मुँह में राम बगल में छुरी वाली कहावत जब बचपन में सुनी थी तो लगता था छुरी भी दिखाई देगी। वक़्त के साथ समझ आया कि ये छुरी दिखने वाली नहीं है। हाँ आपको इसका आभास अलग अलग रूप में हो जाता है।
जैसे आपके सच्चे हितेषी कौन हैं ये बात आपको समझते समझते समझ में आती है। अक़्सर ऐसा होता है कि जिसको आप अपना शुभचिंतक समझ रहे थे वो दरअसल अपने मतलब के लिये आपके पास था। ये वो लोग होते हैं जो आपको चने के झाड़ पर चढ़ाने का काम करते हैं औऱ चूँकि हम सभी को तारीफ़, प्रशंसा अच्छी लगती है तो हम ये सब सुन सुनकर फूल फूल के कुप्पा हुये जाते हैं। लेक़िन जब तक समझ आता है की आप उतने भी अच्छे नहीं है जितना बताया जा रहा था तो बड़ी ठेस लगती है।
जब मुझे टीम को नेतृत्व करने का मौक़ा मिला तो कई सारे ट्रेनिंग प्रोग्राम में जाने का मौक़ा भी मिला। इसमें से एक था कि आप किसी को फ़ीडबैक कैसे दें। कंपनी के नियम ही कुछ ऐसे थे कि आप को हर महीने टीम के सभी सदस्यों की परफॉर्मेंस देखनी होती थी और रेटिंग देनी होती थी। इसके बाद हर तिमाही आपको आमने सामने बैठकर इस पर थोड़े विस्तार से बातचीत करनी होती थी। एक समय मेरी टीम लगभग 70 से अधिक सदस्यों की हो गयी थी और मेरे कई दिन इसमें निकल जाते थे। साल के अंत में तो महीना इसके लिये निकाल कर रख दिया जाता था।
इसका दूसरा पहलू भी था। टीम के सदस्यों को भी उनके लीडर (यानी मुझे) रेट करना होता था। जो भी अच्छा बुरा होता वो सीधे HR के पास पहुंच जाता और इसके बाद बॉस, मैं और HR के बीच मेरे बारे में इस फीडबैक पर चर्चा होती। इसमें बहुत सी बातें पता चलती। मसलन टीम भले ही अपने टारगेट कर रही थी लेक़िन कुछ न कुछ शिक़ायतें भी ज़रूर रहतीं। वैसे तो मैंने टीम के सभी सदस्यों को ये छूट दे रखी थी की अगर मेरी कोई बात ग़लत हो तो बता दें। लेक़िन कुछ को छोड़ दें तो बाक़ी लोगों को कोई शिक़ायत नहीं होती। ऐसा मुझे लगता।
लेक़िन जब शिकायतों की शुरुआत होती तो लगता ये तो कुछ अलग ही मामला है। लेक़िन जब आप नेतृत्व कर रहे होते हैं तो आपको एक और बात भी समझ में आती है की कुछ तो लोग कहेंगें, लोगों का काम है कहना। आप इस कहने से कितना परेशान होते हैं ये आप पर निर्भर करता है क्योंकि उस कहने की सच्चाई आपको भी पता होती है। लेक़िन इसका ये मतलब नहीं की जो आपकी निंदा कर रहे हो वो ग़लत ही हों। शायद आपको अपने में कुछ बदलने की भी ज़रूरत हो सकती है।
लेक़िन कुछ लोगों की फ़ितरत ऐसी नहीं होती। मतलब बेईमानी तो जैसे उनके डीएनए में ही होती है। और न तो समय और न उम्र उनमें कुछ बदलाव लाती है। आप कह सकते हैं ये उनका मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट होता है। लेक़िन जैसे किसी उपकरण की कई खामियां/कमियाँ आपको उनके इस्तेमाल के बाद पता चलती हैं, वैसे ही इन महानुभावों के असली चेहरे के बारे में तब पता चलता है जब आप किसी मुसीबत में हों या आपको उनकी सहायता की ज़रूरत हो।
अगर आपने फ़िल्म नासिर हुसैन की तीसरी मंज़िल देखी हो तो जैसे उसमें आख़िर में पता चलता है तो आपको एक शॉक सा लगता है। पहली बार तो ऐसा हुआ था। मैंने अपने कार्यस्थल और निजी जीवन में भी ऐसी कई उदाहरण देखे जिनके बारे में सुनने पर विश्वास नहीं होता। ऐसे लोगों के चलते मन ख़राब भी बहुत होता है क्योंकि आपको सामने ये दिखता है की सब कुछ ग़लत करने के बाद भी (जिसके बारे में सबको मालूम भी है) वो व्यक्ति अपने जीवन को ऐसे जी रहा है जैसे कुछ हुआ ही न हो। आप यही उम्मीद करते हैं जैसे सबको अपने कर्मों का फल मिलता है इन \’गुणी\’ लोगों को भी मिले।
वापस मुँह में राम बगल में छुरी पर आते हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिलेंगे जहाँ दानवीर धर्मस्थलों पर बड़ी रक़म तो दान कर देते हैं लेक़िन किसी असली ज़रूरतमंद की मदद करने से कतराते हैं। अब जब चूँकि अंदर वो अपनी आस्था का लेनदेन कर चुके होते हैं तो बाहर काला चश्मा पहनकर वो निकल जाते हैं।
मॉरल ऑफ द स्टोरी: अपना काम करते रहिए। जिनको आपका ऐसे या वैसे उपयोग करना होगा वो करेंगे। उनसे आप नहीं बच सकते। अगर घर में आपके सगे संबंधी आपको छोड़ देंगे तो बाहर कोई आपका दोस्त, सहयोगी आपकी ताक में बैठा होगा। लेक़िन इन लोगों के चलते उसकी उम्मीद मत तोड़ियेगा जिसका जीवन आप के एक भले काम से बदल सकता है।
पुराने ऑफिस में ये धमाल चल रहा था तो नौकरी ढूँढने का काम शुरू किया। मुझे एक शख्स मिले जो एक बिल्कुल ही अलग क्षेत्र से आते थे लेक़िन अब मीडिया में कार्यरत थे। उनसे एक मुलाकात हुई थी और बात फ़िर कुछ रुक सी गयी थी। अचानक एक शाम उन्होंने मिलने के लिये बुलाया।
इस मुलाक़ात के समय से ख़तरे की घंटी बजना शुरू हुई थी लेक़िन मैंने उसे नज़रअंदाज़ किया। जो घंटी थी वो थी दोनों ही शख्स – पहले वाले महानुभाव और अब ये – बात ऐसे करते की आप झांसे में आ जाते। ख़ैर मुलाकात हुई और उन्होंने कंपनी के शीर्ष नेतृत्व से मिलने के लिये बुलाया।
माई बाप सरकार
जबसे मैंने पत्रकारिता में कदम रखा है तबसे सिर्फ़ शुरुआती दिनों में एक अखबार में काम किया था तब न्यूज़रूम का मालिकों के प्रति प्रेम देखा था। उसके बाद से एक अलग तरह के माहौल में काम किया जहाँ आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि मायने नहीं रखती थी। लगभग 18 वर्षों बाद मैं वापस उस माहौल में पहुँच गया।
इतने वर्षों में मालिकों के पास और महँगी गाड़ियाँ आ गईं थीं और सबसे नया मोबाइल फोन। लेक़िन मानसिकता वही माई बाप वाली जारी थी। माहौल पूरा अजीबोगरीब था। आपको ऑफिस में किसी से बात नहीं करनी थी और दुनिया इधर की उधर हो जाये आपके काम के घंटे पूरे होने चाहिये।
नई जगह जॉइन करने के दूसरे दिन बाद समझ में आ गया था ग़लती हो गई है। अब हम मध्यम वर्गीय परिवार के लिये नौकरी बहुत ज़रूरी होती है। अगर किसी कारणवश आप घर पर बैठ भी जायें तो ज़्यादा दिन तक ये चलता नहीं। तो मैंने भी इन सब विचारों को ताक पर रखकर काम पर ध्यान देना शुरू किया।
एक दो अच्छे सहयोगी मिले जो अच्छा काम करने की इच्छा रखते थे। लेकिन माहौल ऐसा की आपके हर कदम पर नज़र रहती। आप कितने बजे लंच के लिये गये, कब वापस आये ये सब जानकारी मैनेजमेंट के पास रहती थी।
सब चलता है
आफिस पॉलिटिक्स से मेरा कभी भी पाला नहीं पड़ा था। लेक़िन इस नए संस्थान में ये संस्कृति बेहद ही सुचारू रूप से चालु थी। मेरा एक मीटिंग में जाना हुआ जहाँ और भी विभागों से जुड़े संपादक मंडल के लोगों का आना हुआ। जैसे ही मालिक का प्रवेश हुआ तो सब ने नमस्ते के साथ चरण स्पर्श करना शुरू किया। मेरे लिये ये पूरा व्यवहार चौंकाने वाला था और मैं अपनी पहली नौकरी के दिन याद करने लगा।
उस समय भी मालिक को सिर्फ़ न्यूज़रूम में कदम रखने की देरी थी की सब खड़े हो जाते। निश्चित रूप से मालिकों के ईगो को इससे बढ़ावा मिलता होगा इसलिये उन्होंने कभी भी ये ज़रूरी नहीं समझा कि इस पर रोक लगाई जाये। इस नई जगह पर भी यही चल रहा था।
आसमान से गिरे और ख़जूर में अटके वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। मैं सिर्फ़ इस इंतज़ार में था की मुझे जल्दी से उस शहर भेज दिया जाये जहाँ से मुझे नया काम शुरू करना था। जब ऐसी दूरी हो जाये तो थोड़ी राहत तो मिलती है। एक बार फ़िर नई टीम बनानी थी। लोग खोजे गये और ये कार्यक्रम शुरू हुआ। नये ऑफिस को लेकर ढ़ेर सारे वादे किये गये। ऑफिस इस सोशल मीडिया कंपनी के ऑफिस की टक्कर का होगा, ये होगा, वो होगा। लेक़िन सब बातें।
मेरा प्रत्याशी
ये जो शख्स थे ये एक कैंडिडेट के पीछे पड़े हुये थे की इनको लेना है। मैंने थोड़ी पूछताछ करी तो कुछ ज़्यादा ही तारीफें सुनने को मिलीं इन महोदय के बारे में और मैंने मना कर दिया। पहले तो शख्स बोलते रहे तुम्हारी टीम है तुम देखो किसको लेना है। लेक़िन उन्होंने इन महोदय को फाइनल कर लिया और नौकरी भी ऑफर कर दी।
अच्छा ये शख्स की ख़ास आदत थी। ये सबकी दिल खोलकर बुराई करते। क्या मालिक, क्या सहयोगी। ऐसी ऐसी बातें करते कि अगर यहाँ लिखूँ तो ये एडल्ट साइट हो जाये। मुझे इन सब में कोई दिलचस्पी नहीं थी और जब अंततः शहर छोड़ने का सशर्त आदेश मिला तो लगा अब ये सब चक्कर ख़त्म। लेक़िन अभी तो कुछ और नया शुरू होने वाला था।
शर्त ये थी कि हम दो लोग जो उस ऑफिस में शीर्ष अधिकारी होंगे वो किसी केबिन में नहीं बैठेंगे। क्यों नहीं बैठेंगे ये पता नहीं, लेक़िन ये बात बार बोली गयी और हमें भी ये स्वीकार्य थी। आज़ादी बड़ी बात लग रही उस समय।
नया शहर पुरानी आदतें
नया शहर, कुछ पुराने, ढ़ेर सारे नये लोगों के साथ काम शुरू किया। मुझे लग रहा था अब शांति से काम होगा लेक़िन मैं एक बार फ़िर गलत था। कुछ दिनों के अंदर पता तो लग गया था की शख्स जी दरअसल हर चीज़ पर कंट्रोल रखने में दिलचस्पी रखते हैं। आप की किसी दूसरी कंपनी में काम को लेकर अगर कोई मीटिंग हो तो उनको सब पता होना चाहिये और सब जगह के ईमेल, फ़ोन नंबर उन्हें दिए जाने चाहिये। लेक़िन निर्णय लेने में इनके पसीने छूटते क्योंकि इनके हाँथ में भी कुछ नहीं था। कोई बड़ी विदेशी कंपनी हो तो ये सब कुछ स्वयं ही करते। आपको बस साथ में जाकर नोट लेना होता।
अब मैं दूसरे शहर में था तो फ़ोन उनका सबसे बड़ा सहारा था। सुबह शाम फोन पर फ़ोन, मैसेज पर मैसेज। मेरी ये आदत नहीं रही कि उनको फ़ोन पर हाज़री लगवाउँ तो मैंने फ़ोन पर बातें कम करदीं और मूड नहीं होता तो बात नहीं करता। लेक़िन साहब को ये नहीं भाया और उन्होंने टीम से एक बंदे को अपना संदेशवाहक बनाया। इसका पता तब चला जब मैंने दो तीन लोगों की एक मीटिंग बुलाई थी। बाहर निकलने पर उन्होंने फोन करके पूछा मीटिंग कैसी रही। उनकी तरफ से संदेश साफ था – मेरे पास और भी तरीकें हैं खोज ख़बर रखने के।
एक दो महीने काम ठीक से चलना शुरू हुआ था की शख्स ने फ़रमाइश करना शुरू कर दिया कि जिन महोदय को इन्होंने रखा है उनको और बडी ज़िम्मेदारी दी जाये। इन दो महीनों में इन महोदय का सारा खेल समझ में आ चुका था। काम में इनकी कोई रुचि नहीं थी। टीम की महिला सदस्यों के आगे पीछे घूमना और फ़ालतू की बातें करना इनका पेशा था। शख्स के जैसे ये भी बोल बच्चन और काम शून्य।
मैं किसी तरह इसको टालता रहा। लेक़िन शख्स को जो कंट्रोल चाहिये था उसकी सबसे बड़ी रुकावट मैं था। मैं किसी भी विषय में निर्णय लेना होता तो बिना किसी की सहायता से ले लेता। अब अग़र उस ऑफिस का मुखिया मैं था तो ये मेरे अधिकार क्षेत्र में था। लेक़िन उनको ये सब नागवार गुजरता क्योंकि उनकी पूछपरख कम हो जाती।
जैसी उनकी आदत थी, वैसे वो मेरे बारे में मेरे अलावा पूरे ऑफिस से बात करते और अपना दुखड़ा रोते। एक दो बार वो आये भी नये ऑफिस में और मुझे अपनी तरफ़ रखने के लिये सब किया। लेक़िन मुझे ऐसे माहौल में काम करने की आदत नहीं थी और न मैंने वो चीज़ इस नये ऑफिस में आने दी थी। हमारी एक छोटी सी प्यारी सी टीम थी और सब एक अच्छे स्वस्थ माहौल में काम कर रहे थे।
अंदाज़ नया खेल पुराना
तब तक इस शख्स का भी संयम जवाब दे रहा था। उन्होंने नया पैंतरा अपनाया और अब व्हाट्सएप में जो ग्रुप था वहाँ मेसेज भेजते और वहीं खोज ख़बर लेते। इसके लिये भी मैंने उनको एक दो बार टोका। जब नहीं सुना तो मैंने भी नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया। काम हो रहा था और सबको अपना काम पता था। लेक़िन उनको परेशानी ये थी कि दूसरे शहर में हम लोग क्या कर रहे थे उनको इसका पूरा पता नहीं मिलता।
मेरे वरिष्ठ सहयोगी को मैंने बोल रखा था अग़र कोई बात तुम्हें मुझसे करनी हो या मुझे तुमसे तो सीधे बात करेंगे। बाक़ी ऊपर वालों को मैं संभाल लूँगा।
आज जब सब वर्क फ्रॉम होम की बात करते हैं और इसके गुण गाते हैं तो मुझे याद आता है दो साल पहले का वो दिन। हुआ कुछ ऐसा की जिस सदस्य की रात की ड्यूटी थी उसको किसी कारण अपने गृहनगर जाना पड़ा। मुझे पता था और मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं थी कि वो काम दुनिया के किस हिस्से से हो रहा था। काम हो रहा था ये महत्वपूर्ण था।
ऑफिस में शख्स को ये बात पता चली और कुछ दिनों में वो साक्षात दर्शन देने आ गये। उन्होंने सबकी क्लास ली और कड़ी चेतावनी दी कि अब से लैपटॉप से आपकी लोकेशन भी ट्रैक की जायेगी। मेरे समझाने का कोई फायदा नज़र नहीं आ रहा था। उसपर से शीर्ष नेतृत्व ने कहीं से एक स्टडी निकाली जिसके मुताबिक़ घर से काम करने से फ़ायदा कम और नुकसान ज़्यादा था। आज पता नहीं उस स्टडी का क्या हाल होगा।
दोस्त के नाम पर…
शख्स जैसा व्यक्ति मैंने आज तक नहीं झेला था। वो सोशल मीडिया पर टीम के सदस्यों को अपना दोस्त बनाते और उसके बाद उनकी जासूसी करते। मसलन कौन कहाँ घूमने गया है, उसके साथ कौन है और कौन किसकी कौनसी फ़ोटो को लाइक कर रहा है। ये सब करने के बाद वो बताते फलाँ का चक्कर किसके साथ चल रहा है। आप कंपनी के बड़े अधिकारी हैं, काम की आपके पास कमी है नहीं। इन सब में क्यों अपना टाइम बर्बाद कर रहे हैं? उसके बाद जब वो ये कहते कि वो रात को फलाँ धर्मगुरु का उपदेश सुनकर ही सोते हैं तो लगता गुरुजी को पता नहीं है उनके शिष्य कितने उच्च विचार रखते हैं।
शिकंजा धीरे धीरे कसता जा रहा था। इसी सिलसिले में कंपनी ने एक और अधिकारी की नियुक्ति करी अपने दूसरे ऑफिस से। मैं अक़्सर लोगों को पहचानने में ग़लती करता हूँ और इस बार भी वही हुआ। इस पूरे नये ऑफिस में सभी लोग बाहर के थे – मतलब कंपनी के नये मुलाज़िम थे। कंपनी को अपना के संदेशवाहक रखना था और वो ये साहब थे।
ये साहब ने भी गुमराह किया कि वो इस ऑफिस में काम करने वालों के हितेषी हैं लेक़िन उन्होंने भी अपनी पोजीशन का भरपूर फ़ायदा उठाया, कंपनी के नियमों की धज्जियां उड़ाईं और खूब जम के राजनीति खेली।
एक दिन शख्स का फ़िर फोन आया और वो महोदय की पैरवी करने लगे। उनको वो टीम में एक पोजीशन देना चाहते थे और अभी भी मैं उसके ख़िलाफ़ था। उन्होंने मेरे कुछ निर्णय पर भी सवाल उठाने शुरू किये और एक दिन हारकर मैंने उन्हें वो तोहफा दे दिया जिसका उन्हें एक लंबे समय से इंतज़ार था। अगर भविष्य में ये शख्स किसी बड़ी देसी या विदेशी कंपनी के बडे पद पर आसीन हो जायें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। और जिस दिन ये होगा उस दिन से वो कंपनी बर्बाद होना शुरू हो जायेगी।
इस कंपनी के लगभग एक वर्ष बहुत ही यादगार रहे। बहुत सी कड़वी यादें थीं तो कुछ मीठी भी। नौकरी बहुत महत्वपूर्ण होती है लेक़िन उस नौकरी का क्या फ़ायदा जो आपको चैन से सोने भी न दें। सीखा वही जो इससे पहले सीखा था – कॉरपोरेट में कोई किसी का सगा नहीं होता।
मीडिया कीचड़ है
मीडिया इंडस्ट्री नई तकनीक के साथ आगे तो बहुत निकल गया लेक़िन इंसानियत में बहुत पीछे चला गया है। लोगों को कम तन्ख्वाह देना और उनका ख़ून चूस लेना जैसे एक नियम से है। ये सभी पर लागू नहीं होता लेक़िन अधिकतर संस्थायें ऐसी ही हैं। उसपर भाई भतीजावाद भी जम कर चलता है। आप का \’दूसरा\’ टैलेंट आपका भविष्य तय करता है। ऐसे दमघोंटू माहौल में जो रह जाते हैं और काम कर पाते हैं और बाकी लोगों जैसे नहीं बनते उनको मेरा नमन। ये मेरी ही कमी है की मुझे काम के अलावा और कुछ, जैसे चापलूसी, राजनीति करना या लोगों का शोषण करना, नहीं आता। जिनके साथ मैंने काम किया है वो शायद इससे भिन्न राय रखते होंगे। उनसे मेरा सिर्फ़ इतना कहना है वो ये पता करलें जो मेरे साथ थे वो सब इस समय कहाँ हैं। जवाब इसी में है।
अपने काम करने के तीन वर्ष मेरे लिये बहुत ही कष्टदायक रहे। अगर इसमें मेरे काम की गलती होती तो मैं मान भी लेता। लेक़िन इतनी घटिया राजनीति और उससे भी घटिया मानसिकता वाले लोगों और मालिकों के साथ काम किया है की अब उनसे दूर रहना ही बेहतर है। पहले लगता कुछ नहीं बोलना चाहिये काहे को अपने लिये परेशानी खड़ी करना। लेक़िन फ़िर लगता अगर किसी को काम करना होगा तो वो काम करने की काबिलियत देखेगा। बाक़ी चीजों के लिये मैं सही कैंडिडेट नहीं हूँ।
जिस दिन मैं चुपचाप ऑफिस से और उसके बाद शहर से निकला तो बहुत दुखी था। टीम के साथ बहुत सारे काम करने का सपना था। लेक़िन बहुत से अधूरे सपने लेकर वापस घर आ रहा था और मेरे लिये यही सबसे बड़ा सुकून था।
ये भी गुज़र जायेगा। आप इसे उम्मीद कहें या आशा, हमारे जीवन में इसका एक बहुत ही बड़ा रोल होता है। जैसे अभी इस कठिन दौर में ही देखिये। सबने सरकार से उम्मीद लगा रखी है और ऐसे में जब उम्मीद पर कोई खरा न उतरे तो दुख होता है।
ये तो बात हुई सरकार की। लेकिन हम अपने आसपास, अपने परिवार, रिश्तेदारों में ही देखिये। सब कुछ न कुछ उम्मीद ही लगाये बैठे रहते हैं। जब बात ऑफिस की या आपके सहयोगियों की आती है तो ये उम्मीद दूसरे तरह की होती हैं और अगर कोई खरा नहीं उतरता तो बुरा भी लगता है और अपने भविष्य की चिंता भी।
पिछले दिनों मेरे एक पुराने सहयोगी से बात हो रही थी नौकरी के बारे में। ऐसे ही बात निकली कैसे लोग अपनी ज़रूरत में समय आपको भगवान बना लेते हैं और मतलब निकलने पर आपकी कोई पूछ नहीं होती। ये सिर्फ़ नौकरी पर ही लागू नहीं होता मैंने निजी जीवन में ऐसे कई उदाहरण देखे हैं। इससे संबंधित मैंने अपना अनुभव साझा भी किया उनके साथ। बात खत्म हो गयी लगती थी।
लेकिन पिछले दो दिनों से डिप्रेशन के विषय में बहुत सारी कहानियां पढ़ी। ये मनगढ़ंत नहीं बल्कि लोगों की भुगती हुई बातें थीं। आज फ़ेसबुक पर नज़र पड़ गयी और मैंने एक पोस्ट पढ़ना शुरू किया। जैसे जैसे पढ़ता गया लगा मेरे ही जैसे कोई और या कहूँ तो लगा मेरी आपबीती कोई और सुना रहा था। सिर्फ़ जगह, किरदार और इस समस्या से उनके निपटने का अंदाज़ अलग था। उनके साथ ये सब उनके नये संपादक महोदय कर रहे थे और मैं एक संपादक कंपनी के मैनेजमेंट के हाथों ये सब झेल रहा था।
इस बारे में मैंने चलते फ़िरते जिक्र किया है लेक़िन मुझे पता नहीं क्यों इस बारे में बात करना अच्छा नहीं लगा। आज जब उनकी कहानी पढ़ी तो लगा अपनी बात भी बतानी चाहिये क्योंकि कई बार हम ऐसे ही बहुत सी बातें किसी भी कारण से नहीं करते हैं। लेक़िन अब लगता है बात करनी चाहिये, बतानी चाहिये और वो बातें ख़ासकर जो सिर्फ़ और सिर्फ़ अच्छाइयों के बारे में न हों।
चक्र की शुरुआत
साल 2014 बहुत ही बढ़िया रहा। टीम ने बेहतरीन काम किया था। चुनाव का कवरेज बढ़िया रहा। कुल मिलाकर एक अच्छे दौर की शुरुआत थी।आनेवाले दो साल भी ठीक ठाक ही गुज़रे। ठीक ठाक ऐसे की जब आप अच्छा काम करके एक मक़ाम पर पहुँच जाते हैं तो आपसे उम्मीद बढ़ जाती है। आप भी एक नशे में रहते हैं और जोश खरोश से लगे रहते हैं। ये जो प्रेशर है ये आपकी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाता है और साथ में दे देता है आपको कई बीमारियों की सौग़ात बिल्कुल मुफ्त। आप उस समय एक अलग दुनिया में होते हैं। पैसा भी होता, नाम भी और शोहरत भी। मेरी टीम हार जगह अव्वल आ रही थी। लेक़िन इसके यहाँ तक पहुंचने की मैंने एक कीमत अदा करी थी जिसका खुलासा 2016 में डॉक्टर ने किया।
मुझे याद है इस समय मेरी टीम में कई नये सदस्यों का आना हुआ। हमने और अच्छा काम किया। मुझे बाक़ी टीम से बात करने को कहा जाता की अपना फॉर्मूला उनके साथ साझा करूं। लेक़िन मेरे पास कोई फॉर्मूला नहीं था। मेरे पास सिर्फ़ टीम थी और उनपर विश्वास की कुछ भी हो सकता है। मेरी टीम में इतना विश्वास देख मेरे एक वरिष्ठ ने चेताया भी की ये कोई तुम्हारे साथ नहीं देंगे। तुम पीठ दिखाओगे और ये तुम्हारी बुराई शुरू कर देंगे। मुझे इससे कोई ख़ास फर्क़ नहीं पड़ता था (ये झूठ है ये मुझे बाद में समझ आया).
ख़ैर 2016 में कंपनी बदलाव के दौर से गुज़र रही थी। सीनियर मैनेजमेंट के सभी लोगों ने नौकरी छोड़ दी थी और नये लोगों की तलाश शुरू थी। ये जो नये महानुभाव आये ये दरअसल इसी कंपनी के पुराने मुलाज़िम थे और इन्हें अब एक वरिष्ठ अधिकारी बनाकर लाया जा रहा था। मैं इनके साथ पहले काम कर चुका था जब ये पहले कंपनी का हिस्सा थे। जब पता चला कौन होगा नया बंदा तो लगा अच्छा है। मैं कितना ग़लत था ये आनेवाले दिनों में मुझे पता चला।
बदले बदले से मेरे सरकार नज़र आते हैं
इन महानुभाव के आने के बाद बदलाव धीरे धीरे होने लगे। चूँकि मेरी टीम सबसे बड़ी थी तो शुरआत हुई कुछ और सीनियर लोगों को रखने से। मुझसे कहा गया की ये मेरे सहयोगी ही होंगे और टीम अच्छे से मैनेज हो पायेगी। इन्होंने जेफ़ बेजोज़ की पिज़्ज़ा थ्योरी का भी उदाहरण दिया। इस तरह से पहले सहयोगी आ गये। अच्छा इन सबके लिये जो भर्ती हो रही थी उसमें मेरा कोई रोल नहीं था। मतलब वो लोग जो मेरे साथ काम करनेवाले थे उनका इंटरव्यू मैंने लिया ही नहीं। न मुझे उनके बारे में कोई जानकारी दी गयी।
इसके बाद दूसरे सज्जन की भर्ती की बात होने लगी। इन के साथ महानुभाव ने पहले काम किया था। चूँकि किसी कारण से उन्हें भी वो नौकरी छोड़नी पड़ी तो महानुभाव कि मानवता जगी हुई थी। इनको भी रख लिया गया। अब जो इनके पहले सज्जन थे वो ये दूसरे महापुरुष के आने से काफी विचलित थे। वो रोज़ मुझे सुबह सुबह फ़ोन करके इन महापुरुष की गाथाएं सुनाते।
ख़ैर। अब दोनों आ गये थे तो काम का बंटवारा होना था। पहले सज्जन को एक भाषा दे दी गई और दूसरे महापुरुष को राष्ट्रीय भाषा का दायित्व दिया गया। बस एक ही मुश्किल थी – महापुरुष ने इस भाषा में कभी कुछ किया नहीं था। लेकिन ये पूरा ट्रेलर था और फ़िल्म अभी बाकी थी। मुझे बहुत कुछ समझ आ रहा था और ये स्क्रिप्ट में क्या होने वाला है ये भी।
जब महानुभाव से मिलता तो पूछता मेरे लिये कोई काम नहीं बचा है। वो कहते बाकी दो भाषायें हैं उनके बारे में सोचो और स्पेशल प्रोजेक्ट पर ध्यान दो। तुम संपादक हो। इन सबमें क्यों ध्यान दे रहे हो। तुम स्ट्रेटेजी बनाओ। धीरे धीरे खेल का अंदाज़ा हो रहा था।
प्लान B
अगर पहले मेरे पास 20 काम थे तो 18 मुझसे ले लिये गये और दो रहने दिये। अब काम करना है तो करना है तो जो बाक़ी दो बचे थे उसमें भी अच्छा काम हो गया और सबकी अपेक्षाओं के विपरीत परिणाम रहे।
इस पूरे समय जो अंदर चल रहा था उसको समझ पाना थोडा मुश्किल हो रहा था। टीम का हर एक सदस्य किसी भी भाषा का हो मेरे द्वारा ही चयनित था। इसमें से बहुत बड़ी संख्या में लोगों का पहला जॉब था। अचानक उनसे बात बंद और कभी कभार बातचीत का मौका मिलता। पहले अजीब सा लगा लेक़िन मैंने भी जाने दिया क्योंकि आफिस में मैं किसी कैम्प में नहीं था। शराब पीने का कोई शौक़ नहीं था और अगर कभी पार्टी में दोस्त मिले तो बात अलग। महानुभाव को इन सबकी बहुत आदत थी। उनके साथ चंद लोगों का ग्रुप रहता था और मुझे न उसका हिस्सा बनने की कोई ख्वाहिश थी न कोई मलाल। ये उनके घर के पास रहते थे और लगभग हर हफ़्ते मिलते। मुझे इन सबसे वैसे ही कोफ़्त होती और खोखले लोगों से सख्त परहेज़। लेकिन इनकी अपनी एक दुनिया थी और उसमें ये सब साथ, बहुत खुश और बहुत कामयाब भी।
दिसंबर 2016 में टीम के साथ एक पार्टी थी। ये एक लंबे समय से टल रही पार्टी थी और कभी किसी न किसी के रहने पर टलती जा रही थी। आखिरकार दिन मुक़र्रर हुआ लेक़िन इत्तेफाक ऐसा हुआ की महानुभाव ने उसी दिन दूसरे शहर में मेरी ही दूसरी टीम के साथ पार्टी रखी थी। काम के बंटवारे के चलते उनकी पार्टी में एक बंदा नहीं जा पाया और उनको पता चला की मुम्बई की मेरी टीम पार्टी कर रही है इसके लिये उसको आफिस में रहना होगा।
दूसरे दिन महानुभाव ने मेरी पेशी लगाई। दरअसल वो बहुत समय से किसी मौके की तलाश में थे कि कैसे मुझे रास्ते से हटाया जाये। इस घटना के बाद उनकी ये मंशा उन्हें लगा पूरी होगी। लेकिन बात थोड़ी गड़बड़ ऐसे हो गयी की उनको लगा की पार्टी कंपनी के पैसे से हुई थी। जब मैंने कहा की ये मेरे तरफ़ से दी हुई पार्टी थी तो उन्होंने टीम के सदस्यों के ख़िलाफ़ एक्शन लेने की बात करी। मैने उनसे कहा कि अगर ऐसा है तो मुझसे शुरू करें और अपना त्यागपत्र भेज दिया।
महानुभाव ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं करी लेकिन उन्होंने पता ज़रूर लगाया कि जो मैंने कहा था उसमें कितनी सच्चाई थी। बाद में पता चला की इस घटना के कुछ दिनों बाद मेरे त्यागपत्र को मंज़ूर करने की सोची। लेक़िन उन्हें ऐसा नहीं करने की सलाह दी गई। मुझे भी साथ में सलाह दी गयी की मैं अपना त्यागपत्र वापस ले लूँ लेक़िन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।
अभी तो पार्टी शुरू हुई है
अब ऑफिस जाने का मतलब हुआ करता था टाइम पास। काम न के बराबर था। मैनेजमेंट शायद ये सोच रहा था की बंदे को काम ही नहीं देंगे तो झकमारकर खुद ही नौकरी छोड़ देगा। लेकिन हम भी ढीठ ठहरे। निकालना हो तो निकालो हम नहीं जानेवाले।
इसी दौरान कहानी में एक और ट्विस्ट आया। महानुभाव ने अपनी पता नहीं किस कला से विदेश में पोस्टिंग पा ली। मतलब अब कोई औऱ आनेवाला था टार्चर करने के लिये।
जैसा कि हमेशा किसी भी बदलाव के साथ होता है, पहले से ज्ञान दिया गया कुछ भी नहीं बदलेगा। सब वैसे ही चलेगा। लेक़िन मालूम था ये सब बकवास है और आने वाले दिन और मज़ेदार होने वाले हैं। मज़ेदार इसलिये क्योंकि मेरे पास खोने के लिये कुछ बचा नहीं था। 70-80 की टीम में से अब सिर्फ़ शायद दो लोग मेरे साथ काम कर रहे थे। बाक़ी बात करने से कतराते थे। अब था सिर्फ़ इंतज़ार। कब तक मैं या दूसरी पार्टी खेलने का दम रखती थी।
जल्द ही वो दिन भी आ गया। नहीं अभी और ड्रामा बाकी था। नये महाशय ने मेल लिखा पूरी टीम को। बहुत से बदलाव किये गये थे। जिन राष्ट्रीय भाषा वाले महाशय का मैंने ज़िक्र किया है ऊपर, अब वो मेरे बॉस बन गये थे। मुझे उनको रिपोर्ट करना था और अपने काम का लेखा जोखा उनको देना था। जिस वेबसाइट को मैंने शुरू किया, जिसको टीम के साथ नई ऊचांइयों तक पहुंचाया की वो एक ब्रांड बन गयी, उसका मैं संस्थापक संपादक रहा और अब मुझे किसी और को रिपोर्ट करना था। उसको जो कभी मेरे नीचे काम कर रहा था। जुलाई की उस शाम मुझे उतना बुरा तब नहीं लगा जितना तब लगा जब मेरी एक टीम मेंबर मेरे पास आकर रोने लगीं। कहने लगीं आपके साथ ये लोग ठीक नहीं कर रहे। ख़ैर मैंने उनको समझाया लेक़िन उस बहाने शायद अपने आप को भी समझाया। ये बहुत ही कष्ट वाला दिन था।
अपना ढीठ पना तब भी दिखाया और अपने नये बॉस से काम माँग कर किया। काम करने में कोई परहेज तो था नहीं इसलिये जो मिला कर लिया। महाशय ने छोटी मोटी स्टोरीज़ लिखने को दीं और मैंने लिख भी दीं। मुम्बई में बारिश के चलते मैंने ऑफिस जाने में असमर्थता बताई तो दरियादिली दिखाते हुये महाशय ने घर से काम करने की आज्ञा दी।
और फ़िर…
महीने के आख़िरी दिन मुझे कंपनी की HR का फ़ोन आया। नहीं शायद मैसेज था ये पूछने के लिये की मैं आज ऑफिस कब आनेवाला हूँ। मैंने जवाब में उनसे पूछा की क्या कंपनी का सामान लौटाने का समय आ चुका है। उन्होंने कहा हाँ और मुझे अपना त्यागपत्र भेजने को कहा। जिस दिन ये सब चल रहा था ठीक उस दिन मैंने घर शिफ़्ट किया था। नये घर में सामान आ ही रहा था जब ये शुभ समाचार आया।
इस तरह के अंत की मुझे उम्मीद तो नहीं थी। लेक़िन ऑफिस से निकाले जाने वाली ट्रेजेडी से बच गया। 2014-2017 तक का जो ये सफर रहा इसमें शिखर बहुत ज़्यादा रहे। हर सफ़र का अंत होता है तो इसका भी हुआ। बस महानुभाव, महाशय जैसे किरदारों को ये मौका नहीं मिला कि वो मुझे सामने से जाने को कहें और शायद ये मेरी लिये सांत्वना है। मैंने बहुत सारे किस्से सुने हैं कैसे लोगों को लिफ्ट में घुसने नहीं दिया या उनका पंच कार्ड डिसएबल कर दिया। कई दिनों नहीं कई महीनों तक मैं बहुत ही परेशान रहा। क्या वो डिप्रेशन था? मुझे नहीं पता लेक़िन मेरे लिये वो महीने बहुत मुश्किल थे। वो तो मेरे परिवार से संवाद ने इसको बड़ी समस्या नहीं बनने नहीं दिया।
इसके कुछ दिनों बाद ही मुझे विपश्यना के कोर्स करने का मौका मिल गया और शायद संभलने का मौका भी। लेक़िन अंदर ही अंदर ये बात खाती रहती की सब अच्छा चल रहा था और कितना कुछ करने को था। मुझे ये भी समझ में नहीं आ रहा था क्यों मैंने सब इतनी आसानी से जाने दिया? क्यों मैंने लड़ाई नही लड़ी। लेक़िन कुछ लोगों के चलते सब ख़त्म हो गया। और उस टीम का क्या? उन्हें ढ़ेर सारी शुभकामनाएं। मुझे मेरा सबक मिल गया। लेक़िन अभी एक औऱ सबक मिलना बाकी था।
ये लेखा जोखा, बही खाते वाला काम तो हम कायस्थों के ही ज़िम्मे है। इसलिये जब कई लोगों का पिछले दशक का लेखा जोखा पढ़ रहा था तो सोचा एक बार अपना भी लिखा जाये। इस फ्लैशबैक में बड़ी खबरें तो आसानी से याद रह जाती हैं, लेकिन छोटी छोटी बातें जिनका असर ज़्यादा समय तक रहता है वो बस ऐसे ही कभी कभार याद आ जाती हैं।
2010 के ख़त्म होते होते ज़िन्दगी को एक नई दिशा मिल गयी। उसके पहले कुछ न कुछ चल रहा था लेकिन भविष्य कुछ दिख नहीं रहा था। और ये जो नई दिशा की बात कर रहा हूँ वो दरअसल कुछ समय बाद दिखाई दी। हम लोग जिस समय हमारे जीवन में ये घटनाक्रम चल रहे होते हैं, उस समय उससे अनजान ही रहते हैं। वो तो थोड़े समय बाद समझ में आता है की क्या हुआ है या हो गया है। थोड़े और समय बाद समझ आता है उसका असर।
2011 से 2019 तक का समय काम के हिसाब से स्वर्णिम रहा। बहुत कुछ नया सीखने को मिला और पिछले दशक के अपने पुराने अनुभवों से जो सीखा उसे अमल करने का मौका मिला। इस दौरान ऐसे कई लोग मिले जिन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया। ये मेरे सीनियर जैसे देबाशीष घोष, संदीप अमर, मनीष मिश्रा, नीपा वैद्य और मेरे बहुत से टीम के सदस्य जिनमें प्रमुख रहे आमिर सलाटी, आदित्य द्विवेदी, मोहम्मद उज़ैर, नेहा सिंह। वैसे सीखा सभी से लेकिन जिनके नाम लिये हैं उनसे मिली सीख याद रही।
जो मेरे सीनियर हैं उनसे मैंने काम करने के कई नये गुर तो सीखे ही उनसे जीने का फ़लसफ़ा भी मिला। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय मुझे काम करने का सौभाग्य मिला कुणाल मजूमदार के साथ। जब कुणाल से पहली बार मिला तो इसका अंदाज़ा नहीं था कुणाल का नेटवर्क कितना कमाल का है। उनके ज़रिये आज के कई चर्चित लेखकों ने उस समय हमारे लिये लेख लिखे। कुणाल फ़ोन पर सम्पर्क कर बात करते और स्टोरी या वीडियो तैयार। लेकिन कुणाल से मिल कर आपको इस बात का एहसास ही नहीं होता। इतने समय में कुणाल में कोई बदलाव नहीं आया है। वो आज भी वही हैं या कहूँ समय और अनुभव के साथ और बेहतर इंसान बने हैं तो कुछ ग़लत नहीं होगा।
जिस समय हम लोग ये कर रहे थे उस समय चुनाव की उठापटक शुरू थी। लेकिन इस सबके बीच सभी काम अच्छे से हुये और 16 मई 2014 को जब परिणाम आया तो हमारा ट्रैफिक का रिकॉर्ड बन गया। ये उस समय के हमारे टीम के सभी सदस्यों की मेहनत ही थी जिसके चलते हमारी वेबसाइट को लोग जानने लगे।
लेकिन अगले तीन साल में मैनेजमेंट में हुये बदलाव के चलते सब ख़त्म हो गया। मतलब तीन सालों में मैंने अपनी टीम के साथ मेहनत कर एक ब्रान्ड बनाया और फ़िर उसको ख़त्म होते हुये देखा। ये शायद जीवन की सबसे बड़ी सीख भी थी।
जीवन की दूसरी बडी सीख मिली वो शायद किसी का व्हाट्सऐप स्टेटस था – कॉरपोरेट में कोई किसी का सगा नहीं होता *+#&$#। ये वाली सीख थोड़ी देर से समझ में आई लेकिन अभी भी कभी कभी फ़िर गलती दोहरा देता हूँ। नये लोगों के साथ।
इसका एक और भाग होगा। अब दशक के लिये इतना लिखना तो बनता है।
टीम मैनेजमेंट के बारे में मैंने जो भी कुछ सीखा या जिसका अनुसरण किया उसमें दो चीजों का बड़ा योगदान रहा। पहली तो अपने सभी पुराने बॉस और दूसरा उसमें से क्या था जो पालन करने योग्य नहीं था। इसके अलावा अपने आसपास – घर पर और बाहरी दुनिया में मिलने जुलने वालों से। चूँकि बाहर वालों से मिलने का समय असीमित नहीं होता था तो घर पर माता-पिता को देखकर काफी पहले से ये मैनेजमेंट की शिक्षा ग्रहण की जा रही थी।
एक अच्छे मैनेजर के लिये सबसे ज़रूरी चीज़ होती है संयम और दूसरी संवाद। जब शुरुआती दिनों में टीम की ज़िम्मेदारी मिली तो मुझमें दोनों ही की कमी थी। किसी और बात पर टीम के किसी सदस्य से नाराज़गी हो लेकिन गुस्सा निकलता काम पर। पीटीआई के मेरे सहयोगियों ने मेरा ये दौर बहुत अच्छे से झेला है। ख़ैर अपनी गलतियों से सीखा और कोशिश करी की टीम को सही मार्गदर्शन मिले।
इसमें कितनी सफलता मिली ये तो नहीं बता सकता लेकिन हर बार ऐसे कुछ नमूने ज़रूर मिल गये जो फ़िर से सीखा गये की गुरुजी, अभी भी आपको बहुत कुछ सीखना बाकी है। नमूना इसलिये कह रहा हूँ की वो सैंपल पीस थे।
मेरी टीम के एक सदस्य थे। बहुत मेहनती और अच्छा काम करने वाले। एक दिन अचानक उन्होंने आकर त्यागपत्र देने की सुचना दी। बात करी, पता किया कि ऐसा क्या हुआ की उन्हें ये कदम उठाना पड़ रहा है। उनके परिवार में कुछ आकस्मिक कार्य के चलते उन्हें लंबे अवकाश पर जाना था लेक़िन इतने दिनों की छुट्टी की अर्ज़ी ख़ारिज होने के अंदेशे से उन्होंने संस्थान छोड़ना ही बेहतर समझा। वो पहले भी बहुत छुट्टी लेते थे तो उनका ये डर लाजमी था। ख़ैर, सब उनके हिसाब से करके उन्हें अवकाश पर जाने दिया लेकिन लौटने के हफ़्ते भर के अंदर उन्होंने फ़िर से त्यागपत्र डाल दिया। इस बार हम दोनों ने कोई बात भी नहीं करी। न मैंने उन्हें समझाईश देना ज़रूरी समझा और उनके त्यागपत्र को स्वीकृति प्रदान कर दी।
ख़ैर, सब उनके हिसाब से करके उन्हें अवकाश पर जाने दिया लेकिन लौटने के हफ़्ते भर के अंदर उन्होंने फ़िर से त्यागपत्र डाल दिया। इस बार हम दोनों ने कोई बात भी नहीं करी। न मैंने उन्हें समझाईश देना ज़रूरी समझा और उनके त्यागपत्र को स्वीकृति प्रदान कर दी।
मेरा ऑफिस में चल रही पॉलिटिक्स या रोमांस दोनों में ज़रा भी रुचि नही रहती। इसलिये मुझे दोनों ही बातें जब तक पता चलती हैं तब तक काफ़ी देर हो चुकी रहती है। जैसे इन महोदय ने बाकी जितने दिन भी रहे सबसे खूब अपने गिले शिकवे सुनाये। तबसे मन और उचट गया। लेक़िन कुछ लोगों को तो जैसे मसाला मिल गया। मुझे नहीं पता उनसे अगर अब आगे मुलाक़ात होगी तो मेरा क्या रुख़ रहेगा।
लेकिन मैं तब भी जानता हूँ की जब हम मिलेंगे तो सब अच्छे से ही मिलेंगे। यही शायद एक अच्छे लीडर की पहचान भी होती है। आप सार्वजनिक जीवन में सब अच्छे से ही व्यवहार करते हैं।
ऐसे ही एक सज्जन हैं जो मुझसे भी बहुत नाराज़ चल रहे हैं। हम साथ में काम करना चाहते थे लेकिन कुछ कारणों के चलते शुरू करने के बाद काम बीच में ही रुक गया और फ़िर टलता ही रहा। जैसे मुझे अपने टीम के साथी से नाराजगी है वैसे ही कुछ वो भी ख़फ़ा से हैं। मुझे एहसास-ए-जुर्म तो है लेकिन अब सब समय के ऊपर छोड़ दिया है।
पिछले दो दिनों से पुराने टीम के सदस्यों से बातचीत चालू है। इसका मतलब ये नहीं कि वो बंद हो गयी थी। वो बस मैं ही संपर्क काट लेता हूँ तो सबके लिये और आश्चर्य का विषय था कि मैंने फ़ोन किया।
बातों में बहुत सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गईं। दिसंबर 2016 में एक पार्टी हुई थी। शायद टीम के साथ आखिरी बार। ये पार्टी बहुत लंबे समय से टलती आ रही थी। हमेशा ऐन मौके पर कैंसिल हो जाती। लेकिन दिसंबर में ये निर्णय हुआ कि 2016 का पार्टी का बहीखाता उसी साल बंद कर दिया जाये। बस एक दिन सुनिश्चित हुआ और जो आ सकता है आये वाला संदेश भेज दिया।
हर टीम में एक दो ऐसे सदस्य होते हैं जो पार्टी कहाँ, कैसे होगी, खानेपीने का इंतज़ाम करने में एक्सपर्ट होते हैं। मेरी टीम में ऐसे लोगों की कोई कमी नही थी। बस उन्होंने ये ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। और क्या पार्टी हुई थी। उस शाम वहाँ दो गायक भी थे। चूंकि हमारी फौज बड़ी थी तो नज़रंदाज़ करना भी मुश्किल था। खूब गाने सुने उनसे और थोड़ी देर बाद उन्हें सुनाये भी। अच्छा हम लोगों की पार्टी तो ख़त्म हो गयी लेकिन कुछ लोगों की उसके बाद किसी के घर पर देर रात तक चलती रही।
लेकिन अगले दिन ऑफिस में बवाल मचा हुआ था। हमारी पार्टी की ख़बर ऊपर तक पहुंच गई थी। काफ़ी सारे सवालों के जवाब दिये गये। एहसास-ए-जुर्म बार बार कराया जा रहा था। उसके पीछे की मंशा कब तक छुपी रहती। तब तक चीज़ें बदलना शुरू ही चुकी थीं और अगले सात महीने तक तो पूरी कायापलट हो गयी थी और फ़िल्मी सीन \’मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ\’ वाली स्थिति हो गयी थी। लेकिन इस पूरे समय जो साथ रहे ये वही टीम के सदस्य थे। नहीं, वही सदस्य हैं।
ये पूरी की पूरी टीम के सभी सदस्यों से मेरा मिलना 2012 से शुरू हुआ था। आज भी मुझे बड़ा अचरज होता है की कॉलेज से निकले युवाओं के साथ और कुछ अनुभवी लोगों की टीम ने क्या शानदार काम किया। ये जानकर और अच्छा लगा कि उनमें से कई अब बड़ी टीम को लीड कर रहे हैं। उनकी तरक़्क़ी देख कर खुशी भी होती है और गर्व भी। उन सभी के जज़्बे को सलाम।
रविवार के दिन जब बाकी घरों में अमूमन थोड़ा आराम से कामकाज होता है, सुबह से घर में अजीब सी हलचल थी। श्रीमती जी फ़ोन पर किसी से बड़ी देर तक बात कर रहीं थीं। वैसे तो उनके सारे काम व्हाट्सएप पर संदेश के आदान प्रदान के साथ हो जाते हैं लेकिन आज मामला कुछ और था। पहले तो लगा फ़िर से तारीख़ों का घपला हुआ है और मैं कुछ भूल गया हूँ।
ख़ैर ख़बर निकलवाने के लिये ज़्यादा पापड़ नहीं बेलने पड़े। अब श्रीमतीजी हैं कोई सरकारी मुलाज़िम थोड़े ही जो ख़बर के लिये खर्चा पानी देना पड़े। यहां तो उल्टा ही होता है। आप चाय की अर्ज़ी के साथ बोल दीजिये क्या हुआ तो गरम चाय पक्की और जब कहानी चालू रहे तो थोड़ी हूँ हाँ करते रहिये।
श्रीमतीजी की परेशानी काम वाली की अचानक छुट्टी थी। एक दिन पहले तबियत ठीक न होने का ज़रूर बोला था लेकिन छुट्टी की कोई पूर्व घोषणा नहीं थी। जिनसे इनका वार्तालाप हो रहा था वो भी इस बात सेकाफी परेशान थीं। इससे मुझे ऑफिस के अपने टीम के कई सदस्य याद आये। वो भी कुछ ऐसा ही करते थे। जब पूछो की कहाँ गायब थे तो जवाब मिलता आपको बताया तो था तबियत ठीक नहीं है। मतलब आप समझ लें अगर आपको बताया है तो। वैसे बाद में बातों बातों में तबियत ठीक नहीं होने वाले सदस्य बाकी लोगों को गोआ की यात्रा संस्मरण सुनाते हुये मिले।
श्रीमतीजी आहत थीं कि अब जब फ़ोन काल फ्री है तब भी उनको बताया क्यों नहीं गया। जिस तरह से कामवाली का इंतज़ार होता है उसे देख अपनी क़िस्मत पर बड़ा दुख होता है। और जिस प्यार से बात होती है वो सुनने के बाद आपको मैनेजमेंट का बड़ा पाठ सीखने को मिलता है। काम निकलवाना एक कला है। ये सबके बस की बात नहीं है।
इस पोस्ट को लिखने में चाय का बड़ा योगदान रहा। हर महीने की शुरुआत में एक प्रण लिया जाता है कि नियमित लिखा जायेगा लेकिन किसी न किसी कारण से छूट जाता है। इस महीने फ़िर से वही प्रण और उसके अंतर्गत ये पोस्ट। मेरा नियमित होने का प्रयास चलेगा। आप कमेंट कर हौसला अफजाई करें।
Bosses. The term brings out mixed emotions based on our personal experience. But word Leader has no such mix up. As an employee we know, understand and identify who a true leader is because – he brought the best out of us. Having worked with real leaders (who were the real bosses) and fake leaders who are where they are because of their marketing skills, it can be said few people have leadership qualities.
So what makes a good leader great?
Freedom: A good leader believes in freedom. They not only enjoy freedom, they also want their team members to enjoy it – with a condition though. Be responsible and don’t misuse it.
Trust: A good leader understands the importance of trust. They know they have reached where they have is because someone trusted them at one point of time. They return the favour by trusting their team members. This trust is earned over a period of time.
Deliver results: A good leader knows that in the end what matters is result. People are not interested in knowing what you have achieved. Your leader will help you with the how to achieve it and will help you prepare for tougher challenges in future.
Spot talent: A good leader is keen observer. He identifies talent, grooms him/her and let them prosper. All the talented individual need a good leader who can become their mentor.
Appreciate: A good leader knows how important it is to appreciate. He also knows even if the goal is not achieved but the efforts were sincere, appreciation goes a long way for the team to start all over again.
A good leader has all these qualities and more. A good leader knows his job is to promote talent and not sycophants – for he knows he would not be here if his boss/leader had promoted someone with better marketing skills.
Life teaches us every minute. If we are ready to learn, that is. About us and others. Remember the time when we are growing up and the big plans we made? These plans are pure – untouched by the cruel world and the way it treats people who have ideas.
But somewhere along the way we keep aside the plan and join the mad race. We believe this is the natural thing to do. We see everybody around us doing the same and we start believing this is what we too should do. No questions asked. This is beginning of stopping the growth on its tracks.
No question, no answer
Ever since we land on this planet, we observe our surroundings and we question. Why is this, how it works, what is this. In short life is all about asking questions. My ten-year-old son had so many questions when he was young. But now he same lots of answers and very few questions. When he was small he had a new set of questions every day. At times I got tired of answering all his queries. But that didn\’t stop him from asking.
This is the biggest lesson I have learnt. To ask questions and keep on asking them. This is what leads to growth of self. But the grown ups no longer remember asking questions. We follow. Everywhere we go we follow. Like the navigation guide inside their cars and mobiles, we work on the guide inside us and keep moving till we reach a dead end. Which is too late to ask for the right directions.
Stop and start, now
We live a life so mechanised that if were never bother to stop and ask Why, Where, What? Oh yes, we do have these queries when we want to inquire about something like a sale or about a product. But we seldom ask the office manager who takes us to a guided tour to the workshop why a certain process is being followed. We assume this is the best practice to follow and based on that silly assumption we too start following it. We never question. We take the safe route. Why bother. Let it be. We are not interested in growth. Our growth.
Of course there is a process that needs to be followed. But if no one questions why, would we evolve? How can we better what we already have? The purpose of asking a question is to get information that matters to us and no one else. Yet, as we grow in life we stop seeking answers and then we hit a wall.
Conclusion
It is for our own good that we should ask questions and continue to ask them till we are here on this planet. It is only our curiosity that has brought us here. It pays to remain curious. Encourage people around you to ask questions, remain curious.
You start your career as a junior team member and as you grow so does your profile. First you are reporting to someone and later you have people reporting to you. Not that your reporting changes, but the nature of reporting changes. From sharing the jobs you did you report the jobs you got done, targets achieved or missed.
As you climb the ladder you become more of a manager and less of a person who was hired for your basic set of skills. The transition is very critical as what made you a great team member may not make you a good manager.
Here I will share three things that make a great manager:
Be informal: Formality is always there but the more informal you are with your team the chances of success are more. It could be simple things that you can discuss with your team other than work. As a thumbrule it has to be about something that interests them as well.
Delegate: You climb the ladder because someone gave you that chance. Not its your turn to return the favour. Give your team members a chance to learn and grow. There are managers who are afraid they will be out of job if they assign work to people. But what they forget is with less work on their table they can focus on other things.
Balance: Work-life balance is the most abused term. Does it really exist? How do you manage it? Well this article is result of that balance. I am able to write it as I am doing something I enjoy the most – writing. Dont take your work home. Easier said than done as technology makes it difficult to be off work. But make a choice and spend time with family and doing what you enjoy.
A good manager may not have the best of technical knowledge or domain expertise but he has good management skills. Now, the management schools do not make you the best manager because at the end of the day you are dealing with human beings with emotions. Getting work out of people is a task and you learn and improve your skills as people manager.
What is your management mantra? Share in the comments section.