भोपाल में पिताजी को जो सरकारी घर मिला था उसकी लोकेशन बड़ी कमाल की थी। हबीबगंज स्टेशन के बारे में आपको बता ही चुका हूँ। दो सिनेमाघर भी हमारे घर के पास ही हुआ करते थे ज्योति और सरगम। जो भी बड़ी नई फिल्म रिलीज़ होती वो इन दो में से किसी सिनेमा हॉल में ज़रूर लगती।
चूंकि मेरा घर इनके समीप था तो हर गुरुवार को मेरी ड्यूटी रहती टिकट खिड़की पर खड़े होने की। उन दिनों आज की बुकमाईशो जैसी सुविधा तो थी नहीं तो बस सुबह से यही एक काम रहता की लाइन में लगो और धक्के खाते हुए टिकट निकालो। टिकट न मिलने की स्थिति मे कई बार खाली हाथ भी लौटना पड़ता। उन दिनों टिकट खिड़की से टिकट लेकर फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का मज़ा आज की एडवांस बुकिंग में कहाँ। और उस दौरान हो रहे हंगामे की क्या बात।
महिलाओं की लाइन में भीड़ कम होती तो लड़के किसी भी अनजानी लड़की को बहन बना टिकट लेने की गुज़ारिश करते। उन लड़कियों के परिवार वाले इन लड़कों पर नज़र रखते के कोई बदतमीजी न करें।
मेरे कॉलेज जाने का रास्ता ज्योति टॉकीज से ही जाता था। नई फिल्म रिलीज़ होते ही मैं बाहर खड़ी भीड़ से अंदाज़ा लगता कि फ़िल्म हिट होगी या फ्लॉप। जब यश चोपड़ा की लम्हे रिलीज़ हुई तो सिनेमा हॉल खाली था। फ़िल्म देखी तो समझ में नहीं आया कि आखिर क्यों लोगों ने इसको पसंद नहीं किया। ऐसा ही कुछ हाल था अंदाज़ अपना अपना का। एक किस्सा शाहरुख खान की फ़िल्म डर का भी है लेकिन उसका ज़िक्र फिर कभी।
हमारे घर की एक ख़ासियत और थी। घर के सामने ही था गर्ल्स हायर सेकंडरी स्कूल, थोड़े आगे जाने पर वुमेन्स पॉलीटेक्निक और उसके बाद गर्ल्स कॉलेज। जिन दिनों विवाह के लिए लड़की ढूंढी जा रही थी उस समय दूर दराज से रिश्ते आ रहे थे। कुछ लोग मेरे दिल्ली और उसके बाद मुम्बई जाने के बाद ये मान चुके थे कि मैं लव मैरिज ही करूँगा। खैर ये हुआ नहीं और खोज चलती रही। लेकिन ये पता नहीं था कि मेरी भावी जीवन संगिनी कई वर्षों से मेरे घर के सामने से ही आ जा रही थीं।
इस तलाश को खत्म हुए आज पंद्रह वर्ष हों गये हैं। दिखता एक लंबा समय है लेकिन लगता है इस बात को अभी ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ।