी एरिया में थोड़ी दूर पर ऑटोरिक्शा वाले ग़लत तरीक़े से ऑटो खड़े कर ट्रैफिक बाधित करते है लेकिन कुछ कार्यवाही होती हुई नहीं दिखती।
चलिये इसको भी मान लेते हैं। लेकिन उसी रोड पर थोड़ा आगे चलकर एक भारत सरकार के उपक्रम का कार्यलय है और उसमें काम करने वालों के वाहन, उनको मुम्बई से लाने वाली मिनी बस जैसे कई वाहन ग़लत लेन में पार्क रहते हैं। लेकिन उसपर कोई कार्यवाही इतने दिनों में होती हुई नहीं देखी है। आगे भी होगी इसकी गुंजाइश कम ही लगती है।
ज़्यादातर लोग अपनी ऊर्जा ऐसे छोटे छोटे काम में गवां देते हैं जो समय का भी नुकसान करते हैं। दो ऐसे समय गवाने वाले काम जो अक्सर काफ़ी लोग करते है उनमें से एक है सोशल मीडिया पर और दूसरा चैनल पर घूमते रहना। लेकिन रोज़ मैं जब अपनी बालकनी से ये नज़ारा देखता हूँ तो गुस्सा भी आती है लेक़िन ये भी लगता है कि उस टीम को जो ज़िम्मेदारी दी गयी है वो उसको पूरा करते हैं। हाँ अगर वो बाकी आड़ी तिरछी गाड़ियों की पार्किंग भी सुधारवाते तो और अच्छा होता। अग़र वैसे ही हम अपना ध्यान अपने लक्ष्य पर रखें और उसी पर आगे बढ़ते जायें तो हमारे सफ़ल होने की गुंजाइश और बढ़ जाती है।
इस पूरे प्रकरण का दूसरा पहलू ये है कि किसी भी व्यवस्था को सफल या विफल होने में आम जनता का सहयोग बहुत ज़रूरी होता है। जिस समय ट्रैफिक पुलिस ये मुहिम चला रही होती है तो वाहन चालकों को एक हिदायत देने के लिये वो वाहन नम्बर बताते हैं और उनसे कहते हैं कि वो गाड़ी वहाँ से हटालें। लेकिन एक ड्राइवर महाशय जैसे ही ये मुहिम शुरू होती है तेज़ी से अपनी गाड़ी दूसरी और ले जाते हैं। जब तक अमला वहाँ रहता है वो इंतज़ार करते हैं। उसके बाद गाड़ी वहीं वापस। दोबारा ऐसा होने पर वो फ़िर से ऐसा करते हैं। शायद ट्रैफिक पुलिस की टीम भी ये समझ चुकी है और इसलिए कोई कार्यवाही नहीं होती। मुझे तो इस पूरी मुहिम से सिर्फ़ एक सीख मिलती है – नियम, कायदों का पालन करना। वो चाहे पार्किंग के लिये हो या किसी और काम से संबंधित।
लेकिन हमारा यानी जनता के बर्ताव से सिर्फ यही पता चलता है – हम नहीं सुधरेंगे।
सलमान खान की भारत में पहले प्रियंका चोपड़ा जोनास को कुमुद का रोल अदा करना था। लेकिन निक जोनास से शादी करने के निर्णय के चलते उन्होंने फिल्म को छोड़ दिया। सलमान खान शायद इससे ख़ासे नाराज़ भी हैं।
जब भारत देख रहा था तो रह रह कर बस कैटरीना कैफ की जगह कुमुद के रूप में अगर प्रियंका चोपड़ा होतीं तो क्या फ़िल्म कुछ और होती, यही ख़याल आता। ये पता नहीं लेकिन कुमुद का क़िरदार प्रियंका चोपड़ा को ध्यान में रख कर लिखा गया था। इसलिये शायद बार बार प्रियंका ही दिखाई दे रही थी। लेकिन कुछ एक सीन देख कर लगा की प्रियंका चोपड़ा ज़्यादा अच्छा कर सकती थीं। प्रियंका ने बर्फी में बहुत अच्छा काम किया था शायद इसके चलते उनका पलड़ा भारी है।
ऐसे ही फ़िल्म थी फितूर। अभिषेक कपूर द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में बेग़म का किरदार पहले रेखा निभाने वाली थीं। लेकिन एक हफ्ते की शूटिंग करने के बाद उन्होंने इसको करने से मना कर दिया और उनकी जगह तब्बू ने ले ली। मज़ेदार बात तो ये है कि अभिषेक कपूर ने काफ़ी पहले फ़िल्म का यही रोल तब्बू को ऑफर किया था। लेकिन उस समय बात कुछ बनी नहीं और अभिषेक ने भी दूसरी फ़िल्म बनानी शुरू कर दी थी। मैंने ये फ़िल्म पूरी तो नहीं देखी लेक़िन जितनी थोड़ी बहुत देखी उसमें मुझे तब्बू की जगह रेखा ही नज़र आईं। शायद डायरेक्टर के दिलोदिमाग पर रेखा के किरदार ने ऐसी छाप छोड़ी थी कि सिर्फ़ जिस्मानी तौर पर तब्बू थीं लेकिन ओढ़ने पहनने से लेकर हाव भाव सब रेखा।
असल जिंदगी में अगर हमें किसी के असली क़िरदार की पहचान हो जाये तो उनका सभी व्यवहार हम उसी दृष्टि से देखते हैं। जैसे अगर कोई आपका विश्वास तोड़ दे तो फ़िर से उनपर विश्वास करना मुश्किल होता है। मेरी तरह आप भी ऐसे बहुत से लोगों से मिले होंगे जिनका असली रूप उस समय सामने आ जाता जब आपको उम्मीद ही नहीं होती।
जैसे प्रेम चोपड़ा, रंजीत, शक्ति कपूर, गुलशन ग्रोवर से आप एक विलेन वाले काम की ही उम्मीद करते हैं। फ़िल्म दिलवाले में ऐन इंटरवल के पहले काजोल का असली चेहरा सामने आता है। शाहरुख खान के लिये ये विश्वास करना मुश्किल होता है। दोनों सालों तक इस अविश्वास के चलते अलग रहते हैं लेकिन फ़िल्म है असल जिंदगी तो नहीं। अंत में सब वापस साथ में आ ही जाते हैं।
असल ज़िन्दगी में कोई है जो फिर से विश्वास जीतने का प्रयास कर रहा है। लेकिन पुराने अनुभव ऐसा होने से रोक रहे हैं। क्या उनके प्रयास की जीत होगी या मेरे डर की – ये समय के साथ पता चलेगा।
ऑफिस में मेरी सहयोगी ऐसे ही मेरे परिवार के बारे में बात कर रही थीं। बच्चों की बात आई तो उनका ये मानना था की बिटिया तो मुझे उंगलियों पर नचाती होगी।
ऐसा शुरुआत से माना जाता है। आप पिता के ऊपर सोशल मीडिया पर चलने वाले बहुत सारे मैसेज ही देख लें। कई को पढ़ कर आंखें भर आती हैं। लेकिन इनमें से ज़्यादातर बेटियों की तरफ से होते हैं। बहुत कम सिर्फ पिता के लिये होते हैं – न कि बेटी या बेटे के पिता।
पिता का क़िरदार फिल्मों में या असल जिंदगी में कहाँ पर सच्चाई के करीब होते हैं? ज़्यादातर फिल्मों में पिता का क़िरदार लगभग एक विलेन जैसा ही होता है। फ़िर चाहे वो मैंने प्यार किया के राजीव वर्मा हों या आलोक नाथ या क़यामत से कयामत तक के दलीप ताहिल या गोगा कपूर या हालिया रिलीज़ धड़क के आशुतोष राणा। ये पिता तो हैं लेकिन हैं अपनी औलाद के दुश्मन।
ज़ाकिर खान का ये विडियो कमाल का है। उन्होंने अपने पिता के बारे में बहुत सारी बातें बताई हैं। लेकिन उस रिश्ते के बारे में बताया है जो वो अपने पिता के साथ शेयर करते हैं। ज़रूर देखिये ये वीडियो।
दूसरा वीडियो है फ़िल्म अकेले हम अकेले तुम का। फ़िल्म के आख़िर में कोर्ट रूम में आमिर ख़ान जज को बताते हैं उनके बेटे के साथ उनका रिश्ता उनकी पत्नी के जाने के बाद।
जिस रिश्ते को आप रोज जी रहे हों उसके लिये सिर्फ एक दिन कैसे काफ़ी हो सकता है? इस रिश्ते को बनने में सालों लग जाते हैं।लेक़िन आज के उपलक्ष्य में मैंने भी पिताजी को फ़ोन कर बधाई दी।
पिताजी के साथ एक बहुत पुरानी फोटो है। किसी पिकनिक की है। बच्चों के साथ हैं। और सब उनके साथ उस समय का आनंद ले रहे हैं। बस ऐसे ही सारे पिता आनंद लें अपने पिता होने का।
फेसबुक पर फेल वीडियो की भरमार है। ऐसे बहुत से मज़ेदार वीडियो देखने को मिलते हैं जिसमें लोग करने तो कुछ और निकलते हैं लेकिन हो कुछ और जाता है। ये वीडियो देख कर हँसी भी आती है और याद आते हैं अपने ही कुछ फेल होने वाले पल जिनकी कोई रिकॉर्डिंग तो नहीं है लेकिन वीडियो जब चाहें रिप्ले होता रहता है।
गर्मी का मौसम आते ही सब वाटर पार्क की तरफ भागते हैं। हमारे समय में ऐसा कुछ नहीं था। अब बच्चों की गर्मी की छुट्टियों में ये एक ज़रूरी काम हो गया है। भले ही उसके बाद आपकी स्किन एक महीने तक परेशान करती रहे। ऐसे ही तीन-चार बरस पहले भोपाल के वाटर पार्क पर एक राइड लेने का शौक चढ़ा। सबको करता देख लगा इसमें कुछ ज़्यादा कठिनाई तो नहीं है।
उस राइड का एक बड़ा हिस्सा पाइप के बीच से गुज़रता था। श्रीमती जी और मैंने हृतिक रोशन के डर के आगे जीत है वाले विज्ञापन को याद करके शुरू किया। लेकिन थोड़ी देर ठीक चलने के बाद मामला गड़बड़ हो गया और जिस फ्लोटर पर हम बैठे थे वो कहीं और और हम पाइप के अंदर सिर और चेहरे पर ठोकर खाते हुये बाहर निकले।
होली पर मेरा वो रंग डालने के ऐन पहले फ़िसल जाने किस्सा आपको बता ही चुका हूँ। हमारे पड़ोस में रहने वाले परिवार के साथ भी एक ऐसी ही घटना हुई थी जो अनायास ही मुस्कान ले आती है। जैसा की हमारे देश में अक्सर होता है, घर के सामने केबल डालने का काम चल रहा था। चूंकि घर के अंदर गाड़ी ले जाने का एकमात्र रास्ता सामने की तरफ से था तो जैसे तैसे गाड़ी निकालने भर की जग़ह मिट्टी डाल दी। लेकिन उसी दौरान ज़ोरदार बारिश हो गयी। बगल के घर से कोई स्कूटर लेकर निकला तो लेकिन गाड़ी कीचड़ में फँस गयी और सवार केबल वाले गड्ढे में।
ऐसा ही एक किस्सा है माँ और बुआ का जब वो मेले में गयीं थी। छोटे छोटे लकड़ी के झूले पर दोनों झूलने बैठीं। दीदी उस समय जो क़रीब एक बरस की रही होगी झूले के चलते ही ज़ोर ज़ोर से रोने लगी। झूला चलाने वाले से बुआ और माँ ने चिल्ला कर झूला रोकने के लिये कहा। लेकिन शोर के चलते शायद उसने सुना नहीं और एक दो चक्कर लग ही गये। उसके बाद माँ ने जो किया वो पूरा फिल्मी है। जैसे ही उनकी पालकी नीचे आयी उन्होंने दोनों हाथ से झूले वाले के बाल पकड़ लिये और झूला फौरन रोकने को कहा। क्या उसने हेड मसाज के लिये शुक्रिया कहा?
आपके पास हैं ऐसे किस्से? तो साझा करिये मेरे साथ और कमेंट में बतायें।
ये पोस्ट मेरा तीसरा प्रयास होगा आज का। दो काफ़ी लंबी लिखी हुई पोस्ट ड्राफ्ट में रखी हैं। लिखना शुरू कुछ और किया था लेकिन पता नहीं ख़याल कहाँ पहुँच गये उड़ते उड़ते। इससे पहले की फ्लाइट क्रैश होती, उसको सुरक्षित उतार कर ड्राफ्ट में बचा लिया। अब जब सर्जरी होगी तब काँट छाँट करी जायेगी।
लेकिन क्या उड़ान होती है ख़यालों की। वो मेहमूद साहब का गाना है जिसकी शुरुआत में वो कहते हैं ख़यालों में, ख़यालों में। मसलन जब आप को बहुत भूख लगी हो और आप किसी ऐसे इलाके से गुज़रे जहाँ दाल में बस अभी अभी तड़का डाला गया हो और शुद्ध घी के उस तड़के की खुशबू आप तक पहुंच जाए। आप के सामने स्वाद भरी थाली आ जाती है। ख़यालों में ही सही।
जिन दिनों में दिल्ली में अकेला रहता था तब ऐसे ख़याल लगभग रोज़ ही आ जाते थे जब कभी आसपड़ोस में कुछ भी पकता। हम उसकी खुशबू का आनंद उठाते हुये अपने लिये भोजन का प्रबंध करते। घर के खाने की बात मैं पहले भी कर चुका हूँ तो इसलिये इस बारे में ज़्यादा नहीं लिखूँगा।
लेकिन आज भोजन में बारे में इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि पिछले दिनों एक मेसैज आया था। खाना खाने बैठो तो भगवान, किसान और इतनी गर्मी में खाना बनाने वाली का धन्यवाद करना मत भूलना। सच भी है। गर्मी कितनी ही तेज क्यों न हो खाना भले ही सादा हो लेकिन बनाना तो पड़ता है। स्वाद में कोई कमी हमें बर्दाश्त नहीं होगी, गर्मी हो या सर्दी। लेकिन अधिकतर हम इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि जो किसान मौसम की मार झेलकर हमतक ये अन्न पहुंचाता है और उसके बाद वो गृहणी जो उससे स्वादिष्ट व्यंजन बना के खिलाती है उनको उनके हिस्से की कृत्यगता व्यक्त करने में कंजूसी कर देते हैं।
जो खाना हमारे सामने खाने की मेज़ पर सजा रहता है उसके बनने के पीछे एक कहानी होती है। लेकिन हम उसमें बिल्कुल रुचि नहीं रखते। जैसे कि ये पोस्ट। इसको मैंने तीन बार बनाने की कोशिश करी लेकिन सफल नही हुआ। आप जो इसे पढ़ रहे हैं आपको इन कहानियों के पीछे की कहानी बताने लगूँ तो बात दूर तलक जायेगी। फ़िलहाल उंगलियों और मोबाइल के कीपैड को आराम। ढेर सारा धन्यवाद किसान भाइयों का जो बारिश की राह देख रहे हैं और उन सभी का जो रसोईघर में सबकुछ झेलते हुये भी मुस्कुराते हुए ये पूछते हैं स्वाद तो ठीक है ना। कुछ कम ज़्यादा तो नहीं।
ज़ाहिर सूचना: आज की पोस्ट जो उम्र में मार्क जुकरबर्ग को झूठी जानकारी देकर चकमा दे गये हों उनके लिये नहीं है। जो उम्र से न सही विचारों से वयस्क हों वही आगे पढें।
धर्मवीर भारती जी की गुनाहों का देवता में मुख्य क़िरदार चन्दर और सुधा की बुआ की लड़की बिनती के बीच सुधा की शादी के बाद बातचीत हो रही है प्यार और शारिरिक संबंध को लेकर। चन्दर को बहुत आश्चर्य होता है जब बिनती उन्हें बताती है कि गाँव में ये सब उतना ही स्वाभाविक माना जाता है जितना खाना-पीना हँसना-बोलना। बस लड़कियाँ इस बात का ध्यान रखती हैं कि वो किसी मुसीबत में न पड़ें।
दरअसल इस विषय पर मेरी पुरानी टीम की साथी मेघना वर्मा ने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी है उनके साथ पीजी में रहने वाली मोहतरमा के बारे में। मेघना उनके व्यवहार/विचार से बिल्कुल अलग राय रखती हैं। पहले जानते हैं मेघना ने क्या कहा। ये उस पोस्ट का सार है।
उनकी रूममेट का नौ वर्षों से किसी के साथ प्रेम प्रसंग चल रहा है लेकिन उन्होंने शादी के लिये किसी दूसरे ही व्यकि को चुना है। इसमें जो समस्या है जिसे मेघना ने परेशान कर रखा है वो ये की इन देवीजी को अपनी ज़िंदगी में दोनों पुरुष चाहिये। मतलब शादी के बाद भी वो अपना प्रेम प्रसंग चालू रखना चाहती हैं।
इस पोस्ट पर कई लोगों ने टिप्पणी करी। कुछ ने ऐसे व्यवहार के लिये इंटरनेट और टेक्नोलॉजी को दोषी ठहराया। ज़्यादातर लोगों का यही मत था कि उन मोहतरमा को ऐसा नहीं करना चाहिये। कम से कम उस लड़के को जिसे उनके माता पिता ने चुना है उसे सब सच बता देना चाहिये। लगभग सबका यही मानना था कि इस पूरे प्रक्रण्ड का अंत दुखद ही होगा।
एक्स्ट्रामैरिटल अफेयर कोई नई बात नहीं है और निश्चित रूप से जो रास्ता इन मोहतरमा और उनके आशिक़ ने अपनाया है उस राह पर कई और भी चलें होंगें। मैं स्वयं ऐसे कई शादी शुदा लोगों को जनता हूँ जो इसमें लिप्त हैं और उनको इससे कोई ग्लानि नहीं है। ऐसा नहीं है कि जिन लडकियों से उनके अफेयर चल रहे हैं उन्हें उनके शादीशुदा होने के बारे में नहीं मालूम। लेकिन फ़िर भी दोनों ही इस राह पर चलते हैं।
इरफान खान ने 2013 में एक इंटरव्यू में कहा था
I would respect a marriage where the man and woman have the freedom to sleep with anyone. There is no bondage.
बक़ौल इरफ़ान खान: मैं उस शादी की ज़्यादा इज़्ज़त करूंगा जहां पति और पत्नी को किसी के भी साथ सोने की आज़ादी हो। किसी तरह का कोई बंधन न हो।
क्या वो मोहतरमा गलत हैं? शायद। लेकिन हमें ये लाइसेंस किसने दिया कि हम लोगों को मॉरल लेक्चर दें। लेकिन क्या हम उन्हें इसलिये ग़लत कहें कि वो जो भी करना चाहती हैं वो डंके की चोट पर करना चाहती हैं? क्या वो और उनके प्रेमी यही काम छुप छुप कर करते तो हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता?
ये सब बातें हम आज 2019 में कर रहे हैं। 1949 में पहली बार प्रकाशित चन्दर और बिनती की ये बातें इस बात की गवाह हैं कि इन 70 सालों में बदला कुछ नहीं है।
आज से कुछ पाँच महीने पहले मैंने एक पोस्ट लिखी थी चिट्ठियों के बारे में। कैसे ये चिट्ठि पढ़ने का मज़ा कुछ सालों बाद दुगना हो जाता है। इस पोस्ट के बाद सभी उत्साहित। मेरी पुरानी टीम के कुछ सदस्यों के साथ पत्राचार के लिये पतों का आदान प्रदान भी किया। लेकिन इसके बाद न मैंने पत्र लिखने का कष्ट किया न किसी और ने। दोष घूम फिरकर समय पर ही आ जाता है। बिल्कुल ऐसा आज होने वाला था। सुबह से कुछ न कुछ काम चलते रहे और समय नहीं मिला। उसके बाद लिखने के काम को बस प्राथमिकता नहीं दी।
लेकिन कितना आसान होता है समय को दोष देना। जिस चौबीस घंटे को हम कम समझते हैं उन्हीं चौबीस घंटों में जिनकी प्रबल इच्छा होती है वो सारे काम भी कर लेते हैं और उसके बाद अपने आगे बढ़ने के प्रयास के तहत कुछ नया सीखते भी हैं और पढ़ते भी हैं। मैं और मेरे जैसे कई और बस समय ही नहीं निकाल पाते। सब काम टालते रहते हैं। फ़िर कभी कर लेंगे।
ऐसे ही मैंने करीब दो साल पहले गिटार लिया था अपने जन्मदिन पर। मुझे गिटार पता नहीं क्यूँ शुरू से बड़ा अच्छा लगता। जवानी में समय सीख लेता तो कुछ और किस्से सुनाने को रहते। ख़ैर। सीखने के बाद श्रीमती जी को अपनी बेसुरी आवाज़ से परेशान ही कर सकते हैं। जबसे आया है तबसे कुल जमा एक दर्ज़न बार उस गिटार ने कवर से बाहर दर्शन दिए होंगे। सोचा था क्लास लगायेंगे लेकिन क्या करें समय नहीं है। जब भी श्रीमती जी पूछती हैं कि क्या ये घर की शोभा ही बढ़ायेगा तो मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता। सोचता हूँ अच्छा हुआ किसी जिम की फ़ीस भरकर वहाँ जाना नहीं छोड़ा नहीं तो नसीरुद्दीन शाह के शब्दों में बहुत बड़ा गुनाह होता और इसका एहसास मुझे कई बार करवाया जाता।
जिस किसी दिन सुबह से सारे काम एक के बाद एक होते जायें उस दिन तो लगता है चलो कुछ और करते हैं। समय भी मिल जाता है लेकिन पत्र लिखने या गिटार सीखना अभी तक नहीं हो पाया है। शायद इस हफ़्ते उन दोनों मोर्चों पर काम शुरू हो जाये। पुनः पढ़ें। शायद। अगले हफ़्ते दो पत्रों का टारगेट रखा है। वो कौन खुशनसीब होंगे? उनके बारे में तभी जब उनका जवाब आयेगा।
आप अगर सोच रहें हो कि इस पोस्ट का टाइटल मैंने कहाँ से लिया है तो वो ये क़व्वाली। है। लिखा मज़रूह सुल्तानपुरी पूरी साहब ने है।
\’इस देश में दो भारत बसते हैं\’, ऐसा मैं नहीं कह रहा लेकिन अमिताभ बच्चन ने प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फ़िल्म आरक्षण में कहा था। हाल ही में सम्पन्न हुऐ आम चुनाव में ये बात बिल्कुल सही साबित हुई। चुनाव से पूर्व सब ये मान बैठे थे कि किसानों की समस्या, रोज़गार, महंगाई और ऐसे कई मुद्दों के चलते सरकार का वापस आना नामुमकिन था।
ऐसा मानने वाले कौन? मेरे और आप जैसे शहरों में रहने वाले। हम अपने सोशल मीडिया, मिलने जुलने वालों का जो कहना होता है वही मान लेते हैं और वही सच्चाई से परे बात को आगे भी फॉरवर्ड कर देते हैं। हम ज़मीनी सच्चाई से बिल्कुल अलग थलग हैं। अगर ये कहा जाए कि परिणामों से कइयों की पैरों तले ज़मीन खिसक गई तो कुछ ग़लत नहीं होगा।
मुम्बई में जहाँ में रहता हूँ वहाँ पिछले दो महीनों से पानी की समस्या शुरू हो गयी है। समस्या क्या? दिन में अब चौबीस घंटे पानी नहीं मिलेगा। अब से सिर्फ सुबह-शाम चार घंटे ही पानी आयेगा और सभी रहवासियों को इससे काम चलाना पड़ेगा। इस को लेकर काफ़ी हंगामा हुआ। कुछ लोगों को सप्लाई के समय से दिक्कत थी तो कुछ इस बात को पचा नहीं पा रहे थे कि नल खोलने पर पानी नहीं मिलेगा। एक दो दिन में पता चला कि चार घंटे की सप्लाई बिल्डिंग के एक हिस्से में दो घंटे में समाप्त। पता चला कुछ लोग अपने फ्लैट में छोटे छोटे पानी स्टोर करने वाले टैंक में पानी भरकर रख लेते। बाकी किसी को मिले न मिले इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं। उन्हें सख्त हिदायत दी गयी कि ऐसे टैंक ज़ब्त कर लिये जायेंगे तब कुछ मामला ठीक हुआ। ये सब पढ़े लिखे महानुभाव हैं जो अच्छी जगह नौकरी कर रहे हैं।
बाहर की दूसरी सोसाइटी भी कुछ कम नहीं। पानी का सप्लाई कम होने के बाद उन लोगों ने बूस्टर पंप लगा लिये। हमारे पास तो पानी होना चाहिये आस पास वालों की वो जाने। ये तब की पानी रोज़ाना आ रहा है बस उसकी मात्रा थोड़ी कम है। लेकिन महाराष्ट्र के कई इलाकों में तो पानी हफ़्ते में एक बार और वो भी सिर्फ आधे घंटे के लिये। मतलब महीने में कुल दो घंटे पानी की सप्लाई। लेकिन हम शहरों में रहने वाले लोग अपनी समस्याओं से ज़्यादा नहीं सोचते हैं। शायद इसी वजह से हमें बहुत सी सच्चाई दिखाई नहीं देती।
आपने अगर वो सुनयना वाला कार्यक्रम नहीं देखा हो तो ज़रूर देखें। वो हम सबके गाल पर एक तमाचे की तरह है। हम बड़ी बड़ी बातें ही करते रह जाते हैं और ये बालिका इतनी कठिनाई के बाद भी डॉक्टर बनने की चाह रखती है। और वो बन भी जायेगी बिना किसी अच्छी कोचिंग के या ताम झाम वाली पढ़ाई के। इसी एपिसोड में छिपी है सरकार की जीत की कहानी।
अगर आप परीक्षा परिणाम पर नज़र रखते हों तो कौन है जो इसमें अव्वल आ रहे हैं? वो छात्र जो आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवारों से नहीं आते। हम अपने बच्चों पर लाखों रुपये खर्च देते हैं की वो कुछ बन जायें लेकिन ये सामान्य सी परिस्थितियों से आने वाले उनको पछाड़ देते हैं।
अगर सूरत के केतन जोरावड़िया भी उस दिन जब वो बिल्डिंग में लगी आग के वीडियो बनाने में लग जाते तो? लेकिन उन्होंने बच्चों की जान बचाने को ज़्यादा महत्व दिया। हम शहरों में रहने वालों को लगता है इतना इनकम टैक्स, रोड टैक्स, प्रॉपर्टी टैक्स दिया है तो सुविधाओं पर हमारा हक़ है। जब हमारा पेट भरने वाले किसान अपने हक़ ही बात करते हैं तो हम चैनल क्यों बदल देते हैं?
पिछले दिनों श्रीमती जी प्रवास पर थीं तो खानेपीने इंतज़ाम स्वयं को करना था। कुछ दिनों का इंतजाम तो वो करके गईं थीं तो कोई परेशानी नहीं हुई लेकिन जब वो जब खत्म हो गया तो दो ही विकल्प बचते – या तो स्वयं कुछ करें या बाहर से ले आयें।
आज से क़रीब दस वर्ष पहले या कुछ और पहले घर पर अकेले रहने का मतलब होता था आप को खाना बनाना है। बाहर खाने का मतलब जेब पर बड़ी मार और फ़िर उस समय बाहर खाने का इतना चलन भी नहीं था। मुझे याद है जन्मदिन हो या कोई और त्यौहार, सारा खाना घर पर ही बनता। दोस्तों के साथ भी बाहर खाना कॉलेज के दौरान शुरू हुआ। जय कृष्णन के साथ कभी न्यू मार्केट जाना होता तो पाँच रुपये के छोले भटूरे की दावत होती। परिवार के साथ इंडियन कॉफ़ी हाऊस ही जाते क्योंकि सभी को दक्षिण भारतीय व्यंजन पसंद थे। लेकिन ये ख़ास मौके हुआ करते थे। साल में ऐसे मौके इतने कम की एक उंगली भी पूरी न हो।
इन दिनों बाहर खाना एक आदत बन गया है। सोमवार से शुक्रवार किसी तरह घर की रसोई चलती है लेकिन सप्ताहांत आते आते सब बस बाहर के खाने का इंतज़ार करते। मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ जहाँ बड़े गर्व से ये सबसे कहते फ़िरते हैं कि शनिवार-रविवार को तो हम बाहर ही खाते हैं।
लेकिन जब पिछले दिनों मुझे ये मौका मिला तो समझ ही नही आये की क्या खाया जाए। मासांहारी लोगों के लिये कई सारे विकल्प लेकिन शाकाहारी व्यक्ति के लिये कुछ अच्छे खाने की शुरुआत पनीर से शुरू और खत्म होती है। और फ़िर ये मसाला जो लगभग एक जैसा ही होता है। हर बार मैं अपना समय ऑनलाइन कुछ खाने के लिये ढूंढता और फ़िर आख़िर में दाल खिचड़ी ही बचती आर्डर करने के लिये। ऐसा ही कुछ जब बाहर खाने जाते हैं तब भी होने लगा है।
रसोई में घुसना और कुछ पकाने का आनंद ही कुछ और होता है। मुझे याद है जब मैं पिछले साल दिल्ली में था तो टीम के पुरुष सदस्य घर से कुछ बना कर लाते। रोज़ रोज़ बाहर का खाना खाते हुये बोर हो चुकी ज़बान को आदित्य, रामदीप के बनाये हुए खाने का बड़ा स्वाद आता। भोपाल में तो और ही सुख – रिश्तेदारों या अड़ोसी पड़ोसी के यहाँ से या तो खाना आ जाता या न्यौता। मुंबई के अपने अलग ढ़ंग हैं तो इस पर कोई टिप्पणी नहीं।
बच्चों को भी बाहर का खाना जैसे पिज़्ज़ा, बर्गर सब पसंद हैं लेकिन पिछले दिनों हम लोग एक होटल में रुके थे। नाश्ते में पोहा था और बेटे ने खाने से मना कर दिया। कारण? मम्मी जो पोहा बनाती हैं उसमें ज़्यादा स्वाद होता है।
अब जब श्रीमती जी वापस आ गयीं हैं तो पूछती रहती हैं मेरी कुछ खाने की फरमाइश और मेरा सिर्फ एक जवाब – घर का बना कुछ भी चलेगा। सादी खिचड़ी, आलू का सरसों वाला भर्ता और पापड़ भी। आख़िर घर का खाना घर का खाना होता है। स्वाद बदलने के लिये बाहर खाया जा सकता है लेकिन घर के खाने जैसी बात कहाँ।
आप कितना बाहर खाने का मज़ा लेते हैं? क्या आपको भी शाकाहारी के विकल्प कम लगते हैं? कमेंट करें और बतायें।
The only thing certain after we arrive on this planet is death. I would say this very often about death and yet realised once again recently that we are never prepared for it.
I recently lost my cousin to cancer. She was undergoing treatment for close to two years but eventually lost the battle. She was one of the toughest individuals I have met in my life and to see her life end like this was painful – to say the least. It took me days to come to terms with what has happened and part of it was possible with her last three days when we saw her slipping away from us after doctors gave up any hope of her recovery.
Loss of a loved one is really difficult and there are whole lot of questions that are left unanswered. Eventually we all come to terms with their absence and move on with our lives but there are moments, times when the loss hits us. While we take other failures/setbacks in our stride and move on, we seem to be least prepared for our departure or that of others.
Much as I try to understand this, there is little to understand. So how do we cope with it? Here are the five simple things I did to come to terms with the loss.
Accept:The biggest lie we live is denial. That it did not happen while the truth is completely the opposite. It is hard to accept that someone who till moments ago was full of life and the centre of our lives is no more. We may accept their physical absence but the emotional absence of a dear one is hard to accept.
Let your feelings out: I remember it felt little awkward when I started crying while my cousin was being taken for her last rites. No before that as well when I started crying in the hospital as it became clear there was nothing we can do except wait for her to peacefully leave us. There are people who are strong, very strong and they don’t shed a tear. Does that mean they are not sad? Well, they have different method of processing their feelings. To me crying is the easy way to let it all out. I feel better, light.
Talk to someone:This is actually very important after someone you love is not there. Talking to a relative who was close to the departed soul helps in coming to terms with the absence. Talking about the past good times spent together or that incident which brought you close, it all helps.
Give yourself time: Things wont return to normal just after the mourning period is over. It will take time. Take all the time to process the loss. It was a living being who shared the space with you, so even little things like the morning cup of tea will continue to remind you about him/her. It’s a process that will continue because just when you think you have moved on and accepted the loss, something will happen to bring back the memories.
Celebrate life: Its only when someone dies that we realise life is much more than that latest edition of the mobile phone or the limited edition of that car. Small things that may make no difference to others but mean the world to us – do that. Even if it is as simple as enjoying a hot cup of chai at a roadside tea stall. Also I find it lot more relaxing if instead of grieving over the loss, we celebrate the life that spent time with us. Like I wanted to play songs my cousin loved while she was lying in bed unaware of us surrounding her.
Death is one thing we all are afraid of. So we don\’t discuss it and when it happens, we come up with our own ways and means to cope with it. This was my way of coming to terms with the loss
पिछले कुछ सालों से 26 जनवरी और 15 अगस्त हमारे राष्ट्रीय पर्व के साथ साथ खरीदारी करने के बड़े दिन बन गये हैं। चूँकि ग्राहक को छूट बड़ी लुभाती है, पिछले लगभग दस सालों से इन दो दिनों के आगे पीछे महा सेल का ही इंतज़ार रहता है- न कि उन दो दिनों का जो किसी भी राष्ट्र के लिये बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।
सही मायनों में अमेज़ॉन और फिल्पकार्ट के आने के बाद से इन दिनों की महत्ता और बढ़ गयी है। अगर आप शॉपिंग मॉल की भीड़भाड़ से बचना चाहते हैं तो अपना देश प्रेम आप इस ऑनलाइन सेल के ज़रिये दिखा सकते हैं। अब तो हालत ये है कि बच्चे भी ये जान गये हैं कि दीवाली के अलावा इन दो दिनों में भी जमकर डिस्काउंट मिलता है तो वो भी इसका इंतज़ार करते हैं। हमारे गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस की इससे अच्छी मार्केटिंग क्या हो सकती है।
लेकिन ये भी अच्छा है। कम से कम इन दो दिनों को ही सही हम अपना देश प्रेम तो दिखाते हैं। हाँ ये बात जरूर है कि इससे इस सेल से जुड़े लोगों की अच्छी खासी कमाई हो जाती है। लेकिन देश के नाम पर सब चलता है।
वो लोग भी जो किसी राज्य के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री बताते हैं या जिन्हें हमारे उत्तर पूर्वी राज्यों की राजधानियों के बारे में नहीं पता हो, उन्हें इन सेल के बारे में सब कुछ पता होता है।
अगर गलती से आप कहीं मॉल चले जायें, जैसा कि इस बार मैंने किया, तो आपको बदहवास से लोग घूमते दिखेंगे। जो सेल के पहले दिन चले गये वो एक्सपर्ट बन जाते हैं और अपने जानपहचान वालों को बताते हैं कहाँ क्या अच्छा है। जो देश से बहुत ज़्यादा प्यार करते हैं वो ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों जगहों की तुलनात्मक स्टडी भी कर देते हैं और ट्विटर पर आपको इसका ज्ञान भी मिल जाता है।
इस पूरे प्रकरण में सबसे ज़्यादा परेशान, दुखी, मायूस होते हैं पति। नहीं सेल से उन्हें तो वैसे कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि उनका पैसा ऐसे या वैसे तो निकलेगा ही। लेकिन सामान चुनने और बिलिंग काउन्टर पहुंचने के बीच उनकी मानों आधी ज़िंदगी निकल जाती है। उसपर ट्रायल रूम का नाटक। कई बार मैं और मेरे जैसे कई पति अपनी पत्नी छोड़ दूसरों की बीवियों को निहारते रहते हैं। इसको अन्यथा न लें। जब आप बाहर खड़े हों और इंतजार कर रहे हों तो ये एक मजबूरी होती है। हाँ फिल्मों के जैसे आप इस पर अपनी कोई राय नहीं दे सकते क्योंकि उसके बाद जो होगा उससे आपकी शॉपिंग अधुरी रह जायेगी।
मोबाइल फ़ोन और व्हाट्सएप का इससे अच्छा इस्तेमाल मैंने नहीं देखा। दुकानें अलग अलग फ्लोर पर हैं? ड्रेस पहन कर देखी जाती है और फ़ोटो व्हाट्सएप कर दी जाती है। आप उसे देख टिप्पणी कर सकते हैं। अगर आपकी पत्नी या गर्लफ्रैंड ज़्यादा समय लेती हैं तो आप कहीं सुस्तालें। आपको फ़ोन करके बुला लिया जायेगा।
कल जब मैं ये नज़ारा देख रहा था तो देश प्रेम के दो नज़ारे दिख रहे थे। एक जो 26 जनवरी की सुबह राजपथ पर देखा था और दूसरा जिसका मैं भी एक हिस्सा था। भारत हमको जान से प्यारा है…
Security is one thing that we all look for in life. A majority of us trying to look for all things secure, opt for jobs offering us that security. Only a handful of try the route less taken and those who do have a more fulfilling life than the rest of us.
But how secure one wants to play in life? I have a friend who parked his vehicle a kilometer away thinking the place he was going to will have a parking problem. But that without checking out if there was one. He relied on his past experience and did that.
On the other hand there was another acquaintance who started late for a meeting thinking it will start late and end late as usual. Again going by his past experience.
But both were wrong on that given day. There was no traffic and ample parking space and the meeting lasted just ten minutes.
Would their life be different if they had not allowed their presumptions to cloud their view? If my friend first visited the place and checked if there was any parking problem, he would have been pleasantly surprised. His approach would have been to things ahead in the day would have been different. Same applies to the second case.
We often judge people and situations based on our previous experience. But there are chances, like stated above, that our predictions fall flat. We always judge on the basis of our bad experience in any situation.
I am quite sure the two gentlemen above will do the same thing again next time too for we always take something good happening to us as an aberration. But this comes from experience and also from our mindset.
Take another situation. A friend of mine was having a bad day with his boss. He tried his best to stay in the job and fight it out. He finally quit. Tried something else which did not work out. But he did not give up. He continued his fight. Today he is doing quite good. Again it was his attitude which made him what he is today.
As they say it is how you look at it: glass as half full or half empty. So here\’s to the glass half full. Enjoy.
ये नये शब्द का जादू ही कुछ और होता है। इसका अगर आपको सबसे अच्छा उदाहरण देखना हो तो किसी छोटे बच्चे को देखें। जब वो बड़ा हो रहा होता है तो उसके लिये हर चीज़ नई। और जब वो चलना सीख रहा होता है तो उसका उत्साह देखते ही बनता है। दो पैरों पर पहले धीरे धीरे चलना, फ़िर दौड़ना, गिरते रहना लेकिन फ़िर उठना और फ़िर से चलना और दौड़ना।
कल रात घड़ी ने 11.59 के बाद जब 12.00 का समय दिखाया तो हम सिर्फ एक नये दिन, एक नये महीने में ही नहीं बल्कि एक पूरे नये वर्ष में भी प्रवेश कर गये। कहने को तो सिर्फ एक दिन ही बदलता है लेकिन ये \’नया\’ शब्द हम सब में एक नई उम्मीद, एक नई आशा जगा देता है।
इस वर्ष आपके अनुभव जैसे भी हों, अविस्मरणीय हों और हम सब थोड़े ही सही लेकिन एक बेहतर इंसान बनें, ऐसी शुभकामनाएं आप सभी के लिये।
सुबह से श्रीमती जी थोड़ी सी विचलित सी दिखीं। मैंने अपने दिमाग़ में सुबह का पूरा सीक्वेंस दोहराया कि कहीं इसमें मेरा कोई योगदान तो नहीं है। मैंने उनके कार्यक्षेत्र (रसोईघर) में किसी तरह का कोई उल्टा पुल्टा काम भी नहीं किया था। चाय के बारे में भी सब कुछ अच्छा ही बोला था मतलब अच्छी चाय के बारे में अच्छा ही बोला जायेगा और वही ग़ुलाम ने किया था।
मैं निश्चिंत था आज न किसी का जन्मदिन है जिसे मैं भूल गया हूँ। वैसे उनकी सखियों की शादी की सालगिरह और जन्मदिन याद रखने का ज़िम्मा मुझे दिया गया है। अगर चूक हुई तो दोनों ही तरफ से सुनने को मिलता है। जब तक व्हाट्सएप पर था तो वहाँ सबके सहयोग से ये कार्य बहुत ही आसानी से सम्पन्न हो जाता था। जबसे व्हाट्सऐप से हटा हूँ तो अपनी कमज़ोर होती याददाश्त पर ही निर्भर रहता हूँ।
जिस समय ये विचारों की रेल 180 की मि की रफ्तार से दौड़ रही थी श्रीमती जी अपने व्हाट्सऐप पर दुनिया के कोने कोने में बसे रिश्तेदारों और अपनी सखियों को गुड मॉर्निंग मैसेज के आदान प्रदान में लगी हुईं थीं। मेरे बाद आता है नम्बर बच्चों का तो बच्चों के स्कूल की भी छुट्टी थी तो वहाँ से किसी शिकायत की गुंजाइश नहीं थीं। अगर होती भी तो उसका निवारण फ़टाफ़ट पिछले दिन ही हो जाता। अब ये कोई सरकारी दफ्तर तो है नहीं कि फ़ाइल घूमे। सिंगल विंडो क्लीयरेंस सरकार अभी अमल में ला पाई है। घरों में ये अनन्त काल से चल रहा है। खैर, छुट्टी के चलते बच्चों ने अपने से ही पढ़ाई की भी छुट्टी घोषित कर दी थी तो रोजाना होने वाला एक सीन भी इन दिनों नदारद था।
जितना पतियों को सवाल नापसंद हैं, पत्नियों को अच्छा लगता है कि उनसे सवाल पूछे जायें। मतलब आप इशारे समझ लीजिये और एक छोटा सा सवाल पूछ लें – क्या हुआ। बस जैसे किसी बाँध के दरवाज़े खुलते हैं वैसे ही जानकारी का बहाव शुरू। आप उसमे से काम की बात ढूंढ लें। मैंने वही किया। सुबह सुबह उन्हें ख़बर मिल गयी कि आज काम करनेवाली ने छुट्टी घोषित कर दी है।
कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी मेरे हिसाब से क्योंकि जैसे में वैसे हर काम करने वाला छुट्टी का हक़दार होता है। और फ़िर आप अपनी ऊर्जा, समय इसके ऊपर फ़ोन और व्हाट्सएप कर क्यों बर्बाद कर रहे हो? ऐसा मैंने सोचा लेकिन बोला नहीं। जब सामने से तूफान निश्चित दिखाई दे रहा है तो क्यों अपनी नाव उतारी जाये। ऐसे समय ख़ामोश रहना बेहतर है। कोई सुझाव हो तो आप उसको दुनियाभर को बता दें। श्रीमती जी को न बतायें। सो नहीं बताया।
बस यही गलती कर दी। कल मैं फ़ोन पर किसी को उनकी समस्या के लिये कुछ सुझाव श्रीमती जी के सामने दे दिये थे। आपके पास इसके लिये कुछ सुझाव नहीं है? उन्होंने पूछ ही डाला और उसके बाद जैसा सैफ अली खान का दिल चाहता है में सीन था वैसा ही कुछ होता। मतलब की, वो, तो, मैं जैसे चार शब्द मेरे हिस्से में आते।
लेकिन मैंने उनसे दूसरा प्रश्न पूछ लिया समस्या पता है। उन्होंने कहा हाँ। तो अब इसका समाधान ढूँढते हैं।
अपने जीवम में हम अक्सर समस्या पर ही उलझ जाते हैं। वो तो हमें पता होती है लेकिन समाधान नहीं। उसपर ध्यान दें और जो भी दो-तीन समाधान दिखें उसपर काम करना शुरू करें। बात सिर्फ फ़ोकस बदलने की है।
श्रीमती जी इस सलाह के बाद व्हाट्सएप पर कुछ और संदेश का आदान प्रदान किया, एक दो फ़ोन भी लगा लिये और उनका काम हो गया। वैसे श्रीमती जी और बाकी गृहणियों से एक बहुत अच्छी मैनेजमेंट की सीख भी मिलती है। उसपर चार लाइना कल। फ़िलहाल गरम चाय की प्याली इस सर्द सुबह का आनन्द दुगना करने का आमंत्रण दे रही है।
शाहरुख खान की फ़िल्म स्वदेस में कावेरी अम्माँ की तरह उन्होंने हमें पाला तो नहीं था लेकिन फ़िर भी हम सब उन्हें अम्माँ कहते हैं। उनको ऐसा कैसे बुलाना शुरू किया ये याद नहीं लेकिन घर के सभी सदस्य उन्हें अम्माँ ही बुलाते। शायद उनके माँ के जैसे प्यार करने के कारण ही उनको अम्माँ बुलाना शुरू किया होगा। आज अचानक अम्माँ की याद वो भी इतने लंबे समय बाद कैसे आ गयी?
दरअसल ट्विटर पर एक चर्चा चल रही थी कि कैसे हम अपने घर में काम करने वालों के साथ भेदभाव करते हैं। जैसे उनके खाने पीने के अलग बर्तन होते हैं, शहरों में कई सोसाइटी में काम करने वालों के लिये अलग लिफ़्ट होती है और रहवासियों के लिये अलग। काम करनेवाले उस लिफ़्ट का इस्तेमाल नहीं कर सकते।
इस सब को पढ़ते हुये अम्माँ का चेहरा सामने आ गया। याद नहीं कबसे उन्होंने हमारे घर काम करना शुरू किया। अम्माँ के पति की मृत्यु हो चुकी थी और उनकी कोई संतान नहीं थी। रिश्तेदार आस पास ही रहते थे लेकिन अम्माँ को भी ये पता था कि उनकी नज़र उनके पैसों पर है। शायद इसलिये एक दिन उन्होंने आकर बोला कि उनका एक बैंक खाता खुलवा दिया जाए। घर के पास वाले बैंक में जहाँ हमारा खाता था वहीं उनका भी खाता खुलवा दिया।
उनसे पहले भी कई काम करने वाले आये लेक़िन वो बस काम करती और निकल जातीं। अम्माँ कब सिर्फ़ एक काम करने वाली न होकर घर की एक सदस्य बन गयीं पता नहीं चला। उन्होंने भी कब हमको अपना मान लिया इसकी याद नहीं। उनके हाथ की बनी ज्वार की रोटी का स्वाद कुछ और ही था। अक्सर उनके डिब्बे से अदला बदली कर लेते और वो खुशी खुशी इसके लिये तैयार हो जातीं।
आज ट्विटर पर काफी सारे लोगों ने बताया कि कैसे लोग अपने घरों में काम करनेवालों के साथ व्यवहार करते हैं, कैसे दूसरी जाति के लोगों को सुबह सुबह देखना अपशकुन माना जाता है, कैसे काम करनेवाले जिस स्थान पर बैठते हैं उसको उनके जाने के बाद धो कर साफ किया जाता है इत्यादि।
मुम्बई में जो घर में काम करती हैं वो दरअसल बड़ी विश्वासपात्र हैं। कई बार उनके काम करने के समय हम लोग घर पर नहीं होते लेकिन वो पड़ोसियों से चाबी लेकर काम करके चली जाती हैं। कभी कोई विशेष आयोजन रहता है तो सबसे पहले वो ही भोजन ग्रहण करती हैं क्योंकि उन्हें जल्दी घर जाना होता है।
बाहर निकलिये तो अक्सर ऐसे जोड़े दिख जाते हैं जिनके बच्चों को संभालने के लिये आया रखी होती है। होटल में वो आया अलग बैठती है और उसका काम साहब और मेमसाब को बिना किसी परेशानी के खाना खाने दिया जाये यही होता है। अम्माँ तम्बाकू खातीं थीं तो उनको ऐसे ही चिढ़ाने के लिये मैं बोलता मसाला मुझको भी देना और वो मुझे डाँट कर भगा देतीं।
पिताजी जब रिटायर हुये तो अम्माँ का साथ भी छूट गया। हम सरकारी घर छोड़ कर नये घर में रहने आ गये। अम्माँ के लिये नया घर बहुत दूर हो गया था। शायद एक बार वो नये घर में आईं लेकिन उसके बाद से उनसे कोई संपर्क नहीं रहा। वो अभी भी भोपाल में हैं या महाराष्ट्र वापस आ गईं, किस हाल में हैं पता नहीं लेकिन यही प्रार्थना है कि स्वस्थ हों, प्रसन्न हों और वो मुस्कुराहट उनके चेहरे पर बनी रहे।
पत्र अपडेट: काफी लोगों से पतों का आदान प्रदान हुआ है और दोनों ही पार्टीयों ने जल्द ही पत्र लिखने का वादा किया है। पहले पत्र का बेसब्री से इंतज़ार है।
चलिये पत्र लिखने की बात से ये तो पता चला कि ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने आज तक न तो पत्र लिखा है ना उन्हें कभी किसी ने। इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि इन लोगों के समझते समझते मोबाइल फ़ोन का आगमन हो चुका था और हम सबको संपर्क में रहने के लिये एक नया तरीका मिल गया था। जिन्होंने कभी पत्रों का आदान प्रदान नहीं किया हो वो इससे जुड़े जज़्बात शायद न समझें। और अगर आने वाली पीढियां इस पर पीएचडी कर लें कि पत्र लिखने की कला कैसे विलुप्त हुई, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
बदलाव का बिल्कुल स्वागत करना चाहिये लेकिन इस बदलाव ने भाषा बिगाड़ दी। एक तो लोग पहले से लिखना छोड़ चुके थे और उस पर ये छोटे छोटे मैसेज। रही सही कसर व्हाट्सएप ने पूरी कर दी। अब तो लिखना छोड़ कर सिर्फ 🙏, 👍,🤣 जैसा कुछ कर देते हैं और बस काम हो गया। मुझे अपने काम के चलते ऐसे बहुत से युवा पत्रकार मिले जो भ्रष्ठ भाषा के धनी थे।
ऐश्वर्या अवस्थी ने पोस्टमेन की याद दिला दी। हमारे यहाँ जो पोस्टमेन आता था उसको हमसे कोई खुन्नस थी। शायद उसका होना भी वाज़िब था क्योंकि हमारे यहां ढ़ेर सारे ख़त तो आते ही थे साथ में पत्रिकाओं का आना लगा रहता। जब मेरा पीटीआई में चयन हुआ तो इसका संदेश भी डाक के द्वारा मिला। हाँ आदित्य की तरह प्रेम पत्र नहीं लिखे। काश फ़ोन के बजाय लिख दिया होता तो आज दोनों अलग अलग ही सही पढ़ कर मुस्कुरा रहे होते।
ऐसा ही एक संदेश एक सज्जन के पास उनकी बहन ने पहुँचाया। उनकी पत्नी जो गर्भावस्था के अंतिम चरण में थीं उन्होंने पुत्र को जन्म दिया है। अब ये बात एक पोस्टकार्ड पर लिख कर बताई गई थी। ज़ाहिर सी बात है की पत्र कई लोगों द्वारा पढ़ा गया और नये नवेले पिता से पार्टी माँगी गयी और उन्होंने खुशी खुशी दे भी दी। समस्या सिर्फ इतनी सी थी की ऐसा कुछ हुआ नहीं था। डिलीवरी में अभी भी समय था। बहन ने भाई को यूँ ही लिख दिया था। फ़िर तो बहन को जो डाँट पड़ी।
भोपाल के एक सांसद महोदय ने भी इस पोस्टकार्ड का बहुत ही अनोखे तरीक़े से इस्तेमाल किया। उन्होंने अपने पते के साथ पोस्टकार्ड अपने क्षेत्र में लोगो को दे दिये। कोई समस्या हो तो बस मुझे लिख भेजिये। मतदाताओं को ये तरीका बहुत भाया।
सदी के महानायक अमिताभ बच्चन आज भी किसी को उनकी अदाकारी या किसी और काम के लिये बधाई या धन्यवाद अपने एक छोटे से स्वयं के लिखे नोट से करते हैं। नोट की क़ीमत इस लिए तो है ही कि इसे बच्चन साहब ने भेजा है। लेकिन उनके हाथ से लिखा हुआ है तो ये अमूल्य हो जाता है।
इस विषय पर थोड़ी रिसर्च भी कर डाली तो सब जगह यही पढ़ने को मिला। हज़ारों साल पुरानी ये परंपरा को लोगों ने लगभग छोड़ ही दिया है। हाँ जैसा आदित्य द्विवेदी ने कहा, फौज में आज भी ये चलन है। उतने बड़े पैमाने पर शायद नहीं लेकिन फौजी के घरवाले आज भी पत्र लिखते हैं।
फ़ोन पर आप बात करलें तो आवाज़ सुनाई देती है और दिल को चैन आ जाता है। सही मायने में जब आप पत्र लिख रहे होते हैं तो जाने अनजाने आप अपने बारे में कुछ नहीं बताते हुए भी बहुत कुछ बता जाते हैं। वैसे ही पत्र पढ़कर आप एक तस्वीर बना लेते हैं लिखने वाले के बारे। जैसे फ़िल्म साजन में माधुरी दीक्षित बना लेती हैं संजय दत्त की और उनसे प्यार करने लगती हैं। लेखक, कवि, शायर से बिना देखे बस इसलिये तो प्यार हो जाता है।
काफ़ी लोगों की तरह मैंने भी प्रण तो लिया है कि अब पत्र लिखा जायेगा। लेकिन इस पर कितना कायम रहता हूँ ये आप को तब पता चलेगा जब आपके हाथ होगा मेरा लिखा पत्र जिसका जवाब आप भी लिख कर ही देंगे। तो फ़िर देर किस बात की। मुझे sms करें अपना पूरा पता (पिनकोड के साथ)। व्हाट्सएप से मैं हट गया हूँ तो वहाँ कुछ न भेजें।
आज ऐसे ही सफ़ाई के मूड में अपनी कुछ पुरानी फ़ाइल और कागज़ात निकाले। इस पूरी प्रक्रिया की शुरुआत होती कुछ इस तरह से की मैं परिवार के अन्य सदस्यों को बोलता हूँ कि वो पुराना सामान निकाले और जिसकी ज़रूरत नहीं हो वो निकाल कर रद्दी में रख दें। ये मेरा सेल्फ गोल होता है क्योंकि फिर मुझे ही सुनने को मिलता है श्रीमती जी से की आप का भी बहुत सारा पुराना सामान रखा है उसे भी देख लीजियेगा।
मैं सिर्फ इसी उद्देश्य से इस काम में जूट जाता हूँ। लेकिन बस शुरू ही हो पाता है कि फिर एक एक कर कुछ न कुछ मिलता रहता है। जैसे इस बार मुझे मिले कुछ पत्र जो करीब 18 साल पुराने हैं। कुछ दोस्तों के द्वारा लिखे हुए और कुछ परिवार के सदस्यों के द्वारा। परिवार वाले पत्र तो उस समय क्या चल रहा था उसके बारे में होते हैं लेकिन दोस्तों के पत्र होते हैं अधिकतर फ़ालतू जानकारी से भरे हुए लेकिन मज़ेदार। अगर उनको अठारह वर्ष बाद पढ़ा जाये तो उसका मज़ा ही कुछ और होता है।
लेकिन अब आजकल जो ये ईमेल और व्हाट्सएप का चलन शुरू हुआ है तो कागज़ पर अपने विचारों को उतारना ख़त्म सा हो गया है। अब तो जन्मदिन या बाकी अन्य आयोजन के उपलक्ष्य में भी फेसबुक या व्हाट्सएप पर बधाई दे दीजिये। बस काम हो गया। इससे पहले दोस्त, घरवाले कार्ड दिया करते थे। दूर रहनेवाले रिश्तेदार भी कार्ड चिट्ठी भेजा करते थे।
लेकिन जैसा कि फ़िल्म नाम के चिट्ठी आयी है गाने में आनंद बक्शी साहब ने लिखा है,
पहले जब तू ख़त लिखता था कागज़ में चेहरा दिखता था, बंद हुआ ये मेल भी अबतो ख़त्म हुआ ये खेल भी अब तो।
वैसे हिंदी फिल्मों में ख़त का इस्तेमाल अमूमन प्यार के इज़हार के लिये ही होता रहा है फ़िर चाहे वो सरस्वतीचंद्र का फूल तुम्हे भेजा है ख़त में हो या मैंने प्यार किया का कबूतर जा या संगम का ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर। लेकिन अब ऐसे गीत बनेंगे नहीं और अगर मेरे जैसे किसी ने ऐसा कर दिया तो सब हंसेंगे की अब कौन पत्र लिखता है।
जब आजकल के नये संपर्क साधन नहीं थे तो नई जगह पहुंच कर वहाँ से पिक्चर पोस्टकार्ड भेजने का भी चलन था। ऐसे ही कुछ मुझे अपने ख़ज़ाने में मिले जब भाई विदेश गया था और जब माता पिता धरती पर स्वर्ग यानी कश्मीर गए थे। अब तो बस सेल्फी खींचो और शेयर करो। विपशना के जैसे कहीं बाहर जाओ तो फ़ोन के इस्तेमाल पर रोक लगा देना चाहिये।
इस डिजिटल के चलते एक और चीज़ छूट रही है और वो है फ़ोटो। सबके मोबाइल फ़ोन फ़ोटो से भरे हुए हैं लेकिन अगर आप और मोबाइल बिछड़ जायें तो… पिछले दिनों जब व्हाट्सएप मोबाइल से हटा रहा तो श्रीमती जी ने आगाह भी किया कि फ़ोटो भी चली जायेंगी। ख़ज़ाने में मुझे बहुत सारी पुरानी फ़ोटो भी मिलीं। ढूँढने पर एक पुराना एल्बम भी मिल ही गया। बस इस सबके चलते यादों का कारवाँ निकल पड़ा लेकिन जिस काम के लिये बैठे थे वो नहीं हुआ।
इस नये चलन को बढ़ावा मैंने भी दिया लेकिन अब जब पुराने पत्र पढ़ रहा हूँ तो लगता है इस सिलसिले को फ़िर से शुरू करना चाहिये। तो बस कल पास के पोस्टऑफिस से कुछ अंतर्देशीय और पोस्टकार्ड लेकर आयेंगे और पहुँचाते हैं आप तक। अगर आप भी इसका हिस्सा बनना चाहते हैं तो अपना पता छोड़ दें कमेंट्स में। वो क्या है ना कि हम फ़ोन नंबर से शुरू कर अपनी दोस्ती सिर्फ फ़ोन तक ही सीमित कर लेते हैं। जब तक मिलने का संयोग न हो तो पते का आदान प्रदान नहीं होता है।
मेरे नाम को लेकर मुझे सिर्फ परीक्षा के समय छोड़कर कभी कोई परेशानी नहीं हुई। परीक्षा में इसलिए कि मेरा नंबर पहले 10 में आता ही था और परीक्षक के लिए मैं जैसे उसकी प्रार्थना का उत्तर था। अलबत्ता लोगों को ज़रूर हैरानी होती की असीम नाम होते हुए भी मैं कड़ा, अंगूठी और कलावा बाँधे रहता था।
जब कभी किसी को मेरे मन्दिर या मस्जिद जाने का ख़याल आता तो पूछ लेते नाम का मतलब। मैं उन्हें कभी आसमान का हवाला देता जो असीमित है या जुआ खेलने की उस टेबल का जिसमे पैसे लगाने की कोई सीमा नहीं होती या फिर शादी के कार्ड का हवाला देता जहाँ अकसर मेरा ज़िक्र होता – परमात्मा की असीम कृपा से …। चूंकि अधिकतर ऐसे संशय अच्छे पढ़े लिखे लोगों की तरफ से व्यक्त किये जाते तो थोड़ी निराशा भी होती।
अच्छा मज़ेदार बात ये की दोनो तरफ के लोग मुझे अपनी बिरादरी का मानते। जब नौकरी के लिये एक संस्था जॉइन करी तो वहां के एक वरिष्ठ पत्रकार ने भी पूछ ही लिया – मौलाना हो क्या। चूँकि वसीम और असीम में खासा अंतर नाही दिखाई और सुनाई देता है, तो मेरी ये मुश्किल ताउम्र रहने वाली है। मेरे से ज़्यादा उनकी जो मेरे नाम के पीछे छिपे मेरे धर्म को ढूंढना चाहते हैं। अब अंगूठी, कड़ा पहनना छोड़ दिया तो मुश्किल और बढ़ जाती है।
ऐसे ही लोगों की परेशान बढ़ाने के लिये मैं अक्सर अपना पहला नाम ही इस्तेमाल करता हूँ। पिछले दिनों ऑफिस जाने के लिये गाड़ी में बैठने लगा तो ड्राइवर दुआ सलाम करने लगा। मैंने भी शुक्रिया कहते हुए उसका वहम बनाये रखा।
जब शादी की बात हुई और तय हुई तो मुझे तो अपने नाम को लेकर कोई सफाई नहीं देनी पड़ी लेकिन मेरी होने वाली जीवनसंगिनी की सहेलियों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनकी शादी असीम नाम के व्यक्ति से हो रही है। उनसे पूछा गया की लव मैरिज कर रही हो। ये सवाल उनसे आज भी पूछा जाता है।
आसीम, अशीम, आशिम या असीम किसी भी नाम से बुलायें लेकिन मेरे नाम के पीछे कुछ ढूंढने की कोशिश मत करें।
अपूर्व (मनु) से मुलाक़त उनका बारे में काफी किस्से सुनने के बहुत समय बाद हुई। और वो जो मुलाक़ात हुई वो यादगार बन गयी। मनु हमारी पीढ़ी के पहले सैनिक अधिकारी थे। मतलब जिनसे मेरा साक्षात मिलना हुआ। सुनते तो कइयों के बारे में थे कि वो ऑफिसर हैं लेकिन मिलना मनु से हुआ। शायद मनु ही परिवार के कई और बच्चों की प्रेरणा के स्त्रोत भी बने।
मनु जब पहली बार हमारे यहां आए थे तो उनकी बुआ की बेटी का तिलक लेके। भाइयों की फौज भोपाल में इकट्ठा हमारे ही घर हुई थी। हम सब तिलक लेकर गए और कार्यक्रम खत्म कर घर लौट रहे थे। उस रात बहुत तेज़ बारिश हो रही थी और हम सब बड़े चाचा की फ़िएट कार में घर लौट रहे थे।
आप में से जिनका कभी भोपाल जाना हुआ हो तो जानते होंगे कि भोपाल में सड़कें काफी उतार चढ़ाव वाली हैं। रात में बारिश काफी जोर से हो रही थी और सड़क पर पानी भरा हुआ था। सब लड़के मस्ती के मूड में और बारिश। बस गाड़ी दौड़ रही थी और ऐसे ही एक चढ़ाई के एन पहले रोड पर जमा हुए पानी से गाड़ी स्टाइल से निकाली गई। लेकिन ये क्या- चढ़ाई आधी ही चढ़ी थी कि गाड़ी बंद और लुढ़कने लगी वापस।
विवेक वर्मा जो आज भी ऑटो एक्सपर्ट हैं, काफी कोशिश करी की कार ज़िंदा हो जाये लेकिन सभी प्रयास असफल रहे। उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो हुआ नहीं करते थे सो मदद कैसे मंगायी जाए इस पर विचार चल रहा था। सभी भाई जो तिलक के लिए तैयार होकर निकले थे कुछ देर में सड़क पर भीगते हुए कार को धक्का लगाते हुए वापस घर पहुंचे। वहाँ सबकी अच्छी ‘खातिरदारी’ हुई।
लेकिन इन सबके बाद भी मनु की आंखों में नींद नहीं। उन दिनों फुटबॉल वर्ल्डकप चल रहा था और मनु को देखना था मैच। बस चाय के साथ मनु मैच देखकर सोए। ये मेरी मनु से पहली मुलाक़ात थी। बीच में मनु की पोस्टिंग के बारे में सुनता रहता लेकिन मिलना नही हुआ।
जब माँ ने कल बताया कि मस्तिष्क ज्वर के कारण मनु नही रहा तो एक धक्का सा लगा और उस रात का वाकया फिर से आँखों के सामने आ गया। अब तुम उस और धमाल करोगे मनु, इसी विश्वास के साथ।
फिल्मों में पुलिस कब से देख रहे याद नहीं। लेकिन पहली बार एकदम नज़दीक से पुलिस अफ़सर को देखा था तब मैं बहुत छोटा था। शायद भिलाई शहर था। ख़ैर उस समय ज़्यादा कुछ समझ में भी नहीं आता था। बस यही दिखता की सब सैल्यूट करते हैं।
जब थोड़े बड़े हुए तो पता चला वो जो पुलिस की वर्दी में हैं वो इन दिनों विदेश में हैं किसी केस के सिलसिले में। लौटने पर घर की बेटियों के लिए कुछ न कुछ अवश्य लाते। बीच में कई बार उनके यहां जाने का और रुकने का मौका मिला। जब छोटे शहर में पोस्टिंग थी तो बड़े बंगले मिलते। दिल्ली, जहां उन्होंने अपना सबसे अधिक समय बिताया, वहां आर के पुरम में रहते थे फिर बाद में मोती बाग़ इलाके में घर मिला।
इन मुलाक़ातों में ज़्यादा बातचीत नहीं होती। वो जितना पूछते उतने का ही जवाब। पढ़ाई में वैसे ही फ़िसड्डी तो बचते रहते कहीं उस से संबंधित कोई सवाल न पूछ लें। वो तो जब बारहवीं के बाद कुछ परीक्षा देने दिल्ली आये तब बचने का कोई उपाय ही नहीं था।
एक दिन सुबह तैयार होकर बोले चलो अपना एग्जाम सेन्टर देख लो कहाँ जाना है। लेकिन वहां से घर अपने आप आना पड़ेगा। दिल्ली के बारे में पता कुछ नहीं था और डर भी लगता था। मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था और आँख से आँसू निकल पड़े। तब मुझे एक सीख उन्होंने दी – रास्ते खुद ढूँढोगे तो कभी भुलोगे नहीं।
ऐसे ही बहुत सी अनगिनत यादें हैं पूज्यनीय मामाजी की। उनका पूरा जीवन ही एक सीख है। पुलिस के सबसे बड़े ओहदे पर रहते हुए भी एकदम सादा जीवन। पढ़ने के बेहद शौक़ीन और भाषाओं के ज्ञानी। इसकी संभावना कम ही थी की आप उनसे मिलें और प्रभावित न हों। ये मेरे लिये निश्चित ही बहुत बड़े सौभाग्य की बात है कि उनको इतने करीब से जानने का मौका मिला। पिछले दिनों फ़िल्म रेड देखी तो उनकी बड़ी याद आयी। कुछ ऐसे ही थे मेरे मामाजी। परिवार में दोनों छोर के सरकारी अफ़सर देखे। एक तो मामाजी जैसे और दूसरे जो बड़े बडे घपले कर पैसे खा कर भी 56 इंच का सीना चौड़ा कर सामने रहते।
उनके व्यक्तित्व के बारे में, मेरे पत्रकारिता करियर में उनका योगदान और मज़ेदार किस्सा कैसे वो मेरे मामा बने फिर कभी। आज उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन।
फ़िल्म इंगलिश-विंगलिश में श्रीदेवी पहली बार अकेले विदेश यात्रा पर अपनी बहन के पास अमेरिका जाने के लिये हवाई जहाज से सफ़र कर रही होती हैं। अमिताभ बच्चन, जो उनके सहयात्री होते हैं उनसे पूछते हैं कि क्या वो पहली बार जा रहीं हैं और बातों बातों में एक अच्छी समझाईश उन्हें और हम सबको दे देते हैं।
\”पहली बार एक ही बार आता है। उसका भरपूर आनद लें। बेशक, बेफिक्र, बिंदास\”।
हम भी अपनी बहुत सारी पहली बातें याद रह जाती हैं। क्योंकि पहली बार की बात ही कुछ और होती है। ज़्यादातर ये मोहब्बत तक ही सीमित नहीं होती हैं। हाँ उसको याद रखने के बहुत सारे कारण हो सकते हैं। जैसे मुझे अपनी पहली तनख्वाह याद है और मैंने उसे कैसे खर्च किया ये भी।
ठीक उसी तरह मुझे हमेशा याद रहेंगे अपने पहले बॉस नासिर क़माल साहब। पत्रकारिता से दूर दूर तक मेरा कोई लेना देना नहीं था। इसकी जो भी समझ आयी वो उन्ही की देन है। चूंकि ये मेरी पहली नौकरी थी और अनुभव बिल्कुल भी नहीं था तो उनके लिए और भी मुश्किल रहा होगा। लेकिन उन्होंने एक बार भी ऊँची आवाज़ में बात नहीं करी और न मेरी लिखी कॉपी को कचरे के डब्बे में डाला।
उन दिनों टाइपराइटर पर लिखना होता था। वो उसी पर एडिट कर कॉपी को पढ़ने लायक बनातेे। वो खुद भी कमाल के लेखक। भोपाल के बारे में ऐसी रोचक कहानियाँ थीं उनके पास जिसका कोई अंत नहीं। कब वो बॉस से दोस्त बन गए पता नहीं चला। उनके जैसे सादगी से जीवन जीने वाले बहुत कम लोग देखें हैं।
भोपाल छुटा लेकिन हम हमेशा संपर्क में रहे। वो कुछ दिनों के लिये बैंगलोर भी गए लेकिन पत्रों का सिलसिला जारी रहा। बीच में एक ऐसा भी दौर आया कि मैंने पत्रकारिता छोड़ने का मन बना लिया और नासिर भाई को बताया। उन्होंने एक अच्छा ख़ासा ईमेल मुझे लिख कर समझाया और अपने निर्णय के बारे में पुनः विचार करने के लिये कहा।
आज उनका जन्मदिन है लेकिन वो मेरी बधाई स्वीकार करने के लिए हमारे साथ नहीं हैं। वो अपने जन्मदिन को लेकर भी थोड़े परेशान रहते। कहते सब लोग गांधीजी की पुण्यतिथि मना रहे हैं तो मैं कैसे अपना बर्थडे मनाऊं।
मुझे इस बात का हमेशा मलाल रहेगा कि उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। लेकिन साथ ही इसका फक्र भी रहेगा कि उन्होंने मुझ जैसे को भी लिखना सीखा ही दिया। मेरी खुशनसीबी की नासिर भाई मुझे मेरे पहले बॉस के रूप में मिले।
जिस तरह अच्छी टीम बनती नहीं बन जाती है उसी तरह अच्छे बॉस मिलते नहीं मिल जाते हैं।
दिल्ली में इन दिनों कड़ाके की ठंड पड़ रही है। चूंकि मेरा इस ठिठुरती ठंड से सामना पूरे 15 साल के लंबे अरसे बाद हो रहा है तो और भी ज़्यादा मज़ा आ रहा है। ऐसी ठंड में अगर कोई आग जलाकर बैठा हो तो उसके इर्दगिर्द बैठने का आनंद कुछ और ही होता है। उसमें अगर आप एक कप गरमागरम कप अदरक की चाय और जोड़ दें तो ठंड का मज़ा कई गुना बढ़ जाता है।
चाय पीने के सबने अपने अपने तरीके होते हैं। कुछ लोग बिलकुल गरमागरम पतीली से निकली हुई चाय पसंद करतेे हैं तो कुछ उसको ठंडा कर पीना। दिल्ली के जिस इलाके में मैं इन दिनों रहता हूँ वहाँ कुल्हड़ में चाय पिलाने वाले कई ठिकाने हैं। सबका अपना अपना स्वाद है। हाँ वैसे सौंधी सौंधी खुशबू वाले कुल्हड़ नही हैं।
आजकल तो अजीबोगरीब चाय पिलाने वाले ठिकाने भी खुले हुए हैं जो पता नहीं कितनी ही विचित्र तरह की चाय पिलाते हैं। लेकिन जो स्वाद टपरी चाय का होता है वैसा कहीं नहीं। जब मुम्बई PTI में नाईट शिफ्ट हुआ करती थी तो अक्सर रात की आखिरी लोकल छूट जाती थी और रात ऑफिस में ही गुज़ारनी पड़ती थी।
मुझे शुरू से आफिस में सोना पसंद नहीं था। बस दो कुर्सी जोड़कर आराम से सुबह 4 बजने का इंतज़ार करते और पहली लोकल से चेम्बूर वापस। जिस समय मेरी घर वापसी होती उस समय बहुत से लोगों के दिन की शुरुआत हो रही होती। चेम्बूर स्टेशन के बाहर एक चाय बनाने वाला सुबह सुबह कमाल की चाय पिलाता। जब भी नाईट शिफ्ट से वापस आता तो उसके पास कभी एक तो कभी दो कप चाय पीकर फ्लैट पर वापस आता।
दिल्ली की सर्दियों में उसकी वो अदरक की कड़क चाय की आज ऐसे ही याद आ गयी। आपकी आदतें कैसे बदलती हैं चाय इसका अच्छा उदाहरण है। जैसे मेरी चाय का स्वाद मेरी पत्नी अब बखूबी समझ गयी है और मुझे भी कुछ उनके हाथ की चाय की ऐसी आदत लग गयी है कि कहीं बाहर जाते हैं तो वो जुगाड़ कर किचन से मेरी पसंद की प्याली मुझ तक पहुंचा देती हैं।
अगर आपने इंग्लिश विंग्लिश देखी हो तो उसमें श्रीदेवी अपनी चाय की प्याली और अखबार से सुबह की शुरुआत करती हैं। बहुत से घरों में ऐसा ही होता है। मैं ऐसे जोड़ों को जानता हूँ जो सुबह की पहली चाय का आनंद अखबार के पीछे नहीं बल्कि साथ में बैठ कर बातचीत कर लेते हैं। अगर चाय का प्याला हो और बातचीत न हो तो चाय का स्वाद कुछ कम हो जाता है। जैसे उस शनिवार की रात जनार्दन, आदित्य और मेरी बातचीत जो शुरू हुई चाय के प्याले पर और खत्म हुई गाजर के हलवे के साथ। चाय पर चर्चा कोई जुमला नहीं है!!!
पिछले दिनों जब सोनाक्षी सिन्हा और सिद्धार्थ मल्होत्रा की इत्तेफ़ाक़ रिलीज़ होने वाली थी तब शाहरुख खान और करन जौहर ने वीडियो पर ये अपील करी थी दर्शकों से की वो फ़िल्म का सस्पेंस नहीं बताएं। बात सही भी है। अगर सस्पेंस ही खत्म हो जाये तो फ़िल्म देखने का सारा मज़ा ही किरकिरा हो जाता है।
ठीक वैसे ही जैसे हमें अपने जीवन के सस्पेंस पता चल जाये तो क्या मज़ा आयेगा। कुछ भी हो अच्छा या बुरा, सही या गलत उसके होने का अपना एक अलग ही स्थान होता है अपने अनुभव की लिस्ट में।
खैर इत्तेफ़ाक़ की अपील से मुझे पिताजी द्वारा सुनाया गया एक किस्सा याद आया। वो भी उनके समय की बेहतरीन सस्पेंस फ़िल्म वो कौन थी से जुड़ा हुआ है। आज के व्हाट्सएप उस समय तो थे नहीं तो सस्पेंस कैसे बताया जाए? कॉलेज का नोटिस बोर्ड जो हम कभी कभार ही देखा करते हैं उसकी मदद ली गयी और किसी शख़्स ने वहां एक कागज लगा दिया जिसपर सिर्फ इतना लिखा था – भाईयों खूनी रमेश था। अब आप जाइये और वो कौन थी के गानों का आनंद लीजिये क्योंकि बाकी कहानी और उसके अंत में आपको अब कोई रुचि नहीं रहेगी।
कॉलेज के नोटिस बोर्ड से संबंधित एक घटना मेरे साथ भी हो गयी। MA प्रीवियस के इम्तिहान थे। साथ में नौकरी भी कर रहे थे। दूसरे पेपर के दिन तैयार होकर कॉलेज पहुँचे और अपना रूम तलाशने लगे जहां बैठकर पेपर लिखना था। लेकिन बोर्ड पर इस पेपर का कोई जिक्र ही नहीं। ऐसी कोई खबर भी नहीं थी कि पेपर आगे बढ़ गया हो।
किसी प्रोफेसर से पूछा तो पता चला पेपर तो दो दिन पहले ही हो चुका है। अब क्या करें? पिताजी की डाँट से बचने का कोई उपाय ही नहीं था। घर पहुँचे तो वहां पहले से ही किसी बात को लेकर हंगामा मचा हुआ था। मुझे एक घंटे में वापस देख सभी अचरज में थे। मेरे पुराने पढ़ाई के रिकॉर्ड से सभी वाकिफ भी थे। जैसे तैसे हिम्मत कर बता दिया कि आज होने वाला पेपर तो हो चुका है। उसके बाद अच्छा सा एक डोज़ मिला। समस्या का हल ढूंढा गया और मेरे अख़बार के सहयोगी की मदद से इसको सुलझाया गया।
एक गुरु मंत्र और मिल गया: समस्या हैं तो हल निश्चित रूप से होगा। बस थोड़े धैर्य के साथ ढूँढे। मिलेगा ज़रूर।
बचपन से मुझे हवाई जहाज देखने और उनके बारे में जानकारी इकट्ठा करने का बड़ा शौक़ था। जो छोटे छोटे मॉडल होते थे उनको भी में उतनी ही कौतूहलता से देखता जितना कि एक सामने खड़े हुए विमान को। परिवार में दो रिश्तेदार विमान सेवा का उपयोग करते और जब भी संभव हो में एयरपोर्ट जाने की भरपूर कोशिश करता। जितना करीब से देखने को मिल जाये उतना ही मन आनंदित हो उठता।
आसमान में उड़ते हुए छोटे से हवाई जहाज को खोज निकलना एक मजेदार खेल है जो में आज भी खेलता हूँ। कहीं न कहीं हम जब बड़े हो जाते (उम्र में) तो हमारे व्यवहार में भी वो उम्र छलकने लगती है। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि हमें अपना बचपना बनाये रखना चाहिए।
आज जब मुम्बई से दिल्ली वापसी के लिए एयरपोर्ट पर बैठा फ्लाइट का इंतज़ार कर रहा था तो अपनी पहली फ्लाइट याद आ गयी जो मुम्बई के एयरपोर्ट से ही थी। मैं अपने जीवन में पहली बार प्लेन में चढ़ा 2003 के अक्टूबर महीने में। वो छोटी सी फ्लाइट एक समाज सेवी संस्था द्वारा आयोजित की गई थी ज़रूरतमंद बच्चों के लिए। मुम्बई से शुरू और मुम्बई पर खत्म।
पहली फ्लाइट होने के कारण तो याद है ही, लेकिन इसलिए भी याद है कि मुंबई की गर्मी में एयरपोर्ट के अंदर की ठंडक श्रीनगर का एहसास करा रही थी। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी ठंड में कर्मचारी काम कैसे करते हैं। असलियत पता चली की मैं बहुत तेज़ बुखार से पीड़ित था और अगले कुछ दिन घर पर आराम कर गुज़ारे।
जब तक प्लेन में बैठे नहीं थे तब तक बड़ा आश्चर्य होता कि ये उड़ते कैसे हैं। रही सही कसर फिल्मों ने पूरी करदी। फिल्मों ने हमारी सोचने की शक्ति को भ्रष्ट कर दिया है। लेकिन आप आज अगर एयरपोर्ट जाएँगे तो देखेंगे समाज के हर तबके के लोग हवाई यात्रा का आनद ले रहे हैं।
लेकिन बर्ताव में ट्रेन या प्लेन के यात्रियों में कोई फर्क नहीं है। आज जब फ्लाइट लेट हुई तो यात्री एयरलाइन स्टाफ़ से लड़ने पहुंच गए और थोड़ी दिन बाद थक हार कर वापस पहुँच गए अपनी सीट पर। हाँ अब बहस थोड़ी अच्छे स्तर की होती है।
लेकिन उस बहस का क्या जिसके कोई मायने तो नहीं हैं लेकिन उसको करने में मज़ा भो बहुत आता है?
हम सभी के जीवन में जाने अनजाने ऐसे बहुत से सुखद हादसे होते हैं जो एक अमिट छाप छोड़ जाते हैं। अधिकतर जानने वाले इन दुखद घटना के ज़िम्मेदार होते हैं और अनजाने लोग सुखद यादों के पीछे। ऐसा मेरा अनुभव रहा है।
PTI के मुम्बई तबादले से पहले भी मेरा एक बार मुम्बई जाना हुआ था। उस समय मैं ग्रेजुएट होने वाला था और MBA के लिए तैयारी कर रहा था। नर्सी मोनजी कॉलेज के MBA का फॉर्म भरा और हिंदुस्तान पेट्रोलियम में कार्यरत निखिल दादा के भरोसे मुम्बई चल पड़े। वहाँ से सिम्बायोसिस की परीक्षा के लिए पुणे भी जाना था और बीच में शिरडी का भी प्रोग्राम बना लिया था। मुम्बई से आगे की ज़िम्मेदारी दादा ने लेली थी और मैं निश्चिन्त मुम्बई के लिए निकल पड़ा।
भोपाल से मुम्बई का ये सफर हमेशा याद रहेगा क्योंकि टिकट कन्फर्म नहीं हुआ लिहाज़ा जनरल कोच में सफर करना पड़ा। मैं पहली बार इस तरह की कोई यात्रा कर रहा था और सबने जितने भी तरीके से डराया जा सकता था, डराया। ख़ैर मायानगरी को अब तक सिनेमा के पर्दे पर ही देख था और साक्षात देखने का रोमांच ही कुछ और था। मुम्बई पहुँचे और निखिल दादा ने खूब घुमाया।
उन्ही दिनों मणिरत्नम की फ़िल्म बॉम्बे भी रिलीज़ हुई थी और दादा ने मुझे वो दिखाने का प्रस्ताव रखा। आज भी मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि मैंने फ़िल्म बॉम्बे मुम्बई में ही देखी। जिस समय ये सब अनुभव हो रहे थे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था एक दिन मैं यहाँ वापस आऊंगा और अपने करियर का सबसे ज़्यादा समय यहां बिताऊँगा। खैर मुम्बई से शिरडी और फिर वहां से पुणे पहुंच गए। शिर्डी में रुकना नहीं था और पुणे में रुकने का इंतज़ाम नहीं था। पुणे स्टेशन के आस पास के लॉज और धर्मशाला ने मुझे कमरा, जगह देने से मना कर दिया। ये बात है गुरुवार की और परीक्षा थी रविवार को। ये तीन दिन कहाँ बिताएं और कैसे बिताएं ये सोचते हुए मैं पुणे स्टेशन के बाहर बैठा हुआ था।
मायूसी तो बहुत थी। विचारों में खोया हुआ और आंखों मैं आँसू लिये हुए शायद किसी ने देखा। वो शख्स मेरे पास आया और पूछा क्या तकलीफ में हो? अब जैसा होता है घर वालों की सभी सीख याद आने लगीं। फिर भी पता नहीं क्या बात हुई मैं उनके साथ उनके स्कूटर पर बैठ गया और उनके घर पहुंच गया। भाई ने कहा मेरे रूम पर रुक जाओ। पता चला वो भी भोपाल से ही हैं और रूम पर और प्राणी मिले इस शहर के। बस फिर क्या था, जो शहर कुछ समय पहले कुछ अजीब से विचार जगा रहा था, वो अपना लगने लगा।
रविवार की पुणे से भोपाल वापसी भी कम यादगार नहीं रही। एक बार फ़िर टिकट कन्फर्म नहीं हुआ और झेलम एक्सप्रेस से भोपाल की यात्रा खड़े खड़े करी। चूंकि परीक्षा देके सीधे आ रहा था तो शर्ट की जेब में पेन रखा था। लेकिन मई की गर्मी में इंक लीक हो गयी और भोपाल पहुँचते पहुँचते पूरी शर्ट का रंग बदल गया था। लेकिन घर जा रहे थे करीब 10 दिन बाद तो इसके आगे सारे रंग फ़ीके।
इस बात को करीब बीस वर्ष हो चुके हैं। लेकिन उस शख्स का नाम याद नहीं। भोपाल में किस गली मुहल्ले में रहते हैं पता नहीं। बस याद है तो उनका मुझे अपने घर पर सिर्फ इंसानियत के नाते रखना। याद है कि किसी ने बिना कुछ सोचे मुझे तीन दिन का आश्रय दिया।
आज भी उनके प्रति सिर्फ कृतज्ञता है और कोशिश की अपने आसपास के माहौल से प्रभावित न होकर ऐसे ही किसी असीम की मदद किसी रूप में कर सकूं और वो किसी और कि और बस ये अच्छाइयों का चक्र चलता रहे।
भोपाल में एक तूफ़ान मेरा इंतज़ार कर रहा है इस बात से अनभिज्ञ मैं घर वापस जा रहा था।