मेरे नाम को लेकर मुझे सिर्फ परीक्षा के समय छोड़कर कभी कोई परेशानी नहीं हुई। परीक्षा में इसलिए कि मेरा नंबर पहले 10 में आता ही था और परीक्षक के लिए मैं जैसे उसकी प्रार्थना का उत्तर था। अलबत्ता लोगों को ज़रूर हैरानी होती की असीम नाम होते हुए भी मैं कड़ा, अंगूठी और कलावा बाँधे रहता था।
जब कभी किसी को मेरे मन्दिर या मस्जिद जाने का ख़याल आता तो पूछ लेते नाम का मतलब। मैं उन्हें कभी आसमान का हवाला देता जो असीमित है या जुआ खेलने की उस टेबल का जिसमे पैसे लगाने की कोई सीमा नहीं होती या फिर शादी के कार्ड का हवाला देता जहाँ अकसर मेरा ज़िक्र होता – परमात्मा की असीम कृपा से …। चूंकि अधिकतर ऐसे संशय अच्छे पढ़े लिखे लोगों की तरफ से व्यक्त किये जाते तो थोड़ी निराशा भी होती।
अच्छा मज़ेदार बात ये की दोनो तरफ के लोग मुझे अपनी बिरादरी का मानते। जब नौकरी के लिये एक संस्था जॉइन करी तो वहां के एक वरिष्ठ पत्रकार ने भी पूछ ही लिया – मौलाना हो क्या। चूँकि वसीम और असीम में खासा अंतर नाही दिखाई और सुनाई देता है, तो मेरी ये मुश्किल ताउम्र रहने वाली है। मेरे से ज़्यादा उनकी जो मेरे नाम के पीछे छिपे मेरे धर्म को ढूंढना चाहते हैं। अब अंगूठी, कड़ा पहनना छोड़ दिया तो मुश्किल और बढ़ जाती है।
ऐसे ही लोगों की परेशान बढ़ाने के लिये मैं अक्सर अपना पहला नाम ही इस्तेमाल करता हूँ। पिछले दिनों ऑफिस जाने के लिये गाड़ी में बैठने लगा तो ड्राइवर दुआ सलाम करने लगा। मैंने भी शुक्रिया कहते हुए उसका वहम बनाये रखा।
जब शादी की बात हुई और तय हुई तो मुझे तो अपने नाम को लेकर कोई सफाई नहीं देनी पड़ी लेकिन मेरी होने वाली जीवनसंगिनी की सहेलियों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनकी शादी असीम नाम के व्यक्ति से हो रही है। उनसे पूछा गया की लव मैरिज कर रही हो। ये सवाल उनसे आज भी पूछा जाता है।
आसीम, अशीम, आशिम या असीम किसी भी नाम से बुलायें लेकिन मेरे नाम के पीछे कुछ ढूंढने की कोशिश मत करें।