फ़ुरसत के रात दिन

शायद मेरे लिये भी और आप सभी पाठकों के लिये भी ये पहला अवसर होगा जब बाहर की गर्मी का अंदाज़ा भी नहीं लगा और गर्मी अब विदा लेने को तैयार है। कोरोना के चलते पूरी गर्मी शायद चार बार बाहर निकलना हुआ होगा। हर बार गर्मी के चलते रोड पर कम लोग रहते इस बार कोरोना ने सब को घर पर बिठा कर रखा। बाहर निकलो तो किसी फ़िल्मी सीन की तरह लगता। पूरी रोड सुनसान। कोई गाड़ी नहीं, कोई लोग नहीं। सारी दुकानों के शटर बंद और इक्का दुक्का गाड़ियाँ दिख जायें तो आपकी किस्मत।

पिछले कितने सालों से एक रूटीन से बन गया था की गर्मी की छुट्टी के कुछ दिन भोपाल में बिताये गये। सब इक्कट्ठा होते और बच्चों की धमाचौकड़ी शुरू। भरी दोपहरी में क्रिकेट चालू और शाम होते होते पार्टी का माहौल। न किसी को नींद की चिंता न किसी और काम की।

काम से छुट्टी

वैसे एक काम जो हमने बच्चों के ऊपर लाद दिया वो है कूलर में पानी भरना। ये सुबह और रात की ड्यूटी थी जिसे बच्चे बख़ूबी निभाते भी। दरअसल वो एक रिश्वत होती है – पानी भर दो और फ़िर देर तक खेलने को मिलेगा।

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मुझे याद है जब हम इस उम्र में थे तब कूलर वगैरह ऐसी ज़रूरत नहीं हुआ करते थे। जो पहला कूलर जो आया वो एक रूम कूलर था गुलमर्ग के नाम से। जैसा नाम वैसा काम। थोड़ी देर चलने के बाद बढ़िया ठंडक। चूंकि उसकी बॉडी लोहे की थी तो उसके किनारों से बिजली का झटका भी लगता।

पूरे घर में एक कूलर था और सब बस उसकी हवा खाते और अपने अपने गरम कमरे में चले जाते। जब कई वर्षों बाद डेजर्ट कूलर आये तब बाकी कमरों के लिये भी लिये गये। लेक़िन इनकी ठंडक गुलमर्ग के मुकाबले कुछ भी नहीं थी।

कूलर की ठंडक

गर्मियों के हर साल के काम सब फिक्स। पहले कूलर निकालो, उनकी सफ़ाई करो, उनके कूलिंग पैड्स देखों और बदलना हो तो बदलो। अच्छा आप जब कूलिंग पैड कहते हैं तो लगता है कुछ बहुत ही नायाब चीज़ होगी। लेक़िन असल में होता भूसा ही है। हाँ अगर आप कहते ख़स की टट्टी तो सब फ़िल्म चुपके चुपके में धर्मेंद्र के Go गू क्यूँ नहीं होता, बोलने पर जैसे ओम प्रकाश की पत्नी साड़ी के पल्लू से अपनी नाक ढँक लेती हैं, सब कुछ वैसे ही करते।

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ख़स की जगह अब कूलिंग पैड आ गए हैं। साथ में ख़स का इत्र भी मिलता है जिसे आप साइड पैनल की घास में डालिये और ठंडक के साथ खुशबू का आनंद लीजिये। एक बार ये इत्र कुछ ज्यादा ही डल गया और उसके बाद सबका ऐसा सिरदर्द हुआ की रात को सोना मुश्किल हो गया।

अब तो कूलर की बॉडी भी प्लास्टिक की आने लगी है तो रखरखाव न के बराबर है। नहीं तो पहले कूलर को हर दो साल में पेंट करते जिससे उसकी बॉडी की उम्र बढ़ाई जा सके। लेकिन अब कूलर आते हैं वो प्लास्टिक का ढाँचा हैं। इनकी उम्र लंबी हो ही नहीं सकती।

जब हम लोग बाहर निकल गये तो पिताजी के जिम्मे ये काम आया और वो अप्रैल से ये तैयारी शुरू कर देते। मई में फौज जो आने वाली है। इस साल फौज ने अपना समय स्क्रीन के सामने गुज़ारा है।

आइसक्रीम वाली गर्मी

एक और काम जो इस साल गर्मियों में नहीं के बराबर हुआ है वो है गन्ने का रस पीना और आइस क्रीम/कुल्फ़ी खाना। कई बार रात में सब भोजन के बाद इक्कट्ठा होते किसी आइसक्रीम की दुकान पर और देर रात जब तक पुलिस की गाड़ी नहीं आती तब तक गप्पें चलती रहती।

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और तपती धूप हो या ठंडी शाम, गन्ने के रास का एक गिलास और उसके साथ वो मसाला। मुझे नहीं पता जितनी बेफिक्री से किसी भी दुकान पर रुककर इसका आनंद लिया जाता था वैसे मैं कब कर पाऊँगा। फ़िलहाल उन क्षणों की याद ही मन तृप्त कर रही है। 😇

ये पोस्ट तमाम उन गर्मियों की छुट्टियों पर किये जाने सभी कार्यक्रमों को समर्पित।