कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूँही कोई बेवफ़ा नहीं होता

इसे हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री का दुर्भाग्य ही कहेंगे की यहाँ सब घुमाफिरा कर बात करने में उस्ताद हैं। आप किसी से कोई सीधा सा सवाल पूछिये लेक़िन उसका सीधा जवाब नहीं मिलता। इसका दूसरा पहलू ये है की अगर इसी इंडस्ट्री में रहना है तो क्यूँ उनको नाराज़ रखा जाये जो आपको काम दे सकते हैं। मतलब आपके मुँह खोलने से आपका नुक़सान हो तो अच्छा है मुँह बंद रखा जाए। यही बात मीडिया पर भी लागू होती है।

मीडिया इस इंडस्ट्री का एक अभिन्न हिस्सा है। ट्विटर औऱ फ़ेसबुक पर तो हंगामा अब मचना शुरू हुआ है। लेक़िन उसके बाद भी मीडिया का एक बहुत बड़ा रोल है इंडस्ट्री से जुड़े लोगों औऱ दर्शकों के बीच की दूरी ख़त्म तो नहीं लेक़िन कम करने में। औऱ फ़िर सभी लोग ट्विटर और फ़ेसबुक पर भी नहीं हैं।

सुशांत सिंह राजपूत के मामले में जितना जो कुछ ग़लत हो सकता था सब हो गया है, हो रहा है और आगे भी होयेगा। मीडिया बंट गया है, जिसकी उम्मीद थी, लेक़िन इंडस्ट्री भी बंट गयी है, जो किसी भी हाल में नहीं होना चाहिये था। मीडिया, यहाँ मेरा मतलब वो पोस्टमैन से एक्ससीलुसिव बात करने वाले नहीं, बल्कि वो लोग जो इंडस्ट्री को कवर करते रहे हैं, की ख़ामोशी भी शर्मनाक है। इस इंडस्ट्री से जुड़े मीडियाकर्मी अग़र किताबें लिखना शुरू करदें तो पता चले यहाँ क्या नहीं होता है। लेक़िन ऐसा होगा नहीं क्योंकि कोई भी बुरा बनना नहीं चाहता औऱ उनको ये भी पता है जैसे ही उन्होंने कुछ लिखा इंडस्ट्री उनका हुक्का पानी शराब कबाब सब बंद करवा देगी। अब कौन ख़ुद अपने पेट पर लात मारकर ये काम करेगा। इसलिये सब अच्छा ही लिखेंगे।

अग़र इंडस्ट्री के लोग इसको एक परिवार मानते हैं तो आज इनको इनके किसी साथी के साथ कुछ ग़लत हुआ है तो साथ देना चाहिये था। साथ खड़े होने का मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि आप उनके विचारों से भी सहमत हों। आपसे किसी आंदोलन को समर्थन देने की उम्मीद नहीं कि जा रही है। आपके विचार अलग हो सकते हैं, आप अलग अलग विचारधारा का समर्थन करते होंगे लेक़िन जिस समय आपको सिर्फ़ साथ देना था, आप पीठ दिखा कर खड़े हो गये। ये भी सही है की ये सबके बस की बात नहीं है और शायद यही हमारा दुर्भाग्य है।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बेबाक़ लोगों में से एक अनुराग कश्यप हैं। मुझे अनुराग की ये बेबाक़ी शुरू से पसंद आई लेक़िन उनकी फिल्मों के बारे में मैं ये नही कह सकता। उनकी बनाई बहुत से फिल्में मैंने नहीं देखी हैं और जो देखी हैं वो कुछ ख़ास पसंद नहीं आईं। उनकी मनमर्ज़ीयाँ का संगीत काफ़ी अच्छा है। लेक़िन फ़िल्म बोरिंग थी।

तो इन्ही अनुराग कश्यप ने सुशांत सिंह के मैनेजर के साथ हुई अपनी चैट सार्वजनिक कर दी। उन्होंने इसके बाद एक और ट्वीट कर बताया क्यों इंडस्ट्री के लोग सुशांत के साथ नहीं है क्योंकि इन लोगों ने सुशांत सिंह के साथ समय बिताया है और वो उनके बारे में जानते हैं।

चलिये अनुराग माना सुशांत में सारे ऐब होंगे जो एक इंसान में हो सकते हैं। लेक़िन वो तब भी आपकी इंडस्ट्री का एक हिस्सा था। आज वो नहीं है तो आप उसकी कमियाँ गिनाने लगे। अरे इंडस्ट्री के अपने साथी के नाते न सही, इंसानियत के नाते ही सही आप साथ देते। इंडस्ट्री के इसी रवैये के चलते ही लोगों के अंदर इतना गुस्सा है।

लेक़िन ये सवाल एक अनुराग कश्यप, एक कंगना रनौत या एक रिया का नहीं है। आप सब उस इंडस्ट्री का हिस्सा हैं जो भारत के एक बहुत बड़े तबके का एकमात्र मनोरंजन का साधन रहा है। लेक़िन आज आप उसके साथ नहीँ हैं जिसके साथ ग़लत हुआ है। रिया की टीशर्ट पर जो लिखा था उसपर तो सबने कुछ न कुछ कह डाला लेक़िन आपकी बिरादरी के एक शख्स पर जब सरकारी तंत्र ने ज़्यादती करी तो सब ख़ामोश रहे। ये दोहरे मापदंड सबको दिख रहे हैं। अगर रिया के साथ जो हो रहा है वो ग़लत है तो जो इंडस्ट्री अपने एक साथी के साथ कर रही है वो सही है? इंडस्ट्री से जुड़े लोगों की ये ख़ामोशी शायद उनकी मजबूरी भी बयाँ करती है। लेक़िन जहाँ से हम, दर्शक और इंडस्ट्री के चाहने वाले देख रहे हैं, ये ख़ामोशी सिर्फ़ एक ही बात कह रही है All is not well.

अरमां खुले हैं, ज़िद्दी बुलबुले हैं

आज ढ़ेर सारा ज्ञान प्राप्त हुआ, हो रहा है। कोई अनहोनी घटना होती है और सब जैसे मौके का इंतज़ार कर रहे होते हैं। सोशल मीडिया, व्हाट्सएप आज मानसिक तनाव से कैसे बचें इससे भरा हुआ है। और सही भी है। सुशांत सिंह राजपूत का इस तरह अपने जीवन का अंत कर लेना एक बार फ़िर से हमारे मानसिक स्वास्थ्य के प्रति नज़रिये पर प्रश्न लगता है।

हमलोग बाहरी दिखाई देने वाली बातों पर ध्यान देते हैं। अगर हमें सब सही लगता है तो हम मान लेते हैं कि सब ठीक ठाक है। ये उन लोगों केलिये ठीक है जो आपको ठीक से जानते नहीं। लेक़िन उन लोगों को भी समझ न आये जो आपके क़रीबी हैं तो या तो आप अच्छे कलाकार हैं या आपको जानने वाले बेवकूफ। अगर ऊपरी परत खुरच कर देखी जाये तो शायद अंदर की बात पता चले। लेक़िन हम लोग चूँकि मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कम जानते हैं, तो सेक्स के जैसे इस विषय पर बात नहीं करते या कतराते हैं। ये अलग बात है की सेक्स के विषय में हमें लगता है हम काफ़ी कुछ जानते हैं लेक़िन वहाँ भी ज्ञान आधा अधूरा ही रहता है। अगर हम किसी विषय के बारे में ग़लत क़िताब पढ़ेंगे तो हमारा ज्ञान सही कैसे होगा?

आज से क़रीब बीस वर्ष पहले मेरे एक रिशेतदार अपने काम के चलते या यूँ कहें अपने कुछ काम के न होने के बाद डिप्रेशन का शिकार हो गए। उस समय पहली बार ये शब्द सुना था लेक़िन बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं मिली (ये भी कोई बात करने का विषय है)। उन्होनें कई मानसिक रोग विशेषज्ञ को दिखाया और ठीक हो गए। लेकिन इस विषय पर बात करना मना नहीं था तो खुल कर बात भी नहीं हुई।

सरकारी घर के समीप एक मानसिक रोग विशेषज्ञ रहते थे। जानते हैं लोग उन्हें क्या कह कर बुलाते थे? पागलों का डॉक्टर। अब जब इस कार्य को कर रहे डॉक्टर को इज़्ज़त नहीं मिलती तो मरीजों को कैसे मिलेगी? और फ़िर हमारा समाज। यहाँ आप पर लेबल लग गया तो निकालना मुश्किल होता है। ऐसे में कौन ये कहेगा की उन्हें कोई मानसिक परेशानी/बीमारी है? दरअसल हमनें बीमारी के अंग भी निर्धारित कर लिये हैं। फलाँ, फलाँ अंग में हो तो ये बीमारी मानी जायेगी। आपका दिमाग़ इस लिस्ट में नहीं है न ही आपके गुप्तांग।

https://twitter.com/itsSSR/status/1196715220502110209

सुशांत सिंह राजपूत शायद एक या दो फिल्मों से जुड़े लोगों में से थे जिन्हें मैं ट्विटर पर फॉलो कर रहा था। उसके पीछे एकमात्र कारण ये था की वो बहुत ही अलग अलग विषय पर ट्वीट करते थे। इस पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री में शायद वो आख़िरी शक़्स थे जिनसे मुझे ऐसे किसी कदम की उम्मीद होगी। मेरे लिये और मेरे जैसे कइयों के लिये सुशांत सिंह की ट्वीट ही उनके बारे में बताती थी। लेक़िन जो उनके क़रीब थे उनको तो ये मालूम होगा की सुशांत सिंह किस परेशानी का सामना कर रहे थे।

उनके ट्वीट पढ़ कर लगता सुशांत सिंह ज़िन्दगी से भरे हुये हैं। उन्होंने अपनी एक 50 कामों की लिस्ट शेयर करी थी जो उन्होंने करने की ठानी थी। उसमें से कुछ तो उन्होंने कर भी लिये थे। उनकी रुचि फ़िल्म से इतर भी थी इसलिये भी उनके बारे में पढ़ना अच्छा लगता है। नहीं तो अक्सर जो जिस फील्ड में होता है उसी के बारे में बोलता रहता है।

चीजें अभी भी नहीं बदली हैं। फ़िल्म लव यू ज़िन्दगी में आलिया भट्ट अपने परिवार को जब बताती हैं अपनी मानसिक अवस्था के बारे में तब वो एक तरह का शॉक देती हैं अपने परिवार को। क़माल की बात ये है की आलिया भट्ट और दीपिका पादुकोण ने खुलकर अपने डिप्रेशन के बारे में बात करी लेक़िन सुशांत सिंह नहीं कर पाये।

फ़िल्म इंडस्ट्री से लोग थोक के भाव निकल कर आ रहे हैं जो इस बारे में टिप्पणी कर रहे हैं। लेक़िन अग़र सुशांत इतने लंबे समय से डिप्रेशन से लड़ रहे थे तो क्यों इंडस्ट्री ने उनका साथ नहीं दिया? क्यों परिवार ने भी उनका साथ नहीं दिया? अमूमन ऐसी कोई आ अवस्था हो तो परिवार को उसके साथ होना चाहिये था।

मेरा ये मानना है हम सब आज के इस दौर में डिप्रेशन से पीड़ित हैं। कइयों का ये बहुत ही शुरुआत के दौर में ही ख़त्म हो जाता है और कइयों का एडवांस स्तर का होता है। परिवार और दोस्तों के चलते ये आगे नहीं बढ़ता और व्यक्ति ठीक हो जाता है। जो आज बड़ी बड़ी बातें कर रहे हैं अगर वो पहले ही जग जाते तो शायद सुशांत हमारे बीच होते। मुझे दुख है सुशांत जैसे व्यक्ति जिन्होंने कई बुरे दिन भी देखे होंगे उन्होंने हार मानली।