गुँजन सक्सेना: कहाँ जा रहे थे, कहाँ आ गये हम

अब जैसा होता आया है, आज कुछ और लिखने का मन था लेक़िन जो लिखा जा रहा है वो कुछ और है। ये मौसम का जादू है कहता लेक़िन ऐसा नहीं है। अब हर चीज़ का ठीकरा मौसम के ऊपर फोड़ना भी ठीक नहीं है।

फ़िल्में देखना और उनके बारे में लिखना (बिना लीपा पोती के) शायद इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। लेक़िन अब फिल्में बड़ी स्क्रीन से छोटी स्क्रीन पर आ गयी हैं तो वो मज़ा भी नहीं आता और शायद कुछ खास अच्छी फिल्में पिछले महीनों में देखने को मिली भी नहीं हैं। रही बात लिखने की तो उसका स्क्रीन से कोई लेना देना नहीं है।

आज गुंजन सक्सेना – द कारगिल गर्ल देखने का मन बना ही लिया। वैसे फ़िल्म की रिलीज़ वाले दिन नेटफ्लिक्स या प्राइम पर देखने का ये पहला मौका था। शाम को शायद फ़ुर्सत भी थी तो फ़िल्म लगा दी। इस फ़िल्म से वैसे मुझे कोई उम्मीद नहीं थी। नेपोटिस्म की जो बहस चल रही है उससे इसका कोई लेना देना नहीं है।

क्या है

फ़िल्म एक वायु सेना की अफ़सर की असल जिंदगी पर बनी है। इन दिनों सबको जैसे ऐसे किरदारों की तलाश रहती है। पुरुष किरदारों के ऊपर तो ऐसी कई फिल्में बनी हैं लेक़िन महिला किरदार का नंबर अब लगना शुरू हुआ है। शकुंतला देवी के बाद गुंजन सक्सेना। इससे पहले भी बनी हैं लेक़िन अब तो जैसे बायोपिक का मौसम है। यहाँ मौसम को दोष दिया जा सकता है।

वैसे अच्छा हुआ निर्माता करण जौहर ने फ़िल्म को सिनेमा हॉल में रिलीज़ करने का प्लान त्याग दिया औऱ नेटफ्लिक्स को अपनी लाइब्रेरी सौंप दी है। ये जो असली ज़िन्दगी के किरदार होते हैं ये या तो आपको प्रेरणा देते हैं या आप उनके जीवन से कुछ सीखते हैं, उनके बारे में कुछ नया जानते हैं। चूँकि आपको उस क़िरदार के बारे में सब मालूम है तो देखना ये रहता है क्या और कैसे दिखाया जायेगा।

गाँधी फ़िल्म इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। फ़िल्म गाँधीजी के बारे में थी, बहुत सी बातें हमने पढ़ी हुई थीं। लेक़िन आज भी इस फ़िल्म को मैं देख सकता हूँ। धोनी भी एक बहुत अच्छी फ़िल्म बनी थी। इसका बहुत बड़ा श्रेय सुशांत सिंह राजपूत को जाता है जिन्होंने किरदार में जान फूंक दी थी।

अब ये कारगिल से गाँधी मतलब फ़िर से घोड़ा चतुर, घोड़ा चतुर।

गुंजन सक्सेना भारतीय वायुसेना की पहली महिला अफ़सर थीं। उनका एक संघर्ष रहा अफ़सर बनने से पहले और बाद भी। हालाँकि वायुसेना ने अपनी नकारात्मक चर्चा पर आपत्ति जताई है। उनके अनुसार महिला अफसर के साथ ऐसा सलूक बिल्कुल नहीं होता जैसा फ़िल्म में दिखाया गया है। अगर ऐसी बात है तो उन्होंने फ़िल्म के रिलीज़ होने का इंतज़ार क्यूँ किया ये समझ से परे है।फ़िल्म के ट्रेलर से ही ये समझ में आ गया था की वायुसेना के गुणगान नहीं होने वाले हैं।गुंजन सक्सेना के बारे में एक और ख़ास बात थी कारगिल युद्ध में उनका भाग लेना। ये वाला भाग बहुत अच्छा बन सकता था। लेक़िन ये बहुत ही कमज़ोर था। शायद कलाकारों के चलते।

अभिनय

शायद फ़िल्म की कहानी सुनने में अच्छी लगती हो लेक़िन बनते बनते वो कुछ और ही बन गयी। स्क्रिप्ट पर निश्चित रूप से कुछ और काम करने की ज़रूरत दिखी। लेक़िन अगर स्क्रिप्ट अगर यही रख भी लेते तो फ़िल्म के मुख्य कलाकार ने बहुत निराश किया। जहान्वी कपूर की ये तीसरी फ़िल्म है। मैंने उनकी ये पहली पूरी फ़िल्म देखी है। उनके अभिनय में वो दम नहीं दिखा जो इस तरह के क़िरदार के लिये ज़रूरी है। कहने वाले कहेंगे अभी वो नईं हैं इसलिये जल्दी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना नहीं चाहिये। तो कितनी फिल्मों तक उनको ये छूट मिलनी चाहिये?

पंकज त्रिपाठी जी का मैं ख़ुद एक बहुत बड़ा फैन रहा हूँ। लेक़िन गुंजन सक्सेना के पिता के रूप में वो जँचे नहीं। वो एक पिता के रूप में बहुत बढ़िया हैं लेक़िन वो एक फ़ौजी पिता हैं और फौजी पिता का क़िरदार असल ज़िन्दगी में थोड़ा अलग तो होता। लेक़िन उनको देखकर लगा वो वही बरेली की बर्फी वाले पिता थे जिनका घर बदल दिया और पौशाक भी।

अगर आदिल हुसैन साहब ये क़िरदार निभाते तो शायद और बेहतर होता। जहान्वी के क़िरदार के लिये सान्या मल्होत्रा या फ़ातिमा सना शेख़ भी अच्छे विकल्प हो सकते थे। इनके अलावा भी कई और नाम हैं लेक़िन इनकी हालिया फ़िल्म के चलते नाम याद रहा। लेक़िन करण जौहर तो जहान्वी को ही लेते। तो इसपर माथापच्ची करने का कोई मतलब नहीं है।

क्या करें

कभी कभार आपके पास जो चाय का प्याला या खाने की थाली आती है जो बस ठीक होती है। अच्छी से बहुत कम और बहुत अच्छी से कोसों दूर। गुँजन सक्सेना फ़िल्म भी कुछ ऐसी ही है। बुरी नहीं है तो अच्छी भी नहीं है। अब ये फ़ैसला आपके ऊपर है की आप अच्छी चाय का इंतज़ार करने को तैयार हैं या सामने जो प्याला है उसको ही नाक मुँह बनाते हुये पीना पसंद करेंगे।

https://youtu.be/mmHUuFcXEpQ

भाई तुम ये फ़िल्म देखोगे या नहीं!

आज वैसे तो मन था एक और मीडिया से जुड़ी पोस्ट लिखने का लेक़िन कुछ और लिखने का मन हो रहा था। तो मीडिया की अंतिम किश्त कुछ अंतराल के बाद।

फ़िर क्या लिखा जाये? ये सवाल भटकाता ही है क्योंकि लिखने को बहुत कुछ है मगर किस विषय पर लिखें हम? ये सिलसिला वाला डायलॉग अमिताभ बच्चन की आवाज़ में कुछ और ही लगता है और साथ में रेखा। फिल्मी इतिहास में इससे ज़्यादा रोमांटिक जोड़ी मेरे लिये कोई नहीं है।

वैसे ही जब किताबों की बात आती है तो धर्मवीर भारती जी की \’गुनाहों का देवता\’ एक अलग ही लेवल की किताब है। देश में इतनी उथलपुथल मची हुई है और मैं इस किताब की चर्चा क्यों कर रहा हूँ? अब देखिए देश और दुनिया की हालत तो आप तक पहुँच ही रही होगी। तो मैं काहे की लिये उसपर आपका और अपना समय गावउँ। वैसे भी दिनभर समाचार का ओवरडोज़ हो जाता है तो शाम को इससे परहेज़ कर लेता हूँ।

खबरें पता रहती हैं लेक़िन उसके आगे कुछ नहीं करता। तो वापस आते हैं क़िताब पर। किसी देवी या सज्जन ने ये क़िताब पहली बार पढ़ी और उन्हें कुछ खास अच्छी नहीं लगी। ये बात उन्होंने सोशल मीडिया पर शेयर भी कर दी। बस फ़िर क्या था, दोनों तरफ़ के महारथी टूट पड़े। कुछ ने क़िताब को अब तक की सबसे बेहतरीन रोमांटिक और ट्रैजिक किताब बताया तो कुछ लोगों ने भी यही बोला की उनको किताब कुछ खास नहीं लगी और ये भी समझ नहीं आया कि क्यों लोग इसके दीवाने हैं।

कुछ पाठकों का कहना था कि कोई भी क़िताब उम्र के अलग अलग समय पर अलग अलग प्रभाव छोड़ती है। मसलन गुनाहों का देवता आपकी जवानी में आपको बहुत।प्रभावित करेगी क्योंकि उम्र का वो दौर ही ऐसा होता है। लेक़िन वही किताब आप जब 30-35 के होते हैं तब न तो वो इतनी ख़ास लगती है और उसमें कही बातें भी हास्यास्पद लगती हैं।

ये बात है तो बिल्कुल सही। लेक़िन तब भी मैं इससे इतेफाक नहीं रखता। इसका कारण भी बड़ा ही सादा है – जैसे आप किसी रिश्ते को उसके शुरुआती दौर में अलग तरह से देखते हैं और कुछ समय के बाद आपका नज़रिया बदल जाता है। वैसे ही किताब के साथ है। आपने उसको प्रथम बार जब पढ़ा था तब आपकी मानसिक स्थिति क्या थी और आज क्या है। दोनों में बहुत फ़र्क़ भी होगा। समय और अनुभव के चलते आप कहानी, क़िरदार और जो उनके बीच चल रहा है उसको अलग नज़रिये से देखते, समझते और अनुभव करते हैं।

मेरे साथ अक्सर ये होता है की पहली बार अगर कोई क़िताब पढ़ी या फ़िल्म देखी तो उसमें बहुत कुछ और देखता रहता हूँ। लेक़िन दोबारा देखता हूँ तब ज़्यादा अच्छे से फ़िल्म समझ में भी आती है और पहले वाली राय या तो और पुख़्ता होती है या उसमें एक नया दृष्टिकोण आ जाता है।

हालिया देखी फिल्मों में से नीरज पांडे जी की अय्यारी इसी श्रेणी में आती है। जब पहली बार देखा तो बहुत सी चीज़ें बाउंसर चली गईं। लेक़िन इस बीच जिस घटना से संबंधित ये फ़िल्म थी उसके बारे में कुछ पढ़ने को मिला और उसके बाद फ़िल्म दोबारा देखी तो लगा क्या बढ़िया फ़िल्म है। वैसे फ़िल्म फ्लॉप हुई थी क्योंकि कोई भी दो बार क्यों इस फ़िल्म को सिनेमाहॉल में देखेगा जब पहली बार ही उसे अच्छी नींद आयी हो।

किताबों में हालिया तो नहीं लेक़िन अरुंधति रॉय की \’गॉड ऑफ स्माल थिंग्स\’ एकमात्र ऐसी किताब रही है जिसको मैं कई बार कोशिश करने के बाद भी 4-5 पेज से आगे बढ़ ही नहीं पाया। शायद वो मुझे जन्मदिन पर तोहफ़ा मिली थी। फ़िर किसी स्कॉलर दोस्त को भेंट करदी थी पूरा बैकग्राउंड बता कर क्योंकि दुनिया बहुत छोटी है और इसलिये भी की दीवाली पर सोनपापड़ी वाला हाल इस किताब का भी न हो।

बहरहाल ऐसा हुआ नहीं। लेक़िन ऐसी किताबों की संख्या दोनो हाँथ की उंगलियों से भी कम होंगी ये सच है। वहीं कुछ ऐसी किताबें, फिल्में भी हैं जिनको उम्र छू भी नहीं पाई है। जब बात फ़िल्मों की हो रही है तो एक बात कबुल करनी है – मैंने आजतक मुग़ल-ए-आज़म और दीवार नहीं देखी हैं। दोनो ही फिल्मों के गाने औऱ डायलॉग पता हैं लेक़िन फ़िल्म शुरू से लेकर अंत तक कभी नहीं देखी।

जब भी मौक़ा मिला तो कुछ न कुछ वजह से रह जाता। उसके बाद मैंने प्रयास करना भी छोड़ दिया और धीरे धीरे जो थोड़ी बहुत रुचि थी वो भी जाती रही। अब मुग़ल-ए-आज़म रंगीन हो गई है तो देखने का और मन नहीं करता। मधुबाला जी ब्लैक एंड व्हाइट में कुछ अलग ही खूबसूरत लगती थीं।

तो बात किताब से शुरू हुई थी और फ़िल्म तक आ गयी। जिस तरह मेरे और कई और लोगों का मानना है गुनाहों का देवता एक एवरग्रीन किताब है और अगर किसी को पसंद नहीं आयी तो…

वैसे ही क्या मुग़ल-ए-आज़म या दीवार न देखना क्या गुनाहों की लिस्ट में जोड़ देना चाहिये? या कुछ ले देके मामला सुलझाया जा सकता है? दोनों ही फिल्में निश्चित रूप से क्लासिक होंगी लेक़िन मुझे उनके बारे में नहीं पता। हाँ मैंने कुछ और क्लासिक फ़िल्में देखी हैं जैसे दबंग 3, जब हैरी मेट सेजल और ठग्स ऑफ हिन्दुतान को भी रख लीजिये (इतना संजीदा रहने की कोई ज़रूरत नहीं है)। मुस्कुराइये की आधा साल खत्म होने को है!

क्या ऐसी कोई फ़िल्म या किताब है जिसके लोग क़सीदे पढ़ते हों लेकिन आपको कुछ खास नहीं लगी या आपने वो पढ़ी ही नही? या कोई फ़िल्म जिसे आपने देखने की कोशिश भी नहीं करी? कमेंट कर आप बता सकते हैं और मुझे कंपनी दे सकते हैं।