वो यार है जो ख़ुशबू की तरह, वो जिसकी ज़ुबाँ उर्दू की तरह

कल की पोस्ट में जो कैफ़ियत शब्द का इस्तेमाल किया था इसको पहली बार गुलज़ार साहब की आवाज़ में सुना था। एल्बम था गुलज़ार के चुनिंदा गानों का औऱ उनकी वही भारी भरकम आवाज़ में वो कहते हैं, \”मिसरा ग़ालिब का, कैफ़ियत अपनी अपनी\”।

जब कैसेट पर ये सुना था तब समझ में नहीं आया। उस समय इंटरनेट भी नहीं था लेक़िन उर्दू जानने वाले काफ़ी लोग थे और उनसे मतलब पूछा था। उस समय समझा और आगे बढ़ गए। उन दिनों भाषाओं की इतनी समझ भी नहीं थी। आगे बढ़ने से पहले – मिसरा का मतलब किसी उर्दू, कविता का आधारभूत पहला चरण। कैफ़ियत – के दो माने हैं हाल, समाचार या विवरण।

गुलज़ार ने इसके बाद अपना लिखा जो गाना सुनाया वो था दिल ढूँढता है फ़िर वही फ़ुरसत के रात दिन। इस गाने में सारे मौसम का ज़िक्र है। जाड़ों की बात है तो गर्मियों की रात का भी ज़िक्र है और बर्फ़ीली सर्दियों का भी। इसी गाने का एक दूसरा भाग भी है जो दर्द से भरा है। इस गाने से संबंधित एक बात और जिसकी शिकायत गुलज़ार साहब से है की उन्होंने इसमें बरसात का ज़िक्र क्यूँ नहीं किया? बात कैफ़ियत से शुरू हुई थी और एक गाने में सिमटती जा रही है।

जो मैं अर्ज़ करना चाह रहा था वो ये की किसी भी भाषा का ज्ञान कई स्त्रोतों से मिलता है। कई शब्द सुनकर सीखते हैं और चंद पढ़कर भी। अब जैसे अपशब्द की तो कोई क्लास नहीं होती लेक़िन अपने आसपास आप लोगों को इसका इस्तेमाल करते सुनते हैं और धीरे धीरे ये आपकी भाषा का अंग बन जाता है। पहले तो सिनेमा में भाषा बड़ी अच्छी होती थी लेक़िन अब गालियों का खुलकर प्रयोग होता है और वेब सीरीज़ तो परिवार के साथ न देखने न सुनने लायक बची हैं। अभी ऊपर भटकने से बचने के बात करते करते वापस उसी रस्ते।

जिस तरह के आजकल के गाने बन रहे हैं उससे लोगों की अपशब्दों की डिक्शनरी ही बढ़ रही है। जब सेक्सी शब्द का इस्तेमाल हुआ था तो हंगामा हुआ था। आखिरकार बोल बदलने पड़े थे। अब बादशाह, कक्कड़ परिवार, हनी सिंह ने पूरी पीढ़ी को नई भाषा ज्ञान का ज़िम्मा उठाया है और इसके नतीज़े आपको कोरोना ख़त्म होते दिखेंगे जब ससुराल गेंदा फूल पर छोटे छोटे बच्चे नाचेंगे।

गानों का किसी भाषा को समझने की पहली कड़ी मान सकते हैं। ये कोई फ़िल्म भी हो सकती है लेक़िन किताब नहीं क्योंकि आप उसका अनुवाद पढ़ रहे होते हैं। ग़ालिब को पढ़ा तो नहीं लेक़िन उनको सुना है। सुनकर ही शब्दों के माने जानने की कोशिश भी करी क्योंकि उनके इस्तेमाल किये शब्द भारीभरकम होते हैं। जैसे:

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

जब पहली बार ये शेर सुना तो कुछ भी समझ में नहीं आया। फ़िर अलग अलग शब्दों के माने समझ कर समझा की ग़ालिब क्या कह रहे हैं।

https://youtu.be/KhWUUPo0pTQ

ऐसा ही एक और बेहद खूबसूरत गीत है फ़िल्म घरौंदा का तुम्हे हो न हो मुझको तो इतना यकीं है । बांग्लादेशी गायिका रुना लैला की आवाज़ में ये गाना दरअसल बयां कितनी मोहब्बत है इसका है लेक़िन सीधे सीधे नहीं बोलकर गुलज़ार साहब नें शब्दों के जाल में एक अलग अंदाज में बताया है। जब शुरू में ये गाना सुना तो लगता वही जो मुखड़ा सुनने पर लगता है। लेक़िन जब अंतरे पर आते हैं तो समझ में आता है की बात कुछ और ही है। ये मुखड़े से अंतरे तक का सफ़र बहुत कठिन रहा लेक़िन मज़ा आया। अगर आप ये गाना देखेंगे तो ये एक दर्द भरा गीत भी नहीं है।

पिछले दिनों एक पुराने सहयोगी ने बताया उर्दू की क्लास के बारे में। तो बस अब उस क्लास से जुड़ने का प्रयास है औऱ एक बरसों से दबी ख्वाइश के पूरे होने का इंतज़ार।

एक आख़िरी गाना जिसके शब्द बचपन से याद रहे। उन दिनों रेडियो ही हुआ करता था तो उसपर कई बार सुना। अब तो जैसे इस गाने के बोल रट से गये हैं और उनके माने भी समझ में आने लगे। हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना

दरअसल गाने और उनके संबंध पर चर्चा के बारे में किसी ने एक बहुत ही खूबसूरत बात कही थी जिससे इस पोस्ट का आईडिया पनपा। लेक़िन लिखते लिखते भटक से गये। ख़ैर उस बात का ज़िक्र आगे करेंगे।

जब इश्क़ तुम्हे हो जायेगा…

कल जगजीत सिंह के जन्मदिन पर लिखने का विचार आया, जैसा किसी न किसी के बारे में रोज़ आता है, लेकिन उनके गीत, ग़ज़ल सुनने में इतना खो गये की विचार ही त्याग दिया।

आप सभी ने जगजीत सिंह को सुना तो होगा ही। मेरा उनसे मिलना बिल्कुल सही समय पर हुआ – मतलब जब मैं स्कूल में पढ़ रहा था। बहुत से उनके शेर समझ में नहीं आते थे लेकिन उनकी आवाज़ ने दिल में जगह बना ली थी। कॉलेज पहुँचते पहुँचते इश्क़-मुश्क का किताबी ज्ञान हो गया था तो जगजीत सिंह साहब की आवाज़ में दिल की दास्ताँ कुछ और भाने लगी।

भोपाल में उनके काफी सारे प्रोग्राम होते लेकिन मेरा कभी जाना नहीं हुआ। उनको एक बार देखा था चित्रा सिंह जी के साथ मुम्बई में जब हम दोनों एक ही होटल में दो अलग अलग कार्यक्रम के लिये गए थे। उस समय सेलफोन तो हुआ नहीं करते थे (मतलब अपने पहुँच के बाहर थे) तो सेल्फी का सवाल नहीं था। बस उनका वो मुस्कुराता हुआ चेहरा याद है।

जगजीत सिंह साहब को इसलिये और ज़्यादा चाहता हूँ क्योंकि उनके ज़रिये मेरी मुलाक़ात हुई ग़ालिब से। नाम सुना था लेकिन कलाम नहीं। गुलज़ार के मिर्ज़ा ग़ालिब सीरियल देखिये तो लगता है जैसे जगजीत सिंह की आवाज़ बनी ही थी ग़ालिब सुनाने के लिए।

ज़िंदगी के अलग अलग मुकाम पर जगजीत सिंह जी ने बहुत साथ दिया है। उस समय बाकी भी कई सारे ग़ज़ल गायक थे लेकिन जगजीत सिंह ग़ज़ल के मामले में पहला प्यार की तरह रहे। उन दिनों एक और सीरियल आया था सैलाब जिसमें भी जगजीत सिंह की गायी हुई ग़ज़ल थी – अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं।

ये ग़ज़ल सीरियल में किरदारों की ज़िंदगी में चल रहे कशमकश को बयां करती। सचिन खेड़ेकर और रेणुका शहाणे मुख्य भूमिका में थे और सीरियल शायद 30-35 एपिसोड में ख़त्म हो गया था। उस पूरे सीरियल को जगजीत सिंह साहब की इस एक ग़ज़ल ने बाँध रखा था।

वैसे तो मुझे उनकी सभी ग़ज़लें पसंद हैं लेकिन प्यार का मौसम है तो फ़िलहाल के लिये जब इश्क़ तुम्हे हो जायेगा।

वाशी में एक होटल है \’चिनाब\’ जो सिर्फ और सिर्फ जगजीत सिंह साहब की ग़ज़लें ही सुनाता है। मतलब पूरा माहौल रहता है। मौका मिले तो रात में तब्दील होती शाम के साथ खाट पर आराम से पसरे हुए लुत्फ़ उठायें जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ का।

सालगिरह मुबारक ग़ज़ल सम्राट।

मेरी आवाज़ ही पहचान है

पिछले दो दिनों से घर में माहौल थोड़ा अलग सा है। श्रीमती जी एक मित्र हमारी सोसाइटी छोड़ नई जगह चली गयीं। दोनों की मुलाक़ात दस साल पहले हुई थी जब हम इस सोसाइटी में रहने आये थे। शुरुआत में वो हमारी ही फ्लोर पर रहती थीं लेकिन मुझे उस समय के बारे में कुछ भी याद नहीं है। वो तो जब बारिश होती और उनके पति अपनी कार से बच्चों को छोड़ने जाते, तब उनसे मिलते और यही मुझे याद है। इन दोनों की अच्छी दोस्ती के चलते उनके पति और मेरा भी कभी कभार मिलना हो ही जाता था। लेकिन दोनों सखियों की रोज़ फ़ोन पर बात एक नियम था और संभव हुआ तो मिलना भी। अब ये सब ख़त्म होने जा रहा था और श्रीमती जी इससे बहुत दुखी थीं।

ये जो घटनाक्रम चल रहा था उससे मुझे फ़िल्म दिल चाहता है का वो सीन याद आ गया जब तीनों दोस्त गोआ में एक क़िले से दूर समंदर में एक जहाज़ को देखते हैं। आमिर खान कहते हैं उन तीनों को साल में एक बार गोआ ज़रूर आना चाहिये। सैफ इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हैं। लेकिन अक्षय खन्ना जो शायद सबसे ज़्यादा प्रैक्टिकल होते हैं, आँखों से ओझल होते जहाज़ का हवाला देते हुये कहते हैं कैसे एक दिन उस जहाज़ के जैसे तीनों दोस्त अपनी अपनी मंज़िल की तलाश में निकल पड़ेंगे और साल में एक बार तो दूर दस साल में एक बार मिलना भी मुश्किल हो जायेगा।

श्रीमती जी और उनकी मित्र ने जल्द मिलने का वादा किया तो है लेकिन दोनों जानते हैं मुम्बई जैसे शहर में इस वादे को निभाना कितना मुश्किल है। मुझे तो कई बार फ़्लोर पर ही रहने वाले सज्जनों से मुलाक़ात किये हुए महीनों गुज़र जाते हैं। लेकिन मैं इस मिलने मिलाने के कार्यक्रम का अपवाद हूँ, ऐसा मानता हूँ। बहरहाल दोनों अपनी अगली मुलाक़ात को लेकर काफ़ी उत्साहित हैं।

ऐसे ही मिलने के वादे मैं भी करता रहता हूँ। कोई इंतज़ार कर रहा है कब मैं दिल्ली आऊँ और उसके साथ समय बिताऊँ। इस वादे पर मिर्ज़ा ग़ालिब ने बहुत ही शानदार लिखा भी है:

तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना
के खुशी से मर न जाते, अगर ऐतबार होता

ऐसे ही बहुत से मिलने के वादे बहुतों से किये हुए हैं लेकिन एक भी वादा झूठा नहीं है। पता नहीं कब मिलना होता है। वैसा भी मेरा इस मामले में रिकॉर्ड बहुत ही ख़राब रहा है। मिलना तो दूर लोग मुझे फ़ोन पर मिल जाने की बधाई देते हैं।

गुलज़ार से ग़ालिब तक

जो ये लंबे लंबे अंतराल के बाद लिखना हो रहा है उसका सबसे बड़ा कष्ट ये हो रहा है कि जब लिखने बैठो तो समझ नहीं आता कहाँ से शुरू करें। आज बात ग़ालिब और गुलज़ार साब की।

संगीत तो जैसे हमारे घर में एक सदस्य की तरह था। उन दिनों रेडियो ही एकमात्र ज़रिया था। और सारे घर ने अपना पूरा रूटीन भी उसके ही इर्दगिर्द बना लिया था। वैसे उस ज़माने में टेप भी हुआ करता था लेकिन बहुत से कारणों के चलते हमारे घर पर इसका आगमन हुआ बहुत समय के बाद। उन दिनों घर में किसी नई खरीदी का बड़ा शोर शराबा रहता था। तो जब वो फिलिप्स का two-in-one आया तो एक जश्न का माहौल था।

ग़ालिब से मुलाक़ात भी रेडियो के ज़रिए हुई। फ़िल्म थी मिर्ज़ा ग़ालिब और प्रोग्राम था भारत भूषण जी के बारे में। सिर्फ ये ना थी हमारी किस्मत याद रहा। लेकिन ग़ालिब से जो असल मुलाकात हुई वो गुलज़ार साब के बनाये मिर्ज़ा ग़ालिब, नसीरुद्दीन शाह द्वारा निभाया गया किरदार और जगजीत सिंह के संगीत के साथ। बस उसके बाद ग़ालिब के दीवाने हुए और होकर रह गए। सुने और भी कई शायर लेकिन ग़ालिब के आगे कोई और जँचा नहीं। या यूं कहें कि हमारी हालत का बयाँ ग़ालिब से अच्छा और कोई नहीं कर सका।

कई बार सोचता हूँ कि अगर गुलज़ार साब ये सीरियल नहीं बनाते तो क्या ग़ालिब से मिलना न हो पाता। ठीक वैसे ही जैसे कल जनार्दन और आदित्य से बात हो रही थी और हम तीनों अपने जीवन में अभी तक कि यात्रा को साझा कर रहे थे। आदित्य ने बताया कि उनके पास दो जगह से नौकरी के आफर थे और उनमें से एक PTI का था लेकिन उन्होंने दूसरा ऑफर लिया और इस तरह से उनसे मिलना हुआ।

जनार्दन से भी काफी समय पहले बात हुई थी लेकिन उस समय बात बनी नहीं। लेकिन अंततः वो साथ में जुड़ ही गये। शायद ग़ालिब से मुलाक़ात भी कुछ ऐसे ही होती। कोई और ज़रिया बनता और हमारी मुलाकात करवा ही देता। जैसे मैत्री ने करवाई थी मोहम्मद उज़ैर से। अगर गुलज़ार साब का शुक्रगुजार रहूंगा ग़ालिब से मिलवाने के लिये, मैत्री का रहूंगा मोहम्मद से मिलवाने के किये।

मोहम्मद बहुत ही कमाल के शख्स हैं और ये मैं इसलये नहीं कह रहा कि उन्होंने पिछली पोस्ट पढ़ कर मेरी तुलना प्रेमचंद और दिनकर से करी थी। फिल्मों को छोड़कर बाकी लगभग सभी विषयों की अच्छी समझ और पकड़। लेकिन जब प्रत्युषा बनर्जी ने अपने जीवन का अंत कर लिया तो मोहम्मद ही थे जिन्होंने फटाफट स्टोरीज़ लिखी थी। मुझे किसी मुद्दे के बारे में कुछ पता करना होता तो मोहम्मद ही मुझे बचाते। अब वो एक नई जगह अपने हुनर का जादू बिखेरेंगे।

ठीक वैसे ही जैसे रात के सन्नाटे में जगजीत सिंह अपनी आवाज़ में ग़ालिब का जादू बिखेर रहे हैं।

देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक ब्राह्मण ने कहा है कि ये साल अच्छा है।

हमें ऐसे ही गुलज़ार मिलते रहें और ज़िन्दगी ऐसे ही गुलज़ार करते रहें।