कोरोना से सीख: अनजाने में हौसलाफजाई औऱ हर हाल में मस्तमौला

कोरोना से सीख: स्थिति कैसी भी हो, सोच सकारात्मक रखें

सकारात्मक सोच पर ही बात आगे बढ़ाते हैं क्योंकि इस पर मुझे बहुत मदद मिली और वो भी बिल्कुल अनचाहे (लेक़िन बहुत ही कीमती ज्ञान)। पहली किश्त में मैंने भोजन वाली बात औऱ मेरे साथ वार्ड शेयर करने वाले एक वरिष्ठ नागरिक की सीख के बारे में बताया था, इस बार बिल्कुल उल्टा हुआ। एक वरिष्ठ नागरिक को उनके पुत्र सीख दे रहे थे।

ICU में मेरे बगल के बेड पर जो सज्जन भर्ती थे उनकी तबियत थोड़ी ऊपर नीचे चल रही थी। कभी तो सब ठीक रहता औऱ कभी थोड़ी चिंता की हालत रहती। रोज़ शाम को जब मिलने का समय रहता तो उनके पुत्र मिलने आते और उनसे बात करते। वो उन्हें बार बार समझाते और उन सज्जन के साथ मैं भी चुपचाप उनके पुत्र की हौसला बढ़ाने वाली बातें सुनता। इन सभी बातों का निश्चित रूप से मुझे भी लाभ हुआ क्योंकि मोबाइल बहुत सीमित समय के लिये इस्तेमाल कर पाता औऱ मिलने जुलने वाला कोई आना नहीं था (घर पर भी कोविड के मरीज़ थे)। तो अंकल जी के बाद शायद मुझे उनके पुत्रों का इंतज़ार रहता।

आपके आसपास ICU में मरीज़ रहते हों औऱ  कुछ न कुछ चलता रहता हो तो ये सकारात्मक बातें बहुत बड़ा टॉनिक हो जाती हैं। ICU के बाहर अपने रोज़ मर्रा के जीवन में भी ऐसे परिवारजन, रिश्तेदार और दोस्त हों तो आपके लिये बहुत मदद हो जाती है। वैसे तो हम सभी सकारात्मक सोच रखते हैं, लेक़िन शायद अपने अंदर। वो जो आजकल एक नई श्रेणी के वक्ता या कहें एक नया व्यवसाय बन गया है मोटिवेशनल स्पीकर वाला, उन अंकल के बेटे उन सब से कहीं बेहतर। कम समय में वो अंकल (और साथ में मुझे भी) नये हौसले से भर देते। मैं हमेशा उन अनजान लोगों का ऋणी रहूँगा।

सकारात्मक सोच का एक बिल्कुल दूसरा रूप देखने को मिला जब ICU से दूसरे वार्ड में शिफ़्ट हुआ। वैसे तो हमेशा अपग्रेड होना ही अच्छा लगता है लेक़िन ये वो डाउनग्रेड था जिसका मुझे इंतज़ार था। इस वार्ड में रोज़ एक युवा, जिसने शायद अभी स्कूल ख़त्म ही किया हो, बार बार आता। लेक़िन वो अपने काम से काम रखता। मतलब वार्ड में कुछ भी चल रहा हो ये महाशय की एंट्री होती और ये सीधे जाकर सेनेटाइजर से अपने हाथों को साफ़ करते और उसके बाद वो अपना कुछ काम करते। इस पूरे समय उनका ध्यान सेनेटाइजर औऱ अपनी कुछ परेशानी पर रहता। जैसे एक दिन शायद उनकी चप्पल काट रही थी तो को पहले अपने पैर पर कुछ लगाया फ़िर अपनी चप्पल पर टेप लगाते रहे। वो इस बात से बिल्कुल भी परेशान नहीं कि वो अस्पताल के एक वार्ड में हैं जहाँ मरीज़ हैं या डॉक्टर भी आते जाते रहते हैं। इस बंदे के जज़्बे को भी सलाम!

तो पहले भोजन का ज्ञान और फ़िर बीमारी से लड़ने का हौसला बढ़ाने वाली बातें और सकारात्मक सोच। इन सबका निचोड़ यही की मन के हारे हार, मन के जीते जीत। जो अगली सीख मिली वो थी कुछ पुरानी आदतें को छोड़ना नहीं चाहिये।

कोरोना से सीख: स्थिति कैसी भी हो, सोच सकारात्मक रखें

कुछ दिन पहले सकारत्मकता पर एक फेसबुक पोस्ट पढ़ी थी। दरअसल वो सकारात्मक रहिये के ज़रिए एक कटाक्ष था आजकल जो हालात चल रहे हैं। मैंने पढ़ने के बाद उस पोस्ट की लिंक भी नहीं रखी औऱ ढूंढने पर भी नहीं मिली। ख़ैर ये पोस्ट उस पोस्ट के न मिलने के बारे में तो नहीं है, हाँ सकारात्मकता के बारे में ज़रूर है।

ये कोरोना से लड़ाई का मेरा व्यक्तिगत अनुभव है औऱ इसकी कोई कहानी नहीं है। तो अस्पताल में 17 दिन, जिसमें एक हफ़्ता ICU, में बिताने के बाद, जब कहा गया आप घर जा सकते हैं तो ये पूरा सफ़र याद आ गया। अस्पताल से निकलते वक़्त कम और घर पर जब 10 दिनों के लिये फ़िर कमरा बंद अर्थात क्वारंटाइन हुये तब। लिखना हो नहीं पाया तो अब आपके साथ साझा कर रहा हूँ।

सबक 1: हमेशा अच्छा सोचें या Always Think Positive

जिस समय मुझे कोरोना हुआ उसी समय देश के अन्य हिस्सों में भी हालात ख़राब होने लगे। जिस सोसाइटी में रहता हूँ वहाँ भी बहुत केस आये जिसके चलते स्थानीय नगर पालिका ने सोसाइटी सील कर दी। अर्थात अंदर से कोई भी गाड़ी बाहर नहीं जा सकती औऱ वैसे ही कोई बाहर की गाड़ी भी अंदर नहीं आ सकती। सील होने का मतलब दोनों गेट पर बल्लियां लगा दी गयी। अपनी हालत वैसे तो गाड़ी चलाने लायक नहीं थी तो कोई बात नहीं थी लेक़िन जिन समझदार व्यक्तियों ने ये किया था शायद उन्होंने इमरजेंसी में गाड़ी दूर होने के बारे में सोचा नहीं होगा या कोई चलने में असमर्थ हो उसके पास क्या विकल्प है – ये भी नहीं सोचा होगा।

मुझे भी कोई विकल्प नहीं दिख रहा था। कोरोना के चलते कोई चाह कर भी आपकी मदद नहीं कर सकता। ऐसे में मेरे मददगार बने हमारे पुराने पडोसी एवं एक और कोविड पॉजिटिव पेशेंट आशीष जी। उनका पूरा परिवार कोविड की चपेट में आ गया था। परिवार से याद आया हम चार में से तीन लोग पॉज़िटिव थे। उस समय बेड थोड़े मुश्किल से मिल रहे थे लेक़िन आशीष भाई को फ़ोन पर जानकारी मिली औऱ घर के नज़दीक ही हॉस्पिटल में बेड भी मिल गया। जब ये ढूँढाई चल रही थी उस समय सोसाइटी के कुछ और लोग भी अपने स्तर पर पता कर रहे थे। अगर आपको मदद चाहिये तो अपनी सोसाइटी के व्हाट्सएप ग्रुप या आपके जो इतनी सारे बाकी ग्रुप हैं, स्कूल, कॉलेज, ऑफिस वाले, सभी पर अपनी जो ज़रूरत है वो साफ शब्दों में लिख कर पोस्ट करें। इन ग्रुप में अगर बहुत कुछ फ़ालतू चलता है तो बहुत से लोग मदद करने वाले भी होते हैं। औऱ एक मैसेज को फॉरवर्ड ही करना है तो ज़्यादा समय भी नहीं लगेगा। उसके बाद आप बात कीजिये क्योंकि बात करने से ही बात बनती है।

अब यहाँ से ज्ञान की वर्षा शुरू होगी जो तूफ़ानी तो नहीं होगी इतना यकीं दिला सकता हूँ।

जब अस्पताल में भर्ती हुआ तो लगा था एक हफ़्ते में वापस घर चले जायेंगे। पहली सीख अगले ही दिन मिली जब वार्ड में मेरे साथ रहने वाले एक वरिष्ठ नागरिक ने समझाया की खाना नहीं खाने से यहाँ औऱ समय लगेगा। इसलिये अपना खाना ठीक से खाओ। दरअसल उन्होंने रात में मुझे प्लेट में खाना छोड़ते हुये देखा था। उस दिन के बाद से जो भी खाने को मिलता सब बहुत आनंद के साथ खाता। कोई न नुकुर या कोई शिकायत नहीं। इसका श्रेय माँ को जाता है जिन्होंने खाने के बारे में कोई नखरे बचपन से ही नहीं पालने दिये। कोई सब्जी कम पसंद हो सकती है लेक़िन वो थाली में परोसी ज़रूर जायेगी।

वैसे तो मेरा ये मानना है की जो भी थाली में परोसा जाय उसको चुपचाप खा लेना चाहिये। औऱ खाने को लेकर वैसे भी कोई ज़्यादा नखरे नहीं है (मेरा मानना है)। लेक़िन उसके बाद भी मुझे लगभग रोज ही अपने नाश्ते की प्लेट लौटानी पड़ती। इसके बारे में अगली बार।

सीख: जानकारी ज़्यादा लोगों के साथ शेयर करें औऱ आपकी क्या ज़रूरत है उसे भी साफ साफ बतायें। जैसे मुझे बात करने से आशीष भाई का साथ मिला ऐसे आपको भी किसी आशीष की मदद मिलेगी। सोच सकारात्मक रखें।

अम्माँ

शाहरुख खान की फ़िल्म स्वदेस में कावेरी अम्माँ की तरह उन्होंने हमें पाला तो नहीं था लेकिन फ़िर भी हम सब उन्हें अम्माँ कहते हैं। उनको ऐसा कैसे बुलाना शुरू किया ये याद नहीं लेकिन घर के सभी सदस्य उन्हें अम्माँ ही बुलाते। शायद उनके माँ के जैसे प्यार करने के कारण ही उनको अम्माँ बुलाना शुरू किया होगा। आज अचानक अम्माँ की याद वो भी इतने लंबे समय बाद कैसे आ गयी?

दरअसल ट्विटर पर एक चर्चा चल रही थी कि कैसे हम अपने घर में काम करने वालों के साथ भेदभाव करते हैं। जैसे उनके खाने पीने के अलग बर्तन होते हैं, शहरों में कई सोसाइटी में काम करने वालों के लिये अलग लिफ़्ट होती है और रहवासियों के लिये अलग। काम करनेवाले उस लिफ़्ट का इस्तेमाल नहीं कर सकते।

इस सब को पढ़ते हुये अम्माँ का चेहरा सामने आ गया। याद नहीं कबसे उन्होंने हमारे घर काम करना शुरू किया। अम्माँ के पति की मृत्यु हो चुकी थी और उनकी कोई संतान नहीं थी। रिश्तेदार आस पास ही रहते थे लेकिन अम्माँ को भी ये पता था कि उनकी नज़र उनके पैसों पर है। शायद इसलिये एक दिन उन्होंने आकर बोला कि उनका एक बैंक खाता खुलवा दिया जाए। घर के पास वाले बैंक में जहाँ हमारा खाता था वहीं उनका भी खाता खुलवा दिया।

उनसे पहले भी कई काम करने वाले आये लेक़िन वो बस काम करती और निकल जातीं। अम्माँ कब सिर्फ़ एक काम करने वाली न होकर घर की एक सदस्य बन गयीं पता नहीं चला। उन्होंने भी कब हमको अपना मान लिया इसकी याद नहीं। उनके हाथ की बनी ज्वार की रोटी का स्वाद कुछ और ही था। अक्सर उनके डिब्बे से अदला बदली कर लेते और वो खुशी खुशी इसके लिये तैयार हो जातीं।

आज ट्विटर पर काफी सारे लोगों ने बताया कि कैसे लोग अपने घरों में काम करनेवालों के साथ व्यवहार करते हैं, कैसे दूसरी जाति के लोगों को सुबह सुबह देखना अपशकुन माना जाता है, कैसे काम करनेवाले जिस स्थान पर बैठते हैं उसको उनके जाने के बाद धो कर साफ किया जाता है इत्यादि।

मुम्बई में जो घर में काम करती हैं वो दरअसल बड़ी विश्वासपात्र हैं। कई बार उनके काम करने के समय हम लोग घर पर नहीं होते लेकिन वो पड़ोसियों से चाबी लेकर काम करके चली जाती हैं। कभी कोई विशेष आयोजन रहता है तो सबसे पहले वो ही भोजन ग्रहण करती हैं क्योंकि उन्हें जल्दी घर जाना होता है।

बाहर निकलिये तो अक्सर ऐसे जोड़े दिख जाते हैं जिनके बच्चों को संभालने के लिये आया रखी होती है। होटल में वो आया अलग बैठती है और उसका काम साहब और मेमसाब को बिना किसी परेशानी के खाना खाने दिया जाये यही होता है। अम्माँ तम्बाकू खातीं थीं तो उनको ऐसे ही चिढ़ाने के लिये मैं बोलता मसाला मुझको भी देना और वो मुझे डाँट कर भगा देतीं।

पिताजी जब रिटायर हुये तो अम्माँ का साथ भी छूट गया। हम सरकारी घर छोड़ कर नये घर में रहने आ गये। अम्माँ के लिये नया घर बहुत दूर हो गया था। शायद एक बार वो नये घर में आईं लेकिन उसके बाद से उनसे कोई संपर्क नहीं रहा। वो अभी भी भोपाल में हैं या महाराष्ट्र वापस आ गईं, किस हाल में हैं पता नहीं लेकिन यही प्रार्थना है कि स्वस्थ हों, प्रसन्न हों और वो मुस्कुराहट उनके चेहरे पर बनी रहे।

पत्र अपडेट: काफी लोगों से पतों का आदान प्रदान हुआ है और दोनों ही पार्टीयों ने जल्द ही पत्र लिखने का वादा किया है। पहले पत्र का बेसब्री से इंतज़ार है।

एसिड हमले की शिकार लक्ष्मी से एक मुलाक़ात

महिला दिवस पर एसिड अटैक पीड़िता लक्ष्मी से मुलाक़ात हुई तो उन्होंने इस दर्दनाक घटना के बाद परिवार से मिले सहयोग और कैसे उनके माता पिता ने उनको प्रेरित किया कि वो एक आम ज़िन्दगी जी सकें इस बारे में बताया। उस समय जब लक्ष्मी अपने भविष्य के सपने बुनने में लगी हुई थीं तब किसी ने उनके इंकार का ऐसा बदला लिया। लेकिन माता पिता ने उनके साथ खड़े होकर, कंधे से कंधा मिलाकर इस लड़ाई में उनका साथ दिया।

माता-पिता की हमारे जीवन में एक खास जगह होती है। हमारे पहले शिक्षक और आगे दोस्त भी बन जाते हैं। हाँ पहले बच्चों और पिता के बीच संवाद कम होता था तो ऐसे दोस्ती नहीं हो पाती थी। लेकिन धीरे धीरे ये दूरियां भी कम हुई और अब दोनों अच्छे दोस्त बनते हैं या बनने की कोशिश करते हैं।

माता पिता किस परेशानी का सामना करते हैं अपने बच्चों को अपने से बेहतर ज़िन्दगी देने के लिए इसका एक साक्षात उदाहरण पिछले दिन देखने को मिला। एयरपोर्ट से घर जिस टैक्सी में आ रहे थे उसके ड्राइवर राजकुमार ने थोड़ी देर चलने के बाद पूछा कि अगर मैं आपको बीच में कहीं उतार दूँ तो चलेगा। टैक्सी ड्राइवर कभी ईंधन भरवाने के लिए बोलते हैं लेकिन बीच में उतारे जाने का प्रस्ताव पहली बार आया था। राजकुमार इस बीच दो तीन बार पानी पी चुके थे। बीच बीच में धीमी आवाज़ में फ़ोन पर बात भी कर रहे थे।

जब पूछा तो उन्होंने बताया उनकी चार वर्ष की बिटिया एक घंटे से नहीं मिल रही थी। जब मैंने ये सुना तो समझ नहीं आया कि उनसे क्या कहूँ। बोला तो सब ठीक होगा, कहीं खेल रही होगी। लेकिन बीते दिनों ऐसी घटनाएँ हुई हैं कि एक डर भी था। फिर भी मैंने उनसे बात करने की कोशिश जारी रखी। राजकुमार घबराये हुए थे। उनकी जगह मैं होता और अगर दूर होता तो पता नहीं कैसे बर्ताव करता। लेकिन राजकुमार की ड्राइविंग बढ़िया चलती रही।

मानखुर्द से वाशी की तरफ चलते हुए उन्होंने ये बताया था। तय हुआ मुझे वाशी उतार कर वो अपने घर चले जायेंगे। वाशी नाके के ऐन पहले फ़ोन आया और राजकुमार धीरे धीरे बात करते रहे। जब हम आगे बढ़े तो जहाँ मुझे उतारना था उस रास्ते से आगे निकल गए। मैंने उन्हें बोला तो उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा ही मेरा जवाब था। बिटिया मिल गयी है। कहीं खेल रही थी। सब ठीक है।

लक्ष्मी के शब्दों में – हमारे माता पिता का जीवन ही हम सबके लिए बहुत बड़ी प्रेरणा है। बशर्ते हम उसके बारे में जाने और उनसे सीखें। राजकुमार की बिटिया की तरह शायद हम भी कितनी ही रातों या दिनों के बारे में अनजान रहते हैं जब घरवालों पर हमारी हरकतों के चलते पता नहीं क्या बीतती है। पूछेंगे तो पता चलेगा।

2007 ने सिखाया लड़ना ज़िन्दगी से और कैंसर से

साल 2007 ने सही मायनों में पूरी ज़िन्दगी बदल के रख दी। इसकी शुरुआत हुई थी अप्रैल के महीने में जब PTI से मुझे वापस मुम्बई के लिए बुलावा आया। सभी बातें मन के हिसाब से सही थीं तो एक बार फ़िर भोपाल को अलविदा कहने का समय आ चुका था। इस बार सीधे मुम्बई की ओर। जून में PTI जॉइन किया तब नहीं पता था कि एक महीने में क्या कुछ होने वाला है।

जब आपके सामने कोई विपत्ति आती है तो उस समय लगता है इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। लेकिन जब आप उससे बाहर निकलकर कोई दूसरी विपत्ति का सामना करते हैं तब फिर यही लगता है – इससे बडी/बुरी/दुखद बात कुछ नहीं हो सकती। ये एक प्रक्रिया है जो चलती रहती है।

कैंसर के बारे में सुना था। परिवार में मौसी को था लेकिन ज़्यादा मालूम नहीं था क्योंकि उनका निधन तभी हो गया था जब मैं छोटा था। बाकी जो इस बीमारी का डर था उसका पूरा श्रेय हिंदी फिल्मों को जाता है। कुल मिलाकर कैंसर का मतलब मौत ही समझ आया था।

छोटी बहन यशस्विता दोबारा माँ बनने जा रही थी। ये खुशखबरी मई में आई थी। जुलाई आते आते ये खुशी मायूसी में तब्दील हो गई। उनके शरीर में कैंसर पनप रहा था और इसकी पुष्टि टेस्ट के माध्यम से हो गई थी। दिल्ली के डॉक्टर्स ने तो अगले ही दिन एबॉर्शन करवा कर कैंसर के इलाज की समझाईश दी।

भोपाल से मुम्बई आने का कोई प्लान नहीं था। 2005 में जब मुम्बई छोड़ा था तो नही पता था 2007 में वापसी होगी। जो मैंने 2017 में दिल्ली आकर पहली पोस्ट लिखी थी उसमें कहा था ये जीवन एक चक्र है। आज फिर वही बात दोहराता हूँ। जो होता है उसके पीछे कोई न कोई कारण होता है। कई बार कारण जल्द पता चल जाते हैं कई बार समय लग जाता है।

दिल्ली के डॉक्टर्स के ऐसा कहने के बाद ये निर्णय लिया कि मुम्बई के टाटा हॉस्पिटल में भी एक बार दिखाया जाये और फिर कोई निर्णय लिया जाए। इस उम्मीद के साथ कि शायद पहले टेस्ट की रिपोर्ट गलत हो, यशस्विता, बहनोई विशाल और भांजी आरुषि मुम्बई आ गए। मेरी उस समय की PTI की सहकर्मी ललिता वैद्यनाथन ने टाटा हॉस्पिटल में बात कर जल्दी मिलने का समय दिलवाया। लेकिन टाटा के डॉक्टर्स ने भी शरीर में कैंसर की मौजूदगी कन्फर्म करी।

जो पूरा समय एक होने वाली माँ के लिए खुशी खुशी बीतना चाहिए था उसकी जगह चिंता और निराशा ने ले ली थी। सभी एक दूसरे को हिम्मत दे रहे थे। लेकिन चिंता सभी के लिये ये थी कि आगे क्या होगा। इस पूरे समय यशस्विता जो शायद हम सबसे कमज़ोर स्थिति में थीं दरअसल हम सबको हिम्मत दे रही थीं। एक या दो बार ही मेरे सामने मैंने उन्हें कमज़ोर पाया। नहीं तो उनके लड़ने के जज़्बे से हम सबको हिम्मत मिल रही थी।

आज विश्व कैंसर दिवस पर सलाम है टाटा हॉस्पिटल के डॉक्टर्स को जो मरीज़ो की इस लड़ाई में हर संभव सहायता देते है और सलाम है यशस्विता जिन्होंने कैंसर से लड़ते हुए एक पुत्र को जन्म दिया और आज इस बीमारी से लड़ने की प्रेरणा बन गयी हैं।

ज़िन्दगी का आनंद लें बेशक, बेफिक्र, बिंदास

फ़िल्म इंगलिश-विंगलिश में श्रीदेवी पहली बार अकेले विदेश यात्रा पर अपनी बहन के पास अमेरिका जाने के लिये हवाई जहाज से सफ़र कर रही होती हैं। अमिताभ बच्चन, जो उनके सहयात्री होते हैं उनसे पूछते हैं कि क्या वो पहली बार जा रहीं हैं और बातों बातों में एक अच्छी समझाईश उन्हें और हम सबको दे देते हैं।

\”पहली बार एक ही बार आता है। उसका भरपूर आनद लें। बेशक, बेफिक्र, बिंदास\”।

हम भी अपनी बहुत सारी पहली बातें याद रह जाती हैं। क्योंकि पहली बार की बात ही कुछ और होती है। ज़्यादातर ये मोहब्बत तक ही सीमित नहीं होती हैं। हाँ उसको याद रखने के बहुत सारे कारण हो सकते हैं। जैसे मुझे अपनी पहली तनख्वाह याद है और मैंने उसे कैसे खर्च किया ये भी।

ठीक उसी तरह मुझे हमेशा याद रहेंगे अपने पहले बॉस नासिर क़माल साहब। पत्रकारिता से दूर दूर तक मेरा कोई लेना देना नहीं था। इसकी जो भी समझ आयी वो उन्ही की देन है। चूंकि ये मेरी पहली नौकरी थी और अनुभव बिल्कुल भी नहीं था तो उनके लिए और भी मुश्किल रहा होगा। लेकिन उन्होंने एक बार भी ऊँची आवाज़ में बात नहीं करी और न मेरी लिखी कॉपी को कचरे के डब्बे में डाला।

उन दिनों टाइपराइटर पर लिखना होता था। वो उसी पर एडिट कर कॉपी को पढ़ने लायक बनातेे। वो खुद भी कमाल के लेखक। भोपाल के बारे में ऐसी रोचक कहानियाँ थीं उनके पास जिसका कोई अंत नहीं। कब वो बॉस से दोस्त बन गए पता नहीं चला। उनके जैसे सादगी से जीवन जीने वाले बहुत कम लोग देखें हैं।

भोपाल छुटा लेकिन हम हमेशा संपर्क में रहे। वो कुछ दिनों के लिये बैंगलोर भी गए लेकिन पत्रों का सिलसिला जारी रहा। बीच में एक ऐसा भी दौर आया कि मैंने पत्रकारिता छोड़ने का मन बना लिया और नासिर भाई को बताया। उन्होंने एक अच्छा ख़ासा ईमेल मुझे लिख कर समझाया और अपने निर्णय के बारे में पुनः विचार करने के लिये कहा।

आज उनका जन्मदिन है लेकिन वो मेरी बधाई स्वीकार करने के लिए हमारे साथ नहीं हैं। वो अपने जन्मदिन को लेकर भी थोड़े परेशान रहते। कहते सब लोग गांधीजी की पुण्यतिथि मना रहे हैं तो मैं कैसे अपना बर्थडे मनाऊं।

मुझे इस बात का हमेशा मलाल रहेगा कि उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। लेकिन साथ ही इसका फक्र भी रहेगा कि उन्होंने मुझ जैसे को भी लिखना सीखा ही दिया। मेरी खुशनसीबी की नासिर भाई मुझे मेरे पहले बॉस के रूप में मिले।

जिस तरह अच्छी टीम बनती नहीं बन जाती है उसी तरह अच्छे बॉस मिलते नहीं मिल जाते हैं।

बड़े होकर भी बनाये रखें बचपना

बचपन से मुझे हवाई जहाज देखने और उनके बारे में जानकारी इकट्ठा करने का बड़ा शौक़ था। जो छोटे छोटे मॉडल होते थे उनको भी में उतनी ही कौतूहलता से देखता जितना कि एक सामने खड़े हुए विमान को। परिवार में दो रिश्तेदार विमान सेवा का उपयोग करते और जब भी संभव हो में एयरपोर्ट जाने की भरपूर कोशिश करता। जितना करीब से देखने को मिल जाये उतना ही मन आनंदित हो उठता।

आसमान में उड़ते हुए छोटे से हवाई जहाज को खोज निकलना एक मजेदार खेल है जो में आज भी खेलता हूँ। कहीं न कहीं हम जब बड़े हो जाते (उम्र में) तो हमारे व्यवहार में भी वो उम्र छलकने लगती है। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि हमें अपना बचपना बनाये रखना चाहिए।

आज जब मुम्बई से दिल्ली वापसी के लिए एयरपोर्ट पर बैठा फ्लाइट का इंतज़ार कर रहा था तो अपनी पहली फ्लाइट याद आ गयी जो मुम्बई के एयरपोर्ट से ही थी। मैं अपने जीवन में पहली बार प्लेन में चढ़ा 2003 के अक्टूबर महीने में। वो छोटी सी फ्लाइट एक समाज सेवी संस्था द्वारा आयोजित की गई थी ज़रूरतमंद बच्चों के लिए। मुम्बई से शुरू और मुम्बई पर खत्म।

पहली फ्लाइट होने के कारण तो याद है ही, लेकिन इसलिए भी याद है कि मुंबई की गर्मी में एयरपोर्ट के अंदर की ठंडक श्रीनगर का एहसास करा रही थी। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी ठंड में कर्मचारी काम कैसे करते हैं। असलियत पता चली की मैं बहुत तेज़ बुखार से पीड़ित था और अगले कुछ दिन घर पर आराम कर गुज़ारे।

जब तक प्लेन में बैठे नहीं थे तब तक बड़ा आश्चर्य होता कि ये उड़ते कैसे हैं। रही सही कसर फिल्मों ने पूरी करदी। फिल्मों ने हमारी सोचने की शक्ति को भ्रष्ट कर दिया है। लेकिन आप आज अगर एयरपोर्ट जाएँगे तो देखेंगे समाज के हर तबके के लोग हवाई यात्रा का आनद ले रहे हैं।

लेकिन बर्ताव में ट्रेन या प्लेन के यात्रियों में कोई फर्क नहीं है। आज जब फ्लाइट लेट हुई तो यात्री एयरलाइन स्टाफ़ से लड़ने पहुंच गए और थोड़ी दिन बाद थक हार कर वापस पहुँच गए अपनी सीट पर। हाँ अब बहस थोड़ी अच्छे स्तर की होती है।
लेकिन उस बहस का क्या जिसके कोई मायने तो नहीं हैं लेकिन उसको करने में मज़ा भो बहुत आता है?

जीवन के सुखद हादसे

हम सभी के जीवन में जाने अनजाने ऐसे बहुत से सुखद हादसे होते हैं जो एक अमिट छाप छोड़ जाते हैं। अधिकतर जानने वाले इन दुखद घटना के ज़िम्मेदार होते हैं और अनजाने लोग सुखद यादों के पीछे। ऐसा मेरा अनुभव रहा है।

PTI के मुम्बई तबादले से पहले भी मेरा एक बार मुम्बई जाना हुआ था। उस समय मैं ग्रेजुएट होने वाला था और MBA के लिए तैयारी कर रहा था। नर्सी मोनजी कॉलेज के MBA का फॉर्म भरा और हिंदुस्तान पेट्रोलियम में कार्यरत निखिल दादा के भरोसे मुम्बई चल पड़े। वहाँ से सिम्बायोसिस की परीक्षा के लिए पुणे भी जाना था और बीच में शिरडी का भी प्रोग्राम बना लिया था। मुम्बई से आगे की ज़िम्मेदारी दादा ने लेली थी और मैं निश्चिन्त मुम्बई के लिए निकल पड़ा।

भोपाल से मुम्बई का ये सफर हमेशा याद रहेगा क्योंकि टिकट कन्फर्म नहीं हुआ लिहाज़ा जनरल कोच में सफर करना पड़ा। मैं पहली बार इस तरह की कोई यात्रा कर रहा था और सबने जितने भी तरीके से डराया जा सकता था, डराया। ख़ैर मायानगरी को अब तक सिनेमा के पर्दे पर ही देख था और साक्षात देखने का रोमांच ही कुछ और था। मुम्बई पहुँचे और निखिल दादा ने खूब घुमाया।

उन्ही दिनों मणिरत्नम की फ़िल्म बॉम्बे भी रिलीज़ हुई थी और दादा ने मुझे वो दिखाने का प्रस्ताव रखा। आज भी मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि मैंने फ़िल्म बॉम्बे मुम्बई में ही देखी। जिस समय ये सब अनुभव हो रहे थे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था एक दिन मैं यहाँ वापस आऊंगा और अपने करियर का सबसे ज़्यादा समय यहां बिताऊँगा।
खैर मुम्बई से शिरडी और फिर वहां से पुणे पहुंच गए। शिर्डी में रुकना नहीं था और पुणे में रुकने का इंतज़ाम नहीं था। पुणे स्टेशन के आस पास के लॉज और धर्मशाला ने मुझे कमरा, जगह देने से मना कर दिया। ये बात है गुरुवार की और परीक्षा थी रविवार को। ये तीन दिन कहाँ बिताएं और कैसे बिताएं ये सोचते हुए मैं पुणे स्टेशन के बाहर बैठा हुआ था।

मायूसी तो बहुत थी। विचारों में खोया हुआ और आंखों मैं आँसू लिये हुए शायद किसी ने देखा। वो शख्स मेरे पास आया और पूछा क्या तकलीफ में हो? अब जैसा होता है घर वालों की सभी सीख याद आने लगीं। फिर भी पता नहीं क्या बात हुई मैं उनके साथ उनके स्कूटर पर बैठ गया और उनके घर पहुंच गया। भाई ने कहा मेरे रूम पर रुक जाओ। पता चला वो भी भोपाल से ही हैं और रूम पर और प्राणी मिले इस शहर के। बस फिर क्या था, जो शहर कुछ समय पहले कुछ अजीब से विचार जगा रहा था, वो अपना लगने लगा।

रविवार की पुणे से भोपाल वापसी भी कम यादगार नहीं रही। एक बार फ़िर टिकट कन्फर्म नहीं हुआ और झेलम एक्सप्रेस से भोपाल की यात्रा खड़े खड़े करी। चूंकि परीक्षा देके सीधे आ रहा था तो शर्ट की जेब में पेन रखा था। लेकिन मई की गर्मी में इंक लीक हो गयी और भोपाल पहुँचते पहुँचते पूरी शर्ट का रंग बदल गया था। लेकिन घर जा रहे थे करीब 10 दिन बाद तो इसके आगे सारे रंग फ़ीके।

इस बात को करीब बीस वर्ष हो चुके हैं। लेकिन उस शख्स का नाम याद नहीं। भोपाल में किस गली मुहल्ले में रहते हैं पता नहीं। बस याद है तो उनका मुझे अपने घर पर सिर्फ इंसानियत के नाते रखना। याद है कि किसी ने बिना कुछ सोचे मुझे तीन दिन का आश्रय दिया।

आज भी उनके प्रति सिर्फ कृतज्ञता है और कोशिश की अपने आसपास के माहौल से प्रभावित न होकर ऐसे ही किसी असीम की मदद किसी रूप में कर सकूं और वो किसी और कि और बस ये अच्छाइयों का चक्र चलता रहे।

भोपाल में एक तूफ़ान मेरा इंतज़ार कर रहा है इस बात से अनभिज्ञ मैं घर वापस जा रहा था।