बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की…

Shiva Devnath

काम के सिलसिले में काफ़ी लोगों से मिलना होता है। बहुत से लोगों के नाम, शक्ल कुछ भी याद नहीं रहती। कई लोगों से दुबारा बरसों बाद किसी दूसरी जगह मुलाक़ात होती है तो वो बताते हैं आपसे वो पहली बार कब मिले थे और किस सिलसिले में। पिछले एक बरस में मेरी ऐसे कई लोगों से मुलाक़ात हुई जिनसे, उनके अनुसार, पहले भी मिलना हुआ था। मुझे तो सच में बिलकुल याद नहीं, कब, कहां, क्यूं। 

लेकिन कुछ लोगों से एक छोटी सी मुलाक़ात भी याद रहती है। इस साल मार्च के महीने में मेरे एक सहयोगी मुझसे किसीको मिलवाना चाहते थे। मैंने भी हामी भर दी और एक दिन मेरे सहयोगी और उनके जानकार, शिवा देवनाथ, दोनों सामने बैठे हुए थे।

अच्छा हम जो पत्रकार होते हैं, हमारे पास बहुत सारी कहानियां होती हैं। कुछ हम बता देते हैं, कुछ बहुत से कारणों से अनकही रह जाती हैं। शिवा जो कि एक क्राइम रिपोर्टर रहे थे, उनके पास कहानियों का ढ़ेर था। मुंबई में क्राइम रिपोर्टर के पास ढ़ेरों मसालेदार ख़बरें होती हैं। शिवा का बहुत बढ़िया नेटवर्क था ख़बरियों का। शायद ही ऐसी कोई ख़बर जिसके बारे में उन्हें मालूम नहीं हो।

जिन दिनों शिवा से मुलाक़ात हुई, मैं भी कुछ नई कहानियों के बारे में सोच रहा था। शिवा से मिलने का उद्देश्य भी यही था कैसे हम साथ में आयें और क्राइम से जुड़ी कहानियां लोगों तक पहुंचाएं।

शिवा से मिले तो उन्होंने बहुत सारी बातें करी। उस समय जो हिंदी फ़िल्म कलाकारों के केस चल रहे थे उस पर भी उन्होंने कुछ अंदर की ख़बर साझा करी। शिवा दरअसल जे डे के सहयोगी रह चुके हैं। मुंबई में अगर कोई क्राइम रिपोर्टर हुआ है तो वो जे डे सर थे। उनके काम के ऊपर वेब सिरीज़ बन चुकी हैं और मुझे उनके सहयोगी के साथ काम करने का एक मौक़ा मिल रहा था।

क्राइम से संबंधित ख़बरें लोग बड़े चाव से पढ़ते या अब देखते हैं। उस पर अगर कोई पुराने केस के बारे में ऐसी बातें हों जो लोगों को पता भी नहीं हो, तो उन ख़बरों का चलना तो तय है। इस मुलाक़ात के बाद इस बात की कोशिश शुरू हुई कि कैसे शिवा भाई को संस्था से जोड़ा जाये। ये थोड़ा टेढ़ा काम था क्योंकि मैनेजमेंट के अपने विचार होते हैं। उस पर आज जब AI का ज़ोर है तो ये समझाना कि जो ख़बर लिखी ही नहीं गई है उस पर AI क्या ही करेगा, मतलब मशक्कत वाला काम।

इस बीच शिवा का मैसेज, कॉल आता रहा जानने के लिए कि कुछ बात बनी क्या। लेकिन अब ये सब नहीं होने वाला। शिवा अब हमारे बीच नहीं हैं। अपने साथ वो कितनी ही सारी कहानियां भी लेकर चले गए। उनके साथ काम नहीं करने का अफ़सोस ताउम्र रहेगा। लेकिन उससे भी ज़्यादा अफ़सोस रहेगा एक बेबाक आवाज़ का शांत हो जाना। पत्रकारिता में बहुत कम लोग बचे हैं जो सच बोलने का साहस रखते हों। शिवा उनमें से एक थे।

जादू नगरी से आया है कोई जादूगर

पिछले कई दिनों से फ़ेसबुक पर प्रेमचंद जी के बारे में कुछ न कुछ पढ़ने को मिल रहा था। तब ये नहीं पता था की उनकी जयंती है 31 जुलाई को। उनके जन्मस्थान के बारे में तो रट ही चुके थे स्कूल में लेक़िन बाक़ी जानकारी याद नहीं रही।

उनके बारे में ये नहीं पता था की वो मुम्बई भी आये थे। ये तो फेसबुक पर उनका पत्नी को लिखा पत्र किसी ने शेयर किया जिससे ये पता चला की वो लगभग तीन वर्ष मायानगरी में रहे। उनकी लिखी कहानियों पर फ़िल्म तो बनी हैं लेक़िन उन्होंने स्वयं किसी फ़िल्म की कहानी, संवाद या पटकथा लिखी इसका मुझे ज़रा भी ज्ञान नहीं।

उनके मुम्बई से लिखे पत्र पढ़कर मुझे अपने मुम्बई के दिन याद आ गए। जब साल 2000 में मेरा मुंबई तबादला हुआ तो कई मायने में ये एक सपने के सच होने जैसा था। इससे पहले मुम्बई आना हुआ था लेक़िन उस समय छात्र थे तो उसी तरह से देखा था। अब मैं एक नौकरीपेशा युवक था जिसकी ये कर्मभूमि बनने जा रही थी।

प्रेमचंद जी जब बम्बई आये थे तब वो शादीशुदा थे और पिता भी बन चुके थे। मेरे जीवन में इस अवस्था के आने में अभी वक़्त था। हाँ उनके जैसे परिवार की कमी मुझे भी खलती थी लेक़िन नौकरी भी थी। इसलिये जब भी घर की याद आती, भारतीय रेल ज़िंदाबाद। शायद ही कोई महीना निकलता जब भोपाल जाना नहीं होता। इसके लिये मेरे सहयोगियों ने बहुत मज़ाक भी उड़ाया लेक़िन घर के लिये सब मंज़ूर था।

इन्हीं शुरुआती दिनों में पहले मेरे उस समय के मित्र सलिल का आना हुआ और बाद में माता पिता और छोटी बहन भी आये। जिस समय मेरा तबादला हुआ उसी समय मेरी बुआ भी मुम्बई में रहने के लिये आयीं थीं तो कभी कभार उनके पास भी जाने का मौक़ा मिल जाता। कुल मिलाकर घर को इतना ज़्यादा याद नहीं किया। अकेले रहने का मतलब बाकी सभी काम का भी ध्यान रखना होता।

इसलिये जब प्रेमचंद जी ने लिखा की \”लगता है सब छोड़ कर घर वापस आ जाऊं\”, तो ये बात कहीं छू गयी। मुम्बई अगर बहुत कुछ देती है तो थोड़ा कुछ छीन भी लेती है। अब ये आप पर निर्भर करता है आप क्या खोकर क्या पाना चाहते हैं और क्या आप वो क़ीमत देने को तैयार हैं।

अमूमन जैसा लेखकों के बारे में पढ़ा है की वो लिखते समय एकांत पसंद करते हैं, उसके विपरीत प्रेमचंद जी का घर के प्रति, परिवार के सदस्यों के प्रति इतना लगाव कुछ समझ नहीं आया। इसलिये जब उनके जीवन से संबंधित और जानकारी पढ़ी तो पता चला कैसे बाल अवस्था में पहले अपनी माँ और उसके बाद अपनी दादी के निधन के बाद प्रेमचंद अकेले हो गये थे। शायद इसके चलते जब उनका परिवार हुआ तो उसकी कमी उन्हें बहुत ज़्यादा खली।

इसी दिशा में गूगल के ज़रिये पता चला की उनके पुत्र ने अपने पिता के ऊपर एक पुस्तक लिखी है और उनकी पत्नी ने भी। पुत्र अमृत राय ने \”प्रेमचंद – कलम का सिपाही\” लिखी और इसके लिये उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा भी गया। उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने \”प्रेमचंद घर में\” शीर्षक से किताब लिखी जो प्रेमचंद की मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई।

मेरी पढ़ने की लिस्ट में फिलहाल ये दोनों किताबें सबसे ऊपर हैं। प्रेमचंद की लिखी कौन सी क़िताब आपको बेहद पसंद है जिसे ज़रूर पढ़ना चाहिये? आप जवाब कमेंट कर बता सकते हैं।

बारिश का बहाना है, ज़रा देर लगेगी

गोआ के कैंडोलिम बीच पर सारी रात बैठ कर बात करके जब सुबह वापस होटल जाने का समय आया तो कहीं से बादल आ गये और बारिश शुरू। बचने की कोई गुंजाइश नहीं थी तो बस बैठे बैठे बारिश का आनंद लिया।

ये बादलों का भी कुछ अलग ही मिजाज़ है। अगर आप मुम्बई में हैं तो आपको इनके मूड का एहसास होगा।ऐसा पढ़ा है कि इस हफ़्ते मुम्बई में बारिश दस्तक दे सकती है। बारिश में मुम्बई कुछ और खूबसूरत हो जाती है। वैसे बारिश में ऐसा क्या खास है ये पता नहीं लेकिन अगर किसी एक मौसम पर सबसे ज़्यादा गाने लिखे गये हैं तो वो शायद नहीं यक़ीनन बारिश का मौसम ही होगा।

वैसे बारिश मुझे भोपाल के दिनों से पसंद थी। दिल्ली के प्रथम अल्प प्रवास में कुछ खास बारिश देखने को नहीं मिली। बाद में पता चला कि अन्यथा भी बारिश दिल्ली से दूर ही रहती। जब दिल्ली से मुम्बई तबादला हुआ तो वो ऐन जुलाई के महीने में। उस समय मुम्बई की बारिश के बारे में न तो ज़्यादा पता नहीं था न ही उसकी चिंता थी। मेरे लिये मुम्बई आना ही एक बड़ी बात थी। उसपर पीटीआई ने रहने की व्यवस्था भी करी थी तो बाक़ी किसी बात की चिंता नहीं थी।

मरीन ड्राइव पर गरम गरम भुट्टे के साथ बारिश की बूंदों का अलग ही स्वाद होता है। और उसके साथ एक बढ़िया अदरक की गरमा गरम चाय मिल जाये तो शाम में चार चाँद लग जाते हैं। वहां से दूर तक अरब सागर पर बादलों की चादर और बीच बीच में कड़कड़ाती बिजली। अगर मुम्बई में ये नज़ारा रहता तक अब पहाड़ों घर से दिखते हैं। गर्मी में बंजर पहाड़ बारिश के आते ही हरियाली से घिर जाते हैं। इन्हीं पहाड़ों के ऊपर बादल और बारिश दूर से आते दिख जाते हैं। सचमुच बहुत ही सुंदर दृश्य होता है।

कुछ लोग इस मौसम को बेहद रोमांटिक मानते हैं वहीं कुछ लोग काले बादल और बारिश में भीगने से खासे परेशान रहते हैं। मुझे इस मौसम से या किसी औऱ मौसम से कोई शिकायत नहीं है। हर मौसम की अपनी ख़ासियत होती है और उसका आनंद लेने का तरीका। जैसे अगर आप ऐसे मौसम में लांग ड्राइव पर निकल जायेँ जैसा मैंने पिछले साल किया था। भीगी हुई यादों को अपने साथ समेट कर दिल्ली ले जाने के लिये।

हर मायने में राम मिलाय जोड़ी

कॉलेज के दिन थे और भविष्य की बातों में एक रात सलिल, विजय और मैं उलझे थे। बात धीरे धीरे गंभीर से हल्की हो रही थी। हम तीनों इस बारे में अपने विचार कर रहे थे की हमारा भावी जीवनसाथी कैसा हो। उन दिनों हम तीनों में से किसी एक का दिल कहीं उलझा हुआ था। किसका ये मैं नहीं बताऊंगा क्योंकि बात निकलेगी तो फ़िर दूर तलक जाएगी।

हम सभी ने अपनी अपनी पसंद बताई। कैसा जीवन साथी चाहते हैं, उनमें क्या खूबियाँ हों आदि आदि। मैं हमेशा से शादी अरंजे ही चाहता था। ठीक ठीक याद नहीं बाकी दोनों क्या चाहते थे लेकिन शायद लव मैरिज के पक्षधर थे। ये कॉलेज के दिनों की बात हो रही है और हम तीनों को नहीं पता था कि भविष्य में क्या होने वाला है।

जब मैं पहले दिल्ली और फ़िर मुम्बई आया तो परिवार में तो नहीं लेकिन रिश्तेदारों ने ये मान लिया थे कि लड़का तो हाँथ से गया। दिल्ली में अपनी मित्र वाली घटना के बारे में तो बता ही चुका हूँ। लेकिन इससे ज़्यादा कुछ हुआ नहीं या कहें होने नहीं दिया। इस बारे में ज़्यादा नहीं। दिल्ली जाने से भोपाल में मेरी नादानियों का ज़िक्र भी किया जा चुका है। माता-पिता ने सिर्फ ये हिदायत ही दी थी कि अगर तुम्हें कोई पसंद हो तो बाहर से पता चले उसके पेजले हमको बताना। जब कभी मेरी कोई महिला सहकर्मी को मिलवाता तो क्या माजरा होता होगा आप सोच सकते हैं।

मेरी लिस्ट कोई बहुत लंबी नहीं थी लेकिन अपने जीवनसाथी से सिर्फ दो एक चीजों की अपेक्षा थी। पढ़ी लिखी तो हों ही इसके साथ बाहर के कामकाज के लिये मुझ पर निर्भर कम से कम रहें। मुम्बई में इसकी ज़रूरत बहुत ज़्यादा महसूस हुई इसलिए इसको मैंने सबसे ऊपर रखा। लेकिन इसके चलते रिश्तेदारों के साथ बड़ी मुश्किल भी हो गयी जिसका असर अभी तक बरक़रार है।

जब बहुत सारी लड़कियों से मिलकर अपनी होने वाली पत्नी से मिला तो शायद पहली बार मैंने किसी के पक्ष में कुछ बात करी थी। माता पिता ने इसे पॉजिटिव माना और फ़टाफ़ट आगे बढ़कर बात पक्की कर दी। हमारी जोड़ी को मैं सही में राम मिलाय जोड़ी कहता हूँ क्योंकि श्रीमतीजी के पिता के पास भी कुछ और विवाह प्रस्ताव थे। लेकिन मेरे स्वर्गीय ससुर साहब ने अन्य प्रस्तावों को मना कर दिया और मुझे चुना। पत्नी जी ने भी अपने पिता, जिन्हें घर में राम बुलाते हैं, के निर्णय से सहमति जताई। तो ऐसे हुई हमारी राम मिलाय जोड़ी।

जीवन सिर्फ सीखना और सिखाना है

मैंने अपना पत्रकारिता में करियर अंग्रेज़ी में शुरू किया और उसी में आगे बढ़ा। हिंदी प्रदेश का होने के कारण हिंदी समझने में कोई परेशानी नही होती है और ख़बर हिंदी में हो तो उसको अंग्रेजी में बनाने में भी कोई दिक्कत नहीं। इन सभी बातों का फायदा मिला और वो भी कैसे।

नासिर भाई ने अगर लिखना सिखाया तो दैनिक भास्कर के मेरे सीनियर और अब अज़ीज दोस्त विनोद तिवारी ने सरकारी दफ्तरों, अफसरों से ख़बर कैसे निकाली जाये ये सिखाया। विनोद के साथ भोपाल में नगर निगम और सचिवालय दोनों कवर कर मैंने बहुत कुछ सीखा। उन दिनों मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था लेकिन विनोद ने एक दिन चाय पीते हुये एलान कर दिया था कि मुझे पत्रकारिता का कीड़ा लग चुका है और मैं अब यहीं रहूँगा।

हिंदी के पाठक उस समय भी अंग्रेजी से ज़्यादा हुआ करते थे लेकिन मुझे अंग्रेज़ी में लिखना ही आसान लगता। उस समय ये नहीं मालूम था कि पन्द्रह साल बाद मैं भी हिंदी में अपना सफ़र शुरू करूंगा। थोड़ा अजीब भी लगता क्योंकि मेरे नाना हिंदी के लेखक थे और पिताजी भी हिंदी में कवितायें लिखते थे।

इंडिया.कॉम को जब हमने हिंदी में शुरू करने की सोची तो मेरे बॉस संदीप अमर ने पूछा कौन करेगा। मैंने हामी भर दी जबकि इससे पहले सारा काम सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ी में ही किया था। लेकिन \”एक बार मैंने कमिटमेंट कर दी तो उसके बाद मैं अपने आप की भी नहीं सुनता\” की तर्ज़ पर मुंबई में लिखने वालों को ढूंढना शुरू किया। इसमें मुझे मिले अब्दुल कादिर। वो आये तो थे अंग्रेज़ी के लिये लेकिन वहाँ कोई जगह नहीं थी और उन्हें जहाँ वो उस समय काम कर रहे थे वो छोड़नी था। समस्या सिर्फ इतनी सी थी कि उन्होंने हिंदी में कभी लिखा नहीं था। लेकिन उन्होंने इसको एक चुनौती की तरह लिया और बेहतरीन काम किया और आज वो हिंदी टीम के लीड हैं।

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आगे टीम में और लोगों की ज़रूरत थी तो कहीं से अल्ताफ़ शेख़ का नाम आया। अल्ताफ़ ने डिजिटल में काम नहीं किया था और हिंदी में लिखने में थोड़े कच्चे थे। शुरुआती दिनों में उनके साथ मेहनत करी और उसके बाद एक बार जब उन्हें इस पूरे खेल के नियम समझ में आ गए तो उन्होंने उसमें न केवल महारत हासिल कर की बल्कि उन्होंने अपना एक अलग स्थान बना लिया। हाँ शुरू के दिनों में अल्ताफ़ ने बहुत परेशान किया और शायद ही कोई ऐसा दिन जाता जब अल्ताफ़ पुराण न हो। लेकिन उनकी मेहनत में कोई कमी कभी नहीं आई और नतीजा सबके सामने है। इनके किस्सों की अलग पोस्ट बनती है!

अल्ताफ़ इन दिनों एक मनोरंजन वेबसाइट के कंटेंट हेड हैं और आये दिन फिल्मस्टार्स के साथ अपनी फोटो फेसबुक पर साझा करते रहते हैं। आज वो जिस मुकाम पर हैं उन्हें देख कर अच्छा लगता है। उनके चाहने वाले उन्हें लातूर का शाहरुख कहते हैं। लेकिन जिस तरह एक ही शाहरुख खान हैं वैसे ही एक ही अल्ताफ़ हैं। सबसे अलग, सबसे जुदा। जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें। हिंदी के टीम के बारे में विस्तार से फिर कभी।

मुम्बई जैसी कोई दूसरी जगह नहीं

मुम्बई-पुणे की पहली यात्रा के बारे में पहले बता चुका हूँ। जब दूसरी बार इसको कार्यस्थल बनाने का मौका मिला तो बिना कोई मौका गवाएँ मैंने हामी भर दी। एक बार भोपाल छुटा तो फिर सब जगह बराबर ही थीं। जुलाई 2000 में PTI ने मुंबई तबादला कर दिया और थोड़ा सा सामान और ढेर सारी यादों के साथ मायानगरी के लिये प्रस्थान कर दिया।

जो भी कोई मुम्बई आ चुका या रह चुका है वो ये समझेगा की मुम्बई जैसी कोई दूसरी जगह नहीं। आप शिकायत करते करते भी इसके तौर तरीके अपना लेते हैं और इसका एहसास आपको तब होता है जब आप कहीं और जाते हैं। मसलन यहाँ सुबह सब के लिये जल्दी होती है और दुकाने भी जल्दी खुल जाती हैं। कुछ दिनों बाद भोपाल गया तो लगा वहां सब चीज़ें स्लो मोशन में चल रहीं हैं।

मुम्बई पर वापस आते हैं। PTI ने चेम्बूर में एक फ्लैट को गेस्ट हाउस का नाम दे दिया था लेकिन ऐसी कोई सहूलियतें नहीं दिन थी। खाने का इंतज़ाम आपकी ज़िम्मेदारी थी। जल्द ही यहां कुछ नए प्राणी आने वाले थे और एक नीरस सा गेस्ट हाउस एक हंगामे वाली जगह बनने वाली थी।

मुम्बई लोकल में घुसना एक कला है जो आप धीरे धीरे सीख लेते हैं या यूँ कहें रोज़ रोज़ की धक्कामुक्की आपको सीखा देती हैं। शुरुआती हफ्ता थोड़ा समझने में गया। लेकिन फिर कौन सा डिब्बा पकड़ना है से लेकर कौन सी लोकल पकड़नी है सब सीखते गये। चेम्बूर के पास ही है तिलक नगर स्टेशन जिसने मुझे फिर से भोपाल से जोड़े रखा।

चेम्बूर में एक रेस्टॉरेंट है जहां प्रसिद्ध कलाकार, निर्माता, निर्देशक राज कपुर जी आते थे। एकाध बार खुद खा कर अपने आप को काफी गौरान्वित महसूस करने लगें लेकिन फिर ये भी सोचा कि आखिर ऐसा खास क्या हैं यहां के खाने में। लेकिन कोई मुम्बई आता तो उसको ज़रूर लेके जाते। इस उम्मीद पर की शायद वो बताएं। लेकिन सभी मेरे खयाल से मुझ जैसा ही रियेक्ट कर रहे थे।

PTI मुम्बई में काफी बदलाव हो रहे थे जब हमारा तबादला यहाँ किया गया। यह एक अलग चुनौती थी जिसका सामना करने के अलावा और कोई चारा नही था। लेकिन यहां के डेस्क और रिपोर्टिंग स्टाफ के सदस्यों ने बहुत ध्यान रखा। और ये इसका ही नतीजा है आज भी इन सभी से संपर्क बना हुआ है।

मुम्बई की बारिश का तब तक सिर्फ सिनेमा के पर्दे पर देख कर आनंद ही लिया था। उसके कहर को झेला नहीं था। लेकिंन वो दिन भी जल्दी आ गया जब ज़ोरदार बारिश के चलते मुम्बई ठप्प हो गयी थी। कैसे सामना किया इसका?

जीवन एक गीत है तो कोरस है अनुभव

एक बार फिर मुम्बई। आज कार में सफ़र करते समय रेडियो पर ज़माने को दिखाना है फ़िल्म का गाना दिल लेना खेल है दिलदार का चल रहा था। इस गाने के बीच में कुछ कोरस गाता है जिसका कोई मतलब इतने वर्षों मे समझ ही नहीँ आया। ये कोई अकेला गाना नहीं है जिसमे ऐसा कुछ है। आर डी बर्मन के बहुत से ऐसे गाने हैं जिनमे ऐसा कुछ सुनने के लिए अक्सर मिलता है। इसमें कितना योगदान RDB का हैं और कितना फ़िल्म से जुड़े अन्य लोगों का ये शोध का विषय हो सकता है। लेकिन ये कहना कि इस उटपटांग कोरस को सिर्फ RDB ने ही इस्तेमाल किया है तो गलत होगा।

हमारे जीवन में भी कुछ ऐसा ही होता है। सब एक सुर, ताल में बँधे चलते रहते हैं और अचानक एक अलग सा कोरस शुरू हो जाता है जिसका कोई मतलब समझ में तो नहीं आता। लेकिन ये कोरस गाने में इस तरह से गुंथा जाता है कि आपको वो गाने से अलग नहीं लगता। जीवन में ये कोरस को आप अनुभव कह सकते हैं। अच्छे और बुरे सभी अनुभव हमारी इस यात्रा को यादगार बना देते हैं।

अब ये आप पर निर्भर है कि आप उस कोरस को अलग से निकाल कर उसका सुक्ष्म परीक्षण कर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते हैं या उसको गुनगुनाते हुए अपने गाने पर वापस आना चाहते हैं। कई बार हम लोग गाना भूल कोरस पर ही अपना ध्यान रखते हैं।

अगर हम किशोर कुमार के गाये हुए फ़िल्म शालीमार के गीत हम बेवफा हरगिज़ न थे कभी सुने तो ये बात औऱ अच्छे से समझ सकते हैं। गाना दिल टूटने की दास्तां बयाँ कर रहा है और उसका कोरस उतना ही ज़्यादा मज़ेदार। कभी फुरसत में सुनियेगा। अब अगर मैं इसके बाकी बैकग्राउंड को ध्यान में रखूं तो गाने का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है।

वैसे आजकल के ज़्यादातर गाने बिना किसी मतलब के ही होतें है। क्या यही कारण है कि आज भी लोग उन पुराने गीतों को पसंद करते हैं या रीमिक्स कर बिगाड़ देते हैं?

वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है

आज से ठीक एक महीने पहले दिल्ली से जब ट्रेन में बैठा था तो वो शाम भी कुछ अजीब थी और आज की ये शाम भी कुछ उस शाम जैसी ही है। 29 सितंबर को जब मैं हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर अपनी ट्रैन की ओर कदम बढ़ा रहा तो जो समान दिख नहीं रहा था उसका बोझ सबसे ज़्यादा था और वो थीं अनगिनत यादें। समेटना भी मुश्किल और सहेज कर रखना भी मुश्किल।

दिल्ली और 15 नवंबर से शुरू हुई नई पारी।का अंत होने जा रहा था। लेकिन ये बीता समय कमाल का था। कुछ नए प्रतिभावान टीम के सदस्यों के साथ काम करने का मौका मिला। हमारी नई शुरुआत को सराहा गया, गलतियों को बताया गया और जोश एवं उल्लास के साथ कुछ अच्छा और अलग करने का निरंतर प्रयास किया।

इस पूरे प्रवास की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कलम में सुखी हुई स्याही को बदलने की और फिर से लिखने की। हालांकि ये प्रक्रिया की शुरुआत काफी अच्छी रही लेकिन जैसे जैसे काम तेजी पकड़ने लगा लिखना कम होता गया। प्रयास होगा कि इसे पुनर्जीवित कर निरंतरता कायम रहे।

Lalitha Vaidyanathan: The Many Facets of Annapoorna

Shifting to a new city brings it\’s own set of challenges. But when you are young and single living out of a suitcase is easy. A child\’s play if you continue to manage this with wife, kids the works. When Ranvijay Yadav and I were transferred from Delhi to Mumbai, I had no clue it eventually would become my karmabhoomi.

Soon after landing it was Hiral Vora\’s mother who treated us to awesome breakfast at her place. Hiral’s mother passed away recently and I will always have fond memory of her treating us to lip smacking Gujarati food.

The PTI guesthouse in Chembur was a two bedroom setup. With neither Ranvijay nor me remotely interested in cooking the kitchen was of no use. Or so we thought till we met our colleague Lalitha Vaidyanathan who had other plans.

She gave us her utensils and electric rice cooker to atleast cook something in case of emergency. We used them for couple of years when Samod Sarngan, Rahul Tawade and gang arrived. I will save the kitchen tales for some other day.

A science reporter of repute, Lalitha would always always have something to eat for the team members. The fluffy idlis won hands down. I don\’t remember how many times we had her tiffin while she ate something else.

When my younger sister Yashasvita was diagnosed with cancer in 2007, I had just started my second stint with PTI and I asked her for help. Lalitha not only ensured that no one less than the then Tata Memorial Hospital director Dr Dinshaw examined my sister but she also chased them for the report as it was a complicated case with my sister in advanced stage of pregnancy. So much so that when we visited hospital again the doctors requested to please ask Lalitha not to call the director for reports.

Though I am much junior to her, over the years we have become friends and we start from where we left last time. Lalitha would be after my life to write stories and I would promise but forget about it the moment she left.

Today as she celebrates her birthday, I thought what better way to wish her other than writing about her. She has so many inspiring stories to share and she still continues to be keen learner.

Many happy returns of the day doc.

हमारा जीवन और इन्टरनेट की क्रांति

मुम्बई में अगर आपके रहने और खाने का बंदोबस्त है तो इस शहर में रहना बहुत आसान है। रहने का बंदोबस्त PTI ने कर दिया था और खाने का हमने खुद। इस वजह से कुछ पैसा बचा और जब थोड़ा बहुत पैसा इकट्ठा कर लिया तो सोचा मोबाईल लिया जाए।

आज के जैसे उन दिनों फ़्री काल जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी। और आपको दोनो इनकमिंग और आउटगोइंग दोनो के लिए पैसा देना पड़ता था। लेकिन मुझे टेक्नोलॉजी में शुरू से ही बडी रुचि रही है। इसलिए ये खर्चा कम और निवेश ज़्यादा लगा।

उसके बाद से तो जैसे रिलायंस ने मोबाइल क्रांति ले आया अपने धीरूभाई अंबानी ऑफर से। परिवार में सबने ये फ़ोन लिया और दिलवाया भी ये सोच कर की पैसा कम खर्च होगा। लेकिन उन्ही दिनों मेरी सगाई हुई थी तो बातों का सिलसिला काफी लंबा चला करता था। नतीज़न पैसे बचने की कोई उम्मीद सबने छोड़ दी थी सिवाय रिलायंस के। उन्हें तो मेरे जैसों ने ही खूब बिज़नेस कराया।

वो जो उठा पटक वाली बात मैंने एक पोस्ट में कही थी वो आज के इंटरनेट के बारे में थी। कंप्यूटर से मेरा साक्षात्कार बड़ी जल्दी हो गया था। जहां बाकी लोगों की तरह में भी उसमे पहले खेल खेलता था मेरा प्रयास यह रहता था कि कुछ और सीखने को मिल जाये। उस समय फ्लॉपी हुआ करती थी तो कुछ तिकड़म कर एक संस्थान का मासिक तनख्वाह का प्रोग्राम बना दिया।

उसके बाद आगमन हुआ इंटरनेट का। ये तो तय था ये कुछ बड़ा बदलाव लाएगा लेकिन कितना बड़ा इसका अंदाज़ा नहीं था। हाँ अपने उस समय के दोस्तों से मैं भी ये ज़रूर कहता कि एकदिन देखना सब ऑनलाइन मिलेगा। न अमेजान और न ही फ्लिपकार्ट के बारे में कुछ मालूम था। ये भी नहीं मालूम था कि एक दिन इसमें मेरा करियर बनेगा।

एक बड़ा तबका आज व्हाट्सएप और वीडियो देखने की क्षमता को ही इंटरनेट की बड़ी सफलता मानता है। लेकिन सही मायने में इसे इंटरनेट की जीत तब माना जायेगा जब उन लोगों के जीवन में एक ऐसा परिवर्तन लाए जिसकी कल्पना भी करना मुश्किल हो।

मुझे समय समय पर इस दिशा में कुछ करने का फितूर चढ़ता है और फिर वापस वही ढ़र्रे वाली ज़िन्दगी पर। हमको इस इंतज़ार का कुछ तो सिला मिले…

घर जाने की बात ही कुछ और

उस दिन जब शाम को एयरपोर्ट के लिए निकल रहा था तो टीम की एक मेम्बर बोलीं देखिए चेहरे की रौनक। लगता है घर जा रहे हैं। पता नहीं ऐसा क्या हो जाता है जब घर जाने का मौका आता है एक अलग ही उत्साह। जब PTI से दौड़ते भागते ट्रेन पकड़ता था 18 साल पहले तब भी और आज जब ट्रैफिक जाम से लड़ते हुए टैक्सी से एयरपोर्ट जाता हूँ तब भी।

दरअसल ये कहना ये खुशी घर जाने के कारण है सही नहीं है। घर तो यहाँ भी है दिल्ली में जिसमे मैं इन दिनों सोने जाता हूँ। ये असल में घरवाले हैं जो घर को रहने लायक बनाते हैं। फिर हम चाहे 2 कमरे के फ्लैट में हों या एक बड़े बंगले में।

वैसे बंगले में रहा नहीं हूँ तो इसलिए ज़्यादा नहीं जानता वहां रहना कैसा होता है। पला बढ़ा सरकारी घर में जो बहुत बड़े तो नहीं थे लेकिन उसमें रहते हुए ही परिवार की कई शादीयाँ हुई। मेहमानों से घर भरा हुआ है लेकिन सब मज़े में और आराम से। आज जब शादी में जाना होता है तो सबके अलग अलग कमरे हैं और सब किसी रस्म के दौरान या खाने पीने के समय मिल जाते हैं। खैर इस पर कभी और।

एक परिचित को किसी ने अपना नया घर देखने के लिए बुलाया। उन्हें बोला गया उस घर में अलग क्या होगा। ऐसी ही दीवारें होंगी, ऐसे ही खिड़की दरवाज़े होंगे। कोई ज़रूरत नहीं जाने की। अब ये बात भले ही मज़ाक कही हो लेकिन है तो सच। ईंट पत्थर की दीवारें होती हैं। घर तो घरवालों से बनता है। आप आलीशान घर में चले जाइये। सारी सुख सुविधाओं से लैस। लेकिन सुकून दूर दूर तक नहीं। और एक कमरे का घर आपको इतनी शांति देता है।

एक समय था जब ये गूगल देवी आपको अपने या किसी और के घर का रास्ता नहीं बता रही होतीं थी। तब घर ढूँढने के अलग मज़े थे। पता पूछते हुये कुछ ऐसे ही बातचीत हो जाती और चाय पीते पिलाते आप के नए दोस्त बन जाते। अब गूगल देवी तो आपको घर के बाहर तक छोड़ती हैं तो ऐसी चाय का मौका नहीं मिलता।

अगर मैं ये कहूँ की इस बहाने लड़की भी देख ली जाती थी तो? किसी का घर ढूँढने के बहाने लड़की देखी भी गयी और शादी पक्की भी हुई। परिवार में किसी की शादी की बात चल रही थी लेकिन लड़के ने ये ज़िम्मेदारी अपने परिजनों को दी। चूँकि बार बार लड़की के घर जाने पर ऐतराज़ था तो पता पूछने के तरीके को आज़माया गया। हाँ ये सुनिश्चित किया गया कि लड़की की फ़ोटो ध्यान से देखकर जाएँ जिससे कोई गड़बड़ न हो। आखिर ज़िन्दगी भर की बात है।

ऐसा कहते हैं मोबाइल ने दूरियों को मिटा दिया है। लेकिन जो मज़ा आमने सामने बैठ कर गप्प गोष्ठी करने में है वो वीडियो चैट में कहाँ। शायद उस दिन चेहरे की रौनक यहीं बयान कर रही थी।

जीवन एक चक्र है

जीवन एक चक्र है ऐसा सुना करते हैं लेकिन इसका एक साक्षात अनुभव पिछले दिनों हुआ। हालांकि इसका आभास तब हुआ जब मैं दिल्ली से भोपाल की ट्रेन यात्रा के लिए हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर शान-ए-भोपाल में बैठा।

यही वो स्टेशन है जिससे मैंने न जाने कितनी बार भोपाल की यात्रा करी जब मैंने अपना पत्रकारिता का करियर PTI से शुरू किया था। उन दिनों हज़रत निज़ामुद्दीन से ये ट्रेन नहीं थी और मुझे दिन के अलग अलग समय अलग अलग ट्रेन से सफर करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ऐसा इसलिए भी की PTI में शिफ्ट डयूटी हुआ करती है और समय अनुसार भोपाल की ट्रेन में चढ़ जाया करते थे। भोपाल के लिये ट्रेन की कोई कमी भी नहीं थी सो इतना कष्ट नहीं हुआ करता था। तनख्वाह इतनी ज्यादा नहीं हुआ करती थी सो सर्दी हो या गर्मी स्लीपर क्लास में ही सफर करते थे। कई बार ऐसे भी मौके आये की करंट टिकट लेकर जनरल कोच में दरवाज़े की सीढ़ियों पर बैठ कर भी सफर करना हुआ।

उन यात्राओं का बस एक ही आनंद होता था – घर जा रहें हैं तो सारे कष्ट माफ। और सच में सर्दी में ठिठुरते हुए या गर्मी में पसीना पोंछते हुए ये सफर बस यूं ही कट जाता था। मेरे उन दिनों के अभिन्न मित्र सलिल की ये डयूटी लगा रखी थी कि वो स्टेशन से मुझे घर पहुंचाए। और रात का कोई भी समय हो सलिल स्टेशन पर मौजूद l उन दिनों आज के जैसे मोबाइल फ़ोन तो हुआ करते थे लेकिन उनको रखना एक महँगा शौक हुआ करता था। तो सलिल तक संदेश पहुंचे कैसे? स्टेशन पहुँचकर टिकट खरीदने के बाद दूसरा काम हुआ करता था सलिल को एसटीडी पीसीओ से फ़ोन की साहब कब पधार रहे हैं।

एक बार कुछ ऐसा हुआ कि समय की कमी के चलते फ़ोन नहीं हो पाया। वो तो भला हो दूरसंचार विभाग का जिन्होंने प्लेटफार्म पर ये सुविधा उपलब्ध करा दी थी। बस फिर क्या जहां ट्रेन रुकी वहीं से फ़ोन और सवारी स्टेशन पर मौजूद। वैसे सलिल से ये सेवा मैंने मुम्बई से भी खूब कराई लेकिन उसके बारे में फिर कभी। फिलहाल चक्र पर वापस आते हैं।

PTI में रहते हुए ही तबादला मुम्बई हो गया और दिल्ली छूट गया। सच कहूँ तो दिल्ली छूटने का जितना ग़म नहीं था उससे कहीं ज़्यादा खुशी मायानगरी मुम्बई में काम करने की थी। फिल्मों का चस्का तो था ही उसपर मुम्बई में काम करने का मौका जैसे सोने पे सुहागा। दिल्ली बीच में कई बार काम के सिलसिले में आना हुआ लेकिन वो सभी प्रवास दौड़ते भागते ही निकल जाते।

जब नवंबर 15 को दिल्ली के हवाईअड्डे पर उतरा तो काफी मायूस था। मुम्बई छूटने का ग़म, परिवार से अलग रहने की तकलीफ और अपने खाने पीने का खुद इंतज़ाम करना बड़ा भारी लग रहा था। लेकिंन दिल्ली फिर से मेरी कर्मभूमि बनने वाली थी ऐसा मन बना लिया था।

वो तो जब आज रात ट्रेन में बैठा तो जैसे एक झटका लगा। इसी शहर से अपना सफर एक प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में शुरू करने के बाद आज में एक संपादक के रूप में वापस आया हूँ। जो सारे अनुभव दिल्ली से शुरू हो कर मुम्बई तक पहुंचे और जो मैंने मुम्बई की विभिन्न संस्थाओं से ग्रहण किया, उन सभी को आज फिर से दिल्ली में अपनी नई टीम के साथ न सिर्फ साझा करने का मौका मिलेगा बल्कि बहुत कुछ उनसे सीखने का मौका भी। और इस सफर की शुरुआत इसी दिल्ली से हुई थी जहां 17 वर्षों के बाद मैं वापस आया हूँ। आभार दिल्ली

We the pedestrians

\"GoLife is tough in Mumbai and a short walk to your destination only makes you realise the plight of the most neglected tribe: The Pedestrians. I too have been walking around for quite some time now but over the years it is becoming increasingly difficult to do so.

My first experience as a pedestrian made me wonder where was all the space that belonged to us, the pedestrians. But it was used for hawkers right under the nose and in front of the BMC officials. As a result you are forced to walk on road and during peak hours it really was some experience.

There also is a dedicated lane for BEST buses but no space for the pedestrians. Why in all these years the problem has been addressed is as easy or as difficult to answer if Congress has any future without the Gandhis?

Look around you. May be the road has recently been repaired. But will be repaired again. But the footpath which has some tiles missing or a manhole cover missing will remain like that for years to come.

The authorities concerned for reasons best known to them have turned a blind eye towards pedestrians.  We are adding more and more facilities for the car driver- flyovers, bridges etc. But have yet to see any step to improve the life of the pedestrian. The cyclists are the worst lot.

In the absence of efforts in this direction it looks difficult India will find a model to follow to address the problem of increasing traffic on its roads.