सभी ने शोले देखी होगी ऐसी उम्मीद नहीं। ऐसा इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि जब राजेश खन्ना का निधन हुआ तो ये सवाल पूछा गया था की वो कौन हैं और उन्होंने क्या काम किया था।
शोले में जो जय, वीरू और बसंती के बीच तांगे में हो रहा था लगभग वैसा ही नज़ारा ट्रैन में मेरे सामने था। बस फ़र्क ये था कि बसंती तो थी लेकिन जय, वीरू की जगह ठाकुर साहब और मौसीजी थीं।
ट्रैन में जो सामने महिला और दोनों वरिष्ठ नागरिकों के बीच जो संवाद चल रहा था उससे मुझे युवती के परिवार के बारे में सब कुछ पता चल गया था। उनके पिताजी को क्या बीमारी थी और अगर आप उनका पुश्तैनी घर खरीदना चाहें तो उसके साथ आपको क्या क्या मिलेगा ये सब मेरी जानकारी में आ चुका था। उसके बाद तो लग रहा था कि अब आधार कार्ड और भीम एप्प का पासवर्ड शेयर होना ही बाकी है।
मगर ये नहीं हुआ। युवती ने अपनी किताब निकाल ली थी औऱ उनका सारा ध्यान उस पर ही था। बीच बीच में वो और वरिष्ठ महिला समसामयिक विषयों पर बात कर लेते। जैसे आजकल के बच्चों से कुछ कहना कितना मुश्किल है। वो कुछ सुनते ही नहीं है। बच्चे मतलब जिनकी उम्र पंद्रह तक हो। दोनों महिलायें अपने अपने अनुभव के आधार पर बात कर रही थीं। एक कि ख़ुद की बेटी थी और दूसरी की शायद पोता-पोती रहे हों।
बातों को बीच में रोकने का काम फ़ोन का होता। जबसे डाटा सस्ता हुआ है तो लोग फ़ोन कम वीडियो कॉल ज़्यादा करते हैं। युवती को किसी रिश्तेदार का फ़ोन आया तो बात हो रही है आज खाने में क्या बना है। इस पूरी यात्रा में मैंने लोगों द्वारा इस डेटा का सिर्फ़ और सिर्फ़ दुरुपयोग ही देखा। और चलती ट्रेन में बीच में नेटवर्क ठीक न मिले तो मोबाइल कंपनी को कोसना भी ज़रूरी है।
लौटते समय रेलवे के एक कर्मचारी हमारे डिब्बे में चढ़े तो लेक़िन उनका सारा काम ऐसे जैसे वो अपने घर के ड्राइंगरूम में बैठें हों। उनको किसी तीसरे व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति की दावत का न्यौता दिया था। लेकिन फ़िर उन्हें कोई जानकारी नहीं मिली प्रोग्राम के बारे में। आनेवाले दो घंटे हम सब ने उनको दूसरे और तीसरे व्यक्ति को लताड़ते हुये सुना। कैसे उन्होंने एक होटल से खाना मंगाया और कैसे सामने वाला उनसे माफ़ी मांगता रहा की वो उन्हें बता नहीं पाया की पार्टी आगे बढ़ा दी गयी है। एक बार तो इच्छा हुई की उनकी पार्टी का प्रबंध करवा दें। लेक़िन ये ख़्याल अपने तक ही रखा।
लोग इतनी जल्दी कैसे किसी से घुलमिल जाते हैं? क्या ये एक कला है? कैसे आप दस लोगों के बीच में ऐसे बात कर सकते हैं जैसे आप अपने घर पर बैठें हों? क्या घर में भी इन सज्जन की इतनी ही बुलंद आवाज़ रहती होगी जितनी ट्रैन में थी या वहाँ नहीं बोलने का मौका मिलने की भड़ास ट्रैन में निकल रही थी? लेकिन ऐसे ही चुप रहकर हम कैसे गुनाह को बढ़ावा देते हैं – इसका बयां कल।