कानून या पीड़ित: कौन ज़्यादा मजबूर है?

हमारी लचर कानून व्यवस्था की बदहाली अगर कोई घटना दर्शाती है तो वो भोपाल गैस त्रासदी है। इतना लंबा समय बीत जाने के बाद भी गैस पीड़ितों को न्याय नहीं मिला। अगर मुआवजा मिला भी तो बहुत थोड़ा। उनकी भावी पीढ़ियों तक को उस भयावह त्रासदी की मार झेलनी पड़ रही है।

जब 1984 में ये घटना घटी तो उस समय ज़्यादा कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन जब पत्रकारिता में काम शुरू किया तो इस मुद्दे को समझा। इसमें बहुत लोगों का योगदान रहा उसमें से एक थे अब्दुल जब्बार भाई जो एक संस्था, भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन, चलाते थे। जब्बार भाई का हफ़्ते में एक दो बार ऑफिस आना होता ही था। कभी फुरसत में रहते तो बैठ कर बातें कर लेते नहीं तो प्रेस रिलीज़ पकड़ाई और बाद में मिलना तय हुआ।

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मृदु भाषी, सरल स्वभाव के जब्बार भाई निःस्वार्थ भाव से लड़ते रहे। भोपाल में भी और दिल्ली में भी। जब पिछले दिनों खबर आई की जब्बार भाई नहीं रहे तो उनका वही मुस्कुराता हुआ चेहरा आंखों के सामने आ गया।

निर्भया मामले को सात साल हो गए। इसमें सभी चीजें साफ हैं – अपराधी कौन, क्या अपराध किया, कैसे किया आदि। लेकिन तब भी ये मामला कोर्ट में लटका हुआ है। फैसला नहीं हुआ की इन दरिंदों को क्या सज़ा दी जाए।

भोपाल गैस त्रासदी में एक विदेशी कंपनी थी लेकिन हमारी तत्कालीन सरकार ने एक समझौता कर लिया जिसके चलते पीड़ितों को सही मुआवजा और सहूलियतें नहीं मिली। अगर यही हादसा किसी विदेशी धरती पर होता तो उस कंपनी की ख़ैर नहीं होती। लेकिन हमारे चुने हुये प्रतिनिधि पहले अपनी तिजोरियों को भरने में ज़्यादा विश्वास रखते हैं। कुछ बच गया तो बाँट दो आम जनता में। उन्हें लगेगा कुछ तो मिला। इस त्रासदी में अगर कई पीढ़ियां तबाह हो गईं तो कई की पीढ़ियों का भविष्य बन गया।

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लेकिन हमारी फिक्र किसे है? हम आप जिसे वोट देकर चुनते हैं वो संसद में लीनचिंग को सही ठहराते हैं और कहते हैं ऐसे अपराध के आरोपियों को सरे आम सज़ा देनी चाहिये। मतलब सरकार की देखरेख में ऐसा कुछ हो तो वो न्याय व्यवस्था का हिस्सा है लेकिन अगर कोई दस लोग अपनी दुश्मनी निकालने के लिये यही काम करें तो वो ज़ुर्म।

लेकिन ये एक भोपाल गैस त्रासदी या निर्भया, हैदराबाद या कठुआ की बात नहीं है। भोपाल जैसी किसी और घटना के आरोपी को सज़ा इसलिये कम मिले की कम लोगों की मौत हुई है या आने वाली पीढ़ियों पर इसका असर नहीं होगा?

अगर ऐसे किसी मामले में आरोपी ने पीड़िता को ज़िंदा छोड़ दिया तो उसे रियायत मिलनी चाहिये? क्यों उस आरोप की सज़ा सभी के लिये एक जैसी न हो? क्यों एक धर्मगुरु के साथ भी वही सलूक क्यों न किया जाये जैसा इन चारों के साथ करने का हमारे माननीय सांसदों की राय है? क्यों उन सांसद या विधायक महोदय को भी ऐसे ही न न्याय मिले?

हाँ तो सबके लिये हाँ और ना तो सबके लिये ना।

एक और रेप? चलिये रोष व्यक्त करते हैं

एक और बलात्कार? हे प्रभु! हैवानों ने उसके बाद पीड़िता को जला दिया? बहुत गंभीर। चलिये रोष व्यक्त करते हैं। बहुत कड़ी निंदा करते हैं। और क्या कर सकते हैं? चलिये मोमबत्ती मार्च निकालते हैं। सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं। अपनी प्रोफाइल फ़ोटो हटा कर एक काला फ्रेम लगा देते हैं। कुछ दिन लगा रहने देंगे। जब मामला शांत हो जायेगा और वही फ़ोटो वापस। हाँ व्हाट्सऐप पर भी कुछ करना पड़ेगा। एक नंबर सब फॉरवर्ड कर रहे हैं उसी को सारे ग्रुप में भेज देते हैं।

सच कहूँ तो आज लिखने का बिल्कुल मन नहीं था। अंदर कुछ ऐसी उथल पुथल मची हुई है जो बाहर पता नहीं किस शक्ल में आये। मुझे उसके डरावने चेहरे से डर नहीं लगता लेकिन उसके सवालों से ज़रूर लगता है जिसके जवाब मेरे पास नहीं हैं। फ़िर लगा नहीं लिखा तो सब अंदर ही दफ़न हो जायेगा।

2018 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर मैं अपनी पुरानी टीम के सदस्यों के साथ एसिड अटैक का शिकार लक्ष्मी से मिल कर वापस लौट रहे थे। मेरी टीम की सहयोगी के साथ दिल्ली मेट्रो से ग़ाज़ियाबाद वापस आ रहे थे और हमें लौटते हुये नौ बजे गये थे। मेरे हिसाब से बहुत ज़्यादा देर नहीं हुई थी लेकिन जो मेरे साथ थीं उनको लग रहा था हम काफी लेट हो गये थे। उन्होंने अपने लिये एक समय निर्धारित कर रखा है और उसके बाद वो घर से बाहर नहीं रहती। इसके चलते उन्होंने कई टीम के साथ बाहर जाने के मौके भी छोड़ दिये। उस शाम लक्ष्मी जी से मिलने की इच्छा के चलते ही वो इतनी देर तक बाहर रहीं। ये एक पढ़ी लिखी प्रोफेशनल मोहतरमा हैं। उन्होंने ऐसे हालात से समझौता कर लिया है।

अब चलते हैं 1994 में। मैं जब पुणे स्टेशन के बाहर बैठा था और ये सोच रहा था अगले तीन दिन इस शहर में कैसे गुज़रेंगे तब उस अनजान शख्स ने मुझे अपने घर चलने को कहा। अनजान शहर, अनजान व्यक्ति। लेकिन सिर्फ़ और सिर्फ़ भरोसा था उन पर जो उनके साथ हो लिया।

आज 2019 में भारत के एक शहर में एक पढ़ी लिखी युवती ने ठीक वैसे ही विश्वास किया था उन युवकों पर। उन्होंने उसकी पंचर गाड़ी को सुधरवाने का भरोसा दिलाया। किसी भी सभ्य समाज में विश्वास, भरोसा ही तो होता है जो आपको जोड़े रखता है। लेकिन उसके बाद जो बर्बरता हुई वो सोच कर ही सर शर्म से झुक जाता है।

दरअसल हमें इससे डील करना नहीं आता है। पहले तो ऐसा नहीं होता था लेकिन अब ऐसी कोई घटना होती है तो सबसे पहले आरोपियों के नाम देखे जाते हैं। किसी समुदाय विशेष का हुआ तो बस सब उस सम्प्रदाय के पीछे पड़ जाते हैं मानो उस समुदाय के सभी लोग वैसी ही सोच रखते हैं। लेकिन बाकी तीन आरोपियों की जाति या धर्म उन्हें नहीं दिखता। आप आज का सोशल मीडिया देख लीजिये। किसी ने ट्विटर पर लिखा ये घटना शमशाबाद इलाके में हुई है और आपको पता है वहां कौन रहता है। हमारी सोच इतनी घटिया हो गयी है की जघन्य अपराध को हमने धर्म का चोला पहना कर असल मुद्दे को ही बदल दिया।

अब ये उस युवती पर हुये अत्याचार नहीं हो कर एक समुदाय विशेष द्वारा किया गया कृत्य हो गया। हम जो भी कर रहे हैं वो सब ऊपरी है। इस समस्या की जड़ है कानून का डर न होना। पिछले दिनों सरकार ने ट्रैफिक के नियम तोड़ने पर होने वाले जुर्माने की रकम में कई गुना बढ़ोतरी कर दी। अगले ही दिन से खबरें आने लगीं लोगों ने मोटी रकम भरी नियम तोड़ने पर। सब कागज़ात साथ लेकर चलने लगे और कुछ दिन सब ठीक चला। लेकिन विरोध शुरू हुआ और कुछ राज्यों ने बढ़े हुये चालान को लागू करने से मना कर दिया। मुम्बई में ऐसे कई इलाके हैं जहां स्पीड राडार लगे हैं। आपकी गाड़ी की स्पीड ज़्यादा हुई तो चालान घर आ जायेगा। ड्राइवर डरते हैं और गति पर नियंत्रण रखते हैं।

इसका दूसरा और ज़्यादा चिंताजनक पहलू है की अपनी रक्षा की सारी ज़िम्मेदारी हमने स्त्रियों पर मढ़ दी है। लेकिन हम पुरुष से ये उम्मीद नहीं कर सकते की वो अपना स्वभाव, आचरण और नज़रिया बदले। हम लड़कियों को तो सब सलाह देते हैं की वो कैसे अपनी सुरक्षा करे, लेकिन हम लड़कों को ये क्यों नहीं सिखाते की क्या ग़लत है और क्या सही है। क्यों वो लड़कियों को सिर्फ़ एक उपभोग की वस्तु ना समझ कर एक इंसान समझें। कहीं न कहीं ऐसी घटनायें हमारी परवरिश की कमी ही है और अपराधियों की ये सोच की कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

इस ताज़ी घटना के बाद मांग हो रही है सबको फाँसी दी जाये। चलिये ये चार को फाँसी दे भी दी तो क्या ये सिलसिला थम जायेगा? निर्भया के बाद जो कानून में बदलाव हुआ उससे भी हमें लगा था अब बेटियां सुरक्षित हैं। काश ये सच होता तो आज हैदराबाद की एक बेटी अपने घर, अपने परिवार के बीच होती।