कल भी आज भी कल भी, इन यादों का सफ़र तो रुके न कभी 2

रेडियो सी जुड़ी यादें जो साझा करीं थीं उसमें से कुछ छूट से गया था इसलिये इसकी दूसरी क़िस्त।

रेडियो जिंदगी का एक अभिन्न अंग सा रहा एक लंबे समय तक। जब पहली बार मुम्बई आया तब निखिल दादा के पास एक रेडियो था। वो जब दफ़्तर चले जाते तब रेडियो ही दिन भर का साथी रहता। उस समय पहली बार प्राइवेट एफएम रेडियो चैनल को सुना लेक़िन कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया। उसका कारण था उस चैनल पर आने वाले अंग्रेज़ी गीत। बहुत ज़्यादा अग्रेज़ी गाने तो सुने नहीं थे, जो एक दो गायक को जानते थे अब दिन भर तो उनके गाने नहीं चल सकते थे। तो बस थोड़ा सा कुछ सुनकर बंद कर देता।

जब काम के सिलसिले में दिल्ली आना हुआ तब तक एक दो एफएम चैनल शुरू हो गये थे। लेक़िन उनके कार्यक्रम कुछ ज़्यादा पसंद नहीं आये। शायद उसका कारण रहा वो नया फॉरमेट जिसमें RJ अपना ज्ञान देता औऱ फ़िर गाने सुनाता। ज़्यादातर गाने भी अधूरे ही सुनाये जाते। अब हम विविधभारती के श्रोता ठहरे औऱ उस समय के गाने भी थोड़े लंबे ही हुआ करते थे। लेक़िन रेडियो पर उसमें कांट छांट होती जिससे मज़ा किरकिरा होता।

जहाँ तक फॉर्मेट का प्रश्न है, वो पसंद आने में समय लगा। उसके बाद भी एक या दो कार्यक्रम ही थे जिसका इंतज़ार रहता। कुछ प्रोग्राम जैसे \’लव गुरु\’ जिसमें दो प्रेमी अपनी दर्द भरी दास्ताँ सुनाते औऱ RJ साहब अपनी मुफ़्त की सलाह देते। ऑटो ड्राइवर्स इस प्रोग्राम को बड़ा पसंद करते। मुझे कैसे मालूम? कभी जब देर रात घर लौटना होता तो यही सुनने को मिलता।

मग़र इन सबके बीच मुम्बई आना हुआ औऱ यहाँ रेडियो पर मिले करण सिंह जो उन दिनों \’यादें\’ नाम का एक प्रोग्राम करते थे। मेरा ये भरसक प्रयास रहता की 9 बजे जब उनका प्रोग्राम शुरू होता उसके पहले घर पहुंच जाऊं ताक़ि सुकून से उन्हें सुन सकूं। उनका कार्यक्रम सबसे अलग औऱ चूँकि शेरोशायरी का मुझे भी शौक़ रहा है, तो उनकी शायरी भी पसंद आती। लेक़िन फ़िर मसरूफ़ियत ऐसी हुई कि करण सिंह साहब भी छूट गये। उन्होनें नया चैनल भी जॉइन कर लिया लेक़िन सुनना मुश्किल होता गया। अब सबको वो पसंद भी नहीं आते।

https://youtu.be/QaeVIxEPHZo

ख़ैर। जब ये एफएम चैनल आये तो विविधभारती भी बदल गया औऱ प्रसारण एफएम पर शुरू हुआ। कार्यक्रम वही रहे लेक़िन प्रसारण की क्वालिटी औऱ बेहतर हो गयी। समय के साथ कुछ कार्यक्रमों में बदलाव भी किये गए औऱ प्रसारण समय भी बदले। अब वो चित्रलोक नहीं रहा क्योंकि अब गाने देखने का चलन हो गया है। औऱ इतनी मेहनत कौन करे – जैसे क़यामत से क़यामत तक के रेडियो प्रमोशन के लिये करी गयी थी। अब तो गाने का वीडियो यूट्यूब पर रिलीज़ कर दीजिये औऱ सब वहीं देख लेंगे।

वैसा ही हाल रहा रेडियो पर कमेंटरी का। आपने कभी रेडियो पर कमेंटरी सुनी है? क्रिकेट या किसी औऱ खेल की? आज तो टीवी पर देखने को मिल जाता है या मोबाइल पर सब कुछ मिल ही जाता है। लेक़िन एक समय था जब कमेंटरी रेडियो पर सुनी जाती थी औऱ उसका अपना ही मज़ा था। अब चूँकि मैदान में कौन खिलाड़ी कहाँ खड़ा है ये समझना मुश्किल होता था तो बाकायदा मैदान के जैसा गोल एक बोर्ड आता था जिस पर ग्राउंड की अलग फील्डिंग पोजीशन इंगित रहती थी। तो जब आपने सुना की शॉर्टलेग पर कैच लपका तो ये बोर्ड आपकी मदद करता।

https://youtu.be/P_t3DjtygSU

टीवी आने के बाद कई बार ये भी किया की मैच देखा टीवी पर और कमेंटरी लगाई रेडियो पर। इतनी बेहतरीन कमेंटरी होती थी। या ये कहें की आदत हो गयी थी। अब तो पुराने।खिलाड़ी ही कमेंट्री करने लगे हैं लेक़िन वो खेल की तकनीक को समझते होंगे। कमेंट्री एक अलग तरह का आर्ट है जिसे निभाना सबके बस की बात नहीं है। अभी जो कमेंट्री करते हैं उनमें से कोई भी ऐसा नहीं जिसे याद रखा जाये।

रेडियो से जुड़ी आपकी क्या यादें हैं? नीचे कमेंट कर बतायें।

कल भी आज भी कल भी, इन यादों का सफ़र तो रुके न कभी

आज भारत में रेडियो के प्रसारण की वर्षगाँठ पर कुछ बातें रेडियो की

बचपन औऱ उसके आगे के भी कई वर्ष रेडियो सुनते हुये बीते। उस समय मनोरंजन का एकमात्र साधन यही हुआ करता था। फिल्में भी थीं लेक़िन कुछ चुनिंदा फिल्में ही देखी जाती थीं। रेडियो से बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं। आज ये मानने में कुछ मुश्किल ज़रूर हो सकती है लेक़िन एक समय था जब पूरी दिनचर्या रेडियो के इर्दगिर्द घुमा करती थी। चूँकि रेडियो के जो भी कार्यक्रम आते थे उनका एक निश्चित समय होता था तो आपके भी सभी काम उस समय सारिणी से जुड़े रहते थे।

मेरे दादाजी का जो रूटीन था वो इसका एक अच्छा उदाहरण है। उनका रात का खाने का समय एक कार्यक्रम \’हवामहल\’ के साथ जुड़ा था। इस कार्यक्रम में नाटिका सुनाई जाती है औऱ इसके तुरन्त बाद आता है समय समाचारों का। खाना खाते खाते दादाजी नाटिका का आनंद लेते औऱ उसके बाद समाचार सुनते। इस कार्यक्रम के शुरुआत में जो धुन बजती है ये वही है जो मैं दादाजी के समय सुनता था। आज जब सुनो तो एक जुड़ाव सा लगता है इस धुन से।

जब हमारा स्कूल जाने का समय हुआ तो विविध भारती सुबह से सुनते। सुबह 7.30 बजे संगीत सरिता कार्यक्रम आता जिसमें किसी राग पर आधारित फिल्मी गाना औऱ उस राग से जुड़ी बारीकियों के बारे में बताते। इसके बाद 7.45 से आठ बजे तक तीन या चार फ़िल्मी गाने औऱ फ़िर सुबह के समाचार।

कभी स्कूल जाने में देरी होती तो वो भी गाने का नंबर बता कर बताया जाता। मसलन तीसरा गाना चल रहा है मतलब आज तो स्कूल में सज़ा मिलने की संभावना ज़्यादा है। ख़ैर विविध भारती का ये साथ तब तक रहा जब तक स्कूल सुबह का रहा। जब दोपहर की शिफ़्ट शुरू हुई तो विविध भारती सुनने का समय भी बदल गया। अग़र मुझे ठीक ठीक याद है तो सुबह दस बजे सभा समाप्त औऱ बारह बजे फ़िर से शुरू। लेक़िन तबतक अपना स्कूल शुरू हो चुका रहता। स्कूल बदला तो औऱ सुबह जाना पड़ता तो सुबह का रेडियो छूट सा ही गया था।

सुबह का जो एक और कार्यक्रम याद में रहा वो था मुकेश जी की आवाज़ में रामचरित मानस। इसका प्रसारण सुबह 6.10 पर होता था तो अक़्सर छूट ही जाता था लेक़िन जब कभी सुबह जल्दी होती तो ज़रूर सुनते। जैसे ही वो मंगल भवन बोलते लगता बस सुनते रहो।

https://youtu.be/ndamULt4n6c

दोपहर को ज़्यादा सुनने को नहीं मिलता। कभी छुट्टी के दिन ऐसा मौक़ा मिलता तो दो कार्यक्रम ही याद आते – भूले बिसरे गीत औऱ लोकसंगीत। दूसरा कार्यक्रम लोक गीतों का रहता जिसे दादी बड़े चाव से सुनती। जो अच्छी बात थी उस समय रेडियो के बारे में वो थी सभी के लिये कुछ न कुछ कार्यक्रम रहता।

शाम को विविध भारती की सभा शुरू होने से पहले भोपाल के स्थानीय प्रसारण सुनते। एक जानकारी से भरा कार्यक्रम आता \’युववाणी\’। हमारे घर से लगे दूसरे ब्लॉक में सचिन भागवत दादा रहते थे औऱ वो उस कार्यक्रम का संचालन करते तो इस तरह से इसको सुनने का सिलसिला शुरू हुआ। एक बार तो उन्होंने अपने कार्यक्रम में मुझे भी बुला लिया। ये याद नहीं क्या ज्ञान दिया था मैंने लेक़िन उसके बाद कभी मौका नहीं मिला रेडियो स्टेशन जाने का। पिताजी प्रदेश के समाचार जानने के लिये कभी कभार शाम को प्रादेशिक समाचार भी सुनते।

शाम को विविध भारती सुनने का नियम भी हुआ करता था। शाम सात बजे के समाचार औऱ उसके बाद आता फ़ौजी भाइयों के लिये कार्यक्रम \’जयमाला\’। इसमें हमारे फ़ौजी अपनी फ़रमाइश भेजते जिसको हम लोगों को सुनाया जाता। अपने घर से दूर फौजियों का एक तरह से संदेश अपने परिवार के लिये औऱ पूरा परिवार भी रेडियो के आसपास इकट्ठा होकर साथ में गाना भी सुनते। हफ़्ते का एक दिन किसी एक फ़िल्मी हस्ती के नाम रहता जहाँ वो अपनी पसंद के गाने सुनाते औऱ अपने अनुभव भी बताते।

हमारे घर में दो बड़े पुराने रेडियो थे जो शुरू होने में अपना समय लगाते। एक ट्रांज़िस्टर भी था जिसको लेकर हम बाहर जो खुली जगह थी वहाँ बैठ जाते औऱ गाने सुनते। मुझे याद है ऐसे ही रेडियो सिलोन पर अमीन सायानी साहब का बिनाका गीतमाला सुनना। बाद में ये प्रोग्राम विविध भारती पर भी आया लेक़िन रेडियो सिलोन पर ऊपर नीची होती आवाज़ को सुनने का मज़ा ही कुछ औऱ था। ज़्यादा मज़ा तब आता जब वो गाने की पायदान के बारे में कुछ बताना शुरू करते औऱ आवाज़ गायब औऱ जब तक वापस आते तब तक गाना शुरू। अब उस समय रिपीट तो नहीं होता था तो बस अगले हफ़्ते तक इंतज़ार करिये।

जब समसामयिक विषयों पर औऱ अधिक जानकारी की ज़रूरत पड़ी तो बीबीसी सुनना शुरू किया। बीबीसी लंदन पर हिंदी सेवा की पहले तीन शो हुआ करते थे औऱ बाद में एक औऱ जोड़ दिया गया था। कई बार जो सुनते उसको नोट भी करते। औऱ क्या कमाल के कार्यक्रम होते। आज भले ही टेक्नोलॉजी बहुत अच्छी हो गई है लेक़िन उस समय के कार्यक्रम एक से बढ़कर एक।

टीवी का आगमन तो 1984 में हो गया था लेक़िन उसका चस्का लगने में बहुत वक़्त लगा। इसके पीछे दो कारण थे। एक तो बहुत ही सीमित प्रसारण का समय औऱ दूसरा रेडियो तब भी एक सशक्त माध्यम हुआ करता था।

आज भी गाना सुनने में जो आनंद है वो गाना देखने में नहीं। कोई भी रेडियो कार्यक्रम सुन लीजिये, ये आपकी कल्पना को पंख लगा देता। कोई गाना सिर्फ़ सुना हो तो आप कल्पना करते हैं की उसे किस तरह फ़िल्माया गया होगा। लेक़िन जहाँ आपने उस गाने को देखा तो आपकी पूरी कल्पना पर पानी फ़िर जाता है। दूसरा सबसे बड़ा फ़ायदा है रेडियो का वो है आप को कहीं बैठकर उसको सुनना नहीं होता। आप अपना काम भी करते रहिये औऱ बैकग्राउंड में रेडियो चल रहा है। जैसे फ़िल्म अभिमान के गाने \’मीत न मिला रे मन का\’ में एक महिला गाना सुनते हुये अपने होठों पर लिपिस्टिक लगाती रहती हैं। आप यही काम टीवी देखते हुये करके दिखाइये। फ़िल्म चालबाज़ में रोहिणी हट्टनगड़ी जैसा मेकअप हो जायेगा।

जैसे मुझे अभी भी फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक का रेडियो प्रोमो याद है जिसमें जूही चावला का एक डायलॉग था औऱ अमीन सायानी साहब की आवाज़ में फ़िल्म के बारे में कुछ और जानकारी। उसके बाद फ़िल्म का गाना। क्या दिन थे…

रेडियो से जुड़ी एक मज़ेदार घटना भी है। कार्यक्रम के बीच में परिवार नियोजन के विज्ञापन भी आते। एक दिन सभी परिवारजन साथ में बैठे हुये थे औऱ एक ऐसा ही विज्ञापन आ गया। मेरी बुआ के बेटे जो उन दिनों वहीं रहकर परीक्षा की तैयारी कर रहे थे औऱ ये विज्ञापन पहले कई बार सुन ही चुके होंगे, अचानक विज्ञापन के साथ साथ उसकी स्क्रिप्ट बोलने लगे। उस समय परिवार नियोजन तो समझ नहीं आता था लेक़िन ये समझ गये कुछ गड़बड़ बोल गये क्योंकि उसके फ़ौरन बाद वो कमरा छोड़ कर भाग गये थे।

ये आकाशवाणी है

कल जो समाचार सुनने के बारे में लिखा था उसके बारे में कुछ और बातें। जब हम लोग बड़े हो रहे थे तब रेडियो ही एकमात्र मनोरंजन का साधन हुआ करता था। अगर आकाशवाणी और विविध भारती मनोरंजन/समाचार का स्त्रोत हुआ करते तो बहुत से दूसरे रेडियो स्टेशन भी इस का हिस्सा थे।

आज जो बीबीसी देख रहे हैं हम लोग उसकी हिंदी सेवा को सुनकर बड़े हुये हैं। उनकी चार सभाएँ या कहें दिन में चार बार प्रसारण हुआ करता था। सब कार्यक्रम एक से बढ़कर एक। बस तकलीफ़ यही थी की सिग्नल अच्छा नहीं मिले तो कान को ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती। चूँकि सारे कार्यक्रम शॉर्टवेव पर होते थे तो ऐसा कई बार होता। लेक़िन तीन चार फ्रीक्वेंसी पर प्रसारण होता था विकल्प रहता था जब कभी सिग्नल ठीक न हो तो।

हमारे यहाँ शॉर्टवेव पर जो कार्यक्रम बड़े चाव से सुना जाता था वो था अमीन सायानी जी का बिनाका गीतमाला जो रेडियो सीलोन पर आता था। मुझे आज भी याद है जब रात में ट्रांज़िस्टर पर ये कार्यक्रम चलता रहता और हम सब उसके आसपास बैठे रहते और हफ़्ते के गानों के उतार चढ़ाव का किस्सा उनकी दिलकश आवाज़ में सुनते।

इसके बाद ये कार्यक्रम विविध भारती पर भी आया लेक़िन सच कहूँ तो जब तक ये हुआ तब तक काफ़ी कुछ बदल चुका था। शायद इसलिये इसका दूसरा संस्करण बहुत ज़्यादा कामयाब नहीं हुआ। आज जब किसी टीवी चैनल पर ऐसे किसी प्रोग्राम को देखता हूँ तो हँसी आती है – क्योंकि अपने दर्शकों को बांधे रखने के लिये वो तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं।

बीबीसी सुनने का चस्का या कहें शौक़ मुझे मामाजी के ज़रिये मिला। वो शाम को 7.30 बजे वाला कार्यक्रम सुनते और वहीं से ये आदत भी बन गयी। समय के साथ मेरा जुड़ाव बीबीसी के कार्यक्रमों से बढ़ता गया। लेक़िन उस समय ये नहीं पता था एक दिन मेरा जुड़ना इस पेशे से होगा।

औऱ सबसे यादगार दिन बना दिसंबर 3 की वो सुबह जब मैं भोपाल गैस पीड़ितों के एक कार्यक्रम में गया था। ये एक सालाना कार्यक्रम बन गया था जब सभी राजनीतिक दलों के नेतागण, संस्थाओं से जुड़े लोग एक रस्म अदायगी करते थे। मैं कार्यक्रम के शुरू होने का इंतज़ार कर रहा था कि एक सफ़ेद अम्बेसडर कार आकर रुकी और उसमें से बीबीसी के उस समय के भारत के संवाददाता मार्क टली साहब कार से उतरे।

उनको रेडियो पर ज़्यादा सुना था और टीवी पर कम देखा था लेक़िन पहचान गया। उनसे पाँच मिनिट ऐसे ही बात हुई औऱ उसके बाद वो अपने काम में लग गए। उसके बाद उनकी किताब भी पढ़ी और उनके कई कॉलम भी। लेक़िन उनको सुनने में जो मज़ा आता है वो कुछ और ही है।

बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो आपको अपने पद या बड़े होने का एहसास नहीं कराते हों। एक रिश्तेदार महोदय को अपने पद का बड़ा घमंड था। अपने आगे वो बाकी सबको छोटा ही महसूस करते और कराते। ऐसे कोई ऊँचे पद पर तो नहीं थे लेक़िन कमाई करने वाली पोस्ट ज़रूर थी तो उन्होंने पैसे को ही अपना रुतबा बना लिया, समझ लिया।

कभी किसी के यहाँ मिलने जाना हो तो पहले संदेश भिजवाते की वो मिलने आ रहे हैं। मज़ा तो तब आया कि ऐसे ही संदेश वो जिनको भिजवाते थे वो प्रमोट होकर बहुत बड़े ओहदे पर पहुँच गये और अब ये महाशय मिलने का समय माँगते फ़िरते। वो तो पुरानी पहचान के कारण उनको ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। लेक़िन सीख ज़रूर मिल गयी।

मामाजी जिनसे बीबीसी सुनने की सीख मिली वो प्रदेश में पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुये। लेक़िन न तो हम घरवालों को या बाहर वालों को लगता की वो किसी पुलिस अफ़सर से बात कर रहे हैं। एक बहुत ही साधारण सा जीवन जीने वाले एक बहुत ही असाधारण व्यक्ति थे। ऊपर बताये हुये सज्जन से बिल्कुल उलट।

ऐसी ही यादगार बात हुई थी गुलज़ार साब से फ़ोन पर उनकी भोपाल यात्रा के दौरान। इन दोनों वाक़ये से क्या सीखा?

मॉरल ऑफ द स्टोरी: आप कितने भी बड़े क्यूँ न हो जायें, अपना ज़मीनी रिश्ता कभी मत भूलिये। कभी भी अपने पद का घमंड न करें। वक़्त सभी का बदलता है औऱ इसकी कोई आहट भी नहीं होती। इन दोनों महानुभवों से जब बात हुई तब मैं अपने पत्रकारिता के जीवन की शुरुआत ही कर रहा था। लेक़िन उन्होंने अपना एक सीनियर होने या एक नामी गिरामी गीतकार-लेखक-निर्देशक होने का एहसास नहीं कराया।

ऐ भाई ज़रा देख के चलो

टीवी पर समाचार के नाम पर जो परोसा जाता है वो देखना बहुत पहले ही बंद हो चुका है। लेक़िन दो दशकों की समाचार के बीच रहने आदत के चलते अब अपने को अपडेट करने का दायित्व आकाशवाणी को दिया है। सच मानिये रोज़ सुबह शाम पंद्रह मिनट का बुलेटिन सुनने के बाद किसी दूसरे माध्यम की ज़रूरत महसूस नहीं होती।

ट्विटर एक विकल्प हो सकता था लेक़िन वहाँ पर जो हंगामा होता है उसमें समाचार कहीं गुम हो जाता है और फ़ालतू की बहस शुरू हो जाती है। उसमें बीच में बहुत ही मज़ेदार वाकये होते हैं जैसे किसी गुरु के समर्थक अपने जेल में बंद गुरु की रिहाई की माँग करते हैं। लगभग रोज़ ही ऐसा होता है।

फ़ेसबुक पर भी ऐसा ही कुछ नज़ारा होता है। एक तो अल्गो के चलते अगर कभी ग़लती से किसी पोस्ट को क्लिक कर लिया तो फेसबुक ये मान लेता है आप इस विषय में रुचि रखते हैं। लेक़िन ऐसा होता नहीं है। इसलिए थोड़ा सोच समझ कर ही क्लिक करते हैं।

ये जो मोबाइल डिवाइस है जिससे ट्विटर, फेसबुक का सफ़र होता है, इसके भी कान होते

हैं। हम जाने अनजाने बहुत सारी एप्प्स को इस बात की आज्ञा देते हैं कि वो मोबाइल के माइक्रोफोन (माइक) को इस्तेमाल कर सकते हैं। बस तो वो दीवारों के भी कान होते हैं वाली कहावत में से दीवार को हटा दें औऱ उसकी जगह मोबाइल लगा दें। आपके मुँह से निकले हर शब्द को कोई न कोई सुन रहा है औऱ उसी के आधार पर आपको सुझाव नज़र आते हैं।

ये विश्वास करना शुरू में मुश्किल था। लेक़िन उसके बाद एक दिन ऐसा भी आया जब ये विचित्र किंतु सत्य बात साक्षात सामने प्रकट हुई एक एसएमएस के रूप में। मेरी एक पुरानी चोट है 2009 नवंबर की जिसमें पैर का लिगामेंट चोटिल हो गया था। ये चोट यदा कदा अपना आभास कराती रहती है। डॉक्टर ने फुट मसाज के बारे में कहा।

दो दिन के बाद SMS आया एक मसाज से सेंटर के बारे में। जबकि मैंने किसी से इस बारे में संपर्क भी नहीं किया था तो नंबर किसी के पास होने की संभावना नहीं के बराबर थीं। बाद में एक नामी केरल मसाज सेन्टर गये और मसाज करवाया लेक़िन उस सेन्टर से जाने के बाद कोई संदेश आज तक नहीं आया। अलबत्ता बाकी ढ़ेर सारे सेन्टर के आये और अब भी आते रहते हैं। और वो बहुत सारी \’सेवाओं\’ का भी विज्ञापन भी करते रहते हैं।

इसके अलावा अगर गलती से मोबाइल डेटा चालू रह जाता है तो गूगल आपकी सारी खोज ख़बर रखता है। आप कहाँ गये, वहाँ का मौसम, जहाँ रुके उसके बारे में, सब जानकारी रहती है। इसके बाद भी लोग किसी सीक्रेट मिशन के बारे में बात करते हैं तो थोड़ा अजीब सा लगता है। जैसे हमारे एक जानने वाले घर पर कुछ और बोलकर दो दिन हिल स्टेशन पर बिता कर आये। घर वालों को भले ही पता न चला हो, गूगल सब जानता है।

वैसे ये गूगल मैप है बड़ा उपयोगी। आप उसमें बस सही गली, मोहल्ला डाल दीजिये और वो आपको वहाँ पहुँचा ही देगा। सितंबर में एक रात लांग ड्राइव न होते हुये भी हो गयी इसी मैप के चलते। जहाँ भी वो मुड़ने का बताता या मोहतरमा बतातीं वहाँ से मुड़ना थोड़ा मुश्किल ही होता। नतीजा ये हुआ की 10 km की ड्राइव 110 km की हो गयी।

मॉरल ऑफ द स्टोरी: टेक्नोलॉजी हमारे जीवन को बेहतर ज़रूर बनाती हैं लेक़िन उनके ही भरोसे न रहें। अपने आसपास के मनुष्यों को भी मौका दें। कभी रुक कर किसी से पुराने जमाने की तरह पता भी पूछ लें। टेक्नोलॉजी में बाक़ी सब कुछ होगा लेक़िन एक दिल और कुछ एहसास अपने आसपास के लोगों में ही मिलेगा।https://youtu.be/C_dI4mXlxNg

मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे

अगर आप रेडियो सुनने का शौक़ रखते हैं तो क्या आपने वो देर रात वाले लव गुरु वाले शो सुने हैं? ये अमूमन रात 11 या उसके भी बाद होते हैं और ज़्यादातर इसमें पुरूष RJ रहते हैं। इसमें श्रोता अपने दिल/प्यार से जुड़ी परेशानी रखते हैं।

मैंने आखिरी बार तो नहीं लेकिन जो याद है वो पीटीआई के चेम्बूर गेस्ट हाउस में अपने पुराने फिलिप्स के टू-इन-वन पर देर रात इस शो को सुनना। चूंकि शिफ़्ट देर से ख़त्म होती तो घर पहुंचने में भी समय लगता। मनोरंजन के लिये बचता सिर्फ़ रेडियो। मोबाइल फ़ोन उन दिनों रईसी की निशानी होता। इनकमिंग के लिये भी पैसे देने पड़ते थे।

तो ये रेडियो शो जो नये नये FM चैनल पर शुरू हुये थे, रह देकर यही साथ देते रात में। अच्छा ये जो समस्याएँ हैं दिल वाली इनमें कोई बदलाव नही हुआ है। पहले भी लड़का लड़की को पसंद करता था लेकिन लड़की की सहेली लड़के को पसंद करती थी। लड़के का दोस्त उसकी बहन को बहुत चाहता है लेकिन दोस्ती के चलते बोल नहीं पाता। या क्लासिक प्रॉब्लम वो मुझे सिर्फ अपना अच्छा दोस्त मानती है। हाँ इसमें से कुछ अजीब अजीब से किस्से भी आते।

इन समस्याओं के क़िरदार भर बदलते रहते हैं। बाकी सब वैसा का वैसा। अमीर लडक़ी, ग़रीब लड़का जिसके ऊपर परिवार की ज़िम्मेदारी है। उसके बाद ये सुनने को मिले की आप ये बातें नहीं समझोगे तो सलमान ख़ान का भारत वाला डायलाग बिल्कुल सही लगता है।

जितने सफ़ेद बाल मेरी दाढ़ी में है उससे कहीं ज़्यादा रंगीन मेरी ज़िंदगी रही है

मैं अभी 70 साल से सालों दूर हूँ इसलिये वापस रेडियो के शो पर। दरअसल रेडियो इतना सशक्त माध्यम है और इतनी आसानी से एक बहुत बड़ी जनसंख्या में पास पहुंच सकता है। उससे भी बड़ी ख़ासियत ये की आपकी कल्पना शक्ति को पंख लगा देता है रेडियो। अगर आप कोई गाना सिर्फ सुन सकते हैं तो आप सोचना शुरू कर देते हैं कि इसको ऐसे दिखाया गया होगा। एक अच्छा RJ तो आपको सिर्फ़ अपनी आवाज़ के ज़रिये उस स्थान पर ले जा सकता है जहाँ कुछ घटित हो रहा हो। जैसे एक ज़माने में बीबीसी सुनने पर होता था।

आज रेडियो की याद दिलाई मेरे पुराने सहयोगी अल्ताफ़ शेख ने। हम दोनों ने मिलकर पॉडकास्ट शुरू किया था पुरानी कंपनी में। उसको करने में बड़ा मजा आता। पिछली संस्थान में मेघना वर्मा, आदित्य द्विवेदी और योगेश सोमकुंवर के साथ ये प्रयोग जारी रहे। योगेश को देख कर आपको अंदाजा नहीं होगा की इनके पास दमदार आवाज़ है।

घर में दो रेडियो थे। टेलीक्राफ्ट और कॉस्सिर। दोनों बिल्कुल अलग अलग सेट थे लेकिन बड़े प्यारे थे। सुबह से लग जाते और जब एनाउंसर सभा ख़त्म होने का ऐलान करती तब बंद हो जाते। उन दिनों चौबीस घंटे रेडियो प्रसारण नहीं होता था। दिन को तीन से चार सभाओं में बाँट दिया था।

इस धुन को तो सभी पहचान गए होंगे। अधिकतर सुबह इसी के साथ होती थी।

जहाँ आज के FM सिर्फ़ मनोरंजन का साधन हैं सूचना के नहीं (वो भी सरकार के नियमों के चलते), आल इंडिया रेडियो मनोरंजन के साथ ढ़ेर सारी जानकारी भी देता है। बस हुआ इतना है की हम उस चैनल तक पहुँचते पहुँचते रेडियो बंद ही कर देते हैं। न तो विद्या बालन जैसी अदा के साथ बोलने वाली RJ होंगी न टूटे दिलों को जोड़ने वाले लुवगुरु।

कभी मौका मिले तो लवगुरु वाले शो और आकाशवाणी के शो को सुनें।