जाने हमारा आगे क्या होगा…

ये शायद पिछली गर्मियों की बात है। शायद इसलिये बोल रहा हूँ क्योंकि याद नहीं किस साल की बात है लेक़िन है गर्मियों की क्योंकि ये भोपाल की बात है जहाँ सालाना गर्मियों में हमारा अखिल भारतीय सम्मेलन होता है। सुबह की चाय पर चर्चा चल रही थी गानों के बारे में और मैंने बताया ऋषि कपूर जी के एक गाने के बारे में।

आज उनके निधन के बाद वही गाने देख रहे थे तो वो किस्सा याद आ गया। अभी दो दिन पहले ही कर्ज़ देखी थी तब इसका पता नहीं था कि ऋषि जी ऐसे अचानक ही चले जायेंगे। हमारी पीढ़ी में अगर खानों के पहले कोई रोमांटिक हीरो था तो वो थे ऋषि कपूर। उनकी फिल्में देख कर ही बड़े हुये। उनकी हर फ़िल्म का संगीत कमाल का होता था। फ़िर वो चाहे बॉबी हो या दीवाना।

अगर 70, 80 और कुछ हद तक 90 को भी शामिल करें तो इन तीस सालों के बेहतरीन रोमांटिक गीत में से ज़्यादातर ऋषि कपूर जी के होंगे। अब जब बाकी सब कलाकार मारधाड़ में लगे हों तो कोई तो ऐसा चाहिये जो अच्छा संगीत सुनाये और साथ में नाचे भी। ये ज़िम्मेदारी ऋषि कपूर जी की फिल्मों ने बख़ूबी निभाई।

हिंदी फ़िल्म जगत में उनकी पहले दौर की फिल्में बेहद हल्की फुल्की, फॉर्मूला फिल्में रहीं। लेक़िन जब वो एक ब्रेक लेने के बाद वापस आये तो वो एक एक्टर के रुप में ज़्यादा पहचाने गये। और जब वो वापस आये तो जैसे अपने अंदर के सारे डर छोड़ आये कहीं पीछे और अब वो कुछ भी करने को तैयार थे। अगर उनकी पहली पारी अच्छे गीत संगीत के लिये याद रखी जायेगी तो दूसरी पारी बतौर एक उम्दा कलाकार के लिये।

ऋषि कपूर और अमिताभ बच्चन वो बहुत ही चुनिंदा लोगों में शामिल हैं जिन्हें ज़िंदगी ने दूसरे मौके दिये और इन दोनों ने उन मौकों का पूरा फ़ायदा उठाया और एक नये अंदाज़ में दूसरी पारी की शुरुआत करी। हम सभी को ऐसे मौके दुबारा नहीं मिलते। कोरोना के चलते क्या हम सभी को एक दूसरा मौका मिला है? मतलब कुछ नया सीखने का नहीं लेक़िन अपनी सोच और अपने देखने के नज़रिये में थोड़ा बदलाव?

एक बात और ऋषि कपूर जी की जो मुझे बेहद अच्छी लगती थी वो है उनका बेबाक़पन। न बातों को घुमाना फिराना और न ही उनपर कोई शक्कर की परत चढ़ाना। ये भी तभी संभव है जब आपको इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता की आपके इस तरह से बात करने से कोई नाराज़ भी हो सकता है। इस का मैंने कई बार पालन करना चाहा लेक़िन बुरी तरह असफल रहा।

हम लोग अपनी राय तो कई मामलों में रखते हैं लेकिन इस डर से की कहीं उससे किसी की भावनाओं को ठेस न पहुँचे, उसको बताते समय थोड़ा हल्का कर देते हैं। लेकिन ऋषि कपूर जी तो सार्वजनिक रूप से ऐसा करते थे। तो क्या सबका डर छोड़ कर बस जो दिल में है वही ज़ुबान पर रखें? मेरे हिसाब से तो ये अच्छा है की आप जो सोचते हैं वही बोल दें। इससे कम से कम आपको बार बार कुछ नया तो नहीं बोलना पड़ेगा।