होइहि सोइ जो राम रचि राखा

इन दिनों तो शादी ब्याह की धूमधाम चल रही। जितने भी लोगों को जानते हैं सभी के परिवार में किसी न किसी की शादी का कार्यक्रम है। जिनको नहीं जानते हैं उनकी शादी के अलग अलग कार्यक्रम की तस्वीरें देखने को मिल रही हैं। अब ये कोई विक्की कौशल औऱ कैटरीना कैफ की शादी तो है नहीं। सबने मन भरकर फ़ोटो खींचे हैं औऱ अब जहाँ मौक़ा मिले सब जगह शेयर कर रहे हैं। इतने से भी मन नहीं भरता लोगों को तो वो वहाँ इकट्ठा परिवार वालों से भी वही फ़ोटो लेक़िन दूसरी जगह से खींचा हुआ, वो भी शेयर होता है।

तो वापस शादी पर आते हैं। मेरा विवाह भी इन्हीं दिनों हुआ था। विवाह के लिये कन्या काफ़ी समय से ढूंढ़ी जा रही थी। उन दिनों मुम्बई कर्मस्थली थी औऱ उससे पहले दिल्ली। बहुत से रिश्तेदारों को तो बस इंतज़ार ही था कब मैं धमाका करने वाला हूँ। जब ऐसा नहीं हुआ, मतलब मैंने दिल्ली वाली गर्लफ्रैंड या मुम्बई की मुलगी, को विवाह के लिये नहीं चुना तो उनको मायूसी ज़रूर हुई होगी। बहरहाल, सुयोग्य कन्या की तलाश जारी थी। एक दो जगह तो सबको लगा यहाँ तो पक्की ही समझें। मग़र…

अब थोड़ा सा फ़्लैशबैक के अंदर फ़्लैशबैक। कॉलेज के दिनों में या परीक्षा के दिनों हमारी पढ़ाई, मतलब हम तीन मित्रों की (विजय, सलिल औऱ मेरी) परीक्षा की एक रात पहले से शुरू होती। कई बार साथ पढ़ने का मौक़ा हुआ तो विजय के घर पर ये पढ़ाई होती। ऐसी ही एक रात पढ़ते हुये जीवनसाथी कैसा हो इसपर चर्चा हुई औऱ सबने बताया उनको कैसे साथी की कामना है। उस समय मैं भोपाल से कहीं बाहर जाऊँगा या पत्रकारिता करूँगा ये कुछ भी नहीं पता था। शायद इन दोनों को भी यही लगा था की मेरा विवाह अरेंज नहीं होगा।

जब ये बातें हुई होंगी तो निश्चित रूप से हमने रूप सौंदर्य के बारे में ही कहा होगा। मतलब शक़्ल, सूरत कैसी हो। लेक़िन जब विवाह के लिये कन्या ढूंढना शुरू हुआ तो इसमें कुछ औऱ बातें भी जुड़ गयीं। चूँकि काम करते हुये समय हो गया था औऱ महानगरों में ज़िंदगी एक अलग तरह की होती है। उसपर से पत्रकार की थोड़ी औऱ अलग। मतलब करेला औऱ वो भी नीम चढ़ा। तो इन्हीं अनुभवों के चलते अब जीवनसाथी कैसा हो इसमें थोड़ा बदलाव हुआ था।

एक युवती, जिनसे सब को लगा था मेरा विवाह हो ही जायेगा, से मेरा मिलना हुआ। मतलब इस रिश्ते की बातचीत में जो भी शामिल थे, उन सबकी बातों से मेरे माता-पिता भी ये मान बैठे थे। सगाई की तैयारी शुरू थी (मुझे बाद में पता चला)। लेक़िन मेरी बातचीत हुई तो वो माधुरी दीक्षित ने जो दिल तो पागल है में कहा था, ऊपरवाले ने वो सिग्नल नहीं दिया। सारी तैयारियां धरी की धरी रह गईं। मुझपर बहुत दवाब भी था लेक़िन मुझे उसी दिन मुम्बई वापस आना था तो बात टल गई। हाँ ये बात ज़रूर हुई की जो भी बीच में लोग बातचीत कर रहे थे, वो आज तक इस बात से नाराज़ हैं।

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छोटी बहन यशस्विता के विवाह के समय मेरे लिये एक विवाह का प्रस्ताव आया था। लेक़िन हम सब व्यस्त थे तो किसी का ध्यान नहीं गया औऱ फ़ोटो आदि सब उठाकर रख दी गईं थीं। जब एक दो माह बाद भोपाल जाना हुआ तो मुझे फ़ोटो दिखाई गई। अब वापस उस रात तीन दोस्तों की बात पर चलते हैं। जब मैंने फोटो देखी तो मुझे हमारा वो वार्तालाप ध्यान आ गया। मैंने कोई बहुत ज़्यादा मिलने की उत्सुकता नहीं दिखाई। लेक़िन जैसा मेरी सासूमाँ कहा करती थीं, होइहि सोइ जो राम रचि राखा।

चूँकि मेरी भी बहनों को इस देखने दिखाने के कार्यक्रम से कई बार गुज़रना पड़ा था तो माता पिता ने अपने पुत्रों के लिये ये कार्यक्रम नहीं करने का निर्णय लिया था। उल्टा उन्होंने कन्यापक्ष को न्यौता देकर बुलाया आप पहले लड़के से मिल लीजिए। जहाँ तक कन्या को देखने की बात है तो उन्होंने कहा अगर लड़की मुझे पसंद है तो वो शादी पक्की करके आ जायेंगे। मतलब सारा दारोमदार आपकी हाँ या ना पर था। उसके बाद आप जानो।

अब जो श्रीमतीजी हैं, जब इन्हें मिलने गये तो इनका सखियों के साथ फ़िल्म का प्रोग्राम था, जो मेरे कारण रद्द हो गया था। आपने फ़िल्म ताजमहल का वो गाना तो सुना होगा जो बात तुझमें है, तेरी तस्वीर में नहीं। बस कुछ वैसा ही हुआ। जब वापस आये तो सब मेरी राय जानना चाहते थे। अच्छा पता नहीं ऐसा क्यूँ होता था, जब भी ऐसा कोई कार्यक्रम होता मुझे उसी दिन वापस मायानगरी आना होता था। मैं भी सफ़र का ये समय इस बारे में विचार करने के लिए उपयोग करता था।

उस दिन स्टेशन पर चलते चलते मैंने जो जवाब दिया उसका जैसे बस इंतज़ार हो रहा था। ऐसा पहली बार हुआ था जब मैंने मुम्बई पहुँचकर जवाब देने की बात नहीं करी थी औऱ माता-पिता ने भी बिना देरी किये रिश्ता पक्का कर दिया।

श्रीमतीजी को उस दिन हृतिक रोशन औऱ प्रीति जिंटा की फ़िल्म भले ही देखने को न मिली हो लेक़िन असल जीवन में हम दोनों को ही \’कोई मिल गया\’ था (मुझे पाँच मंज़िल चढ़ने के बाद ही सही)।

https://youtu.be/L9_0XsY77CE

यादों के मौसम 4

यादों के मौसम की पिछली कड़ी यादों के मौसम 3

माँ और प्रीति किसी तरह जय को उठाकर घर के अंदर लाये और माँ ने उसे पीने के लिये ग्लूकोज़ का पानी दिया और प्रीति से कहा की वो बगल वाले मिश्रा जी के घर से पापा को बैंक फ़ोन कर फौरन घर आने को कहे।

शाम का समय था तो अगल बगल के घर के बच्चे बाहर ही खेल रहे थे और उन्होंने जय को गिरते हुये और प्रीति को माँ को मदद के लिये बुलाते हुये सुन लिया था। उन्होंने अपने अपने घरों में ये बता भी दिया था तो उनमें से कुछ की माताजी जय के घर के बाहर ही खड़ी थीं जब प्रीति बाहर मिश्रा जी के घर जाने को निकली। श्रीमती मिश्रा ने ही सबसे पहले पूछा जय के बारे में। प्रीति ने घटना का संक्षिप्त विवरण दे दिया और उनसे कहा कि \”आंटी पापा को बैंक फ़ोन लगाना था\”। उन्होंने उसको अपने घर ले जाते हुये पूछा, \”जय कुछ कमज़ोर लग रहा है। क्या पढ़ाई का टेंशन है?\”। प्रीति ने सिर्फ पता नहीं कहके पीछा छुड़ाना चाहा। लेकिन श्रीमती मिश्रा को तो जैसे एक मौका मिल गया था। वैसे उनसे सब दूर ही भागते थे। क्योंकि एक बार वो शुरू हो जायें तो बस किसी को बचाने के लिये आना ही पड़ता है।

जय को क्या हुआ था ये बिना जाने ही उन्होंने उसके खाने-पीने की आदतों और बेसमय सोने को इसका ज़िम्मेदार ठहरा दिया। जब मिश्रा जी के घर पहुँचे तो उनका छोटा बेटा अमित घर पर ही था। प्रीति को नमस्ते करते हुये उसने पूछा \”दीदी कुछ ज़रूरत हो तो मैं चलता हूँ।\” प्रीति ने कुछ जवाब नहीं दिया और फ़ोन का रिसीवर उठा कर वो बैंक का नंबर डायल करने लगी। अमित प्रीति को देख रहा था और प्रीति अपने पिताजी को जय का हाल बता रही थी। बात करते करते उसके आँसू निकलने लगे। अमित की माँ चौके में थी। अमित ने आगे बढ़कर प्रीति के कंधे पर हाँथ रखते हुये कहा, \”दीदी जय भैया ठीक हो जायेंगे\”। इतना सुनने के बाद प्रीति का रोना बढ़ गया। अमित ने माँ को आवाज़ देकर बुलाया तो श्रीमती मिश्रा एक गिलास पानी और कुछ बिस्कुट लेकर ड्राइंग रूम में ही आ रहीं थी। उन्होंने भी प्रीति को समझाया।

जय को पहले से बेहतर लग रहा था लेकिन बहुत कमज़ोरी लग रही थी। प्रीति आयी तो उसने पास के डॉ खोना के क्लीनिक चलने को कहा। \”वहाँ तक कैसे जाओगे\”, माँ ने पूछा। उन्होंने प्रीति को जय के पास बैठने के लिये कहा और खुद डॉ खोना के क्लीनिक चली गईं। वहाँ चार पांच मरीज़ पहले से थे। जय की माँ, सरोज सिंह, ने कंपाउंडर से पूछा कि क्या डॉ साहब उनके बेटे को घर पर देख लेंगे। उसको बहुत कमज़ोरी है और यहाँ तक चल कर आना थोड़ा मुश्किल है। कंपाउंडर ने उन्हें इंतज़ार करने को कहा। डॉ साहब से पूछकर उसने कहा की आजायेंगे लेकिन मरीजों को देखने के बाद।

कंपाउंडर के जवाब से थोड़ी निश्चिंत जय की माँ जब घर पहुँची तो जय ड्राइंग रूम में नहीं था। हैरान-परेशान प्रीति उनके पर्स में कुछ ढूंढ रही थी। माँ को देख उसने कहा, \”पापा मिश्रा अंकल की कार से भैया को सरकारी अस्पताल ले गये हैं। हम को भी वहीं चलना है। आप पैसे रख लेना, पापा ने कहा है\”।

कल के लिये आज को न खोना

जब महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ औऱ पांडव विजयी हुये तो श्रीकृष्ण गांधारी से मिलने गये। युद्ध में अपने पुत्रों की मृत्यु से दुःखी गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया था की जैसे उनके सामने उनके कुल का अंत हुआ था वैसे ही श्रीकृष्ण के सामने यदुवंश का भी ऐसे ही अंत होगा।

श्रीकृष्ण को तो इस बारे में सब ज्ञात था लेक़िन श्रीराधा ने जब स्वपन में ये प्रसंग देखा तो वो तहत विचलित हुईं। वो किसी भी तरह से आगे जो ये होने वाला था उसको रोकने का प्रयास करने लगीं। उन्होंने उस व्यक्ति को भी ढूंढ निकाला जिसके तीर से वासुदेव के प्राण निकलने वाले थे। राधा ने जरा नामक उस व्यक्ति को स्वर्ण आभूषण भी दिये ताकि वो अपना जीवन आराम से व्यतीत कर सके औऱ शिकार करके जीवनयापन की आवश्यकता ही न पड़े।

श्रीकृष्ण ये सभी बातें जानते थे औऱ वो अपने तरीक़े से राधा को ये समझाने का प्रयास भी कर रहे थे की कोई कुछ भी करले जो नियत है वो होकर ही रहेगा। अंततः श्रीराधा को ये बात समझ आ जाती है की जिस पीड़ा से वो डर रही हैं वो एक चक्र है। अगर एक पुष्प खिला है तो उसका मुरझाना निश्चित है। जब इस बात का उन्हें ज्ञान हो जाता है तो उनका बस एक ही लक्ष्य रहता, जो भी समय है उसको श्रीकृष्ण के साथ अच्छे से व्यतीत करें।

यही हमारे जीवन का भी लक्ष्य होना चाहिये। हर दिन को ऐसे बितायें जैसे बस आज की ही दिन है। कल पर टालना छोड़ें।

यादों के मौसम 3

इससे पहले की कड़ी यादों के मौसम 2

जय और सुधांशु शोले के जय-वीरू तो नहीं थे लेकिन दोनों कॉलेज में अक्सर साथ रहते थे। सुधांशु होस्टल में रहता था तो कभी कभार जय उसको घर पर खाने के लिये ले जाता था। सुधांशु जब घर जाता तो जय के लिये अलग से घर की बनी मिठाई का डिब्बा लेकर आता और सबसे बचाते हुये उसे दे देता। कृति दोनों के बीच एक कड़ी थी।

कृति और सुधांशु ने एक ही कॉलेज से ग्रेजुएशन किया था लेकिन कोई ख़ास जान पहचान नहीं थी। वो तो जब पोस्ट ग्रेजुएशन में इनकी दस लोगों की क्लास बनी तब सब का एक दूसरे को ज़्यादा जानना हुआ। जय को कृति शुरू से ही पसंद थी। वो ज़्यादा बात नहीं करती थी, ऐसा उसको लगा था। लेकिन एक दिन कैंटीन जब वो बाकी लोगों के साथ बैठा था तब उसको अपनी गलतफहमी समझ आयी। बहुत ज़्यादा खूबसूरत भी नहीं थी लेकिन उसे ओढ़ने पहनने का सलीक़ा था। जय को उसके बाल बांधने का तरीका बहुत पसंद था।

उस दिन ठंड कुछ ज़्यादा ही थी। जय का मन नहीं था कॉलेज जाने का तो उसने सुबह से ही आलस ओढ़ लिया था। माँ को भी अच्छा लगा की बेटा आज घर पर है नहीं तो सारा सारा दिन गायब रहता और शाम को पढ़ाई में व्यस्त। उन्होंने उसके पसंद के आलू के परांठे बनाये नाश्ते में और दोनों माँ बेटे ने सर्दी की उस सुबह आराम से नाश्ता किया। जय के पिताजी बैंक में मैनेजर थे और उसकी छोटी बहन प्रीति इस साल बारहवीं की परीक्षा देने वाली थी। नाश्ते के बाद रजाई ओढ़ कर जय कब सो गया उसे पता ही नहीं चला।

प्रीति ने स्कूल से लौटकर जय को जगाया तब उसकी आंख खुली। प्रीति को भी जय को घर पर देखकर आश्चर्य हुआ। उसने माँ से भाई की तबीयत पूछने के बाद जय को उठाना शुरू किया। जैसे तैसे जय ने बिस्तर छोड़ा और ड्राइंग रूम में सोफे पर जाकर बैठ गया।

\”भैया आज तुम घर पर हो तो क्यों न मार्केट चला जाये। मुझे कुछ किताबें भी देखनी हैं और फ़िर विजय की चाट भी…\”, प्रीति ने जय से बहुत प्यार से कहा। जय की आज घर से कहीं बाहर निकलने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी।

\”तुम कविता के साथ क्यों नहीं चली गईं\”, जय ने ग्लास में पानी निकालते हुए पूछा। \”उसकी गाड़ी बनने गयी हुई है नहीं तो मेरी इतनी हिम्मत की आपको परेशान करूँ,\” प्रीति ने भाई की टांग खींचते हुये कहा।

वैसे प्रीति अपनी पढ़ाई के संबंध में जय से ज़रूर सलाह लेती। जय भी अपनी बहन को आगे पढ़ने के लिये प्रोत्साहित करता। माता-पिता की भी कोई बंदिश नहीं थी प्रीति पर।

जय को मार्किट जाने से बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा था। लेकिन तैयार होते हुये उसे बड़ा अजीब सा लग रहा था। घर के गेट पर पहुँचना जय की लिये मुश्किल हो गया था। कदम साथ नहीं दे रहे थे। पीछे से आ रही प्रीति ने उसका हाथ पकड़ लिया नहीं तो क्यारी में लगी ईंट से जय का सिर टकरा जाता। जय प्रीति की गोद में लगभग बेहोश सा पड़ा था।

यादों के मौसम 2

यादों के मौसम – 1

जय और सुधांशु कॉलेज की कैंटीन में चाय की चुस्कियां ले रहे थे तभी वहाँ कृति आ गयी। \”सरकार यहाँ चाय का लुत्फ़ उठा रहे हैं और इधर हम उन्हें ढूंढ के परेशान हुए जा रहे है,\” उसने सुधांशु की तरफ़ देखते हुये कहा। जय को मालूम था की ये ताना उसपर कसा जा रहा है इसलिये वो सर झुकाये सब सुन रहा था। सुधांशु के पास बचने का कोई उपाय नहीं था सो उसने कृति को भी चाय पीने का न्योता दे दिया।

जय उठ कर खड़ा हुआ जाने के लिये तो कृति ने हाँथ में पकड़ी किताबों को देखते हुये कहा, \”कहाँ तुम किताबों के चक्कर में फंसे हुए हो। ज़रा ज़िन्दगी के बाकी मज़े भी लो।\”

\”उसी की तो तैयारी कर रहा हूँ। थोड़ा सा त्याग अभी और बाद में मज़े,\” जय बोला।

\”पर तब उम्र निकल जाएगी,\” सुधांशु ने कहा।

\”भाई मज़े लेने की कोई उम्र नहीं होती,\” जय ने चलते हुए कहा।

सुधांशु हाथ जोड़ते हुए बोला \’बाबा की जय हो\’ और दोनों कृति को वहीं छोड बात करते हुए कॉलेज की तरफ चल पड़े। जय ने एक बार मुड़कर कृति को देखा जो बाकी लोगों से बात कर रही थी और यूँ ही मुस्कुरा उठा। उसे ध्यान आया की कृति से ये पूछना तो रह गया की वो उसे क्यों ढूंढ रही थी। लेकिन अब फ़िर से कौन डाँट खाये। आज का कोटा हो गया था।

जय अपने आप को बड़ा प्रैक्टिकल इन्सान मानता था। उसे इमोशन फ़िज़ूल तो नहीं लेकिन फालतू लगते थे। उसका मानना था भावनाओं में पड़ कर इन्सान बहुत कुछ गवां बैठता है। लेकिन कृति के लिये उसके दिल में एक ख़ास इमोशन था। वो दोस्ती थी, प्यार था या वो उसकी इज़्ज़त करता था ये समझना उसके लिये थोड़ा मुश्किल हो रहा था।

जय इन्हीं ख़यालों में खोया हुआ था की स्मृति की आवाज़ उसे वापस वर्तमान में ले आयी। वो उसे किसी से मिलवा रही थी। डॉ रायज़ादा के पुराने सहयोगी थे जिनके साथ वो रोज़ सुबह सैर के लिये जाते थे। उस ग्रुप के बाकी सदस्यों से भी जय, स्मृति, सुधांशु और कृति मिले। इस मिलने मिलाने से जय थोड़ा परेशान हो गया था। उसने सुधांशु को ढूंढा और उससे पूछा की उसके पास सिगरेट है क्या। दोनों ने किशन काका से छत की चाबी ली और चल दिये।

जय की तरफ़ सिगरेट बढ़ाते हुये सुधांशु ने पूछा, \”कैसे हो जय?\”। जबसे वो जयपुर आया था तबसे वो और सुधांशु साथ में थे लेकिन पूरे समय डॉ रायज़ादा के अंतिम संस्कार की तैयारी में लगे रहे तो दोनों को समय ही नहीं मिला एक दूसरे से बात करने का।

इस बात को दस बरस हो गये थे लेकिन आज भी जब वो सुधांशु को देखता तो जय को याद आती कृति और सुधांशु की नीचे ड्राइंग रूम में लगी शादी वाली फ़ोटो और कृति का वो फ़ोन कॉल। \”जय मैं शादी कर रही हूँ\”। उसको टूटे फूटे शब्दों में बधाई देते हुये जय ने ये पूछा ही नहीं लड़का कौन है।

यादों के मौसम

\’राम नाम सत्य है\’ बोलते हुये जब डॉ रायज़ादा के पार्थिव शरीर को ले जाने लगे तो जय भी अंतिम संस्कार की रीतियों में शामिल होने के लिये अपने दिवंगत ससुर को कन्धा देेने के लिये आगे बढ़ा। अचानक एक हाँथ उसके कंधे पे आ रुका।

“घर के दामाद कन्धा नहीं देते”, जय ने पलटकर देखा तो कृति का पति और उसका पुराना दोस्त सुधांशु था। जय ने कुछ कहा नहीं और सुधांशु के बगल खड़ा हो गया। इतनी भीड़ में उसने कृति को देखा ही नहीं। कितने साल हो गये उसे देखे हुए। लेकिन लगता जैसे कल की ही बात हो जब उसने पहली बार डॉ रायज़ादा से उसे मिलाया था।

अंतिम संस्कार का काम संपन्न कर सब शाम को जब पाठ के लिए इकट्ठा हुए तो उसकी नज़र कृति पर गयी। बिलकुल वैसी ही दिखती है। थोडा वज़न बढ़ गया है लेकिन इस दुःख के मौके पर भी उसकी आँखें मुस्कुरा रही थीं। उसने भी जय को देखा और नमस्ते किया। जवाब में जय सिर्फ अपने हाथ मिला ही पाया था और यादों का कारवां चल पड़ा।

जय अपने आप को दस साल पीछे जाने से रोक नहीं पाया।

कृति ने उसे मेसेज किया था अर्जेंट मिलना है। वो घर से कॉलेज के लिए निकला ही था। अब कॉलेज में तो मिलना ही था। ऐसा क्या अर्जेंट था ये सोचते हुए वो कॉलेज पहुँच गया पर कृति का कहीं नामोनिशान नहीं था। अपने ग्रुप के बाकी लोगों से पूछने पर भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। उसकी खीज बढती जा रही थी की तभी मुस्कुराती हुयी कृति उसे आवाज़ लगाते हुए उसके पीछे आ रही थी। उसे देख वो अपनी सारी झुन्झूलाहाट भूल गया।

\”कहाँ थीं अब तक? पहले तो कहती हो अर्जेंट मिलना है और फिर गायब। लाइब्रेरी जाना था किताबें वापस करना है नहीं तो फाइन लगेगा\”, जय बोलता जा रहा था । कृति ने मानो सब अनसुना करते हुए अपने बैग से एक पेपर कटिंग निकाली। एक नौकरी का विज्ञापन था। जय के हाथ में देते हुए बोली, \”जब बोलना खत्म हो जाये तो पढ़ लेना\”।

जय चुप होकर कटिंग को पढ़ने लगा। एक रिसर्च अस्सिस्टेंट की पोस्ट थी। पैसा ठीक था। उसने कृति को धन्यवाद कहा। कृति ने मेंशन नॉट बोलते हुए हिदायत दी जल्दी भेज देना। \’ओके मैडम\’, कहते हुए जय लाइब्रेरी की ओर चल पड़ा।

लाइब्रेरी जाते हुये उसने सोचा आज कृति से अपने दिल की बात बोल ही देनी थी। लेकिन उसे डर था की अगर कृति ने मना कर दिया तो। वैसे तो वो उसका बहुत ख़याल रखती है और हमेशा आगे बढ़ने के लिये कहती है लेकिन क्या वो जय को अपने जीवन साथी के रूप में पसंद करती है? ये सवाल जय कई बार अपने आप से पूछ चुका है लेकिन इसका जवाब सिर्फ़ कृति के पास था।

इन्हीं विचारों में उलझे हुये जय को सुधांशु की आवाज़ ही सुनाई नहीं दी। वो तो जब पास आकर उसने चिल्लाकर कहा \’जय हो\’ तब जय का ध्यान गया।

\”लगता है किसी लड़की के ख़यालों में खोये हुये थे,\” सुधांशु ने कहा तो जय इधर उधर देखने लगा। \”जैसे हमें नहीं पता वो कौन है\”, सुधांशु ने कहा तो जय थोड़ा झेंप गया और बोलने लगा, \”यार सुबह सुबह क्यूँ मेरे पीछे पड़े हो\”। पीछा छुड़ाने के लिये बोला चाय पियोगे?

\”आपकी चाय\”, ये शब्द जय को वर्तमान में ले आये थे। सामने उसकी पत्नी स्मृति उसकी काली चाय का प्याला लिये खड़ी थी। (क्रमशः)