जादू नगरी से आया है कोई जादूगर

पिछले कई दिनों से फ़ेसबुक पर प्रेमचंद जी के बारे में कुछ न कुछ पढ़ने को मिल रहा था। तब ये नहीं पता था की उनकी जयंती है 31 जुलाई को। उनके जन्मस्थान के बारे में तो रट ही चुके थे स्कूल में लेक़िन बाक़ी जानकारी याद नहीं रही।

उनके बारे में ये नहीं पता था की वो मुम्बई भी आये थे। ये तो फेसबुक पर उनका पत्नी को लिखा पत्र किसी ने शेयर किया जिससे ये पता चला की वो लगभग तीन वर्ष मायानगरी में रहे। उनकी लिखी कहानियों पर फ़िल्म तो बनी हैं लेक़िन उन्होंने स्वयं किसी फ़िल्म की कहानी, संवाद या पटकथा लिखी इसका मुझे ज़रा भी ज्ञान नहीं।

उनके मुम्बई से लिखे पत्र पढ़कर मुझे अपने मुम्बई के दिन याद आ गए। जब साल 2000 में मेरा मुंबई तबादला हुआ तो कई मायने में ये एक सपने के सच होने जैसा था। इससे पहले मुम्बई आना हुआ था लेक़िन उस समय छात्र थे तो उसी तरह से देखा था। अब मैं एक नौकरीपेशा युवक था जिसकी ये कर्मभूमि बनने जा रही थी।

प्रेमचंद जी जब बम्बई आये थे तब वो शादीशुदा थे और पिता भी बन चुके थे। मेरे जीवन में इस अवस्था के आने में अभी वक़्त था। हाँ उनके जैसे परिवार की कमी मुझे भी खलती थी लेक़िन नौकरी भी थी। इसलिये जब भी घर की याद आती, भारतीय रेल ज़िंदाबाद। शायद ही कोई महीना निकलता जब भोपाल जाना नहीं होता। इसके लिये मेरे सहयोगियों ने बहुत मज़ाक भी उड़ाया लेक़िन घर के लिये सब मंज़ूर था।

इन्हीं शुरुआती दिनों में पहले मेरे उस समय के मित्र सलिल का आना हुआ और बाद में माता पिता और छोटी बहन भी आये। जिस समय मेरा तबादला हुआ उसी समय मेरी बुआ भी मुम्बई में रहने के लिये आयीं थीं तो कभी कभार उनके पास भी जाने का मौक़ा मिल जाता। कुल मिलाकर घर को इतना ज़्यादा याद नहीं किया। अकेले रहने का मतलब बाकी सभी काम का भी ध्यान रखना होता।

इसलिये जब प्रेमचंद जी ने लिखा की \”लगता है सब छोड़ कर घर वापस आ जाऊं\”, तो ये बात कहीं छू गयी। मुम्बई अगर बहुत कुछ देती है तो थोड़ा कुछ छीन भी लेती है। अब ये आप पर निर्भर करता है आप क्या खोकर क्या पाना चाहते हैं और क्या आप वो क़ीमत देने को तैयार हैं।

अमूमन जैसा लेखकों के बारे में पढ़ा है की वो लिखते समय एकांत पसंद करते हैं, उसके विपरीत प्रेमचंद जी का घर के प्रति, परिवार के सदस्यों के प्रति इतना लगाव कुछ समझ नहीं आया। इसलिये जब उनके जीवन से संबंधित और जानकारी पढ़ी तो पता चला कैसे बाल अवस्था में पहले अपनी माँ और उसके बाद अपनी दादी के निधन के बाद प्रेमचंद अकेले हो गये थे। शायद इसके चलते जब उनका परिवार हुआ तो उसकी कमी उन्हें बहुत ज़्यादा खली।

इसी दिशा में गूगल के ज़रिये पता चला की उनके पुत्र ने अपने पिता के ऊपर एक पुस्तक लिखी है और उनकी पत्नी ने भी। पुत्र अमृत राय ने \”प्रेमचंद – कलम का सिपाही\” लिखी और इसके लिये उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा भी गया। उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने \”प्रेमचंद घर में\” शीर्षक से किताब लिखी जो प्रेमचंद की मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई।

मेरी पढ़ने की लिस्ट में फिलहाल ये दोनों किताबें सबसे ऊपर हैं। प्रेमचंद की लिखी कौन सी क़िताब आपको बेहद पसंद है जिसे ज़रूर पढ़ना चाहिये? आप जवाब कमेंट कर बता सकते हैं।

मुम्बई जैसी कोई दूसरी जगह नहीं

मुम्बई-पुणे की पहली यात्रा के बारे में पहले बता चुका हूँ। जब दूसरी बार इसको कार्यस्थल बनाने का मौका मिला तो बिना कोई मौका गवाएँ मैंने हामी भर दी। एक बार भोपाल छुटा तो फिर सब जगह बराबर ही थीं। जुलाई 2000 में PTI ने मुंबई तबादला कर दिया और थोड़ा सा सामान और ढेर सारी यादों के साथ मायानगरी के लिये प्रस्थान कर दिया।

जो भी कोई मुम्बई आ चुका या रह चुका है वो ये समझेगा की मुम्बई जैसी कोई दूसरी जगह नहीं। आप शिकायत करते करते भी इसके तौर तरीके अपना लेते हैं और इसका एहसास आपको तब होता है जब आप कहीं और जाते हैं। मसलन यहाँ सुबह सब के लिये जल्दी होती है और दुकाने भी जल्दी खुल जाती हैं। कुछ दिनों बाद भोपाल गया तो लगा वहां सब चीज़ें स्लो मोशन में चल रहीं हैं।

मुम्बई पर वापस आते हैं। PTI ने चेम्बूर में एक फ्लैट को गेस्ट हाउस का नाम दे दिया था लेकिन ऐसी कोई सहूलियतें नहीं दिन थी। खाने का इंतज़ाम आपकी ज़िम्मेदारी थी। जल्द ही यहां कुछ नए प्राणी आने वाले थे और एक नीरस सा गेस्ट हाउस एक हंगामे वाली जगह बनने वाली थी।

मुम्बई लोकल में घुसना एक कला है जो आप धीरे धीरे सीख लेते हैं या यूँ कहें रोज़ रोज़ की धक्कामुक्की आपको सीखा देती हैं। शुरुआती हफ्ता थोड़ा समझने में गया। लेकिन फिर कौन सा डिब्बा पकड़ना है से लेकर कौन सी लोकल पकड़नी है सब सीखते गये। चेम्बूर के पास ही है तिलक नगर स्टेशन जिसने मुझे फिर से भोपाल से जोड़े रखा।

चेम्बूर में एक रेस्टॉरेंट है जहां प्रसिद्ध कलाकार, निर्माता, निर्देशक राज कपुर जी आते थे। एकाध बार खुद खा कर अपने आप को काफी गौरान्वित महसूस करने लगें लेकिन फिर ये भी सोचा कि आखिर ऐसा खास क्या हैं यहां के खाने में। लेकिन कोई मुम्बई आता तो उसको ज़रूर लेके जाते। इस उम्मीद पर की शायद वो बताएं। लेकिन सभी मेरे खयाल से मुझ जैसा ही रियेक्ट कर रहे थे।

PTI मुम्बई में काफी बदलाव हो रहे थे जब हमारा तबादला यहाँ किया गया। यह एक अलग चुनौती थी जिसका सामना करने के अलावा और कोई चारा नही था। लेकिन यहां के डेस्क और रिपोर्टिंग स्टाफ के सदस्यों ने बहुत ध्यान रखा। और ये इसका ही नतीजा है आज भी इन सभी से संपर्क बना हुआ है।

मुम्बई की बारिश का तब तक सिर्फ सिनेमा के पर्दे पर देख कर आनंद ही लिया था। उसके कहर को झेला नहीं था। लेकिंन वो दिन भी जल्दी आ गया जब ज़ोरदार बारिश के चलते मुम्बई ठप्प हो गयी थी। कैसे सामना किया इसका?

Lalitha Vaidyanathan: The Many Facets of Annapoorna

Shifting to a new city brings it\’s own set of challenges. But when you are young and single living out of a suitcase is easy. A child\’s play if you continue to manage this with wife, kids the works. When Ranvijay Yadav and I were transferred from Delhi to Mumbai, I had no clue it eventually would become my karmabhoomi.

Soon after landing it was Hiral Vora\’s mother who treated us to awesome breakfast at her place. Hiral’s mother passed away recently and I will always have fond memory of her treating us to lip smacking Gujarati food.

The PTI guesthouse in Chembur was a two bedroom setup. With neither Ranvijay nor me remotely interested in cooking the kitchen was of no use. Or so we thought till we met our colleague Lalitha Vaidyanathan who had other plans.

She gave us her utensils and electric rice cooker to atleast cook something in case of emergency. We used them for couple of years when Samod Sarngan, Rahul Tawade and gang arrived. I will save the kitchen tales for some other day.

A science reporter of repute, Lalitha would always always have something to eat for the team members. The fluffy idlis won hands down. I don\’t remember how many times we had her tiffin while she ate something else.

When my younger sister Yashasvita was diagnosed with cancer in 2007, I had just started my second stint with PTI and I asked her for help. Lalitha not only ensured that no one less than the then Tata Memorial Hospital director Dr Dinshaw examined my sister but she also chased them for the report as it was a complicated case with my sister in advanced stage of pregnancy. So much so that when we visited hospital again the doctors requested to please ask Lalitha not to call the director for reports.

Though I am much junior to her, over the years we have become friends and we start from where we left last time. Lalitha would be after my life to write stories and I would promise but forget about it the moment she left.

Today as she celebrates her birthday, I thought what better way to wish her other than writing about her. She has so many inspiring stories to share and she still continues to be keen learner.

Many happy returns of the day doc.

बस एक घर की तलाश है

दिल्ली आए हुए जल्द ही एक महीना हो जाएगा और शुरुआत हो गयी है एक घर की तलाश। जब मैं पहली बार दिल्ली और उसके बाद मुम्बई गया तो दोनों जगह PTI के गेस्ट हाउस में रहने का इंतज़ाम था। मुम्बई में घर ढूंढ़ने की नौबत काफी समय बाद आई। अब यहाँ पर समय कम है और दिल्ली की ठंड में रहने का ठिकाना ढूंढना है। वैसे मोबाइल ने बहुत सारी चीज़ें आसान कर दी हैं। जैसे घर की आप अपनी जरूरत को किसी वेबसाइट पर पोस्ट कर दें उसके बाद फोन पर फोन का जवाब देने के लिये तैयार हो जायें।

महानगरों में घर मिलना कोई मुश्किल नहीं है। बस आपके आफिस के पास ही नहीं मिलता। खुशनसीब हैं वो जिन्हें इन दौड़ते भागते शहरों में ऑफिस के पास रहने का ठिकाना मिल जाता है। मेरी तालाश भी कुछ ऐसी ही है। जब तक आप को एक जगह से दूसरी जगह नहीं जाना हो तब तक इस पूरे मामले का सिरदर्द समझ में नहीं आता है।

घर अच्छा हो, सोसाइटी अच्छी हो, सभी चीजें आसपास हो, बिजली पानी की सुविधा हो। हमारे बहुत सारे मापदंड होते हैं जिनका की हमें अंदाज़ा भी नहीं होता जब तक हम या तो अपने रहने की या काम करने की जगह नहीं बदलते। मुम्बई में तो हालत ऐसी है कि अगर वर वधु अलग अलग ट्रैन लाइन्स पर रहते है तो रिश्ता ही नहीं करते। ये सब मैंने सुना तो था लेकिन ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले उसके बाद लगा कि सचमुच् ऐसा ही है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मुम्बई के लड़के, लडक़ी दूसरे शहर में शादी ही नहीं करते? और कभी शादी के बाद वेस्टर्न लाइन से सेंट्रल लाइन शिफ्ट होना पड़े तो क्या वकीलों की सेवाएँ ली जाएंगी?

इतने दिन हो गए दिल्ली में लेकिन मुलाकात किसी से भी नहीं हो पाई है। हर हफ्ते हज़रत निज़ामुद्दीन पहुँच जाते हैं और फ़िर निकल पड़ते हैं एक और यात्रा पर। इन यात्राओं के अपने मज़े हैं और अपना एक सुररूर बिल्कुल वैसा जैसा मुझे महसूस हुआ जब मुम्बई में हमारी नज़रें पहली बार मिली थीं। भोपाल से दिल्ली फिर मुम्बई लगता है जैसे इस दिल का सफ़र अभी बहुत बाकी हैं।

जीवन एक चक्र है

जीवन एक चक्र है ऐसा सुना करते हैं लेकिन इसका एक साक्षात अनुभव पिछले दिनों हुआ। हालांकि इसका आभास तब हुआ जब मैं दिल्ली से भोपाल की ट्रेन यात्रा के लिए हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर शान-ए-भोपाल में बैठा।

यही वो स्टेशन है जिससे मैंने न जाने कितनी बार भोपाल की यात्रा करी जब मैंने अपना पत्रकारिता का करियर PTI से शुरू किया था। उन दिनों हज़रत निज़ामुद्दीन से ये ट्रेन नहीं थी और मुझे दिन के अलग अलग समय अलग अलग ट्रेन से सफर करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ऐसा इसलिए भी की PTI में शिफ्ट डयूटी हुआ करती है और समय अनुसार भोपाल की ट्रेन में चढ़ जाया करते थे। भोपाल के लिये ट्रेन की कोई कमी भी नहीं थी सो इतना कष्ट नहीं हुआ करता था। तनख्वाह इतनी ज्यादा नहीं हुआ करती थी सो सर्दी हो या गर्मी स्लीपर क्लास में ही सफर करते थे। कई बार ऐसे भी मौके आये की करंट टिकट लेकर जनरल कोच में दरवाज़े की सीढ़ियों पर बैठ कर भी सफर करना हुआ।

उन यात्राओं का बस एक ही आनंद होता था – घर जा रहें हैं तो सारे कष्ट माफ। और सच में सर्दी में ठिठुरते हुए या गर्मी में पसीना पोंछते हुए ये सफर बस यूं ही कट जाता था। मेरे उन दिनों के अभिन्न मित्र सलिल की ये डयूटी लगा रखी थी कि वो स्टेशन से मुझे घर पहुंचाए। और रात का कोई भी समय हो सलिल स्टेशन पर मौजूद l उन दिनों आज के जैसे मोबाइल फ़ोन तो हुआ करते थे लेकिन उनको रखना एक महँगा शौक हुआ करता था। तो सलिल तक संदेश पहुंचे कैसे? स्टेशन पहुँचकर टिकट खरीदने के बाद दूसरा काम हुआ करता था सलिल को एसटीडी पीसीओ से फ़ोन की साहब कब पधार रहे हैं।

एक बार कुछ ऐसा हुआ कि समय की कमी के चलते फ़ोन नहीं हो पाया। वो तो भला हो दूरसंचार विभाग का जिन्होंने प्लेटफार्म पर ये सुविधा उपलब्ध करा दी थी। बस फिर क्या जहां ट्रेन रुकी वहीं से फ़ोन और सवारी स्टेशन पर मौजूद। वैसे सलिल से ये सेवा मैंने मुम्बई से भी खूब कराई लेकिन उसके बारे में फिर कभी। फिलहाल चक्र पर वापस आते हैं।

PTI में रहते हुए ही तबादला मुम्बई हो गया और दिल्ली छूट गया। सच कहूँ तो दिल्ली छूटने का जितना ग़म नहीं था उससे कहीं ज़्यादा खुशी मायानगरी मुम्बई में काम करने की थी। फिल्मों का चस्का तो था ही उसपर मुम्बई में काम करने का मौका जैसे सोने पे सुहागा। दिल्ली बीच में कई बार काम के सिलसिले में आना हुआ लेकिन वो सभी प्रवास दौड़ते भागते ही निकल जाते।

जब नवंबर 15 को दिल्ली के हवाईअड्डे पर उतरा तो काफी मायूस था। मुम्बई छूटने का ग़म, परिवार से अलग रहने की तकलीफ और अपने खाने पीने का खुद इंतज़ाम करना बड़ा भारी लग रहा था। लेकिंन दिल्ली फिर से मेरी कर्मभूमि बनने वाली थी ऐसा मन बना लिया था।

वो तो जब आज रात ट्रेन में बैठा तो जैसे एक झटका लगा। इसी शहर से अपना सफर एक प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में शुरू करने के बाद आज में एक संपादक के रूप में वापस आया हूँ। जो सारे अनुभव दिल्ली से शुरू हो कर मुम्बई तक पहुंचे और जो मैंने मुम्बई की विभिन्न संस्थाओं से ग्रहण किया, उन सभी को आज फिर से दिल्ली में अपनी नई टीम के साथ न सिर्फ साझा करने का मौका मिलेगा बल्कि बहुत कुछ उनसे सीखने का मौका भी। और इस सफर की शुरुआत इसी दिल्ली से हुई थी जहां 17 वर्षों के बाद मैं वापस आया हूँ। आभार दिल्ली