रविवारीय: ये संग है उमर भर का

इस साल 26 जनवरी की बात है जब फ़िल्म रंग दे बसंती के बारे में पढ़ रहा था। वैसे तो इस फ़िल्म से जुड़ी बहुत सी बातें बेहद रोचक हैं औऱ मैंने लगभग मन भी बना लिया था क्या लिखना है, लेक़िन जब तक लिखने का कार्यक्रम हुआ तो कहानी बदल गयी।

आज जब लता मंगेशकर जी ने अपने प्राण त्यागे, तब लगा जैसे हर कहानी को बताने का एक समय होता है वैसे ही शायद उस दिन ये पोस्ट इसलिये नहीं लिखी गयी। फ़िल्म के बारे फ़िर कभी, फ़िलहाल इसके एक गाने के बारे में जिसे लता जी ने रहमान के साथ अपनी आवाज़ दी है।

जब फ़िल्म लिखी गयी थी औऱ उसके गाने तैयार हुये थे तब ये गाना उसका हिस्सा थे ही नहीं। फ़िल्म पूरी शूट हो गयी औऱ उसके पोस्ट प्रोडक्शन पर काम चल रहा था। रहमान जो फ़िल्म के संगीतकार भी हैं, इसका बैकग्राउंड संगीत भी दे रहे थे। जब आर माधवन की मृत्यु वाला सीन चल रहा था औऱ उसका बैकग्राउंड संगीत दिया जा रहा था तब निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा एवं गीतकार प्रसून जोशी को ये आईडिया आया। ये निर्णय लिया गया की उस पूरे प्रसंग के लिये संगीत के बजाय गाने का इस्तेमाल किया जायेगा।

दरअसल मेहरा बहुत दिनों से लता जी से इस गाने के बारे में बात कर रहे थे। लेक़िन किन्हीं कारणों से ये हो नहीं पा रहा था। जब लता जी से फ़िर से बात हुई औऱ वो गाने के लिये तैयार हुईं तो उन्होंने कहा गाना क्या है कुछ भेज दीजिए। मेहरा ने कहा आप रहमान को जानती हैं। उनका गाना तैयार होते होते होगा औऱ प्रसून जोशी जी लिखते लिखते लिखेंगे। लेक़िन मैंने शूटिंग करली है। उन्होंने राकेश मेहरा से पूछा क्या ऐसा भी होता है? मेहरा ने उन्हें बताया आजकल ऐसा भी होता है।

लता जी चेन्नई में रिकॉर्डिंग से तीन दिन पहले पहुँच कर गाने का रियाज़ किया औऱ तीसरे दिन जब रिकॉर्डिंग हुई तो पाँच घंटे वो स्टूडियो में खड़ी रहीं। राकेश मेहरा को भी लगभग 80 साल की लता मंगेशकर का काम के प्रति लगन देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। जब फ़िल्म का संगीत आया तो ये गाना बाक़ी सभी गानों के पीछे कहीं छुप से गया था। लेक़िन आज बड़ी तादाद में सुनने वाले इसको पसंद करते हैं।

अब किसी गाने में गायक, संगीतकार या गीतकार किसका सबसे अहम काम होता है? जब लता जी से पूछा गया कि उनका कोई गीत जिसे सुनकर उनके आँसूं निकल आते हों तो उन्होंने कहा \”गाने से ज़्यादा मुझे उसके बोल ज़्यादा आकर्षित करते हैं। अगर अच्छी शायरी हो तो उसे सुनकर आंखों में पानी आ जाता है।\”

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लता मंगेशकर औऱ मीना कुमारी। (फ़ोटो – लता मंगेशकर जी के फेसबुक पेज से साभार)

गानों को लेकर जो बहस हमेशा छिड़ी रहती है उसमें गायक औऱ संगीतकार को ही तवज्जो मिलती है। गीतकार कहीं पीछे ही रह जाता है। लता जी शायद शब्दों का जादू जानती थीं, समझती थीं इसलिये उन्होंने संगीत औऱ गायक से ऊपर शब्दों को रखा।

लता मंगेशकर जी को शायद एक बार साक्षात देखा था देव आनंदजी की एक फ़िल्म की पार्टी में। मुम्बई में काम के चलते ऐसी कई पार्टियों में जाना हुआ औऱ कई हस्तियों से मिलना भी हुआ। लेक़िन कभी ऑटोग्राफ़ नहीं लिया। अच्छा था उन दिनों मोबाइल फ़ोन नहीं होते थे।

ख़ैर, पीटीआई में जब काम कर रहे थे तब नूरजहां जी का देहांत हो गया। ये रात की बात है। उनके निधन पर हिंदी फिल्म जगत में सबकी प्रतिक्रिया ले रहे थे। नूरजहाँ को लता मंगेशकर अपना गुरु मानती थीं। लेक़िन लता जी मुम्बई में नहीं थीं। अब उनको ढूँढना शुरू किया क्योंकि उनकी प्रतिक्रिया बहुत ख़ास थी। देर रात उनको ढूँढ ही लिया हमारे संवाददाता ने औऱ उनकी प्रतिक्रिया हमें मिल ही गयी।

उनके कई इंटरव्यू भी देखें हैं। एक जो यादगार था वो था प्रीतिश नंदी के साथ। वैसे देखने में थोड़ा अटपटा सा ज़रूर है क्योंकि नंदी उनसे अंग्रेज़ी में ही सवाल करते रहे लेक़िन लता जी ने जवाब हिंदी में ही दिया। मेरे हिसाब से ये एकमात्र इंटरव्यू था जिसमें लता जी से प्यार, मोहब्बत औऱ शादी के बारे में खुल कर पूछा गया। हाँ ये भी है की लता जी ने खुलकर जवाब नहीं दिया। रिश्तों के ऊपर एक सवाल पर तो उन्होंने कह भी दिया की वो इसका जवाब नहीं देंगी।

इसी इंटरव्यू में जब उनसे ये पूछा गया की क्या वो दोबारा लता मंगेशकर बन कर ही जन्म लेंगी तो उनका जवाब था, \”न ही जन्म मिले तो अच्छा है। औऱ अगर वाक़ई जन्म मिला मुझे तो मैं लता मंगेशकर नहीं बनना चाहूँगी।\” जब पूछा क्यूँ, तो हँसते हुये लता जी का जवाब था, \”जो लता मंगेशकर की तकलीफ़ें हैं वो उसको ही पता है।\”

अब लता जी अपने गीतों के ज़रिये हमारे बीच रहेंगी।

यादों के झरोखे से: जब देव आनंद की वजह से शम्मी कपूर बने रॉकी

फ़िल्मों में अक़्सर ये होता रहता है कि निर्माता निर्देशक फ़िल्म किसी कलाकार को लेकर शुरू करते हैं लेक़िन फ़िर किन्हीं कारणों से बात नहीं बनती। फ़िर नये कलाकार के साथ काम शुरू होता है। पिछले हफ़्ते रिलीज़ हुई \’सरदार उधम\’ भी ऐसी ही एक फ़िल्म थी। निर्देशक शूजीत सरकार ने फ़िल्म की कल्पना तो इऱफान ख़ान के साथ करी थी लेक़िन उनकी बीमारी औऱ बाद में असामयिक निधन के बाद विक्की कौशल के हिस्से में ये फ़िल्म आयी। फ़िल्म है बहुत ही शानदार। अगर नहीं देखी है तो समय निकाल कर देखियेगा।

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हम आतें हैं इस पोस्ट पर वापस। यादों के झरोखों से आज देख रहें हैं हिंदी फ़िल्म जगत की एक ऐसी फ़िल्म जिसने सिनेमा का रंगढंग औऱ संगीत-नृत्य सब बदल डाला। आज नासिर हुसैन साहब की फ़िल्म \’तीसरी मंज़िल\’ को रिलीज़ हुये 55 साल हो गये। 1966 में रिलीज़ हुई इस बेहतरीन सस्पेंस फ़िल्म के गाने आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। औऱ अब तो ये जानते हुये भी की ख़ूनी ____ हैं इसको देखने का मज़ा कम नहीं होता। (ख़ूनी का नाम इसलिये नहीं लिखा क्योंकि अग़र किसी ने फ़िल्म नहीं देखी हो तो। वैसे आपको नोटिस बोर्ड पर फ़िल्म का सस्पेंस लिख कर लगाने वाला किस्सा तो बता ही चुका हूँ। आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं।

नासिर हुसैन ने ये फ़िल्म दरअसल देव आनंद के साथ बनाने का प्लान बनाया था। देव आनंद के भाई विजय आनंद भी नासिर हुसैन के प्रोडक्शन हाउस में काम कर रहे थे औऱ उनको राजेश खन्ना-आशा पारिख के साथ बहारों के सपने बनाने का ज़िम्मा दिया गया था।

फ़िल्म की कहानी का आईडिया जो नासिर हुसैन ने एक सीन में सुनाया था वो कुछ इस तरह था। दो सहेलियाँ दिल्ली से देहरादून जा रही हैं औऱ गाड़ी में पेट्रोल भरवा रहीं हैं पेट्रोल पंप पर। नायिका की बहन की मौत ही गयी तीसरी मंज़िल से गिरकर लेक़िन उसको लगता है वो क़त्ल था। वो बात कर रही हैं क़ातिल के बारे में। सहेली नायिका से पूछती है उसको पहचानोगी कैसे? नायिका बोलती है सुना है वो काला चश्मा पहनता है। उसी पेट्रोल पंप पर अपनी मोटरसाइकिल में पेट्रोल भरवाता हुआ युवक उनकी बात सुनकर अपना काला चश्मा उतार कर जेब में रख लेता है।

विजय आनंद ने हुसैन से पूछा आगे क्या होता है? वो कहते हैं पता नहीं। आनंद तब कहते हैं इसपर काम करते हैं औऱ इस तरह जन्म हुआ तीसरी मंजिल का।

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देव आनंद तीसरी मंज़िल के फोटो शूट के दौरान

सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था। देव आनंद ने बाकायदा फ़िल्म के लिये फ़ोटो शूट भी कराया था जिसमें वो ड्रम बजाते हुये दिख रहे हैं। लेक़िन बीच में आगयी अभिनेत्री साधना जी की सगाई। साधना का इस फ़िल्म से कोई लेना देना नहीं थी। फ़िल्म की अभिनेत्री तो आशा पारिख ही रहने वाली थीं।

हुआ कुछ ऐसा की साधना जी की सगाई में नासिर हुसैन औऱ देव आनंद के बीच कहासुनी हो गयी। दोनों ही महानुभाव ने नशे की हालत में एक दूसरे को काफ़ी कुछ सुनाया। दरअसल नासिर हुसैन ने देव आनंद को ये कहते हुये सुन लिया की नासिर ने उनके भाई विजय आनंद को एक छोटे बजट की ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म (बहारों की मंज़िल) वो भी पता नहीं किसी राजेश खन्ना नामक अभिनेता के साथ बनाने को दी है। लेक़िन वो ख़ुद तीसरी मंजिल जैसी बड़ी, रंगीन फ़िल्म निर्देशित कर रहे हैं।

नासिर हुसैन इतने आहत हुये की उन्होंने अगले दिन विजय आनंद को तीसरी मंजिल का निर्देशक बना दिया औऱ स्वयं बहारों की मंज़िल का निर्देशन का ज़िम्मा उठाया। इसके साथ ही उन्होंने एक औऱ बड़ा काम कर दिया। उन्होंने देव आनंद को तीसरी मंज़िल से बाहर का रास्ता दिखा दिया। जब उनकी जगह किसको लिया जाये पर विचार हुआ तो शम्मी कपूर साहब का नाम आया। जब शम्मी कपूर को ये पता चला की देव आनंद को हटा कर उनको इस फ़िल्म में लिया जा रहा है तो उन्होंने इस शर्त पर काम करना स्वीकार किया की देव आनंद ये कह दें की उन्हें कपूर के इस फ़िल्म में काम करने से कोई आपत्ति नहीं है।

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शम्मी कपूर फ़िल्म की शूटिंग के दौरान

देव आनंद ने अपनी स्वीकृति दे दी औऱ नतीजा है ये तस्वीर। लेक़िन ये सब NOC (नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट) के बाद ऐसा नहीं हुआ कि फ़िल्म शुरू हो गयी। नासिर हुसैन के पास कहानी औऱ कलाकार दोनों थे लेक़िन उनकी फ़िल्म में संगीत का बहुत एहम रोल होता है। उन्हें तलाश थी एक संगीतकार की। किसी कारण से वो ओ पी नय्यर, जो उनकी पिछली फ़िल्म फ़िर वही दिल लाया हूँ के संगीतकार थे, उनको वो दोहराना नहीं चाहते थे।

शम्मी कपूर जब फ़िल्म का हिस्सा बने तो उन्होंने संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन का नाम सुझाया औऱ कोशिश करी की वो फ़िल्म का संगीत दें। लेक़िन इसी बीच आये आर डी बर्मन। अब बर्मन दा का नाम कहाँ से आया इसके बारे में कई तरह की बातें हैं। ऐसा माना जाता है गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी साहब, जिन्होंने राहुल के पिता एस डी बर्मन के साथ कई फिल्मों में काम किया था, उन्होंने उनका नाम सुझाया। नासिर हुसैन ने मजरूह के कहने पर मुलाकात करी। ख़ुद आर डी बर्मन ने भी मजरूह सुल्तानपुरी साहब को इसका श्रेय दिया है।

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शम्मी कपूर को इसका भरोसा नहीं था की आर डी बर्मन फ़िल्म के लिये सही संगीतकार हैं। लेक़िन जब उन्होंने धुनें सुनी तो वो नाचने लगे औऱ वहीं से शुरू हुआ बर्मन दा, नासिर हुसैन एवं मजरूह सुल्तानपुरी का कारवां। फ़िलहाल बात तीसरी मंजिल की चल रही है तो कारवां की बातें फ़िर कभी।

जब फ़िल्म बन रही थी उसी दौरान शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली का निधन हो गया। फ़िल्म का सेट लगा हुआ था लेक़िन नासिर हुसैन साहब ने इंतज़ार करना बेहतर समझा। कुछ दिनों के बाद भी शम्मी कपूर काम करने को तैयार नहीं थे। विजय आनंद घर से उनको ज़बरदस्ती सेट पर लेकर आ गये। लेक़िन शम्मी कपूर बहुत दुःखी थे औऱ उन्होंने बोला उनसे ये नहीं होगा। विजय आनंद ने कहा एक बार करके देखते हैं अगर नहीं होता है तो काम रोक देंगे।

उस समय तुमने मुझे देखा होकर मेहरबां गाने की शूटिंग चल रही थी। फ़िल्म में ये गाना एक ऐसे मोड़ पर आता है जब नायक को लगता है नायिका को उनसे मोहब्बत हो गयी है औऱ इसी ख़ुशी में वो ये गाना गा रहे हैं। लेक़िन असल में बात कुछ औऱ ही थी। ख़ैर, शम्मी जी तैयार हुये औऱ शूटिंग शुरू हुई। सब कुछ ठीक हुआ औऱ जैसे ही शॉट ख़त्म हुआ सब ने तालियाँ बजायी। लेक़िन विजय आनंद को कुछ कमी लगी तो उन्होंने शम्मी कपूर से कहा एक टेक औऱ करते हैं।

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इतने समय बाद शम्मी कपूर वापस आये थे औऱ काम शुरू ही किया था। सबको लगा आज कुछ गड़बड़ होगी। लेक़िन जब शम्मी जी ने रिटेक की बात सुनी तो वापस पहुँच गये शॉट देने। सबने राहत की साँस ली। थोड़े आश्चर्य की बात है की इतनी बड़ी हिट फिल्म देने के बाद नासिर हुसैन औऱ शम्मी कपूर ने इसके बाद दोबारा साथ में काम नहीं किया।

तीसरी मंज़िल के बाद विजय आनंद ने भी कभी नासिर हुसैन के साथ दोबारा काम नहीं किया। नासिर हुसैन ने भी इस फ़िल्म के बाद बाहर के किसी निर्देशक के साथ काम नहीं किया। अपने बैनर तले सभी फ़िल्मों का निर्देशन उन्होंने स्वयं किया। जब उन्होंने निर्देशन बंद किया तो उनके बेटे मंसूर खान ने ये काम संभाला। उसके बाद से अब ये प्रोडक्शन हाउस बंद ही है।

तीसरी मंजिल वो आख़िरी नासिर हुसैन की फ़िल्म थी जिसके सभी गाने मोहम्मद रफ़ी साहब ने गाये थे। दोनों ने साथ में काम जारी रखा लेक़िन अब किशोर कुमार का आगमन हो चुका था। वैसे रफ़ी साहब को नासिर हुसैन की हम किसी से कम नहीं फ़िल्म के गीत \”क्या हुआ तेरा वादा\’ के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

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तीसरी मंज़िल से जुड़ी एक औऱ बात। ये जो तस्वीर है ये है सलमान खान के पिता सलीम खान। लेखक बनने से पहले उन्होंने कुछ फिल्मों में काम किया था उसमें से एक थी तीसरी मंज़िल। शम्मी कपूर आशा पारेख औऱ हेलन, जिनके साथ उन्होंने बाद में विवाह किया, को आप फ़िल्म के पहले गाने \’ओ हसीना ज़ुल्फोंवाली\’ में देख सकते हैं।

इसी गाने से जुड़ी एक बात के साथ इस पोस्ट का अंत करता हूँ। फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद एक सज्जन ने गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी से इस गाने के बोल को लेकर सवाल किया की, \’मजरूह साहब क्या आप ये कहना चाहते हैं उस एक हसीना की ही ज़ुल्फ़ें हैं? क्या बाक़ी हसीनाओं के बाल नहीं हैं? क्या वो गंजी हैं?\’

अग़र फ़िल्म देखने के इच्छुक हों तो यूट्यूब पर देख सकते हैं। लेक़िन संभाल कर। देखना शुरू करेंगे तो उठना मुश्किल होगा। फ़िल्म की शुरुआत ही ऐसी है की आप जानना चाहते हैं आगे क्या होगा। खाने पीने की तैयारी के साथ मज़ा लें तीसरी मंजिल का।

ऐ ज़िन्दगी, ये लम्हा जी लेने दे

गुलज़ार साहब का गीत आनेवाला पल जानेवाला है देखने से पहले सुना था। जी आपने बिल्कुल सही पढ़ा है। उस समय गाने सुने ज़्यादा जाते थे और देखने को मिल गये तो आपकी किस्मत। गाना है भी बड़ा फिलासफी से भरा हुआ। उसपर किशोर कुमार की आवाज़ और आर डी बर्मन का संगीत।

फरवरी के अंतिम सप्ताह में श्रीमती जी से चाय पर चर्चा हो रही थी की कितनी जल्दी 2020 के दो महीने निकल गये। बच्चों की परीक्षा शुरू हो गयी और उसके बाद समय का ध्यान बच्चों ने रखा। लेकिन होली आते आते कहानी में ट्विस्ट और ट्विस्ट भी ऐसा जो न देखा, न सुना।

पिछले लगभग दो हफ्तों में दो बार ही घर से बाहर निकलना हुआ। अब घर के अंदर दो हफ़्ते और क़ैद रहेंगे। इतनी ज़्यादा उथलपुथल मची हुई है की लगता है जब ये सब ख़त्म हो जायेगा तो छोटे छोटे सुख का फ़िर से अनुभव करूँगा। जैसे पार्क में सैर करने जाना, किसी से बात करना, किसी चाय की दुकान पर बैठकर चाय पीना और अपने आसपास लोगों को देखना।

सोशल मीडिया के चलते सूचना की कोई कमी नहीं है बल्कि ओवरडोज़ है। लेकिन इन सब में एक बात समान है – सब उम्मीद से भरे हैं की ये समय भी निकल जायेगा। सब एक दूसरे से जुड़े हुये हैं और एक दूसरे को हिम्मत भी दे रहे हैं। मैंने इससे पहले ऐसी कोई घटना अगर देखी थी तो वो भोपाल गैस त्रासदी के समय थी। उस समय ये नहीं मालूम था हुआ क्या है बस इतना मालूम था लोगों को साँस लेने में तक़लीफ़ थी। उसके बाद कुछ दिनों के लिये शहर बंद हो गया था और हम सब भी ज़्यादातर समय घर के अंदर ही बिताते। कपड़े में रुई भरकर एक गेंद बना ली थी और इंडोर क्रिकेट खेला जाता था।

टीवी उस समय नया नया ही आया था लेक़िन कार्यक्रम कुछ खास नहीं होते थे। दिनभर वाला मामला भी नहीं था। दूरदर्शन पर तीन चार शिफ़्ट में प्रोग्राम आया करते थे। आज के जैसे नहीं जब टीवी खोला तब कुछ न कुछ आता रहता है। अगर कुछ नहीं देखने लायक हो तो वेब सीरीज़ की भरमार है। आपमें कितनी इच्छा शक्ति है सब उसपर निर्भर करता है।

लेकिन गाने सुनने का कोई सानी नहीं है। आप अपना काम करते रहिये और गाने सुनते रहिये। आज जब ये गाना सुना तो इसके मायने ही बदल गये। आनेवाले महीनों में क्या होने वाला है इसकी कोई ख़बर नहीं है। लेक़िन ज़रूरी है आज के ये लम्हे को भरपूर जिया जाये। ऐसे ही हर रोज़ किया जाये। जब पीछे मुड़कर देखेंगे तो वहाँ दास्ताँ मिलेगी, लम्हा कहीं नहीं।

https://youtu.be/AFRAFHtU-PE

हर कोई चाहता है एक मुठ्ठी आसमान, हर कोई ढूँढता है एक मुट्ठी आसमान

ये एक बेमानी सी बहस है लेकिन ये उस समय की बात है जब शायद मुझे कला और कलाकारों की पहचान नहीं थी।परिवार में सबकी अपनी अपनी पसंद होती है और मुझे किशोर कुमार की आवाज़ मोहम्मद रफ़ी से ज़्यादा पसंद थी। तो इसको लेकर बहस छिड़ गई और दोनों पक्ष अपने अपने गायक के गानों की लिस्ट लेकर सुनाने लगे। दोनों ही गायक लाजवाब और उनके गाये हुये गीत भी। लेकिन मुझे किशोर कुमार ज़्यादा पसंद हैं और इसमें मैं कुछ श्रेय उन गीतकारों को भी देता हूँ क्योंकि गाने के बोल ही कहीं न कहीं आपको छू जाते हैं और आपके सिस्टम का एक हिस्सा बन जाते हैं। आज जब बहुत दिनों बाद लिखने का मन हुआ तो किशोर दा की याद आ गयी। आज उनका जन्मदिन है तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती से वापस लिखना शुरू करने के लिये।

मौसम प्यार का

कुछ गाने होते हैं जो आपको अपने साथ ले जाते हैं या यूं कहें की आप बह जाते हैं। ये उनमें से एक गाना है। आर डी बर्मन, मजरूह सुल्तानपुरी और किशोर कुमार ने पर्दे के पीछे से प्यार से भरे हुये ये गाने को पर्दे पर बख़ूबी से निभाया ऋषि कपूर और पूनम ढिल्लों ने। जब पिछले दिनों पूनम जी से एयरपोर्ट पर मुलाक़ात हुई तो ये गाना ही याद आ गया था।

मेरी भीगी भीगी सी

https://youtu.be/3JsbLjT-HPI

संजीव कुमार और जया भादुड़ी की ये फ़िल्म दूरदर्शन पर देखी थी। गाने की समझ बहुत बाद में आई। मजरूह सुल्तानपुरी साहब, आर डी बर्मन और किशोर दा।

आये तुम याद मुझे

कई यादें हैं इस गाने के साथ। आज भी रात में ये गाना सुन कर एक सुकून से मिलता है। फ़िल्म में अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी के बीच चल रही उधेड़बुन इस गाने में दिखती है। इसी फिल्म का बडी सूनी सूनी है भी किशोर कुमार का एक बेहतरीन गानों में से एक है।

मेरे महबूब क़यामत होगी

ये भी दूरदर्शन पर देखी फ़िल्म से याद है। एक बहुत ही उम्दा गाना जिसके बोल हैं आनंद बक्शी और संगीत है लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी का

हर कोई चाहता है

https://youtu.be/G891E7LzCoQ

इस गाने के दो भाग हैं। एक खुशी वाला जिसमें ये जीवन का फ़लसफ़ा हल्के अंदाज़ में है और दूसरा थोड़ा संजीदा तरीके का है। दोनों के माने एक ही हैं बस कहने का अंदाज़ अलग है और क्या खूबसूरती से गाया है किशोर कुमार ने मदन मोहन की इस धुन को। बोल हैं

https://youtu.be/lIOhSl9CDsw

ज़िन्दगी आ रहा हूँ मैं

बहुत ही आशावादी गाना जिसके बोल लिखे हैं जावेद अख्तर साहब ने और संगीत है हृदिय्नाथ मंगेशकर जी का

ज़िन्दगी के सफ़र में

ज़िन्दगी का फलसफा जिसे लिखा आनंद बक्शी साहब ने और जिसे अमर बना दिया किशोर दा की आवाज़ नें

मुसाफ़िर हूँ यारों ना घर है ना ठिकाना

गुलज़ार साहब का लिखा गीत और एक बार फ़िर आर डी बर्मन और किशोर दा साथ में।

मुझे आज भी आश्चर्य होता है की किशोर कुमार मुम्बई एक हीरो बनने आये थे लेकिन वो गायक बन गये। अगर सच में उन्हें हीरो ही बनने का मौका मिलता जाता तो क्या हम इस आवाज़ से मेहरूम हो जाते। बिना किसी तालीम के उन्होंने ऐसे ऐसे गाने गाए हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलते जा रहे हैं। इसका उदाहरण आप स्पॉटीफाई के विज्ञापन में देख सकते हैं।

गोलमाल है भाई सब गोलमाल है!

1979 में आयी हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म एक बेरोज़गार युवक के बारे है जो नौकरी पाने और फ़िर उसी नौकरी को बचाने के लिये एक के बाद एक झूठ बोलता है।

फ़िल्म में अमोल पालेकर ने राम प्रसाद का किरदार निभाया था। उनके बॉस भवानी शंकर के रूप में उत्पल दत्त थे और उनकी बेटी बनी बिंदिया गोस्वामी। राम प्रसाद नौकरी के लिये पूरे हिंदुस्तानी बन सिर्फ कुर्ता-पाजामा ही पहनते हैं। सिर में ढेर सारा तेल और मूछें रखते हैं। उन्हें खेल में कोई दिलचस्पी नहीं है और वो बहुत ही धार्मिक बनते हैं। ये सब वो सिर्फ और सिर्फ एक नौकरी के लिये करते हैं।

झूठ बोल कर मैच देखने पर पकड़े जाते हैं और फ़िर जन्म होता है उनके छोटे भाई लक्ष्मण प्रसाद का जिसे बिंदिया गोस्वामी अपना दिल दे बैठती हैं। ऐसे ही और झूठ बोलते हुये अमोल पालेकर और उनकी बहन अपनी दिवंगत माता को भी जीवित कर देते हैं दीना पाठक के रूप में। ये सब एक नौकरी बचाने के लिये होता है औऱ इसमें अमोल पालेकर की बहन, दोस्त परिवार के बड़े सब शामिल होते हैं।

आप में से अधिकांश लोगों ने ये फ़िल्म देखी होगी। रोहित शेट्टी ने इसी शीर्षक से चार फिल्में बना डाली हैं लेकिन उनका पहली आयी फ़िल्म से कोई रिश्ता नहीं है। सभी फिल्में कॉमेडी हैं और

कल से अमोल पालेकर का एक वीडियो चल रहा है जिसमें एक समारोह में उन्हें मंत्रालय के खिलाफ बोलने पर टोकने को लेकर बवाल मचा हुआ है। वीडियो में पालेकर मंत्रालय के कुछ निर्णय के ख़िलाफ़ बोलना शुरू करते हैं और उनसे कहा जाता है कि आप विषय से भटक रहे हैं और आप जिस कलाकार की प्रदर्शनी का उद्घाटन करने आये हैं उस बारे में बोलें। पालेकर जी ने पूछा कि क्या उन्हें बोलने की स्वतंत्रता नहीं है? इस पर उन्हें फ़िर से बताया आप बोल सकते हैं लेकिन इस मंच पर आप अपने विचार सिर्फ़ उसी विषय तक सीमित रखें जिसका ये आयोजन है।

बस। तबसे सब ने इसे फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन अर्थात विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता पर एक वार बताया है। इसके पक्ष और विपक्ष में सब कूद पड़े। बाद में पालेकर जी ने बताया कि उन्हें विभाग के कुछ निर्णय से ऐतराज़ था जिसे उन्होंने उस मंच से उठाना चाहा।

1970-80 के दशक में अमोल पालेकर ने गोलमाल, चितचोर, बातों बातों में, रंगबिरंगी, छोटी सी बात, रजनीगंधा, दामाद आदि जैसी कई फिल्में करीं जो दर्शकों को काफ़ी पसंद आई। उसके बाद बतौर निर्देशक भी उन्होंने काफी सारी फिल्में बनायीं।

मेरी पालेकर जी से कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं है पर मुझे लगता है उस मंच का उपयोग उन्हें मंत्रालय से संबंधित अपनी शिकायतों के लिये नहीं करना चाहिए था। जिन बातों का ज़िक्र वो कर रहे हैं वो नवंबर की हैं। अगर वाकई उन्हें इस विषय पर कोई शिकायत थी तो उन्हें इतना समय क्यों लगा। वो इस विषय पर पत्रकार वार्ता भी कर सकते थे। अगर आपने दीपिका पादुकोण और रनवीर सिंह की शादी के मुम्बई रिसेप्शन का वीडियो देखा हो तो उसमें मुकेश अम्बानी के आने पर एक फोटोग्राफर ने चिल्ला कर कहा सर यहाँ नेटवर्क नहीं आ रहा।

अमोल पालेकर का मंच का उपयोग उस फोटोग्राफर के जैसे लगा। मैं उनके सारे विषय से सहमत हूँ लेकिन मंच की और कार्यक्रम की मर्यादा रखना उनका धर्म है। अगर शाहरुख खान उनकी फिल्म पहेली में रानी मुखर्जी के साथ फ़िल्म चलते चलते के गाने तौबा तुम्हारे ये इशारे पर थिरकने लगते तो क्या अमोल पालेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इसे चलने देते?

मौके पर मौजूद मंत्रालय के अधिकारी भी राम प्रसाद की तरह अपनी नौकरी ही बचा रहे थे। हाँ उसके जैसे झूठ नहीं बोल रहे थे।