रविवारीय: ये संग है उमर भर का

इस साल 26 जनवरी की बात है जब फ़िल्म रंग दे बसंती के बारे में पढ़ रहा था। वैसे तो इस फ़िल्म से जुड़ी बहुत सी बातें बेहद रोचक हैं औऱ मैंने लगभग मन भी बना लिया था क्या लिखना है, लेक़िन जब तक लिखने का कार्यक्रम हुआ तो कहानी बदल गयी।

आज जब लता मंगेशकर जी ने अपने प्राण त्यागे, तब लगा जैसे हर कहानी को बताने का एक समय होता है वैसे ही शायद उस दिन ये पोस्ट इसलिये नहीं लिखी गयी। फ़िल्म के बारे फ़िर कभी, फ़िलहाल इसके एक गाने के बारे में जिसे लता जी ने रहमान के साथ अपनी आवाज़ दी है।

जब फ़िल्म लिखी गयी थी औऱ उसके गाने तैयार हुये थे तब ये गाना उसका हिस्सा थे ही नहीं। फ़िल्म पूरी शूट हो गयी औऱ उसके पोस्ट प्रोडक्शन पर काम चल रहा था। रहमान जो फ़िल्म के संगीतकार भी हैं, इसका बैकग्राउंड संगीत भी दे रहे थे। जब आर माधवन की मृत्यु वाला सीन चल रहा था औऱ उसका बैकग्राउंड संगीत दिया जा रहा था तब निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा एवं गीतकार प्रसून जोशी को ये आईडिया आया। ये निर्णय लिया गया की उस पूरे प्रसंग के लिये संगीत के बजाय गाने का इस्तेमाल किया जायेगा।

दरअसल मेहरा बहुत दिनों से लता जी से इस गाने के बारे में बात कर रहे थे। लेक़िन किन्हीं कारणों से ये हो नहीं पा रहा था। जब लता जी से फ़िर से बात हुई औऱ वो गाने के लिये तैयार हुईं तो उन्होंने कहा गाना क्या है कुछ भेज दीजिए। मेहरा ने कहा आप रहमान को जानती हैं। उनका गाना तैयार होते होते होगा औऱ प्रसून जोशी जी लिखते लिखते लिखेंगे। लेक़िन मैंने शूटिंग करली है। उन्होंने राकेश मेहरा से पूछा क्या ऐसा भी होता है? मेहरा ने उन्हें बताया आजकल ऐसा भी होता है।

लता जी चेन्नई में रिकॉर्डिंग से तीन दिन पहले पहुँच कर गाने का रियाज़ किया औऱ तीसरे दिन जब रिकॉर्डिंग हुई तो पाँच घंटे वो स्टूडियो में खड़ी रहीं। राकेश मेहरा को भी लगभग 80 साल की लता मंगेशकर का काम के प्रति लगन देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। जब फ़िल्म का संगीत आया तो ये गाना बाक़ी सभी गानों के पीछे कहीं छुप से गया था। लेक़िन आज बड़ी तादाद में सुनने वाले इसको पसंद करते हैं।

अब किसी गाने में गायक, संगीतकार या गीतकार किसका सबसे अहम काम होता है? जब लता जी से पूछा गया कि उनका कोई गीत जिसे सुनकर उनके आँसूं निकल आते हों तो उन्होंने कहा \”गाने से ज़्यादा मुझे उसके बोल ज़्यादा आकर्षित करते हैं। अगर अच्छी शायरी हो तो उसे सुनकर आंखों में पानी आ जाता है।\”

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लता मंगेशकर औऱ मीना कुमारी। (फ़ोटो – लता मंगेशकर जी के फेसबुक पेज से साभार)

गानों को लेकर जो बहस हमेशा छिड़ी रहती है उसमें गायक औऱ संगीतकार को ही तवज्जो मिलती है। गीतकार कहीं पीछे ही रह जाता है। लता जी शायद शब्दों का जादू जानती थीं, समझती थीं इसलिये उन्होंने संगीत औऱ गायक से ऊपर शब्दों को रखा।

लता मंगेशकर जी को शायद एक बार साक्षात देखा था देव आनंदजी की एक फ़िल्म की पार्टी में। मुम्बई में काम के चलते ऐसी कई पार्टियों में जाना हुआ औऱ कई हस्तियों से मिलना भी हुआ। लेक़िन कभी ऑटोग्राफ़ नहीं लिया। अच्छा था उन दिनों मोबाइल फ़ोन नहीं होते थे।

ख़ैर, पीटीआई में जब काम कर रहे थे तब नूरजहां जी का देहांत हो गया। ये रात की बात है। उनके निधन पर हिंदी फिल्म जगत में सबकी प्रतिक्रिया ले रहे थे। नूरजहाँ को लता मंगेशकर अपना गुरु मानती थीं। लेक़िन लता जी मुम्बई में नहीं थीं। अब उनको ढूँढना शुरू किया क्योंकि उनकी प्रतिक्रिया बहुत ख़ास थी। देर रात उनको ढूँढ ही लिया हमारे संवाददाता ने औऱ उनकी प्रतिक्रिया हमें मिल ही गयी।

उनके कई इंटरव्यू भी देखें हैं। एक जो यादगार था वो था प्रीतिश नंदी के साथ। वैसे देखने में थोड़ा अटपटा सा ज़रूर है क्योंकि नंदी उनसे अंग्रेज़ी में ही सवाल करते रहे लेक़िन लता जी ने जवाब हिंदी में ही दिया। मेरे हिसाब से ये एकमात्र इंटरव्यू था जिसमें लता जी से प्यार, मोहब्बत औऱ शादी के बारे में खुल कर पूछा गया। हाँ ये भी है की लता जी ने खुलकर जवाब नहीं दिया। रिश्तों के ऊपर एक सवाल पर तो उन्होंने कह भी दिया की वो इसका जवाब नहीं देंगी।

इसी इंटरव्यू में जब उनसे ये पूछा गया की क्या वो दोबारा लता मंगेशकर बन कर ही जन्म लेंगी तो उनका जवाब था, \”न ही जन्म मिले तो अच्छा है। औऱ अगर वाक़ई जन्म मिला मुझे तो मैं लता मंगेशकर नहीं बनना चाहूँगी।\” जब पूछा क्यूँ, तो हँसते हुये लता जी का जवाब था, \”जो लता मंगेशकर की तकलीफ़ें हैं वो उसको ही पता है।\”

अब लता जी अपने गीतों के ज़रिये हमारे बीच रहेंगी।

यादों के झरोखे से: जब देव आनंद की वजह से शम्मी कपूर बने रॉकी

फ़िल्मों में अक़्सर ये होता रहता है कि निर्माता निर्देशक फ़िल्म किसी कलाकार को लेकर शुरू करते हैं लेक़िन फ़िर किन्हीं कारणों से बात नहीं बनती। फ़िर नये कलाकार के साथ काम शुरू होता है। पिछले हफ़्ते रिलीज़ हुई \’सरदार उधम\’ भी ऐसी ही एक फ़िल्म थी। निर्देशक शूजीत सरकार ने फ़िल्म की कल्पना तो इऱफान ख़ान के साथ करी थी लेक़िन उनकी बीमारी औऱ बाद में असामयिक निधन के बाद विक्की कौशल के हिस्से में ये फ़िल्म आयी। फ़िल्म है बहुत ही शानदार। अगर नहीं देखी है तो समय निकाल कर देखियेगा।

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हम आतें हैं इस पोस्ट पर वापस। यादों के झरोखों से आज देख रहें हैं हिंदी फ़िल्म जगत की एक ऐसी फ़िल्म जिसने सिनेमा का रंगढंग औऱ संगीत-नृत्य सब बदल डाला। आज नासिर हुसैन साहब की फ़िल्म \’तीसरी मंज़िल\’ को रिलीज़ हुये 55 साल हो गये। 1966 में रिलीज़ हुई इस बेहतरीन सस्पेंस फ़िल्म के गाने आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। औऱ अब तो ये जानते हुये भी की ख़ूनी ____ हैं इसको देखने का मज़ा कम नहीं होता। (ख़ूनी का नाम इसलिये नहीं लिखा क्योंकि अग़र किसी ने फ़िल्म नहीं देखी हो तो। वैसे आपको नोटिस बोर्ड पर फ़िल्म का सस्पेंस लिख कर लगाने वाला किस्सा तो बता ही चुका हूँ। आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं।

नासिर हुसैन ने ये फ़िल्म दरअसल देव आनंद के साथ बनाने का प्लान बनाया था। देव आनंद के भाई विजय आनंद भी नासिर हुसैन के प्रोडक्शन हाउस में काम कर रहे थे औऱ उनको राजेश खन्ना-आशा पारिख के साथ बहारों के सपने बनाने का ज़िम्मा दिया गया था।

फ़िल्म की कहानी का आईडिया जो नासिर हुसैन ने एक सीन में सुनाया था वो कुछ इस तरह था। दो सहेलियाँ दिल्ली से देहरादून जा रही हैं औऱ गाड़ी में पेट्रोल भरवा रहीं हैं पेट्रोल पंप पर। नायिका की बहन की मौत ही गयी तीसरी मंज़िल से गिरकर लेक़िन उसको लगता है वो क़त्ल था। वो बात कर रही हैं क़ातिल के बारे में। सहेली नायिका से पूछती है उसको पहचानोगी कैसे? नायिका बोलती है सुना है वो काला चश्मा पहनता है। उसी पेट्रोल पंप पर अपनी मोटरसाइकिल में पेट्रोल भरवाता हुआ युवक उनकी बात सुनकर अपना काला चश्मा उतार कर जेब में रख लेता है।

विजय आनंद ने हुसैन से पूछा आगे क्या होता है? वो कहते हैं पता नहीं। आनंद तब कहते हैं इसपर काम करते हैं औऱ इस तरह जन्म हुआ तीसरी मंजिल का।

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देव आनंद तीसरी मंज़िल के फोटो शूट के दौरान

सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था। देव आनंद ने बाकायदा फ़िल्म के लिये फ़ोटो शूट भी कराया था जिसमें वो ड्रम बजाते हुये दिख रहे हैं। लेक़िन बीच में आगयी अभिनेत्री साधना जी की सगाई। साधना का इस फ़िल्म से कोई लेना देना नहीं थी। फ़िल्म की अभिनेत्री तो आशा पारिख ही रहने वाली थीं।

हुआ कुछ ऐसा की साधना जी की सगाई में नासिर हुसैन औऱ देव आनंद के बीच कहासुनी हो गयी। दोनों ही महानुभाव ने नशे की हालत में एक दूसरे को काफ़ी कुछ सुनाया। दरअसल नासिर हुसैन ने देव आनंद को ये कहते हुये सुन लिया की नासिर ने उनके भाई विजय आनंद को एक छोटे बजट की ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म (बहारों की मंज़िल) वो भी पता नहीं किसी राजेश खन्ना नामक अभिनेता के साथ बनाने को दी है। लेक़िन वो ख़ुद तीसरी मंजिल जैसी बड़ी, रंगीन फ़िल्म निर्देशित कर रहे हैं।

नासिर हुसैन इतने आहत हुये की उन्होंने अगले दिन विजय आनंद को तीसरी मंजिल का निर्देशक बना दिया औऱ स्वयं बहारों की मंज़िल का निर्देशन का ज़िम्मा उठाया। इसके साथ ही उन्होंने एक औऱ बड़ा काम कर दिया। उन्होंने देव आनंद को तीसरी मंज़िल से बाहर का रास्ता दिखा दिया। जब उनकी जगह किसको लिया जाये पर विचार हुआ तो शम्मी कपूर साहब का नाम आया। जब शम्मी कपूर को ये पता चला की देव आनंद को हटा कर उनको इस फ़िल्म में लिया जा रहा है तो उन्होंने इस शर्त पर काम करना स्वीकार किया की देव आनंद ये कह दें की उन्हें कपूर के इस फ़िल्म में काम करने से कोई आपत्ति नहीं है।

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शम्मी कपूर फ़िल्म की शूटिंग के दौरान

देव आनंद ने अपनी स्वीकृति दे दी औऱ नतीजा है ये तस्वीर। लेक़िन ये सब NOC (नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट) के बाद ऐसा नहीं हुआ कि फ़िल्म शुरू हो गयी। नासिर हुसैन के पास कहानी औऱ कलाकार दोनों थे लेक़िन उनकी फ़िल्म में संगीत का बहुत एहम रोल होता है। उन्हें तलाश थी एक संगीतकार की। किसी कारण से वो ओ पी नय्यर, जो उनकी पिछली फ़िल्म फ़िर वही दिल लाया हूँ के संगीतकार थे, उनको वो दोहराना नहीं चाहते थे।

शम्मी कपूर जब फ़िल्म का हिस्सा बने तो उन्होंने संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन का नाम सुझाया औऱ कोशिश करी की वो फ़िल्म का संगीत दें। लेक़िन इसी बीच आये आर डी बर्मन। अब बर्मन दा का नाम कहाँ से आया इसके बारे में कई तरह की बातें हैं। ऐसा माना जाता है गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी साहब, जिन्होंने राहुल के पिता एस डी बर्मन के साथ कई फिल्मों में काम किया था, उन्होंने उनका नाम सुझाया। नासिर हुसैन ने मजरूह के कहने पर मुलाकात करी। ख़ुद आर डी बर्मन ने भी मजरूह सुल्तानपुरी साहब को इसका श्रेय दिया है।

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शम्मी कपूर को इसका भरोसा नहीं था की आर डी बर्मन फ़िल्म के लिये सही संगीतकार हैं। लेक़िन जब उन्होंने धुनें सुनी तो वो नाचने लगे औऱ वहीं से शुरू हुआ बर्मन दा, नासिर हुसैन एवं मजरूह सुल्तानपुरी का कारवां। फ़िलहाल बात तीसरी मंजिल की चल रही है तो कारवां की बातें फ़िर कभी।

जब फ़िल्म बन रही थी उसी दौरान शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली का निधन हो गया। फ़िल्म का सेट लगा हुआ था लेक़िन नासिर हुसैन साहब ने इंतज़ार करना बेहतर समझा। कुछ दिनों के बाद भी शम्मी कपूर काम करने को तैयार नहीं थे। विजय आनंद घर से उनको ज़बरदस्ती सेट पर लेकर आ गये। लेक़िन शम्मी कपूर बहुत दुःखी थे औऱ उन्होंने बोला उनसे ये नहीं होगा। विजय आनंद ने कहा एक बार करके देखते हैं अगर नहीं होता है तो काम रोक देंगे।

उस समय तुमने मुझे देखा होकर मेहरबां गाने की शूटिंग चल रही थी। फ़िल्म में ये गाना एक ऐसे मोड़ पर आता है जब नायक को लगता है नायिका को उनसे मोहब्बत हो गयी है औऱ इसी ख़ुशी में वो ये गाना गा रहे हैं। लेक़िन असल में बात कुछ औऱ ही थी। ख़ैर, शम्मी जी तैयार हुये औऱ शूटिंग शुरू हुई। सब कुछ ठीक हुआ औऱ जैसे ही शॉट ख़त्म हुआ सब ने तालियाँ बजायी। लेक़िन विजय आनंद को कुछ कमी लगी तो उन्होंने शम्मी कपूर से कहा एक टेक औऱ करते हैं।

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इतने समय बाद शम्मी कपूर वापस आये थे औऱ काम शुरू ही किया था। सबको लगा आज कुछ गड़बड़ होगी। लेक़िन जब शम्मी जी ने रिटेक की बात सुनी तो वापस पहुँच गये शॉट देने। सबने राहत की साँस ली। थोड़े आश्चर्य की बात है की इतनी बड़ी हिट फिल्म देने के बाद नासिर हुसैन औऱ शम्मी कपूर ने इसके बाद दोबारा साथ में काम नहीं किया।

तीसरी मंज़िल के बाद विजय आनंद ने भी कभी नासिर हुसैन के साथ दोबारा काम नहीं किया। नासिर हुसैन ने भी इस फ़िल्म के बाद बाहर के किसी निर्देशक के साथ काम नहीं किया। अपने बैनर तले सभी फ़िल्मों का निर्देशन उन्होंने स्वयं किया। जब उन्होंने निर्देशन बंद किया तो उनके बेटे मंसूर खान ने ये काम संभाला। उसके बाद से अब ये प्रोडक्शन हाउस बंद ही है।

तीसरी मंजिल वो आख़िरी नासिर हुसैन की फ़िल्म थी जिसके सभी गाने मोहम्मद रफ़ी साहब ने गाये थे। दोनों ने साथ में काम जारी रखा लेक़िन अब किशोर कुमार का आगमन हो चुका था। वैसे रफ़ी साहब को नासिर हुसैन की हम किसी से कम नहीं फ़िल्म के गीत \”क्या हुआ तेरा वादा\’ के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

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तीसरी मंज़िल से जुड़ी एक औऱ बात। ये जो तस्वीर है ये है सलमान खान के पिता सलीम खान। लेखक बनने से पहले उन्होंने कुछ फिल्मों में काम किया था उसमें से एक थी तीसरी मंज़िल। शम्मी कपूर आशा पारेख औऱ हेलन, जिनके साथ उन्होंने बाद में विवाह किया, को आप फ़िल्म के पहले गाने \’ओ हसीना ज़ुल्फोंवाली\’ में देख सकते हैं।

इसी गाने से जुड़ी एक बात के साथ इस पोस्ट का अंत करता हूँ। फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद एक सज्जन ने गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी से इस गाने के बोल को लेकर सवाल किया की, \’मजरूह साहब क्या आप ये कहना चाहते हैं उस एक हसीना की ही ज़ुल्फ़ें हैं? क्या बाक़ी हसीनाओं के बाल नहीं हैं? क्या वो गंजी हैं?\’

अग़र फ़िल्म देखने के इच्छुक हों तो यूट्यूब पर देख सकते हैं। लेक़िन संभाल कर। देखना शुरू करेंगे तो उठना मुश्किल होगा। फ़िल्म की शुरुआत ही ऐसी है की आप जानना चाहते हैं आगे क्या होगा। खाने पीने की तैयारी के साथ मज़ा लें तीसरी मंजिल का।

वो यार है जो ख़ुशबू की तरह, वो जिसकी ज़ुबाँ उर्दू की तरह

कल की पोस्ट में जो कैफ़ियत शब्द का इस्तेमाल किया था इसको पहली बार गुलज़ार साहब की आवाज़ में सुना था। एल्बम था गुलज़ार के चुनिंदा गानों का औऱ उनकी वही भारी भरकम आवाज़ में वो कहते हैं, \”मिसरा ग़ालिब का, कैफ़ियत अपनी अपनी\”।

जब कैसेट पर ये सुना था तब समझ में नहीं आया। उस समय इंटरनेट भी नहीं था लेक़िन उर्दू जानने वाले काफ़ी लोग थे और उनसे मतलब पूछा था। उस समय समझा और आगे बढ़ गए। उन दिनों भाषाओं की इतनी समझ भी नहीं थी। आगे बढ़ने से पहले – मिसरा का मतलब किसी उर्दू, कविता का आधारभूत पहला चरण। कैफ़ियत – के दो माने हैं हाल, समाचार या विवरण।

गुलज़ार ने इसके बाद अपना लिखा जो गाना सुनाया वो था दिल ढूँढता है फ़िर वही फ़ुरसत के रात दिन। इस गाने में सारे मौसम का ज़िक्र है। जाड़ों की बात है तो गर्मियों की रात का भी ज़िक्र है और बर्फ़ीली सर्दियों का भी। इसी गाने का एक दूसरा भाग भी है जो दर्द से भरा है। इस गाने से संबंधित एक बात और जिसकी शिकायत गुलज़ार साहब से है की उन्होंने इसमें बरसात का ज़िक्र क्यूँ नहीं किया? बात कैफ़ियत से शुरू हुई थी और एक गाने में सिमटती जा रही है।

जो मैं अर्ज़ करना चाह रहा था वो ये की किसी भी भाषा का ज्ञान कई स्त्रोतों से मिलता है। कई शब्द सुनकर सीखते हैं और चंद पढ़कर भी। अब जैसे अपशब्द की तो कोई क्लास नहीं होती लेक़िन अपने आसपास आप लोगों को इसका इस्तेमाल करते सुनते हैं और धीरे धीरे ये आपकी भाषा का अंग बन जाता है। पहले तो सिनेमा में भाषा बड़ी अच्छी होती थी लेक़िन अब गालियों का खुलकर प्रयोग होता है और वेब सीरीज़ तो परिवार के साथ न देखने न सुनने लायक बची हैं। अभी ऊपर भटकने से बचने के बात करते करते वापस उसी रस्ते।

जिस तरह के आजकल के गाने बन रहे हैं उससे लोगों की अपशब्दों की डिक्शनरी ही बढ़ रही है। जब सेक्सी शब्द का इस्तेमाल हुआ था तो हंगामा हुआ था। आखिरकार बोल बदलने पड़े थे। अब बादशाह, कक्कड़ परिवार, हनी सिंह ने पूरी पीढ़ी को नई भाषा ज्ञान का ज़िम्मा उठाया है और इसके नतीज़े आपको कोरोना ख़त्म होते दिखेंगे जब ससुराल गेंदा फूल पर छोटे छोटे बच्चे नाचेंगे।

गानों का किसी भाषा को समझने की पहली कड़ी मान सकते हैं। ये कोई फ़िल्म भी हो सकती है लेक़िन किताब नहीं क्योंकि आप उसका अनुवाद पढ़ रहे होते हैं। ग़ालिब को पढ़ा तो नहीं लेक़िन उनको सुना है। सुनकर ही शब्दों के माने जानने की कोशिश भी करी क्योंकि उनके इस्तेमाल किये शब्द भारीभरकम होते हैं। जैसे:

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

जब पहली बार ये शेर सुना तो कुछ भी समझ में नहीं आया। फ़िर अलग अलग शब्दों के माने समझ कर समझा की ग़ालिब क्या कह रहे हैं।

https://youtu.be/KhWUUPo0pTQ

ऐसा ही एक और बेहद खूबसूरत गीत है फ़िल्म घरौंदा का तुम्हे हो न हो मुझको तो इतना यकीं है । बांग्लादेशी गायिका रुना लैला की आवाज़ में ये गाना दरअसल बयां कितनी मोहब्बत है इसका है लेक़िन सीधे सीधे नहीं बोलकर गुलज़ार साहब नें शब्दों के जाल में एक अलग अंदाज में बताया है। जब शुरू में ये गाना सुना तो लगता वही जो मुखड़ा सुनने पर लगता है। लेक़िन जब अंतरे पर आते हैं तो समझ में आता है की बात कुछ और ही है। ये मुखड़े से अंतरे तक का सफ़र बहुत कठिन रहा लेक़िन मज़ा आया। अगर आप ये गाना देखेंगे तो ये एक दर्द भरा गीत भी नहीं है।

पिछले दिनों एक पुराने सहयोगी ने बताया उर्दू की क्लास के बारे में। तो बस अब उस क्लास से जुड़ने का प्रयास है औऱ एक बरसों से दबी ख्वाइश के पूरे होने का इंतज़ार।

एक आख़िरी गाना जिसके शब्द बचपन से याद रहे। उन दिनों रेडियो ही हुआ करता था तो उसपर कई बार सुना। अब तो जैसे इस गाने के बोल रट से गये हैं और उनके माने भी समझ में आने लगे। हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना

दरअसल गाने और उनके संबंध पर चर्चा के बारे में किसी ने एक बहुत ही खूबसूरत बात कही थी जिससे इस पोस्ट का आईडिया पनपा। लेक़िन लिखते लिखते भटक से गये। ख़ैर उस बात का ज़िक्र आगे करेंगे।

जो कुछ नहीं तो ये इशारे क्यों, ठहर गए मेरे सहारे क्यों

आज जब महाराष्ट्र में पाला बदलने की बात हो रही थी तब एक नेता ने कहा \”वो कल नज़र मिला के बात नहीं कर रहे थे\”। तो ये सदाबहार देव आनंद साहब का गाना उन्हीं आंखों के नाम। वैसे इस फ़िल्म के सभी गाने कमाल के थे और पिताजी के मुताबिक इस फ़िल्म के बाद भुट्टे खाने का चलन बढ़ गया था। किशोर कुमार और लताजी की आवाज़ में मजरूह सुल्तानपुरी साहब के बोल और संगीत सचिन देव बर्मन जी का।

लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना
लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना
अगर इसे समझ सको,
मुझे भी समझाना
लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना

जवाब सा किसी तमन्ना का
लिखा तो है मगर अधूरा सा
अरे ओ
जवाब सा किसी तमन्ना का
लिखा तो है मगर अधूरा सा
हो,
कैसी न हो मेरी हर बात अधूरी
अभी हूँ आधा दिवाना
लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना
अगर इसे समझ सको,
मुझे भी समझाना
लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना

जो कुछ नहीं तो ये इशारे क्यों
ठहर गए मेरे सहारे क्यों
अरे ओ
जो कुछ नहीं तो ये इशारे क्यों
ठहर गए मेरे सहारे क्यों
हो, थोड़ा सा हसीनों का सहारा लेके चलना
है मेरी आदत रोज़ाना
लिखा है तेरी आँखों में,
किसका अफ़साना
अगर इसे समझ सको, मुझे भी समझाना
लिखा है…

दिल ढूंढता है फ़िर वही फ़ुर्सत के रात दिन

गुलज़ार साहब के लिखे गानों को सुना था, उनकी लिखी फिल्मों को देखा था। जब आप किसी का लिखा पढ़ते हैं या उनका काम देखते हैं तो एक रिश्ता सा बन जाता है। शुरुआत में तो किसने लिखा है ये पता करने की कोशिश भी नहीं करते। बाद में ये जानने की उत्सुकता रहती की किसने लिखा है।

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दिल ढूंढता है फ़िर वही फुरसत के रात दिन। फ़िल्म-मौसम, संगीतकार-मदन मोहन (फोटो: यूट्यूब)

गुलज़ार साहब का लिखने का अंदाज़ अलग है ये भी समझते समझते समझ में आया। उसके बाद से तो उनकी लिखाई के ज़रिये उनसे एक रिश्ता बन गया। जब पता चला की वो भोपाल किसी कार्यक्रम के सिलसिले में आये हुये हैं तो मैंने उनके होटल के बारे में पूछताछ कर फ़ोन लगा दिया। थोड़ी देर में उनकी वही भारी सी आवाज़ लाइन पर सुनाई दी।

पहले तो विश्वास नहीं हुआ। लेक़िन उन्होंने ऐसे बात करनी शुरू की जैसे हमारी पुरानी पहचान हो। मैं नया नया पत्रकार ही था। बहरहाल उन्होंने थोड़ी देर बात करने के बाद होटल आने का न्योता दिया। मेरा होटल जाना तो नहीं हुआ लेक़िन गुलज़ार साहब से मायानगरी में फ़िर मुलाक़ात हो गयी। इस बार वो अपनी एक किताब के विमोचन के लिये मुम्बई के चर्चगेट इलाके में स्थित ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर में आये थे।

मैं ऑफिस से अपने पुराने सहयोगी समोद को साथ ले गया था। समोद वैसे तो बहुत बात करते हैं लेकिन ऐसी कोई शख्सियत सामने आ जाये तो वो बस सुनने का काम करते हैं। समोद ने जल्दी से उनकी एक किताब खरीदी और उसपर उनका ऑटोग्राफ़ भी लिया। समोद के साथ और भी कई प्रोग्राम में जाने को मिला। एक बार अमोल पालेकर जी से मिलना हुआ। समोद को भी कुछ पूछने की इच्छा हुई। लेकिन बस वो उस फिल्म का नाम भूल गये जिससे संबंधित प्रश्न था। उन्होंने ने मेरी तरफ देखा लेकिन मुझे जितने नाम याद थे बोल दिये। लेकिन वो फ़िल्म कोई और थी। अब ये याद नहीं की वो अमोल पालेकर साहब की ही फ़िल्म थी या कोई और लेकिन वो कुछ मिनट पालेकर साहब और मैं दोनों सोचते रहे समोद का सवाल क्या था।

ख़ैर, उस दिन गुलज़ार साहब से लंबी तो नहीं लेक़िन अच्छी बातचीत हुई। बातों बातों में उन्होंने बोला आओ कभी फुरसत में घर पर। बाद में और भी कई मौके आये जहाँ गुलज़ार साहब के करीबी निर्देशक के साथ मिलने का प्रोग्राम बनते बनते रह गया। मजरूह के बाद अगर कोई शायर पसंद आया तो वो थे गुलज़ार साहब। दोनों का लिखने का अंदाज़ बहुत अलग है लेक़िन क़माल का है।

मेरा कुछ सामान के बारे में आर डी बर्मन ने क्या कहा था वो कहानी सबने सुनी ही होगी। श्रीमतीजी के भाई एक बार मेरे साथ फँस गये। उनकी संगीत की पसंद कुछ दूसरी तरह की है। टीवी पर गुलज़ार हिट्स आ रहे थे। मैं बड़ी तन्मयता के साथ गाने को देख रहा था और आशा भोंसले जी के इसी गीत का आनंद ले रहा था। मेरा कुछ सामान आधा ही हुआ था की उन्होंने मुझसे पूछा ये सामान वापस क्यों नहीं कर देता। उसके बाद से जब उन्हें पता चला तो अब बस चुपचाप देख लेते हैं बिना किसी विशेष टिप्पणी के।

अच्छा है संभल जायें…

चुनाव की इस गहमा गहमी के बीच आज मजरूह सुल्तानपुरी साहब की याद आ गई। आज ही के दिन वो अपने लिखे गीत, गज़ल और नज़्मों का खज़ाना हम को सौंप कर अलविदा कह गये। दरअसल लिखने वाला तो कुछ और था लेकिन सोचा आज गुमनाम लोगों के बारे में लिखा जाये। वो जिनको हम गुनगुनाते तो रहते हैं लेकिन उन बोल के पीछे छिपे वो गीतकार को भूल जाते हैं।

हम लोग अगर औसतन अपनी आयु 70 वर्ष की मान लें तो इस दौरान हम कुछ एकाध ऐसा काम करते हैं जिनके लिये हम या तो मिसाल बन जाते हैं या सबके प्रिय पंचिंग बैग। हम आम लोगों के लिये वो क्या काम है जिससे हमें याद रखा जायेगा वो हमारे परिवार और कुछ ख़ास आसपास वाले जानते हैं। शायद आपके कुछ सहकर्मी भी।

कुशल नेतृत्व आपके जीवन की राह बदल सकता है

कलाकारों के जीवन में ऐसा होता है जो उनके जीवनकाल की पहचान बन जाती है। जैसे यश चोपड़ा साहब की दीवार, सलीम-जावेद के लिये शोले, दीवार, शाहरुख खान के लिये डर, सलमान खान के लिये शायद दबंग या मैंने प्यार किया। ये सब मेरे अनुसार हैं। आप शायद इन्हीं शख्सियतों को उनके किसी और काम से याद रखते हों। जैसे 1983 में भारत की जीत। सब कहते हैं उसके सामने जो जीत भारत ने बाद में हासिल करी उसका कोई मुकाबला नहीं है।

बहरहाल, फ़िलहाल रुख वापस मज़रूह सुल्तानपुरी साहब की तरफ़। उनके लिखे कई गाने एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपे गये नये परिवेश में ही सही। लेकिन उनका लिखा ये शेर

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर, लोग जुड़ते गये कारवाँ बढ़ता गया।

ये कुछ ऐसा लिखा गया है जो आज भी लोग बोलते रहते हैं। अगर आपने शाहरुख खान की ज़ीरो देखी हो तो उसमें भी जावेद जाफरी सलमान खान की एंट्री के समय यही शेर कहते हैं। अगर आपने नई कारवां देखी हो तो इरफ़ान खान की नीली रंग की गाड़ी पर भी यही शेर लिखा हुआ है। इसके पीछे छिपा संदेश दरअसल बहुत महत्वपूर्ण है। ये सच भी है। आपके जीवन की बहुत सारी यात्रायें अकेले ही शुरू होती हैं और लोग उससे जुड़ते जाते हैं।

काली कार की ढेर सारी रंगबिरंगी यादें

मेरा और मज़रूह साहब का रिश्ता क्या आमिर ख़ान-जूही चावला की क़यामत से क़यामत तक के कारण और मजबूत हुआ? शायद। लेकिन उसके पहले मैं उनके लिखे यादों की बारात के गानों को बहुत पसंद करता था। उनका लिखा आजा पिया तोहे प्यार दूँ मेरा सबसे प्रिय है। गाने के बोल सुख मेरा ले ले, मैं दुख तेरे ले लूँ, मैं भी जियूँ, तू भी जिये…

संगीत हमारी ज़िंदगी का एक अभिन्न हिस्सा है और ये फिल्मों की ही देन है। लेकिन आज के हुक उप, ब्रेक अप और ख़लीफ़ा सुन के जब मज़रूह साहब का लिखा क्या मौसम है सुनने को मिलता है तो एक सुकून सा मिलता है।

और चुनाव का मौसम है, तो जो आगे की तैयारी कर रहे हैं उनके लिये मज़रूह साहब कह गए हैं (वैसे जो सरकार बना रहे हैं ये उनके लिये भी उतना ही सही है)

खोये से हम,
खोई सी मंज़िल,
अच्छा है संभल जायें,
चल कहीं दूर निकल जायें।

आप कहीं मत जाइए। यहीं मिलेंगें। जल्दी।